भारत में एक बार फिर जानलेवा निपाह वायरस का प्रकोप दिखाई दिया है. निपाह वायरस के मामले मिलने के बाद भारत में हाई अलर्ट जारी कर दिया गया है. इस घटना ने पारिस्थितिकी तंत्र के लिहाज़ से स्वास्थ्य सुरक्षा की गंभीरता को समझने की ज़रूत को सामने लाने का काम किया है. गौरतलब है कि वन हेल्थ रणनीति "एक एकीकृत और मिलेजुले नज़रिए पर ज़ोर देती है. इस रणनीति का मकसद मनुष्यों, जानवरों और पूरे इकोसिस्टम की सेहत के बीच टिकाऊ तरीक़े से सामंजस्य स्थापित करते हुए, उसमें सुधार करना है. इस रणनीति के अनुसार मनुष्यों, घरेलू एवं जंगली जानवरों, पेड़-पौधों और पूरे पर्यावरण (पारिस्थितिकी तंत्र सहित) की सेहत के बीच बेहद नज़दीकी संबंध है और पारस्परिक रूप से ये सब एक दूसरे पर बहुत ज़्यादा निर्भर हैं. वन हेल्थ दृष्टिकोण का उद्देश्य मनुष्यों, जानवरों और पर्यावरण के बीच परस्पर निर्भरता और जुड़ाव के महत्व को समझते हुए स्वास्थ्य सुरक्षा से संबंधित विभिन्न मुद्दों को एक साथ लेकर आगे बढ़ना है. ज़ाहिर है कि नीति निर्माता और तमाम अंतर्राष्ट्रीय संगठन वन हेल्थ दृष्टिकोण को प्रोत्साहन देने का काम करते हैं. लेकिन हक़ीक़त में वन हेल्थ के सिद्धांतों को ज़मीनी स्तर लागू करने में तमाम दिक़्क़तें है, या कहा जाए की इसकी नीतियों को व्यावहारिक रूप से अमल में लाने में बहुत खामियां हैं.
गौरतलब है कि कोविड-19 की उत्पत्ति को लेकर जो भी बातें कही जा रही थीं और अंदेशा जताया रहा था, तब उन पर भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया था. यही वजह कि भविष्य में ज़ूनोटिक बीमारियों के प्रसार को रोकने और एवं उनके प्रभाव क्षेत्र को सीमित करने के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंडे में न केवल वन-हेल्थ रणनीति को शामिल करने की आवश्यकता है, बल्कि बीमारी फैलाने वाले वायरसों के अलग-अलग प्रजातियों यानी मनुष्यों एवं जानवरों में फैलने की वजह जानने पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है.
वन हेल्थ रणनीति
कोविड-19 महामारी के प्रकोप और उसके रोकाथाम को लेकर किए गए अध्ययनों के मुताबिक़ इस माहामारी का मुक़ाबला करने के लिए वैश्विक स्तर पर जो भी स्वास्थ्य रणनीति अपनाई गई थी, उसमें कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने वाले क़दमों को प्राथमिकता दी गई थी. यानी कोविड-19 महामारी का प्रसार रोकने के लिए जहां एक तरफ मास्क लगाने और सामाजिक दूरी बनाने पर ज़ोर दिया गया था, वहीं कोरोना के प्रसार व संक्रमण को रोकने वाली वैक्सीनों और एंटीवायरल दवाओं के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित किया गया था. निस्संदेह रूप से कोरोना महामारी की रोकथाम के लिए किए गए यह सारे उपाय काफी फायदेमंद साबित हुए, लेकिन इनसे यह पता नहीं चल पाया की इस महामारी के फैलने की मूल वजहें क्या थीं, ज़ाहिर है कि इस महामारी की जड़ें कहीं न कहीं मानव, जानवरों और पर्यावरण के पारस्परिक मेलजोल में ही हैं. उदाहरण के तौर पर अगर प्रारंभिक चेतावनी और निगरानी प्रणालियों एवं इससे संबंधित अलग-अलग क्षेत्रों के हितधारकों ने मिलजुलकर कार्य किया होता, तो संभव है कि SARS-CoV2 वायरस कहां से और कैसे फैला, इसके बारे में पुख्त़ा जानकारी सामने आ सकती थी. गौरतलब है कि कोविड-19 की उत्पत्ति को लेकर जो भी बातें कही जा रही थीं और अंदेशा जताया रहा था, तब उन पर भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया था. यही