अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के हमलों की बिजली कौंध रही है. इसकी चकाचौंध से न केवल पश्चिमी देश सदमे में हैं, बल्कि वो पाकिस्तान भी हैरत में है,जो पिछले दो दशकों से तालिबान के जंग लड़ने का समर्थन और उसमें पूरी मदद करता आया है. एक मई से जब अमेरिकी सेनाएं अफ़ग़ानिस्तान से लौटने लगीं,तब से तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने क़ब्ज़े वाले ज़िलों की संख्या बढ़ाकर दोगुनी कर ली है. ये ज़िले बड़ी आसानी से तालिबान के क़ब्ज़े में आ गए, क्योंकि तालिबान की बढ़त का विरोध या तो आधे अधूरे मन से हो रहा है, या बिल्कुल ही नहीं हो रहा है. ऐसा लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान की राष्ट्रीय सेना तालिबान से लड़े बग़ैर ही, ताश के पत्तों की तरह बिखर रही है. एक के बाद एक मिलती हार, झटकों और पीछे हटने को मजबूर हुई अफ़ग़ानिस्तान की सरकारी सेना का पहले से ही गिरा मनोबल और भी टूट रहा है.
अफ़ग़ान सैनिक शर्मनाक ढंग से तालिबान के आगे आत्मसमर्पण कर रहे हैं. जिस रफ़्तार से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान अपने इलाक़े बढ़ा रहा है, उसके बाद अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने नए सिरे से इस बात का आकलन किया है कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के सेना वापस बुलाने के बाद वहां की सरकार छह महीने से ज़्यादा नहीं टिकेगी. पहले ये माना जा रहा था कि अफ़ग़ान नेशनल आर्मी अपने दम पर तालिबान को अगले कुछ वर्षों तक तो रोक कर रख सकेगी. लेकिन, आज की तारीख़ में कोई भी अफ़ग़ान सेना पर दांव नहीं लगाना चाहता है. कई लोग तो ये मानकर चल रहे हैं कि अमेरिकी सेना के हटने के कुछ हफ़्तों के भीतर ही अफ़ग़ान सरकार का पतन हो जाएगा.
अफ़ग़ानिस्तान में मौजूदा निज़ाम के पतन के सारे सबूत साफ़ दिख रहे हैं. सड़कें शहर छोड़कर भाग रहे लोगों से भरी पड़ी हैं,जो हालात पूरी तरह ख़राब होने से पहले सुरक्षित ठिकानों की ओर निकल जाना चाहते हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में मौजूदा निज़ाम के पतन के सारे सबूत साफ़ दिख रहे हैं. सड़कें शहर छोड़कर भाग रहे लोगों से भरी पड़ी हैं,जो हालात पूरी तरह ख़राब होने से पहले सुरक्षित ठिकानों की ओर निकल जाना चाहते हैं. ऐसा मंज़र तो तब भी देखने को नहीं मिला था, जब 1989 की शुरुआत में आख़िरी सोवियत सैनिकों ने अफ़ग़ानिस्तान छोड़ा था. तब की स्थिति आज से उलट थी. जब पश्चिमी देशों की उन उम्मीदों को झटका लगा था कि सोवियत सैनिकों के जाने के बाद विजेता ‘मुजाहिद्दीन’ के राजधानी काबुल में जश्न मनाते हुए घुसेंगे. तब नजीबुल्लाह सरकार ने क़रीब तीन साल तक मुजाहिद्दीन का सामना किया था और उसका पतन तब हुआ था, जब सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस, अफ़ग़ानिस्तान को आर्थिक सहायता और सैन्य मदद नहीं दे पाया था.
लोगों में डर, घबराहट और हताशा
हालांकि,इस बार घबराहट साफ़ दिख रही है. लोग ऐसा बर्ताव कर रहे हैं मानो वाक़ई आसमान फट पड़ने वाला हो. निराशा और हताशा को इस बात से और बढ़ावा मिल रहा है कि तालिबान न केवल दक्षिण और पूरब के अपने पारंपरिक गढ़ों पर फिर से क़ब्ज़ा कर रहे हैं,बल्कि वो देश के उत्तरी और पश्चिमी इलाक़ों में भी तेज़ी से जीत हासिल कर रहे हैं. उत्तर के कुछ सूबे तो कभी तालिबान विरोधी ताक़तों का गढ़ थे और तब भी वो वहां मज़बूत स्थिति में बने रहे थे, जब 1990 के दशक के आख़िरी वर्षों में तालिबान ने देश के क़रीब 90 प्रतिशत हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया था. लेकिन, आज देश के उत्तरी सूबे भी तालिबान से उसी तरह डरे हुए और उसके आगे कमज़ोर दिख रहे हैं,जैसे अफ़गानिस्तान का कोई और इलाक़ा.
