राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारे के विकास का खाका पारंपरिक आर्थिक रूपरेखा इस बुनियाद पर आधारित है कि अर्थव्यवस्था एक सुचारू तंत्र है जो सदैव स्थिर और संतुलन वाली अवस्था में बनी रहती है. लेकिन अर्थ तंत्र का जटिल ढांचा इस आदर्श व्यवस्था को झुठलाता है. इसके मुताबिक अर्थतंत्र सदैव परिवर्तनशील रहने वाली प्रक्रिया है जो सतत रूप से खुद को नए-नए रूपों में ढालती चलती है. बहरहाल अर्थव्यवस्था में हरेक पड़ाव अपने अतीत का ही परिणाम होता है लिहाजा आर्थिक यात्रा को निर्देशित करने वाली नीतियां अतीत में अपनाए गए मार्गों पर निर्भर करती हैं. इस अर्थ में आर्थिक निर्णय और सुधार कोई फ़र्राटा रेस नहीं बल्कि बाधा दौड़ हैं. इस सिलसिले में एक राष्ट्र की आर्थिक यात्रा के विभन्न चरणों में अलग-अलग प्रकार के आर्थिक सुधारों की ज़रूरत पड़ती है ताकि सुधार की अगली प्रक्रिया को सही आकार मिल सके. भारत की विकास यात्रा के मौजूदा चरण में औद्योगिक गलियारों के विकास से अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों की क्षमता का पूरा लाभ उठाने का अवसर मिलेगा. इतना ही नहीं इससे पर्यावरण के अनुकूल और सामाजिक समानता के साथ विकास को बढ़ावा मिलेगा. अगर ठीक से अमल में लाया जाए तो औद्योगिक गलियारे से अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं मसलन बुनियादी ढांचे के निर्माण, कौशल विकास, रोज़गार, आय में बढ़ोतरी, श्रम की उत्पादकता, कारोबारी प्रतिस्पर्धा और व्यापार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
औद्योगिक गलियारा एक ऐसा आर्थिक पारिस्थितक तंत्र है जो परिवहन गलियारे के इर्द गिर्द खड़ा किया जाता है. इस तंत्र के ज़रिए दो बड़े आर्थिक केंद्रों को जोड़ा जाता है. इन दो केंद्रों की आर्थिक गतिविधियों के संचालन लिए ये परिवहन गलियारा एक तंत्रिका केंद्र की तरह काम करता है. परिवहन गलियारे के साथ-साथ अच्छी तरह से डिज़ाइन किए गए औद्योगिक गलियारे के अंतर्गत औद्योगिक उत्पादन के कई समूह संचालित होते हैं जो क्षेत्रीय और वैश्विक मांगों को पूरा करने का काम करते हैं. इसके अलावा शहरी केंद्र भी होते हैं जो न्यायपूर्ण विकास का प्रसार करते हैं. एक औद्योगिक गलियारे के मुख्य लक्ष्य निम्नलिखित हैं:
- विनिर्माण क्षेत्र में निवेश को आकर्षित करना और रोज़गार के अवसर पैदा करना
- जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र के योगदान को बढ़ाना
- न्यायपूर्ण औद्योगिकरण और शहरीकरण को बढ़ावा देना
- श्रम की उत्पादकता और आय का स्तर बढ़ाना
ऐसे औद्योगिक गलियारों की आर्थिक ताक़त को अब तक के अनुभवों से समझा और परखा गया है. 500 मील लंबे क्षेत्र में फैला बॉस-वॉश आर्थिक गलियारा दुनिया का सबसे लोकप्रिय आर्थिक गलियारा है. ये बॉस्टन से वॉशिंगटन तक फैला हुआ है और न्यूयॉर्क, बाल्टीमोर और फिलाडेल्फिया से होकर गुज़रता है. अकेले इस गलियारे में 3.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर का आर्थिक उत्पादन होता है. ये जर्मनी की जीडीपी के बराबर है और अमेरिकी की कुल जीडीपी का 19-20 फ़ीसदी है. अमेरिका के सबसे छोटे डेनवर-बोल्डर औद्योगिक गलियारे की भी बात करें तो ये भी 256 अरब डॉलर के बराबर की आर्थिक गतिविधियों का केंद्र है जो कि फिनलैंड और आयरलैंड जैसे उच्च-आय वाले देशों के सकल आर्थिक उत्पाद से भी ज़्यादा है. अमेरिका के 12 औद्योगिक गलियारों का कुल उत्पाद 13.2 अमेरिकी डॉलर के बराबर है जो चीन की कुल जीडीपी का 86.8 फ़ीसदी