वजह कि भविष्य में ज़ूनोटिक बीमारियों के प्रसार को रोकने और एवं उनके प्रभाव क्षेत्र को सीमित करने के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंडे में न केवल वन-हेल्थ रणनीति को शामिल करने की आवश्यकता है, बल्कि बीमारी फैलाने वाले वायरसों के अलग-अलग प्रजातियों यानी मनुष्यों एवं जानवरों में फैलने की वजह जानने पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है. इसे पैंडेमिक फंड यानी महामारी कोष के ज़रिए पूरा किया जा सकता है. भारत में महामारी कोष का मक़सद पशु स्वास्थ्य सुरक्षा को सशक्त करना है और इसके ज़रिए किसी महामारी से निपटने के लिए तैयारी व प्रतिक्रिया तंत्र को मज़बूती प्रदान की जाती है. इसके अलावा, ऐसा करते समय वन हेल्थ दृष्टिकोण को तवज्जो दी जाती है. ज़ाहिर है कि इस तरह की पहलों से न सिर्फ़ यह पता लगाने में मदद मिलेगी कि जानवरों से मनुष्यों में बीमारियों के संक्रमण के ख़तरों पर किस प्रकार लगाम लगाई जा सकती है, बल्कि उसके कारणों को जानने में भी मदद मिलेगी. यह भविष्य में सामने आने वाली एपिडैमिक और पेंडेमिक यानी सीमित क्षेत्र में फैलने वाली महामारी और व्यापक स्तर पर फैलने वाली महामारी से निपटने की तैयारियों की दिशा में बेहद अहम क़दम होगा.
निपाह वायरस फैलने की कहानी
वैश्विक स्तर पर जिस प्रकार की ज़ूनोटिक बीमारियों को लेकर गंभीर विचार-विमर्श चल रहा है, वर्तमान में केरल में फैला निपाह वायरस का प्रकोप ऐसी बीमारियों का सटीक उदाहरण है. यानी यह एक ऐसी ज़ूनोटिक बीमारी है, जिस पर काबू पाने के लिए और स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वन हेल्थ दृष्टिकोण को अपनाना बेहद ज़रूरी है. निपाह वायरस जानवरों से मनुष्यों में फैलने वाला एक बेहद घातक वायरस है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक़ निपाह वायरस वैश्विक स्तर पर एक बड़ा ख़तरा है, जो कि सीमित क्षेत्र में महामारी फैला सकता है. निपाह की चपेट में आने वाले लोगों में मृत्यु दर बहुत अधिक होती है और वर्तमान में इसकी कोई वैक्सीन भी उपलब्ध नहीं है. मनुष्यों में निपाह वायरस के संक्रमण का पहला मामला 1998 में मलेशिया में सामने आया था. उसके बाद से इसका प्रकोप लगातार बढ़ता गया है और दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया ऐसे इलाक़े बन चुके हैं, जो निपाह वायरस के संक्रमण के लिहाज़ से अत्यधिक संवेदनशील हैं. भारत में वर्ष 2001 के बाद से निपाह वायरस छह से ज़्यादा बार फैल चुका है, इनमें से ज़्यादातर मामले केरल राज्य में ही देखे गए हैं. निपाह वायरस का प्राकृतिक स्रोत फ्रूट बैट (जीनस पेटरोपस) यानी फल खाने वाली चमगादढ़ होती है और मनुष्यों में निपाह वायरस का संक्रमण आमतौर पर फ्रूट बैट की लार के संपर्क में आने से फैलता है. यानी मनुष्यों में निपाह वायरस फ्रूट बैट द्वारा खाए हुए फलों या उससे बने उत्पादों का सेवन करने से फैलता है, या फिर वायरस से संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने से फैलता है. हालांकि, मलेशिया और सिंगापुर में कुछ मामलों में सामने आया था कि मनुष्यों में निपाह वायरस का संक्रमण सुअरों से फैला था.
ज़्यादातर ज़ूनोटिक बीमारियों का उपचार देखा जाए तो बेहद सीमित है. इन बीमारियों के इलाज के लिए जो भी चिकित्सा उपलब्ध है, उससे संक्रमित मरीज़ का केवल आपातकालीन उपचार किया जा सकता है, यानी बीमारी को पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता है.