ऐसा रातों रात नहीं हुआ.तालिबान जान-बूझकर उत्तर में अपने प्रभाव क्षेत्र का धीरे धीरे विस्तार कर रहे थे. कम से कम 2014 से तो ज़रूर उत्तरी सूबों में तालिबान की गतिविधियां बढ़ी हैं. ऐसा लगता है कि ये किसी बड़ी रणनीति का हिस्सा था और इस बार तालिबान 1990 के दशक की वो ग़लती नहीं दोहराना चाहते थे,जिसके तहत उन्होंने उत्तरी सूबों को सबसे अंत में निशाना बनाया था.ऐसा लगता है कि इस बार तालिबान ने पूरब और दक्षिण के अपने गढ़ों पर क़ब्ज़ा ज़माने के साथ–साथ पश्चिम और उत्तर में भी अपना विस्तार करने का फ़ैसला किया. अब ये बात एकदम साफ़ है कि तालिबान उस दिन का इंतज़ार कर रहे थे, जब अमेरिका अपनी सेनाएं वापस बुलाएगा और उसके बाद वो आख़िरी वार करेंगे. 2015 में कुंदूज़ के पतन से सरकारी सेनाओं को सबक़ लेना चाहिए था. लेकिन,तालिबान ने कुंदूज़ पर क़ब्ज़ा करने के बाद भी कुछ दिनों के भीतर उसे ख़ाली कर दिया. इससे अफ़ग़ान सेना की वो लापरवाही और बढ़ गई,जो शायद अब उसकी आदत बन चुकी है.
अमेरिका के कमांडर जनरल ऑस्टिन मिलर अभी भी युद्ध के समापन पर एक राजनीतिक समाधान की बातें कर रहे हैं और ये कह रहे हैं कि अगर हिंसा ऐसे ही बढ़ती रही तो अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध छिड़ जाएगा.
लापरवाही का आलम ये था कि जब 2019 में उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के हमले बढ़ रहे थे, तब भी अफ़ग़ान सेनाएं इसे बातचीत में अपना पक्ष मज़बूत करने के तालिबान के दांव के तौर पर देख रही थीं. तालिबान के तेज़ी से हो रहे विस्तार की अनदेखी के साथ–साथ अफ़ग़ान सेनाएं इस भरोसे में भी जी रही थीं कि अमेरिका कभी भी अफ़ग़ानिस्तान को नहीं छोड़ेगा. अफ़ग़ान सरकार का ये आकलन भी ग़लत था कि तालिबान 1990 के दशक के आख़िरी वर्षों की अपनी कामयाबी नहीं दोहरा सकेगा और पूरे देश पर अपना नियंत्रण नहीं स्थापित कर सकेगा. ऐसा नहीं है कि इस बात के लिए सिर्फ़ अफ़ग़ान सरकार दोषी है; इसमें अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्य,अमेरिका और उसके जनरल भी शामिल हैं, जो अफ़ग़ानिस्तान के हालात क़ाबू में होने की ग़लत तस्वीर पेश कर रहे थे,जो ज़मीनी हालात से बिल्कुल अलग थी.
यहां तक कि अभी भी, जब जंग अपने आख़िरी चरण में है, तो भी अमेरिका की तरफ़ से आने वाले बयान ख़्वाब सरीखे हैं: विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने हाल ही में कहा कि अमेरिका अभी इस बात का ‘आकलन’ कर रहा है कि क्या तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में संघर्ष ख़त्म करने को लेकर वाक़ई गंभीर है; अमेरिका के कमांडर जनरल ऑस्टिन मिलर अभी भी युद्ध के समापन पर एक राजनीतिक समाधान की बातें कर रहे हैं और ये कह रहे हैं कि अगर हिंसा ऐसे ही बढ़ती रही तो अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध छिड़ जाएगा. सच में? क़रीब दो दशक बाद अभी भी अमेरिका तालिबान के इरादे भांपने में लगा है? और, अमेरिका के कमांडर ये नहीं देख पा रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान पिछले एक दशक से भी ज़्यादा वक़्त से गृह–युद्ध का शिकार है और इसका राजनीतिक समाधान तलाशना एक मरीचिका के पीछे भागने जैसा है. आज जब तालिबान को संपूर्ण विजय प्राप्त करने का विश्वास पहले से कहीं ज़्यादा है, तो क्या वो राजनीतिक समाधान की कोशिश करेंगे?
क्या अफ़ग़ान नेशनल आर्मी तालिबान का मुक़ाबला कर सकता है?
