Author : K. V. Kesavan

Published on Aug 28, 2020 Updated 0 Hours ago

जब अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध अपने शिखर पर था, तब भी जापान ने चीन के साथ अपना व्यापार जारी रखा था. जापान ने इस नीति को ‘सेइकी बुनरी’ का नाम दिया था. यानी राजनीति और अर्थव्यवस्था को अलग अलग रखना.

कोविड-19 के बाद के हालात में, चीन को लेकर दुविधा में जापान

नए कोरोना वायरस का प्रकोप फैलने के बाद से चीन और जापान के संबंधों में कई गंभीर क़िस्म के उतार चढ़ाव देखने को मिले हैं. दोनों ही देशों के लिए एक बड़ी निराशाजनक बात ये हुई थी कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का अप्रैल में होने वाला जापान का दौरा रद्द हो गया था. इस दौरे की को लेकर दोनों ही देशों में काफ़ी उम्मीदें लगाई गई थीं. कई बरस तक दोनों देशों के रिश्तों में उठा-पटक चलती रही थी. लंबे समय के बाद जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अप्रैल महीने में अपने देश का राजकीय दौरा करने के लिए राज़ी कर सके थे. चीन के सर्वोच्च नेताओं द्वारा जापान का राजकीय दौरा एक दशक में सिर्फ़ एक बार ही होता रहा है. ख़ुद राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी जापान का अगला राजकीय दौरा एक दशक बाद ही कर पाते. दोनों देशों के संबंधों के इन हालात को देखते हुए, चीन और जापान दोनों ही इस दौरे के माध्यम से द्विपक्षीय संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करना चाहते थे. क्योंकि अभी पूरे क्षेत्र के सामरिक हालात बेहद संवेदनशील हैं. इसलिए, जिनपिंग के जापान दौरे से चीन और जापान की साझेदारी के एक नए युग में प्रवेश करने की उम्मीद की जा रही थी.

लेकिन, ऐसा हो न सका. कोविड-19 की महामारी की भयंकर मार को देखते हुए शिंजो आबे और शी जिनपिंग ने आपसी सहमति से ये दौरा फिलहाल टालने पर रज़ामंदी जताई. हालांकि, दोनों नेताओं ने ये इशारा नहीं दिया कि चीन के राष्ट्रपति के जापान दौरे की अगली तारीख़ क्या होगी. एक तरह से देखें, तो शी जिनपिंग का जापान का दौरा, कोविड-19 की महामारी का शिकार हो गया.

जब द्विपक्षीय व्यापार और महामारी से निपटने में विश्व स्वास्थ्य संगठन के तौर तरीक़ों को लेकर, अमेरिका और चीन के संबंध ख़राब होते गए, तब जापान इन दोनों देशों की आपसी लड़ाई के बीच में फंस गया.

इसके बावजूद, नए कोरोना वायरस का प्रकोप फैलने के शुरुआती दिनों में दोनों ही देश, आपसी सहयोग के रास्ते पर चलते नज़र आए थे. चीन ने अपने यहां फंसे सैकड़ों जापानी नागरिकों को निकालने की जापान की सरकार को इजाज़त दे दी थी. इसके अलावा चीन ने मास्क, गाउन और यहां तक कि दवाओं जैसे ज़रूरी सामान की आपूर्ति भी की थी. इन सामानों की उस समय जापान को सख़्त आवश्यकता थी. लेकिन, जल्द ही चीन और जापान के बीच ये सहयोग की भावना क्षीण हो गई. जब द्विपक्षीय व्यापार और महामारी से निपटने में विश्व स्वास्थ्य संगठन के तौर तरीक़ों को लेकर, अमेरिका और चीन के संबंध ख़राब होते गए, तब जापान इन दोनों देशों की आपसी लड़ाई के बीच में फंस गया. ख़ासतौर से जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कोरोना वायरस का प्रकोप फैलाने में चीन की भूमिका की कड़ी आलोचना की, तो जापान के विदेश नीति नियंताओं के लिए स्थिति बेहद असहज हो गई.