औद्योगिक गलियारों के मामले में भारत का सफ़र 2006 से शुरू हुआ. इसी साल भारत ने जापान के साथ एक समझौता पत्र पर दस्तख़त किए थे. इसके तहत दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे (डीएमआईसी) के विकास पर सहमति हुई थी. इस गलियारे का मकसद भारत के दो महानगरों को जोड़ना है और ये देश के छह राज्यों से होकर गुज़रता है. जब डीएमआईसी बनकर तैयार हो जाएगा तो इससे ख़ासकर विनिर्माण क्षेत्र में करीब 25 लाख लोगों को रोज़गार मिलने की उम्मीद है. रोज़गार के ये अवसर ज़्यादातर विनिर्माण क्षेत्र में पैदा होंगे. डीएमआईसी के विकास की प्रेरणा जापान के टोकियाडो गलियारे से मिली है. जापान का ये 1200 किमी लंबा औद्योगिक गलियारा ओसाका से टोक्यो तक फैला है और अकेले इस गलियारे का योगदान जापान की कुल जीडीपी में 80 फ़ीसदी के बराबर है.
फ़िलहाल भारत सरकार ने 11 औद्योगिक गलियारों के निर्माण को अपनी मंज़ूरी दी है. इनकी फंडिग नेशनल इंफ़्रास्ट्रक्चर कॉरिडोर डेवलेपमेंट काउंसिल के ज़रिए होगी और यही संस्था इन्हें अमली जामा पहनाएगी. देश के बेहद अहम आर्थिक केंद्रों को जोड़ने वाले इन गलियारों के पास भारत को दुनिया में विनिर्माण क्षेत्र का एक बड़ा खिलाड़ी बनाने की क्षमता होगी
निश्चित तौर पर विभन्न आर्थिक केंद्रों को जोड़ने वाले औद्योगिक गलियारों के विकास के बारे में प्रतिबद्धता दिखाना एक स्वागतयोग्य कदम है. अब भारत सरकार के सामने असल चुनौती ये सुनिश्चित करने की है कि अपने ऊपर होने वाले भारी निवेश के ज़रिए ये गलियारे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक प्रगति के वाहक बनें. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर औद्योगिक गलियारे के विकास का खाका बनाए जाने की ज़रूरत है. इसके तहत ये सुनिश्चित करना होगा कि विभिन्न औद्योगिक गलियारे आपस में तालमेल बिठाते हए एक दूसरे के पूरक की तरह काम करें. इस खाके में निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है:
- उद्योगों की तुलनात्मक लाभ वाली स्थिति
- समूहों का विभेद
- समूहों का शहरीकरण
- बुनियादी ढांचे का विकास
- गलियारे के हिसाब से मध्यम और लघु उद्योगों के लिए अपने पारिस्थितिकी तंत्र का विकास
- गलियारे के हिसाब से कौशल विकास के कार्यक्रम
- भूमि और श्रम सुधार
उद्योगों का तुलनात्मक लाभ:औद्योगिक गलियारों की कामयाबी मज़बूत सापेक्षिक तुलनात्मक लाभ वाले उद्योगों के विकास पर निर्भर करती है. हालांकि, किसी ख़ास भूभाग में कई वस्तुओं का उत्पादन संभव है लेकिन उस इलाक़े को कुछ चुनिंदा किस्म की औद्योगिक वस्तुओं के निर्माण में ही सापेक्षिक लाभ हासिल होता है. अगर कोई देश उन वस्तुओं के निर्माण पर ज़ोर लगाता है जिनपर उसे कोई सापेक्षिक तुलनात्मक लाभ प्राप्त नहीं हो तो वो देश उन वस्तुओं के निर्माण पर हासिल होने वाले मुनाफ़े से महरूम हो