ऐसा नहीं है कि अफ़ग़ान सेना लड़ नहीं सकती, या उसके पास लड़ने के लिए हथियार नहीं हैं; समस्या ये है कि अफ़ग़ान सेना के ज़्यादातर लोग लड़ने की इच्छाशक्ति गंवा चुके हैं. वरना,चाहे तादाद में हो या फिर हथियारों और प्रशिक्षण की बात हो, दोनों ही बातों में अफ़ग़ान सेना तालिबान से कहीं बेहतर स्थिति में है. कम से कम काग़ज़ पर तो ऐसा ही लगता है. अफ़ग़ान सैनिकों में तालिबान को पूरी तरह पछाड़ने की ताक़त भले न हो. लेकिन,उनके पास कम से कम इतनी क्षमता तो है कि वो तालिबान से लड़कर यथास्थिति बनाए रख सकें. कुछ विशेषज्ञ तो अभी भी यही मानते हैं कि अभी भी सब कुछ हाथ से नहीं निकला है. उनके मुताबिक़,‘दूर दराज़ के इलाक़ों के सैनिक अड्डों से रणनीतिक रूप से पीछे हटने का मतलब अफ़ग़ान सेना की हार बताया जा रहा है. अफ़ग़ान सेना तो इसलिए वहां से पीछे हटी, क्योंकि वहां रसद पहुंचाना मुश्किल होता और अब उन्हें अमेरिकी सेना की हवाई शक्ति का संरक्षण भी नहीं मिल रहा है.’
जब अफ़ग़ानिस्तान में कई सैनिक अड्डे होने के बावजूद, अमेरिका तालिबान को नहीं हरा सका,तो पाकिस्तान या मध्य एशिया के एक या दो सैन्य अड्डों से हमले करके अमेरिका कौन सी जीत हासिल कर लेगा?
सैन्य रणनीति के लिहाज़ से ये बात ठीक लगती है. लेकिन,इस समस्या के दो पहलू हैं: पहला तो रणनीतिक रूप से पीछे हटने से अफ़ग़ान सेना के बारे में ये राय बनी है कि वो तालिबान के हमलों के आगे ढेर हो रही है और एक के बाद एक उसके क़िले तालिबान के सामने शर्मनाक आत्मसमर्पण कर रहे हैं. इससे तालिबान को ज़बरदस्त मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल हो गई है; और दूसरा पहलू ये है कि सिर्फ़ अफ़ग़ान सैनिक सिर्फ़ दूर दराज़ से सैन्य अड्डों से पीछे नहीं हटे हैं, बल्कि उन्होंने सामरिक रूप से अहम कई ठिकाने, ज़िले और आबाद इलाक़े भी तालिबान के हाथों गंवा दिए हैं.
अफ़ग़ान सेना की लगातार हार के लिए अमेरिका से मिलने वाले हवाई सहयोग के बंद होने को ज़िम्मेदार ठहराना तर्क को बेवजह खींचने जैसा है. ऐसा तो है नहीं कि तालिबान के पास हवाई ताक़त है, और जब अफ़ग़ान सेना को अमेरिका से हवाई सहयोग मिल रहा था, तब भी वो तालिबान पर जीत नहीं हासिल कर रहे थे. इसका मतलब ये नहीं कि हवाई हमलों से ताक़त नहीं बढ़ती है. लेकिन,अगर हवाई हमले के सहयोग के बिना अफ़ग़ान सेनाएं अपने से कम प्रशिक्षित और कम हथियारों से लैस दुश्मन से ज़मीनी मुक़ाबला नहीं कर पा रही हैं, तो केवल हवाई हमलों से जंग का नतीजा नहीं बदला जा सकता है. इससे अमेरिका की सेना द्वारा अफ़ग़ान सेना के समर्थन में किए जाने वाले हमलों की उपयोगिता पर भी सवाल उठ रहे हैं.
सवाल तो ऐसे अभियानों की व्यवहारिकता और लागत पर भी उठ रहे हैं, जिनको पाकिस्तान में स्थित अड्डों या मध्य एशिया के देशों के अमेरिकी अड्डों के बजाय मध्य पूर्व के ठिकानों या अरब सागर में तैनात अमेरिकी एयरक्राफ्ट कैरियर से चलाए जाने की योजना बनाई जा रही है. इन ठिकानों से लड़ाकू विमानों के पहुंचने मे लगने वाला समय और सटीक निशाना लगाने के लिए मिलने वाले बेहद कम समय और अधिक लागत को देखते हुए, ऐसे हवाई हमलों की उपयोगिता पर शक तो पैदा होता है. वैसे तो उम्मीद कम ही है.फिर भी अगर अमेरिका को पाकिस्तान या मध्य एशिया में एक या दो सैनिक अड्डे मिल भी जाते हैं,तो इससे कुछ भी नहीं बदलेगा.जब अफ़ग़ानिस्तान में कई सैनिक अड्डे होने के बावजूद, अमेरिका तालिबान को नहीं हरा सका,तो पाकिस्तान या मध्य एशिया के एक या दो सैन्य अड्डों से हमले करके अमेरिका कौन सी जीत हासिल कर लेगा?