इसके अलावा ताइवान के मुद्दे पर भी चीन और जापान के संबंध काफ़ी बिगड़ गए. जापान की सत्ताधारी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (LDP) के अंदर कई ऐसे समूह थे, जिन्होंने साई इंग-वेन के ताइवान की राष्ट्रपति चुने जाने पर अपनी ख़ुशी छुपाने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं की. यही नहीं, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे और जापान के मुख्य कैबिनेट सचिव योशीहिदे सुगा ने अपील की कि, ताइवान को भी विश्व स्वास्थ्य संगठन की बैठकों में पर्यवेक्षक के तौर पर शामिल होने दिया जाना चाहिए. अब ये कोई कहने की बात नहीं है कि चीन ने जापान के इस रवैये पर कड़ी आपत्ति जताई.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के जापान दौरे को रद्द करने की घोषणा औपचारिक रूप से पांच मार्च को की गई थी. ठीक उसी दिन, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे काउंसिल ऑफ इन्वेस्टमेंट्स फॉर द फ्यूचर की बैठक को संबोधित कर रहे थे. इस बैठक में शिंजो आबे ने इस बात पर चिंता जताई कि जापान की आपूर्ति श्रृंखलाएं चीन पर कुछ ज़्यादा ही निर्भर हैं. ये बात कोरोना वायरस का प्रकोप फैलने के शुरुआती दिनों में और उजागर हुई थी, जब जापान में कई ज़रूरी सामानों जैसे कि, फेस मास्क, मेडिकल गाउन और दवाओं की भारी किल्लत हो गई थी. इसकी वजह ये थी कि चीन से इन सामानों की जापान को आपूर्ति ठप हो गई थी

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि जापान को 70 से 80 प्रतिशत मेडिकल सुरक्षात्मक उपकरण जैसे कि गाउन और मास्क की आपूर्ति चीन से ही होती है. जापान के निर्माता ऐसी हालत में नहीं हैं कि वो स्वदेश में ही इन सामानों का उत्पादन बढ़ा सकें. ये आश्चर्यजनक ही है कि शार्प जैसी बिजली कंपनियों ने ख़ुद से आगे आकर कहा कि वो अब इन सामानों का निर्माण करेंगी. इन हालात को देखते हुए ही जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने कहा था कि उनके देश को अब अपनी सुरक्षा के लिए नई नीति बनानी होगी. जिससे कि वो इन उत्पादों का निर्माण अपने यहां कर सकें. इससे चीन पर उनकी निर्भरता कम होगी. इस क्षेत्र के अलावा अन्य उत्पादों, जो इस वर्ग में नहीं आते हैं, उनके बारे में शिंजो आबे ने कहा कि वो चाहेंगे कि इन सामानों के लिए जापान केवल चीन पर निर्भर न रह कर चाहेगा कि आसियान देशों का समूह, इनकी आपूर्ति जापान को करे.

जल्द ही शिंजो आबे की सरकार ने दो ऐसे नीतिगत निर्णय लिए, जिनका मक़सद ज़रूरी उत्पादों का निर्माण जापान में ही किया जा सके. पहले तो सात अप्रैल को जापान ने अपने यहां कि कंपनियों के लिए 2.3 अरब डॉलर के एक पैकेज का एलान किया. जिससे कि ये कंपनियां चीन में स्थित अपने उत्पादन केंद्रों को जापान में स्थानांतरित करें. इसके साथ साथ इन कंपनियों को इस बात के लिए भी प्रोत्साहित किया गया कि वो दक्षिणी पूर्वी एशिया में अपने अन्य उत्पादन केंद्रों का विकास करें.

दूसरा फ़ैसला जो जापान की सरकार ने अप्रैल महीने में ही लिया, वो ये था कि देश की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (NSC) ने एक विशेष आर्थिक टीम की स्थापना की. इस टीम को, वर्ष 2020 के अंत तक देश की आर्थिक सुरक्षा के लिए नई नीति बनाने का काम सौंपा गया. ऐसा पहली बार हुआ था कि जापान के अर्थव्यवस्था, व्यापार और उद्योग मंत्रालय (METI) के एक बड़े अधिकारी को भी इस टीम में शामिल किया गया था. इसका मक़सद साफ़ था-देश की आर्थिक सुरक्षा के लिए आवश्यक हितों का ध्यान रखना.

