Published on Feb 24, 2021 Updated 0 Hours ago

बेरोज़गारी पर किसी तरह की मदद में महिलाओं को निश्चित रूप से शामिल किया जाना चाहिए जिनका अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों की संख्य़ा में बड़ा हिस्सा है.

कोविड-19 महामारी का दुनिया की तमाम महिलाओं पर असर!

2015 में मिलेनियम डेवलपमेंट गोल की जगह 17 टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी) अपनाए गए ताकि विकास के एजेंडे को आगे ले जाया जा सके और सदस्य देशों के लिए बेहतर भविष्य सुनिश्चित किया जाए. इनमें से कई एसडीजी लैंगिक मुद्दों को लेकर संवेदनशील हैं, लेकिन 17 एसडीजी में से 5 एसडीजी महिलाओं के मुद्दों से सीधे तौर पर जुड़े हैं. इनका लक्ष्य लिंग के आधार पर वेतन में अंतर को हटाकर और महिलाओं के जीवन स्तर को बढ़ाकर उनकी हालत में सुधार करना है. लेकिन मौजूदा महामारी ने एसडीजी 5 को लेकर दर्ज की गई प्रगति को कुछ हद तक पलट दिया है.

ये अच्छी तरह माना जाता है कि पुरुष प्रधान समाज में सदियों तक महिलाओं का दमन हुआ है, ख़ासतौर पर विकासशील देशों में. लिंग पर आधारित सामाजिक और सांस्कृतिक नियमों ने महिलाओं को लाचार किया और कई बार महिलाओं को पितृसत्ता में सक्रिय भागीदार और उसे लागू करने वाला बनाया. ग्रामीण इलाक़ों में प्रचलित सामाजिक-सांस्कृतिक नियमों ने महिलाओं को शिक्षा हासिल करने से रोका. नतीजतन जीवन के कई क्षेत्रों में महिलाओं की नुमाइंदगी ज़रूरत से कम है. श्रम बाज़ार में पुरुषों के 78% के मुक़ाबले 55% महिलाओं (15-64 वर्ष की उम्र) की भागीदारी हैं. आर्थिक अधिकार और सामाजिक पद्धतियों में बदलाव की वजह से महिलाएं उन स्थापित नियमों पर सवाल उठा रही हैं जो सदियों से उनके ऊपर थोपे गए हैं. लेकिन इसके बावजूद हालात जल्दी नहीं बदलने वाले हैं.

वैश्विक स्तर पर आर्थिक भागीदारी में लैंगिक समानता हासिल करने में 257 वर्ष लगेंगे. 2019 की रिपोर्ट में इसे 202 वर्ष बताया गया था. इस तरह कोविड-19 महामारी ने वास्तव में महिलाओं के लिए हालत को और बिगाड़ा है.

ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 के मुताबिक़ राजनीतिक नुमाइंदगी में लैंगिक अंतर को पाटने में 95 वर्ष लगेंगे. जब बात आर्थिक भागीदारी की आती है तो हालात और भी ज़्यादा ख़राब हैं. रिपोर्ट के मुताबिक़ वैश्विक स्तर पर आर्थिक भागीदारी में लैंगिक समानता हासिल करने में 257 वर्ष लगेंगे. 2019 की रिपोर्ट में इसे 202 वर्ष बताया गया था. इस तरह कोविड-19 महामारी ने वास्तव में महिलाओं के लिए हालत को और बिगाड़ा है. महामारी के दौरान महिलाओं से अलग तरह का सलूक किया गया. स्वास्थ्य क्षेत्र में वैश्विक जनबल में महिलाओं की हिस्सेदारी दो-तिहाई है लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ महिला और पुरुषों के वेतन में 28% का अंतर है. भेदभाव के बावजूद महिलाएं इस जानलेवा वायरस से लड़ाई में नर्स और देखभाल करने वाली के तौर पर फ्रंटलाइन पर काम कर रही हैं.

मैकिंज़ी की एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ कोविड-19 महामारी की वजह से वैश्विक स्तर पर महिलाओं की नौकरी गंवाने की दर पुरुषों की नौकरी गंवाने की दर से 1.8 गुना ज़्यादा है. महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा कोविड-19 महामारी के आर्थिक और सामाजिक असर की पीड़ा से जूझ रहा है.

लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा बढ़ी

भारत में हालात कुछ अलग नहीं हैं. अपेक्षाकृत कम वेतन और नौकरी गंवाने की ज़्यादा दर के अलावा लॉकडाउन की अवधि के दौरान महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा में ख़तरनाक बढ़ोतरी हुई. राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) को हर रोज़ बड़ी तादाद में मुश्किल में घिरी महिलाओं की तरफ़ से फ़ोन करके मदद मांगी गई. महामारी के नतीजे के तौर पर पुरुषों और महिलाओं- दोनों ने नौकरियां गंवाई और उनकी परेशानी बढ़ी लेकिन घरेलू हिंसा ने महिलाओं की परेशानी में और इज़ाफ़ा किया, उन्हें और ज़्यादा दमन का सामना करना पड़ा. ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 के मुताबिक़ भारत में महिला श्रमिकों की भागीदारी दुनिया में सबसे कम में से एक है. भारत की आबादी में महिलाओं का हिस्सा 49% है लेकिन आर्थिक उत्पादन में उनका योगदान सिर्फ़ 18% है. भारत में पुरुषों और महिलाओं के वेतन में अंतर 35% है जबकि वैश्विक औसत 16% है. अनौपचारिक क्षेत्र में ज़्यादातर अनियमित या बिना वेतन के काम में शामिल महिलाएं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक़ सबसे कमज़ोर समझी जाती हैं. महामारी की वजह से काफ़ी संख्या में महिलाओं को अपनी आजीविका गंवानी पड़ी और उन्हें स्थायी रूप से श्रम बाज़ार से बाहर होना पड़ा. हाल के महीनों में श्रम बाज़ार में महिलाओं की रुकी हुई भागीदारी ने आमदनी की असमानता को और ज़्यादा बढ़ा दिया है. सीएमआईई के कंज़्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे (सीपीएचएस) के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 10 में से चार महिलाओं ने नौकरी गंवाई और मार्च और अप्रैल 2020 के देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान एक करोड़ 70 लाख महिलाओं की नौकरी छूट गई. वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि 4 करोड़ 90 लाख लोग महामारी की वजह से पूरी तरह ग़रीबी में धकेले जाएंगे. इनमें से एक करोड़ 20 लाख लोग भारत में ग़रीब होंगे. इस श्रेणी में महिलाओं की भागीदारी काफ़ी ज़्यादा होगी और इससे ग़रीबी के नये चक्र का निर्माण होगा.

भारत में महिला श्रमिकों की भागीदारी दुनिया में सबसे कम में से एक है. भारत की आबादी में महिलाओं का हिस्सा 49% है लेकिन आर्थिक उत्पादन में उनका योगदान सिर्फ़ 18% है. 

कोविड-19 से लड़ने के उपायों में लैंगिक असमानता को शामिल नहीं किया गया. भारत में महिलाओं की एक बड़ी आबादी कृषि और उत्पादन के क्षेत्र में स्व-रोजग़ार में शामिल हैं. लॉकडाउन की वजह से उनकी आजीविका पर असर पड़ा और उनकी आमदनी कम हुई. अगर इस मुद्दे के समाधान के लिए उचित नीतियां नहीं अपनाई गईं तो काफ़ी महिलाएं स्थायी रूप से श्रम बाज़ार से बाहर हो जाएंगी. महामारी का वायरस सार्स सीओवी-2 भले ही लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता हो लेकिन महामारी का असर और उसके ख़िलाफ़ सरकार का जवाब लिंग के मुताबिक़ है. ऐसा महसूस किया गया है कि किसी भी स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान महिलाओं की स्वायत्तता के साथ समझौता किया जाता है. ये महामारी भी अलग नहीं थी. बीमारी से लड़ने के लिए नीतिगत फ़ैसलों में महिलाओं की चिंता को शामिल करते हुए लैंगिक संतुलन बनाया जाना चाहिए था. लैंसेट के हाल के एक लेख में भी ये बताया गया है कि महामारी के लैंगिक असर पर विचार नहीं किया गया है.

महामारी का वायरस सार्स सीओवी-2 भले ही लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता हो लेकिन महामारी का असर और उसके ख़िलाफ़ सरकार का जवाब लिंग के मुताबिक़ है. 

देश में घरेलू हिंसा के बढ़ते मामलों पर रोक के लिए आने वाले समय में समाधान और रोकथाम के तौर-तरीक़ों को लागू किया जाना चाहिए. महामारी के दौरान महिलाओं के रोज़गार पर पड़े बेहद ख़राब असर को तरजीह मिलना चाहिए. बेरोज़गारी पर किसी तरह की मदद में महिलाओं को निश्चित रूप से शामिल किया जाना चाहिए जिनका अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों की संख्या में बड़ा हिस्सा है. आगे आने वाले दिनों में आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की असरहीनता पर रोकथाम के लिए नीतियों को अपनाने की ज़रूरत है. उचित मज़दूरी और रोज़गार की बेहतर शर्तें सुनिश्चित करने की ज़रूरत है. स्पष्ट नीतियों की ग़ैर-मौजूदगी में कोविड-19 का नतीजा लैंगिक असमानता में बढ़ोतरी के रूप में सामने आएगा क्योंकि कोविड-19 की वजह से भारत में मौजूदा सामाजिक और आर्थिक असमानता में और इज़ाफ़ा हो रहा है. महिलाओं को एक सामाजिक सुरक्षा योजना मुहैया की जानी चाहिए. स्वयं सहायता समूह सामुदायिक स्तर पर महिलाओं की मदद कर सकते हैं. कुछ स्वयं सहायता समूह मास्क बना रहे हैं, सामुदायिक रसोई चला रहे हैं और इस तरह से महिलाओं के लिए रोज़गार का निर्माण कर रहे हैं.

महिलाओं को फिर से श्रम जनबल से जोड़ने और उनकी आमदनी बढ़ाने के लिए महिलाओं की डिजिटल साक्षरता में सुधार करना और महिला उद्यमशीलता को बढ़ावा देना काफ़ी असरदार हो सकता है.

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Authors

Sangita Dutta Gupta

Sangita Dutta Gupta

Dr. Dutta Gupta is currently associated with BML Munjal University as Associate Professor of Economics. She is a Ph.D. in Economics from Jadavpur University. She ...

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Susmita Chatterjee

Susmita Chatterjee

Dr. Susmita Chatterjee is currently at the Maharaja Manindra Chandra College Kolkata as Assistant Professor in Economics and Visiting Professor of Department of Commerce for ...

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