सच्चाई से मुंह मोड़ना मुश्किल
इन हालात में दीवार पर लिखी इबारत साफ़ दिख रही है. जो सच्चाई सबको दिख रही है,उससे इनकार कर देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. ये बातें करना बेमानी है कि, असली लड़ाई तो तब होगी जब तालिबान काबुल के क़रीब पहुंच जाएंगे. सच तो ये है कि तालिबान बड़ी तेज़ी से काबुल की घेरेबंदी कर रहे हैं. हालांकि अब तक उन्होंने किसी बड़े शहर पर तो क़ब्ज़ा नहीं किया है. पर, इसका ये मतलब नहीं है कि वो ऐसा कर नहीं सकते. ऐसा लगता है कि तालिबान इस रणनीति पर काम कर रहे हैं कि वो चारों तरफ़ से शिकंजा कसते जाएं, जिससे बड़े शहर और क़स्बे बिना लड़े ख़ुद ही आत्मसमर्पण कर दें. लंबे समय तक चलने वाले गृह युद्ध की आशंका या उम्मीद और तालिबान से कड़े मुक़ाबले की अपेक्षा करना एक ख़्वाब देखने से ज़्यादा कुछ नहीं है.
हालात इतने ख़राब हैं कि अब अफ़ग़ान सरकार स्थानीय स्तर पर लश्कर तैयार करने की कोशिश कर रही है. स्थानीय सरदार और समुदाय ख़ुद ही अपनी अपनी टुकड़ियां बनाकर तालिबान का मुक़ाबला करने की कोशिश कर रहे हैं. एक तरह से ये अफ़ग़ान सेना में बिल्कुल भी भरोसा न होने की गवाही है.
अभी भी तालिबान के ख़िलाफ़ जीत हासिल करने की कुछ उम्मीद बची हुई है. अफ़ग़ान सेनाएं कम से कम कुछ महीनों तक तो तालिबान से लोहा ले सकती हैं. इसके लिए कुछ अहम मोर्चों पर जीता हासिल करनी होगी, जिससे सरकारी सेना का हौसला बढ़े. लेकिन, ऐसी जीत दिलाने वाला कमांडर या जनरल कहां है? ऐसा लगता नहीं है कि अफ़ग़ान सेना का हौसला बढ़ाने का कोई गंभीर प्रयास हो रहा है, जिससे वो फिर से एकजुट होकर कुछ ठिकानों पर मोर्चेबंदी मज़बूत करें और तालिबान का मुक़ाबला करें. हाथ से निकल चुके इलाक़ों पर दोबारा क़ब्ज़ा करने की कुछ कोशिशें तो हुई हैं. लेकिन, कुछ छोटी–मोटी लड़ाइयों के अलावा मुक़ाबले का कोई ख़ास प्रयास देखने को नहीं मिला है. अफ़ग़ान सेना को ज़्यादातर हार का ही सामना करना पड़ा है.
हालात इतने ख़राब हैं कि अब अफ़ग़ान सरकार स्थानीय स्तर पर लश्कर तैयार करने की कोशिश कर रही है. स्थानीय सरदार और समुदाय ख़ुद ही अपनी अपनी टुकड़ियां बनाकर तालिबान का मुक़ाबला करने की कोशिश कर रहे हैं. एक तरह से ये अफ़ग़ान सेना में बिल्कुल भी भरोसा न होने की गवाही है. वहीं दूसरी तरफ़,ये अफ़ग़ान सरकार की जो थोड़ी बहुत विश्वसनीयता है, उस पर भी सवालिया निशान लगाती है. सबसे ख़राब बात तो ये है कि स्थानीय लड़ाकों की मदद से तालिबान पर जीत की जो कोशिश की जा रही है, उसमें कामयाबी मिलने की कोई उम्मीद नहीं है. जब दुनिया की सबसे ताक़तवर सेना को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है, और जिस राष्ट्रीय सेना का ढोल पीटा जा रहा था, वो ताश के पत्तों की तरह बिखर गई है, तो ऐसे में स्थानीय समुदायों के लश्कर से तालिबान को रोक पाने की क्या ही उम्मीद की जाए?
अफ़ग़ानिस्तान एक भयंकर तबाही की ओर बढ़ रहा है. भारत जैसे देश अगर कुछ कर सकते हैं, तो वो पहले आने वाले समय में अफ़ग़ान सरकार के पतन की हक़ीक़त को स्वीकार करें, और फिर ख़ुद को आतंकवाद की उस लहर से निपटने के लिए तैयार करें, जो आने वाले दिनों में उठनी तय है.
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