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Published on Dec 26, 2024 Updated 0 Hours ago

वैसे तो इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट (ICC) का मक़सद अपराध करने वालों की जवाबदेही तय करना है. लेकिन, इसके क़दमों से अधिकार क्षेत्र, पूरक की भूमिका और वैधता को लेकर अहम सवाल खड़े होते हैं

कठघरे में इंसाफ: अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय, इज़राइल और जवाबदेही की राजनीति

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इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट (ICC के प्री ट्रायल चैंबर-I (PTC ने हाल ही में हमास के तीन नेताओं के साथ साथ इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और रक्षा मंत्री योआव गैलेंट की गिरफ़्तारी के वारंट जारी किए थे. ICC के ये वारंट, मानवता के विरुद्ध अपराध, और युद्ध अपराधों पर केंद्रित हैं, जिनका ज़ोर विशेष रूप से इज़राइ द्वारा फ़िलिस्तीन के आम नागरिकों के ख़िलाफ़ इज़राइल के नेताओं द्वाराभुखमरी की रणनीतिलागू करने के मुद्दे पर है.

 

इस मामले की वजह से एक बार फिर से दुनिया आईसीसी की बारीक़ी से पड़ताल कर रही है, जिसकी वजह से इस अंतरराष्ट्रीय अदालत के न्यायिक क्षेत्र, निष्पक्षता और असरदार होने को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं.

 

रोम संधि के तहत अंतराष्ट्रीय अपराध न्यायालय, व्यक्तियों के ख़िलाफ़ नरसंहार, युद्ध अपराध और मानवता के प्रति अपराधों के मुक़दमे चलाते हैं. ICC सिर्फ़ इस संधि पर दस्तख़त करने वाले देशों या फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के कहने पर ही ये मुक़दमे चलाता है. ICC दुनिया की अंतिम अदालत के तौर पर काम करती है और वो अपने विधान की धारा 17 से 19 में रेखांकित किए गएपूरक अधिकार क्षेत्रके सिद्धांत के तहत किसी देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था की मददगार के तौर पर काम करती है. ये सिद्धांत आईसीसी के मुक़दमा चलाने की शक्ति को सिर्फ़ इस हद तक सीमित करता है, जब किसी देश की अदालतें क्षमता के अभाव या फिर अनिच्छा की वजह से अपनी ज़िम्मेदारियां पूरी नहीं करतीं. इस मामले में कॉन्गो के हथियारबंद लड़ाके थॉमल लुबांगा और लीबिया के पूर्व सुरक्षा प्रमुख अल-तुहामी मुहम्मद ख़ालिद के मामले अंतरराष्ट्रीय आपराधिक क़ानून के तहत आईसीसी के न्याय क्षेत्र की मिसाल हैं.

 कॉन्गो के हथियारबंद लड़ाके थॉमल लुबांगा और लीबिया के पूर्व सुरक्षा प्रमुख अल-तुहामी मुहम्मद ख़ालिद के मामले अंतरराष्ट्रीय आपराधिक क़ानून के तहत आईसीसी के न्याय क्षेत्र की मिसाल हैं.

अधिकार क्षेत्र के सवाल

 

इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट का अधिकार क्षेत्र, रोम संधि पर दस्तख़त करने वाले 124 देशों तक सीमित है, और इज़राइल इन देशों में शामिल नहीं है. इससे इज़राइली नेताओं के किसी भी अपराध में शामिल होने पर आईसीसी द्वारा मुक़दमा चलाने के अधिकार क्षेत्र का सवाल खड़ा होता है. प्री-ट्रायल चैंबर (PTC ) ने दोहराया था कि उसका ज़ोर एक सदस्य देश- फ़िलिस्तीन में किए गए अपराधों पर है. इसके लिए आईसीसी संयुक्त राष्ट्र महासभा के 2012 के उस प्रस्ताव का हवाला देता है, जिसमें फ़िलिस्तीन को ग़ैर सदस्य पर्यवेक्षक देश का दर्जा दिया गया था, जिसको अंतरराष्ट्रीय संधियों पर मुहर लगाने का अधिकार है. इज़राइल इस दावे पर सवाल खड़े करता है. उसका तर्क है कि फ़िलिस्तीन के पास देश का दर्जा है ही नहीं और ऐसे में उसका अधिकार क्षेत्र ओस्लो समझौतों के अनुरूप होना चाहिए. ओस्लो समझौते में फ़िलिस्तीन का इज़राइल के नागरिकों पर किसी तरह का अधिकार नहीं है. हालांकि, पीटीसी ने इज़राइल के इस तर्क़ को समय पूर्व कहकर ख़ारिज कर दिया और कहा कि न्यायिक अधिकार क्षेत्र के सवाल उस वक़्त खड़े किए जा सकते हैं, जब गिरफ़्तारी के वारंट या समन जारी किए जा चुके हों. ये परस्पर विरोधाभासी रुख़, अंतरराष्ट्रीय समझौतों के बीच आपसी तालमेल के अभाव को रेखांकित करता है, ख़ास तौर से तब जब इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट के फ़ैसले, इन रूप-रेखाओं के दायरे में दख़ल देते हों.

