Author : Kabir Taneja

Published on Aug 28, 2020 Updated 0 Hours ago

मध्यम दर्जे की ताक़तें आज चीन और अमेरिका के बीच संघर्ष में बीच का रास्ता चुनने को तरज़ीह दे रही हैं. अगर भारत, मध्यम और कम अवधि के दौरान, चीन से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय आम सहमति को प्रमुख मोर्चे के तौर पर तैयार करना चाहता है, तो उसकी राह में ये बीच का रास्ता एक बड़ी चुनौती बन सकता है.

21वीं सदी में दुनिया का हर देश गढ़ रहा है अपने माक़ूल गुट-निरपेक्षता की परिभाषा

आज अमेरिका और इसके बनाई संस्थाएं पतन की ओर अग्रसर हैं. और पिछले चार वर्षों में इस अमेरिकी व्यवस्था को इतना तगड़ा झटका लग चुका है, कि इन्हें उबरने में कई बरस लग जाएंगे. बहुत से आकांक्षी और लोकतांत्रिक देशों ने सुरक्षा और समृद्धि का जो ढांचा अमेरिका की सरपरस्ती में विकसित किया था, उसमें संरचनात्मक परिवर्तन आने तय हैं. इससे दुनिया भर में सुरक्षा और विदेश नीति को नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है.

चीन अपनी पूरी ताक़त से विश्व मंच पर अपनी ख़ास जगह बनाने में जुटा है. जिससे कि वो विश्व व्यवस्था को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल सके. फिर चाहे वो संयुक्त राष्ट्र हो या फिर अंतरराष्ट्रीय व्यापार की व्यवस्था.

विश्व व्यवस्था की इन नई सच्चाइयों का सामना जिस सबसे बड़ी हक़ीक़त से हो रहा है, वो है चीन का एक बड़ी ताक़त के रूप में उभरना. आज चीन, सिर्फ़ एशिया की बड़ी ताक़त ही नहीं, बल्कि विश्व मंच पर एक महाशक्ति के रूप में उभरकर सामने आ रहा है. चीन के इस उभार को हम उसके हालिया आक्रामक बर्ताव के तौर पर सामने देख रहे हैं. चीन अपनी पूरी ताक़त से विश्व मंच पर अपनी ख़ास जगह बनाने में जुटा है. जिससे कि वो विश्व व्यवस्था को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल सके. फिर चाहे वो संयुक्त राष्ट्र हो या फिर अंतरराष्ट्रीय व्यापार की व्यवस्था. आज चीन चाहता है कि वो अपने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) जैसी व्यवस्थाओं से मौजूदा आर्थिक विश्व व्यवस्था को पूरी तरह बदलकर अपने अनुसार ढाल ले.

हाल ही में भारत के साथ विवादित और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर संघर्ष के दौरान चीन द्वारा जिस तरह से लद्दाख में हिमालय की चोटियों पर बीस भारतीय सैनिकों की हत्या की गई, उससे ये बिल्कुल साफ़ हो गया है कि चीन की बढ़ती सैनिक शक्ति को अब उसका राजनीतिक नेतृत्व इस्तेमाल करने को आतुर दिखता है. ताकि, अपनी सैनिक ताक़त के बूते पर वो अन्य देशों के साथ अपनी सीमा का अपने मन मुताबिक़ निर्धारण कर सके. अपने हिसाब से उन देशों को ढाल सके. चीन की ये मंशा अब बिल्कुल साफ़ हो गई है कि वो सैनिक ताक़त के बल पर ज़मीनी हक़ीक़त में परिवर्तन लाने को बेक़रार है. लद्दाख में सीमा पर चल रहा संकट कोई अपवाद नहीं है. बल्कि, चीन के सीमा निर्धारण की व्यापक नीति का ही एक हिस्सा है. चीन ने ताइवान की सीमा में बार बार घुसपैठ करके उसके साथ विवाद को फिर से ज़िंदा कर दिया है. इसके अलावा वो दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देशों जैसे कि फिलीपींस और वियतनाम के साथ भी तमाम सीमा विवादों में उलझा हुआ है. ख़ासतौर से दक्षिणी चीन सागर पर आधिपत्य को लेकर तो चीन ने बेहद आक्रामक रुख़ अपनाया हुआ है. अपना प्रभाव साउथ चाइना सी में बढ़ाने के लिए चीन, इस समुद्री क्षेत्र में आर्टिफ़िशियल द्वीप बनाकर उन पर अपने सैनिक अड्डे स्थापित कर रहा है.

यूरोपीय संघ के विदेशी मामलों के प्रमुख जोसेप बॉरेल ने लद्दाख संकट के कुछ ही दिनों बाद कहा था कि चीन से दुनिया को कोई सैनिक ख़तरा नहीं है. बॉरेल ने कहा कि चीन के बारे में यूरोपीय संघ की राय हक़ीक़त पर आधारित है.