कुछ ख़बरों के अनुसार, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे द्वारा उठाए गए इन क़दमों के कारण चीन की सरकार के उच्च अधिकारियों ने काफ़ी चिंता जताई थी. ये वो अधिकारी थे, जो जापान की कंपनियों से उनकी भविष्य की योजनाओं के बारे में बातचीत कर रहे थे. क्या शिंजो आबे की नीतियों का ये नतीजा होगा कि जापान की कंपनियों की चीन से भगदड़ मच जाएगी?

ये पहली बार नहीं है, जब चीन में धंधा कर रही जापान की कंपनियों से कहा गया है कि वो अपने निर्माण केंद्रों को वापस अपने देश में स्थापित करें. चीन और जापान के आर्थिक संबंध काफ़ी पुराने हैं, पेचीदा और व्यापक हैं.

ये पहली बार नहीं है, जब चीन में धंधा कर रही जापान की कंपनियों से कहा गया है कि वो अपने निर्माण केंद्रों को वापस अपने देश में स्थापित करें. चीन और जापान के आर्थिक संबंध काफ़ी पुराने हैं, पेचीदा और व्यापक हैं. और इनसे दोनों ही देशों के तमाम हित जुड़े हुए हैं. यहां तक कि  जब अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध अपने शिखर पर था, तब भी जापान ने चीन के साथ अपना व्यापार जारी रखा था. जापान ने इस नीति को ‘सेइकी बुनरी’ का नाम दिया था. यानी राजनीति और अर्थव्यवस्था को अलग अलग रखना.

आज की तारीख़ में चीन, जापान का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार देश है. जापान की हज़ारों कंपनियां, चीन में अपना कारोबार कर रही हैं. चीन के साथ जापान के संबंधों में उन्होंने कई उतार चढ़ाव देखे हैं. इसके अलावा, केवल 2.3 अरब डॉलर के मामूली से बजट से ये अपेक्षा करना असंभव सा है कि जापान की कंपनियां, चीन में अपनी दुकान बंद करके स्वदेश लौट जाएंगी. फिर भी, शिंजो आबे की ये पहल भले ही नई न हो, मगर है बेहद महत्वपूर्ण. क्योंकि इसके माध्यम से चीन को इस बात का पर्याप्त अवसर मिल जाएगा कि वो जापान की वास्तविक संवेदनाओं को समझ सके. प्रोफ़ेसर शिन कावाशिमा ने हालात को बहुत ही शानदार तरीक़े से बयां किया, जब उन्होंने कहा कि, ‘जापान और चीन के बीच आपूर्ति श्रृंखलाएं सुरक्षित बनी रहेंगी. जापान की कंपनियों के लिए चीन का बाज़ार बेहद महत्वपूर्ण है. जापान, चीन की अर्थव्यवस्था से ख़ुद को पूरी तरह से अलग क़तई नहीं करने जा रहा है.’

चीन को लेकर जापान की दुविधा का निचोड़ ये है कि उसे अमेरिका और चीन के बीच एक मुश्किल संतुलन बनाना है. अपनी सुरक्षा की ज़रूरतों के लिए जापान, अमेरिका पर निर्भर है. तो चीन से उसे व्यापक आर्थिक लाभ होता है.

चीन को लेकर जापान की दुविधा का निचोड़ ये है कि उसे अमेरिका और चीन के बीच एक मुश्किल संतुलन बनाना है. अपनी सुरक्षा की ज़रूरतों के लिए जापान, अमेरिका पर निर्भर है. तो चीन से उसे व्यापक आर्थिक लाभ होता है. जापान की इस दुविधा का सबूत हॉन्गकॉन्ग से मिलता है. ब्रिटेन का पूर्व उपनिवेश, हॉन्गकॉन्ग में जापान की 1400 कंपनियां कारोबार करती हैं. जापान के कुल व्यापार का 2.5 प्रतिशत अकेले हॉन्गकॉन्ग से होता है. 28 मई को जापान ने अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के साथ मिलकर, हॉन्गकॉन्ग के लिए चीन के नए राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून की आलोचना करने वाला बयान जारी करने से मना कर दिया था. जापान ने ये कहते हुए अपनी स्थिति स्पष्ट की कि चीन की आलोचना करने के लिए बेहतर मंच G-7 देशों का होगा. लेकिन, बहुत से लोगों ने जापान के इस क़दम को अमेरिका और चीन के बीच संतुलन बनाने की कोशिश के तौर पर ही देखा था.

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