जाता है जिनपर उसे वास्तव में सापेक्षिक तुलनात्मक लाभ हासिल है. यही आर्थिक नियम एक देश के भीतर भी विभिन्न इलाक़ों पर लागू होता है. ओद्योगिक गलियारों में संचालित विभिन्न औद्योगिक समूहों को वैश्विक और क्षेत्रीय मूल्य श्रृंखला से जोड़े जाने के लिए ये आवश्यक है कि इन क्षेत्रों में कार्यरत उद्योगों के पास अपने उत्पाद-विशेष के लिए सापेक्षिक तुलनात्मक लाभ वाली स्थितियां हों. भारत को निम्नलिखित क्षेत्रों में सापेक्षिक तुलनात्मक लाभ हासिल है, लिहाजा यहां केवल इन्हीं क्षेत्रों से जुड़े विनिर्माण उद्योगों के विकास पर ज़ोर दिया जाना चाहिए:
- ऑटो सेक्टर और ऑटो में इस्तेमाल होने वाले कल-पुर्जे
- केमिकल और पेट्रोकेमिकल
- इलेक्ट्रॉनिक्स
- इंजीनियरिंग से जुड़े उपकरण
- फैब्रिकेटेड मैटल
- खाद्य प्रसंस्करण
- फर्नीचर और लकड़ियां
- रत्न और आभूषण
- शीशे
- चमड़े से बने उत्पाद
- चिकित्सा उपकरण
- माइनिंग, मिनरल्स और मेटालर्जी
- काग़ज़ और काग़ज़ से बने उत्पाद
- दवाइयां
- प्रिंटिंग और मीडिया
- रबर
- वस्त्र
- परिवहन से जुड़े सामान
भारत के भीतर भी कुछ खास इलाक़ों में ही इन उद्योगों को सापेक्षिक तुलनात्मक लाभ हासिल है. मिसाल के तौर पर भले ही तमिलनाडु और कर्नाटक औद्योगिक विकास के लिहाज से काफी आगे हैं लेकिन फिर भी वो रत्न और आभूषण उद्योग में गुजरात से टक्कर नहीं ले पाएंगे. इसी तरह भारत के बाकी राज्य ऑटो और ऑटो के कलपुर्जों के निर्माण में कर्नाटक और तमिलनाडु से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते. ज़रूरत है कि भारत में औद्योगिक गलियारे का खाका बड़ी सूझबूझ के साथ खींचा जाए. इसके तहत जिस भूभाग को जिस औद्योगिक गतिविधि में सापेक्षिक तुलनात्मक लाभ हासिल हो वहां उसी के हिसाब से मददगार बुनियादी ढांचा खड़ा किया जाना चाहिए. यहां ये ध्यान रखना होगा कि प्रतिस्पर्धी संघवाद के नाम पर राज्यों में इस तरह की होड़ न मचे जिससे वैश्विक स्तर पर देश को मिला सापेक्षिक तुलनात्मक लाभ धूमिल होने लगे. बैकवर्ड और फॉरवर्ड लिकेंज को इस तरीके से सृजित किया जाना चाहिए ताकि भारत को मिलने वाले तुलनात्मक लाभ को पूरी तरह इस्तेमाल में लाकर वैश्विक पटल पर मिल रहे अवसरों का फ़ायदा उठाया जा सके.
समूहों की विशेषज्ञता: हालांकि औद्योगिक गलियारा जिस भी ज़िले से गुज़रता है कमोबेश उन सभी के पास विनिर्माण समूह बनने की क्षमता होती है लेकिन ये क्षमता सभी ज़िलों में समान रूप से नहीं होती. लिहाज़ा किन समूहों का विकास करना है उनका चयन निम्नलिखित पात्रता के आधार पर किया जाना चाहिए:
- मौजूदा फॉरवर्ड और बैकवर्ड लिंकेज (उद्योगों के प्रकार पर निर्भर)
- नए औद्योगिक समूहों के विकास के लिए ज़मीन की उपलब्धता
- कौशल की उपलब्धता
- औद्योगिक समूहों का स्तर
- शहरी केंद्रों की निकटता और परिवहन सुविधाओं और प्रवेशद्वारों जैसे बंदरगाहों तक पहुंच
- रसद आपूर्ति की कनेक्टिविटी
- पानी और ऊर्जा की उपलब्धता
ऊपर दी गई पात्रताओं को कमोबेश पूरा करने के आधार पर इन समूहों को उच्च-उत्पाद समूहों, मध्यम-उत्पाद समूहों और निम्न उत्पाद-समूहों में बांटा जा सकता है और इसके हिसाब से प्राथमिकता-आधारित निवेश की नीति अपनाई जा सकती है.