केरल में निपाह वायरस संक्रमण के मामले सामने आने के बाद इस बीमारी पर काबू पाने के लिए त्वरित कार्रवाई की गई और इस महामारी को रोकने में विश्व स्वास्थ्य संगठन से मिली जानकारी और फंडिंग ने अहम भूमिका निभाई. केरल में निपाह वायरस के प्रसार को रोकने के लिए सामाजिक दूरी, मास्क की अनिवार्यता और इसकी रोकथाम के लिए WHO द्वारा मिले दिशानिर्देश के मुताबिक़ पब्लिक हेल्थ सिस्टम को दुरुस्त किया गया. ज़ाहिर है कि इस प्रकार के उपायों से न केवल वायरस का मानव से मानव में संक्रमण रोका जा सकता है, बल्कि बड़ी आबादी में वायरस के प्रसार को रोकने में भी ये क़दम कारगर हैं. सिर्फ़ निपाह वायरस ही नहीं, बल्कि ज़्यादातर ज़ूनोटिक बीमारियों का उपचार देखा जाए तो बेहद सीमित है. इन बीमारियों के इलाज के लिए जो भी चिकित्सा उपलब्ध है, उससे संक्रमित मरीज़ का केवल आपातकालीन उपचार किया जा सकता है, यानी बीमारी को पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता है. कहने का मतलब है कि जिस प्रकार से निपाह वायरस की रोकथाम के लिए वैक्सीन और विशेष दवाओं का अभाव है, साथ ही बहुत जटिल परिस्थितियों में ही इलाज की सुविधा उपलब्ध है, ऐसे में बीमारी की समय से पहचान और रोकथाम ही इससे बचने का सबसे बड़ा उपाय है. निपाह वायरस बहुत तेज़ी के साथ फैलता है, ऐसे में इसका प्रकोप शुरू होने से पहले ही संक्रमण का प्रसार रोकने के उपाय ही सबसे कारगर हैं और इन उपायों को सख़्ती से अपनाए जाने की ज़रूरत है.
एक समावेशी रणनीति
अगर निपाह वायरस जैसी महामारी का पहले से ही पता लगाने के तरीक़ों की बात करें, तो उस लिहाज़ से एक आदर्श निगरानी प्रणाली बेहद फायदेमंद साबित हो सकती है. यानी एक ऐसी प्रणाली जिसके अंतर्गत निपाह वायरस के संक्रमण बहुल क्षेत्रों में वायरस फैलने की घटनाओं पर नज़र रखना और उसके स्रोत की पहचान शामिल है. साथ ही इसे फैलाने के लिए ज़िम्मेदार वाहकों एवं जानवरों से मानव आबादी में प्रसार करने वाले माध्यमों की पहचान किया जाना शामिल है. जानवरों से मनुष्यों में संक्रमण निपाह वायरस फैलने की सबसे बड़ी वजह है. इसके बावज़ूद स्वास्थ्य सुरक्षा की पूरी प्रक्रिया में शायद ही कभी वायरस के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार वजहों को पहचानने में कारगर तौर-तरीक़ों को शामिल किया जाता है.
अगर निपाह वायरस की बात करें, तो इसके संक्रमण को लेकर किए गए अध्ययनों से पता चला है कि मानवीय गतिविधियों की वजह से चमगादढ़ों के परिस्थितिकी तंत्र यानी जंगलों में उनके प्राकृतिक निवास स्थानों पर असर पड़ता है और इससे वायरस के जानवरों से मनुष्यों में संक्रमण की घटनाओं में बढ़ोतरी होती है. इन मानवीय गतिविधियों में वनों का काटा जाना, चमगादड़ों की बहुलता वाले इलाक़ों के आसपास मानव बस्तियों की स्थापना और बढ़ता शहरीकरण शामिल है. इन मानवीय गतिविधियों के चलते चमगादड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र में ख़ासा बदलाव हुआ है, जिसके चलते चमगादड़ों के रहने के स्थानों, उनकी खाने की आदतों और वायरस फैलाने के तरीक़ों में भी बदलाव देखा गया है. उदाहरण के तौर पर लगातार होने वाले भूमि क्षरण और वनों की कटाई ने ऐसी बस्तियों में बढ़ोतरी की है, जहां बहुतायत में मानव आबादी निवास करती है. इन सब वजहों के चलते चमगादड़ों का बार-बार मानव आबादी से सामना होने की संभावना बढ़ गई है. कुल मिलाकर देखा जाए तो इस प्रकार के घटनाक्रमों की वजह से चमगादड़ों का मानव आबादी में आना-जाना बढ़ जाता है और इससे लोगों में वायरस फैलने (संक्रमण के प्रसार) की संभावना बढ़ सकती है. इसके अलावा, जिस प्रकार से जंगलों में मानवीय गतिविधियां लगातार बढ़ रही हैं और विकास के लिए जंगलों को काटा जा रहा है, उनसे भी जानवरों से मनुष्यों में वायरस फैलने की घटनाएं बढ़ जाती हैं.