गलवान घाटी में हुए हिंसक संघर्ष को देखते हुए, भारत अगर ये चाहता है कि वो चीन के ख़िलाफ़ कोई महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय आम सहमति बना ले, तो ये काम बेहद मुश्किल होगा. यूरोप इस चुनौती की बेहतरीन मिसाल है. जब भी चीन की बात आती है, तो यूरोपीय संघ एक सुर से नहीं बोलता. बल्कि अलग-अलग देश अपनी अलग-अलग राय जताते हैं. चीन के मसले पर यूरोपीय संघ की राय कई बार अपने सदस्य देशों से ही जुदा होती है. यूरोपीय संघ के विदेशी मामलों के प्रमुख जोसेप बॉरेल ने लद्दाख संकट के कुछ ही दिनों बाद कहा था कि चीन से दुनिया को कोई सैनिक ख़तरा नहीं है. बॉरेल ने कहा कि चीन के बारे में यूरोपीय संघ की राय हक़ीक़त पर आधारित है. लेकिन, जोसेप बॉरेल की चीन के बारे में जो राय है, वो यूरोपीय संघ के नज़रिए से तो वास्तविक स्थिति के क़रीब लगती है. अगर यूरोपीय महाद्वीप की सीमाओं की बात करें, तो वाक़ई सैनिक रूप से यूरोपीय संघ को चीन से कोई ख़तरा नहीं है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल के कुछ महीनों के दौरान, कोविड-19 महामारी समेत कई विवादित मसलों पर बेहद आक्रामक रुख़ अपनाया हुआ है. जबकि ये महामारी ख़ुद चीन से ही फैलनी शुरू हुई थी. अब अगर यूरोप उन विवादित मुद्दों से ख़ुद को दूर रखना चाहता है, तो यूरोप के लिए बेहतर होगा कि वो चीन के साथ विवाद में उलझे देशों या ख़ुद चीन के साथ खड़ा होने के बजाय गुट निरपेक्ष बना रहे. लद्दाख को लेकर यूरोपीय संघ की आधिकारिक प्रतिक्रिया भी बेहद संयमित और उम्मीद के मुताबिक़ तटस्थता भरी थी. भारत को ऐसी तटस्थता का ख़ुद का बहुत अच्छा अनुभल रहा है. क्योंकि, अक्सर वैश्विक मसलों पर जब भी भारत से सकारात्कम क़दम उठाने की अपेक्षा की गई है, तो भारत ने विवादों में पड़ने के बजाय तटस्थ रहने को ही तरज़ीह दी है.

लेकिन, जोसेप बॉरेल ने चीन और भारत के विवाद में जैसी तटस्थता का संकेत दिया है, वो कोई अपवाद नहीं है. ख़ुद यूरोपीय संघ के भीतर इटली जैसे देशों ने चीन के विस्तारवादी BRI प्रोजेक्ट में शामिल होने पर रज़ामंदी दी है. वहीं, चीन ने यूरोपीय देशों के साथ मिलकर 17+1 के नाम से एक अलग समूह बना लिया है. जिसमें यूरोपीय संघ के कुल सदस्य देशों से संख्या में केवल दस देश ही कम हैं. ये चीन की कूटनीति की कामयाबी की शानदार मिसाल है. इसी बात को आगे बढ़ाएं, तो हाल ही में जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन में G-7 देशों की बैठक में शामिल होने के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के निमंत्रण को ठुकरा दिया था. मर्केल के इस रुख़ को कोविड-19 का नतीजा कहा गया था. लेकिन, ऐसी भी ख़बरें हैं कि एंजेला मर्केल इस बैठक में जाने से इसलिए कतरा रही थीं. क्योंकि ये माना जा रहा था कि G-7 की ये बैठक चीन विरोधी मंच के तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली थी, ख़ासतौर से व्यापार के मोर्चे पर.

जोसेप बॉरेल ने चीन और भारत के विवाद में जैसी तटस्थता का संकेत दिया है, वो कोई अपवाद नहीं है. ख़ुद यूरोपीय संघ के भीतर इटली जैसे देशों ने चीन के विस्तारवादी BRI प्रोजेक्ट में शामिल होने पर रज़ामंदी दी है. वहीं, चीन ने यूरोपीय देशों के साथ मिलकर 17+1 के नाम से एक अलग समूह बना लिया है.