समूहों का शहरीकरण: समूहों के लिए मौलिक उद्योगों की पहचान के बाद शहरीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए एक समेकित रणनीति बनाना और लागू करना ज़रूरी है. जिन ज़िलों में ये समूह बने हैं उन ज़िलों को भी शहरी केंद्रों के रूप मे विकसित किया जाना चाहिए. इन्हें इस तरह से तैयार किया जाना चाहिए कि वो नज़दीक के बाकी ज़िलों से भी श्रमिकों को रोज़गार दे पाएं. क्षेत्रीय स्तर पर शहरीकरण और शहरों के प्रसार से भारत में प्रवासी मज़दूरों से जुड़े संकट का भी हल निकल सकता है. सरकार की स्मार्ट सिटी योजना और शहरीकरण से जुड़े दूसरे कार्यक्रमों के ज़रिए इन ज़िलों में शहरीकरण के प्रसार पर बारीकी से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है.
बुनियादी ढांचे का विकास: वैसे तो इसके लिए परिवहन गलियारा रीढ़ की तरह काम करेगा लेकिन इन समूहों को दूरदराज़ के भूभागों और बाहरी प्रवेश क्षेत्रों से जोड़ता ग्रिड नेटवर्क विकसित करना भी बेहद ज़रूरी है. मसलन ओडिशा सरकार बीजू एक्सप्रेसवे कॉरिडोर का विकास कर रही है. इसके ज़रिए राज्य की पश्चिमी सीमा पर स्थित सबसे पिछड़े ज़िलों को जोड़ा जाएगा. इनमें से कई ज़िले नक्सली हिंसा से प्रभावित हैं. इनमें से कई ज़िलों तक रेल की सुविधा नहीं है, और तो और अभी हाल तक यहां मोबाइल कनेक्टिविटी की भी सुविधा नहीं थी. वैसे तो इस गलियारे की सफलता समूहों के विभेदन और समूह के अंदर सही प्रकार के उद्योगों के चयन पर निर्भर करेगी लेकिन अगर इस गलियारे को पूर्वी आर्थिक गलियारे (जो ओडिशा से होकर गुज़रता है और विशाखापट्टनम और कोलकाता को जोड़ता है) और पारादीप और विशाखापट्टनम बंदरगाहों से जोड़ दिया जाए तो इसकी अहमियत और बढ़ जाएगी. बुनियादी ढांचे के विकास के उपायों के तौर पर इन समूहों की अपनी ख़ास ज़रूरतों, उनके प्रतिस्पर्धी लाभ और उनके लिए मददगार बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देना बेहद ज़रूरी है.
गलियारा-केंद्रित मध्यम और लघु उद्योगों के पारिस्थितिकी तंत्र का पोषण: काम को आसान बनाने वाले बुनियादी ढांचे में निवेश और विकास के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारों को इज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस को बढ़ावा देने पर भी ध्यान देना होगा. इसके लिए इन गलियारों में एमएसएमई-केंद्रित आपूर्ति पारिस्थितिकी तंत्र के विकास पर बल देना होगा. औद्योगिक गलियारे की समूची गतिविधि के साथ मध्यम और लघु उद्योगों का एकीकरण औद्योगिक उत्पादन के विस्तार के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है. इससे रोज़गार के अवसर बढ़ाने में मदद मिलेगी, श्रम की उत्पादकता और मज़दूरी भी बढ़ेगी . ये तीनों न्यायपूर्ण विकास के अहम घटक हैं. इसकी मदद से लाखों लोगों को ग़रीबी से उबारकर मध्यम आय वर्ग में लाने में भी मदद मिलेगी.