चमगादड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र और प्राकृतिक निवास स्थानों में बदलाव किया जा सकता है, जिस मौसम में वायरस का संक्रमण अधिक फैलता है, उसमें मनुष्यों का चमगादड़ों का संपर्क कम से कम करने के लिए क़दम उठाए जा सकते हैं, साथ ही कृषि के वैकल्पिक तरीक़ों को अपनाया जा सकता है.
ऐसे में अगर चमगादड़ों के प्रकृतिक निवासों की निगरानी के लिए वन हेल्थ नज़रिए को अमल में लाया जाता है, तो इससे फायदा हो सकता है. इस दृष्टिकोण के तहत चमगादड़ों के हैबिटेट पर नज़र रखने के लिए रिमोट सेंसिंग, जियोग्राफिक इन्फॉर्मेशन सिस्टम (GIS) और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उपकरणों का उपयोग किया जाता है. ज़ाहिर है कि इन तकनीक़ों के माध्यम से चमगादड़ों से मनुष्यों में निपाह वायरस फैलने की घटनाओं और वजहों की सटीक जानकारी उपलब्ध हो सकती है. यह जानकारी मिलने पर चमगादड़ों से निपाह वायरस के प्रसार को रोकने के लिए तमाम ज़रूरी क़दमों को उठाया जा सकता है. जैसे कि चमगादड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र और प्राकृतिक निवास स्थानों में बदलाव किया जा सकता है, जिस मौसम में वायरस का संक्रमण अधिक फैलता है, उसमें मनुष्यों का चमगादड़ों का संपर्क कम से कम करने के लिए क़दम उठाए जा सकते हैं, साथ ही कृषि के वैकल्पिक तरीक़ों को अपनाया जा सकता है. इन उपायों से भविष्य में निपाह वायरस का फैलाव रोकने में मदद मिल सकती है.
वन हेल्थ रणनीति के तहत उठाए गए क़दम
वैश्विक स्तर पर चार अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच रणनीतिक साझेदारी ने वन हेल्थ से जुड़ी पहलों को मज़बूत करने और आगे बढ़ाने का काम किया है. इन अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में संयुक्त राष्ट्र का खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO), संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP), विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और वर्ल्ड ऑर्गेनाइजेशन फॉर एनिमल हेल्थ (WOAH) शामिल हैं. इन चारों वैश्विक संगठनों ने मिलकर एक वन हेल्थ संयुक्त कार्य योजना की भी शुरुआत की है. इस कार्य योजना के अंतर्गत क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर पैदा होने वाली विभिन्न चुनौतियों का समाधान करने के लिए जो भी प्रतिक्रिया तंत्र मौज़ूद है, उसे मज़बूत किया जाता है और उसकी क्षमता को बढ़ाने का काम किया जाता है. इसी प्रकार से अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम (UK) ने वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए वन हेल्थ दृष्टिकोण को अपनाया है. इसके अंतर्गत अमेरिका का सेंटर फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) यानी रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र वैश्विक भागीदारों को जानवरों से मनुष्यों में वायरस से संक्रमण पर नज़र रखने के लिए समन्वित निगरानी सहायता उपलब्ध कराता है. जबकि यूके दवारा वन हेल्थ दृष्टिकोण के तहत किए जा रहे प्रयास एंटीमाइक्रोबियल यानी रोगाणुरोधी प्रतिरोध पर केंद्रित हैं, साथ ही भोजन, मनुष्यों, जानवरों और पर्यावरण के बीच वायरस के फैलाव की निगरानी पर केंद्रित हैं. क्षेत्रीय पड़ोसियों चीन और ब्राज़ील ने भी वन हेल्थ दृष्टिकोण के तहत इस दिशा में कोशिशें की है. चीन द्वारा जहां अपने बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के अंतर्गत स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे का विकास किया जा रहा है, वहीं ब्राज़ील द्वारा वेक्टर जनित बीमारियों यानी वायरस, परजीवी या बैक्टीरिया द्वारा फैलने वाली बीमारियों की निगरानी को लेकर कोशिशें की गई हैं. भारत द्वारा भी वन हेल्थ दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए कई क़दम उठाए गए हैं. हाल ही में भारत के नेशनल वन हेल्थ मिशन ने कार्यकारी समिति की पहली बैठक आयोजित की थी, जिसमें "एकीकृत रोग नियंत्रण" पर ख़ासा ज़ोर दिया गया था. इसके अलावा नेशनल सेंटर फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल के अंतर्गत दि सेंटर फॉर वन हेल्थ ज़ूनोटिक बीमारियों पर काबू पाने के लिए विभिन्न हितधारकों के साथ मिलकर सहयोग करने में जुटा हुआ है.