इस बीच, रूस जिसे भारत अपना भरोसेमंद साथी मानता था, वो भी चीन के साथ भारत के विवाद के बीच में पड़ने से ख़ुद को बचा रहा है. रूस का रुख़ ठीक वैसा ही है, जैसा यूरोपीय संघ ने चीन के बारे में अपनाया हुआ है. रूस, चीन के साथ अपने नज़दीकी संबंधों को काफ़ी अहमियत देता है. रूस का ये मानना है कि वो चीन के साथ अच्छे संबंध बनाकर अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व को चुनौती दे सकता है. लेकिन, चीन और रूस के संबंध में अब चीन का वज़न बढ़ता जा रहा है इसकी वजह चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति है, जो रूस के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है. कुछ ख़बरों के मुताबिक़, रूस और चीन के संबंध का पलड़ा चीन की तरफ़ झुकने से रोकने के लिए रूस के प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री सर्गेई करागानोव ने हाल ही में एक नीतिगत पत्र देश की विदेश नीति बनाने वालों के सामने पेश किया था. इसमें सर्गेई करागानोव ने ये तर्क रखा था कि रूस को अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते संघर्ष में गुट-निरपेक्षता का रास्ता अपनाना चाहिए.

हालांकि, वास्तविक नियंत्रण रेखा के विवाद को केवल चीन और भारत ही आपस में बातचीत और कूटनीति से सुलझा सकते हैं. लेकिन, इसे लेकर जो वैश्विक प्रतिक्रियाएं आई हैं, वो चौंकाती नहीं हैं. मध्यम दर्ज़े की ताक़त रखने वाले देश आज अमेरिका के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था को बदलना चाहते हैं. ख़ासतौर से एशिया के ताक़तवर देश जैसे कि जापान और ऑस्ट्रेलिया. ये सभी देश, चीन की दादागीरी को चुनौती देने के लिए भारत को आगे करना चाहते हैं. जिससे भारत के लिए इस क्षेत्र में चुनौती और बढ़ने का अंदेशा है. जहां तक, अमेरिका और चीन के बीच टकराव की बात है, तो मध्यम दर्जे के अधिकतर देश बीच का रास्ता अपनाने पर ज़ोर दे रहे हैं. इससे भारत की चुनौती और बढ़ सकती है. ख़ासतौर से तब और जब भारत, कम और मध्यम अवधि के दौरान चीन की बढ़ती ताक़त को चुनौती देने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहमति पर आधारित एक गठबंधन बनाने की कोशिश करेगा.

अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में गुट-निरपेक्षता के इस नए दौर का केंद्र मुख्य रूप से पश्चिमी देशों में होगा. जबकि, पहले गुट निरपेक्ष आंदोलन का केंद्र विकासशील देशों में था. तब भारत, उस समय के युगोस्लाविया और मिस्र जैसे देशों के साथ मिल कर एक औपचारिक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था को विकसित करने की कोशिश कर रहा था.

अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में गुट-निरपेक्षता के इस नए दौर का केंद्र मुख्य रूप से पश्चिमी देशों में होगा. जबकि, पहले गुट निरपेक्ष आंदोलन का केंद्र विकासशील देशों में था. तब भारत, उस समय के युगोस्लाविया और मिस्र जैसे देशों के साथ मिल कर एक औपचारिक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था को विकसित करने की कोशिश कर रहा था. ये उन देशों की एक ऐसी विश्व व्यवस्था थी, जो ऊपरी तौर पर न तो अमेरिका के साथ थे और न ही सोवियत संघ के पाले में खड़े होते थे. आज भारत आत्मविश्वास से भरपूर मध्यम दर्जे की ताक़त वाला देश बन चुका है. ऐसे में भारत के सामने चुनौती इस बात की है कि वो एशिया में अपने जैसे विचार रखने वाले देशों को अपने साथ जोड़े. और इन गठबंधनों की मदद से अलग-अलग मोर्चों पर चीन से निपटने की कोशिश करे. फिर चाहे वो सैन्य ताक़त के बल पर हो. या फिर शायद इससे भी महत्वपूर्ण ये है कि भारत, चीन से आर्थिक तौर पर निपटने की कोशिश करे. भारत, एक दौर में गुट-निरपेक्षता का गढ़ रहा है. पर, शायद आज की अव्यवस्था वाली दुनिया के दौर में दुनिया के तमाम देश, चीन के मामले पर उसे भी गुट-निरपेक्षता वाली वही पुरानी दवा पिलाने की कोशिश करें, जिसका समय बीत चुका है. ऐसे में भारत को चाहिए कि वो ज़मीनी सच्चाई को बदलने को बेक़रार चीन से निपटने के लिए ख़ुद को पूरी तरह तैयार कर ले. क्योंकि, आज 2020 में और शायद आगे के लिए भी,  विश्व के अधिकतर देश अपनी-अपनी गुट-निरपेक्षता की नीतियां तैयार करने में जुटे हुए हैं.

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