गलियारा-केंद्रित कौशल विकास की रूपरेखा: निजी क्षेत्र में निवेश के निर्णयों को प्रभावित करने वाले तत्वों में कौशल-क्षमता युक्त मानव संसाधन की उपलब्धता एक प्रमुख कारक है. सभी औद्योगिक गलियारों के पास निश्चित तौर पर अपने कौशल का एजेंडा होना चाहिए जो मानव संसाधन को लेकर उनकी अल्पकालिक, मध्यकालिक और दीर्घकालिक ज़रूरतों के अनुरूप हों. इस खाके को उद्योग जगत और शिक्षा जगत के साथ मिलकर तैयार किया जाना चाहिए. इसके तहत उस विशेष इलाक़े के लिए सार्थक कौशल लाभ पहुंचाने का लक्ष्य रखा जाना चाहिए.
भूमि और भूमि सुधार: इन औद्योगिक गलियारों को इस हिसाब से डिज़ाइन किया गया है कि इनका अधिकतर हिस्सा ग्रामीण या अद्धशहरी क्षेत्रों से होकर गुज़रता है. इन इलाक़ों में ज़्यादातर ज़मीनें खेतिहर हैं. इन क्षेत्रों में विनिर्माण उद्योगों की स्थापना के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जाना ज़रूरी है और यहां की स्थानीय जनसंख्या के लिए रोज़गार सृजन आवश्यक है. इन क्षेत्रों में विनिर्माण उद्योगों की स्थापना के लिए ज़रूरी निवेश को आकर्षित करने के लिए भूमि अधिग्रहण और श्रम से जुड़े नियम-क़ायदों को प्रगतिशील और निवेशकों के लिए सहज बनाना होगा. इसके लिए इन क्षेत्रों में नीतिगत स्तर पर ढांचागत सुधार करने होंगे.
भारतीय अर्थव्यवस्था की यात्रा बहुत ही असामान्य रही है. क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के हिसाब से ये दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है लेकिन प्रति व्यक्ति जीडीपी के हिसाब से भारतीय अर्थव्यवस्था का स्थान दुनिया में 142वां है. ये आंकड़े विश्व मुद्रा कोष की इकोनॉमिक आउटलुक डेटा के हैं. भारत की सबसे समृद्ध 10 प्रतिशत जनसंख्या के पास राष्ट्रीय धन-संपदा का 77 फ़ीसदी हिस्सा है. 2017 में देश में पैदा हुई कुल दौलत का 73 प्रतिशत हिस्सा सबसे अमीर एक फीसदी आबादी के हिस्से आया था. वहीं दूसरी ओर इसी अवधि में देश की सबसे निर्धन 6 करोड़ 70 लाख की आबादी की आमदनी में सिर्फ़ एक फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई थी. ये असमानता सिर्फ़ सरकारी लोककल्याणकारी उपायों से दूर नहीं की जा सकती. इसके लिए उन लाखों लोगों को, जो फिलहाल अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में नहीं हैं, धन-सृजन और मूल्यवर्धन प्रक्रिया का हिस्सा बनाना पड़ेगा. यहीं ये आर्थिक गलियारे रामबाण का काम कर सकते हैं. एक औद्योगिक गलियारे की ताक़त है अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों को एकजुट कर गति दे पाने की उसकी काबिलियत और न्यायपूर्ण सतत विकास के लिए ज़रूरी कारकों को संस्थागत रूप दे पाने की उसकी क्षमता. लिहाजा भारत को राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास से जुड़ी एक ऐसी रूपरेखा की ज़रूरत है जो न सिर्फ़ हाल के समय में इस दिशा में किए गए अच्छे प्रयासों पर आधारित हों बल्कि जो अगले 25 वर्षों का नज़रिया भी प्रस्तुत करते हों. इस सिलसिले में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा आपसी तालमेल से अपनी रणनीतियों और उनको अमली जामा पहनाने के उपायों के बारे में स्पष्टता होनी चाहिए ताकि भारत को वैश्विक स्तर पर विनिर्माण क्षेत्र का बड़ा केंद्र बनाने के एकीकृत राष्ट्रीय लक्ष्य की प्राप्ति हो सके.
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