आगे का रास्ता
वर्तमान समय में जो भी ज़ूनोटिक संक्रामक बीमारियां सामने आ रही हैं, उनका मुक़ाबला करने के लिए एक ऐसे समग्र नज़रिए को अपनाए जाने की ज़रूरत है, जिसमें मानव-पशु-पारिस्थितिकी तंत्र के पारस्परिक संबंधों पर व्यापक तवज्जो दी गई हो. पशुओं से मानुष्यों में संक्रमित होने वाली बीमारियों पर लगाम लगाने के लिए इसकी रोकथाम से जुड़ी पहलें ही फिलहाल सबसे सुलभ और आसान उपाय हैं. लेकिन इन रोकथाम से जुड़े उपायों के लिए वन हेल्थ दृष्टिकोण को हेल्थ सिक्योरिटी एजेंडा के साथ जोड़ना बहुत ज़रूरी है, ताकि इसका पता लगाया जा सके कि मानव आबादी में वायरस संक्रमण के प्रसार के लिए कौन सी वजहें ज़िम्मेदार हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि लेख में पहले उल्लेख किए गए चारों अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, क्षेत्रीय पड़ोसी देश और भारत की राष्ट्रीय स्तर की परियोजनाओं के ज़रिए जो भी मिलेजुले प्रयास किए जा रहे हैं, वे वर्तमान समय में पैर पसारने वाली संक्रामक बीमारियों की रोकथाम के लिए वन हेल्थ दृष्टिकोण को सशक्त करने में कारगर सिद्ध हो सकते हैं.
ज़ूनोटिक बीमारियों के संक्रमण की रोकथाम के लिए अगर रियल टाइम जानकारी उपलब्ध होती है और उसे विभिन्न हितधारकों के साथ साझा किया जाता है, तो यह काफ़ी लाभदायक हो सकता है. इसी प्रकार से संक्रमण के कारकों की निगरानी और बीमारी के निवारण के लिए नई-नई प्रौद्योगिकियों का विकास भी इस दिशा में बेहद कारगर साबित होगा.
ज़ूनोटिक बीमारियों के संक्रमण की रोकथाम के लिए अगर रियल टाइम जानकारी उपलब्ध होती है और उसे विभिन्न हितधारकों के साथ साझा किया जाता है, तो यह काफ़ी लाभदायक हो सकता है. इसी प्रकार से संक्रमण के कारकों की निगरानी और बीमारी के निवारण के लिए नई-नई प्रौद्योगिकियों का विकास भी इस दिशा में बेहद कारगर साबित होगा. मौज़ूदा वक़्त में स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए ऐसे नज़रिए को अपनाए जाने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, जिसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के दौरान विपरीत हालातों से निपटने के लिए न केवल तेज़ गति से कार्रवाई करने वाला फ्रेमवर्क मौज़ूद हो, बल्कि किसी संक्रामक बीमारी पर लगाम लगाने के लिए रोकथाम संबंधित उपायों की तैयारी को लेकर व्यापक स्तर पर कोशिशें भी शामिल हों. भारत इस मौक़े का फायदा उठा सकता है और भविष्य में पैदा होने वाली स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने के लिए वन हेल्थ दृष्टिकोण के एकीकरण को प्रोत्साहन देकर इस क्षेत्र में अपना व्यापक योगदान दे सकता है.
लक्ष्मी रामाकृष्णन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं.
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