 आईसीसी संयुक्त राष्ट्र महासभा के 2012 के उस प्रस्ताव का हवाला देता है, जिसमें फ़िलिस्तीन को ग़ैर सदस्य पर्यवेक्षक देश का दर्जा दिया गया था, जिसको अंतरराष्ट्रीय संधियों पर मुहर लगाने का अधिकार है. इज़राइल इस दावे पर सवाल खड़े करता है. उसका तर्क है कि फ़िलिस्तीन के पास देश का दर्जा है ही नहीं और ऐसे में उसका अधिकार क्षेत्र ओस्लो समझौतों के अनुरूप होना चाहिए. 

अगर हम आईसीसी के अधिकार क्षेत्र के दावे को स्वीकार भी लें, तो इज़राइल के मामले में उसके पूरक न्यायालय की भूमिका को लागू करने पर सवाल खड़े होते हैं. इज़राइल की अपनी न्यायिक व्यवस्था बहुत मज़बूत है, जो सरकार और विधायिका के साथ संतुलन बनाने के मामले में काफ़ी ताक़तवर है. मिसाल के तौर पर अभी हाल ही में इज़राइल के सुप्रीम कोर्ट ने तार्किकता की सीमा तय करने के सरकार के क़ानून को रद्द कर दिया था. ये इज़राइल के इतिहास में पहली बार था, जब उसके एक बुनियादी क़ानून को अदालत ने पलट दिया था. इसी तरह, जब इज़राइल के कुछ वरिष्ठ नेताओं द्वारा, आईसीसी के मामले में न्यायिक व्यवस्था का अपने हित में दुरुपयोग करने की कोशिश की गई, तो देश के एटॉर्नी जनरल ने सैद्धांतिक तौर पर इसका विरोध किया था. इन उदाहरणों से इज़राइल के क़ानूनी ढांचे के लचीलेपन का पता चलता है. ऐसे में आईसीसी के दख़ल पर सवाल उठते हैं और ICC ने अपने अधिकार क्षेत्र की जिस तरह से व्याख्या की है, उस पर भी सवालिया निशान लगता है.

 

छूट को लेकर दुविधा

 

निजी तौर पर रियायत या छूट, पारंपरिक रूप से अपने पदों पर बैठे वरिष्ठ पदाधिकारियों के ऊपर किसी विदेशी न्यायालय में मुक़दमा चलाने पर लागू होती है, जब उनके आधिकारिक हैसियत में लिए गए फ़ैसलों के आधार पर मुक़दमा चलता है. इस सिद्धांत की जड़ें, पांरपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून से जुड़ी हैं और इन्हें कूटनीतिक संबंधों को लेकर वियना संधि के कुछ प्रावधानों का समर्थन भी हासिल है. हालांकि, राष्ट्रों के प्रमुख समेत कुछ अन्य अधिकारियों को आईसीसी के गिरफ़्तारी वारंट से कोई छूट नहीं मिलती, भले ही वो रोम संधि का हिस्सा हों या हों. युगोस्लाविया (ICTY) और रवांडा (ICTR) के ट्राइब्यूनल, रूस के राष्ट्रपति पुतिन और इज़राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी के वारंट जैसे मामले इस बात को रेखांकित करते हैं. हालांकि, अधिकार क्षेत्र की लक्ष्मण रेखा लांघने से तमाम सियासी और क़ानूनी जटिलताएं पैदा हो जाती हैं. रोम संधि पर दस्तख़त करने वाले देश अक्सर, इस संधि के तहत अपनी जवाबदेही के ऊपर अपने राष्ट्रीय हितों को तरज़ीह देते हैं, वहीं, अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों की तमाम तरह से व्याख्या की जा सकती है.

 

जैसे कि, रोम संधि पर दस्तख़त करने वाले मंगोलिया ने इसकी धारा 98 का हवाला देते हुए, आईसीसी के वारंट का पालन करने और रूस के राष्ट्रपति पुतिन को अपने यहां के हालिया दौरे के दौरान गिरफ़्तार करने से इनकार कर दिया था. इस धारा के तहत सदस्य देशों को ये अधिकार है कि अगर उनके अंतरराष्ट्रीय उत्तरदायित्व, उनके अन्य देशों के साथ संबंधों पर विपरीत असर डालते हैं, तो वो आईसीसी के निर्देश की अनदेखी कर सकते हैं. मंगोलिया ने कहा था कि कोई भी पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय क़ानून या नियम, राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों को मिलने वाली रियायतों के ऊपर नहीं है, भले ही वो इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट का ही मामला क्यों हो. इसी तरह 2017 में जब सूडान के तत्कालीन राष्ट्रपति उमर अल-बशीर अरब लीग की बैठक में भाग लेने जॉर्डन गए थे, तो जॉर्डन ने भी उनको गिरफ़्तार करने से इनकार कर दिया था. जॉर्डन का तर्क था कि वो आईसीसी के वारंट की तामील कराने को इसलिए बाध्य नहीं है, क्योंकि उमर अल-बशीर ऐसे देश के राष्ट्राध्यक्ष हैं, जो आईसीसी का सदस्य नहीं है और उनको अरब लीग के 1953 के विशेषाधिकार और रियायतों के तहत ऐसे मामलों से छूट हासिल है. हालांकि, इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट ने जॉर्डन के तर्कों को अपने संविधान की धारा 27 का हवाला देते हुए ख़ारिज कर दिया था. इस धारा के मुताबिक़ किसी शख़्स की आधिकारिक हैसियत उसे व्यक्तिगत जवाबदेही से छूट नहीं देती.

 इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट ने अब तक जितने लोगों पर अभियोग चलाया है, उनमें से लगभग 90 प्रतिशत अफ्रीका के हैं. इससे उस पर न्यायिक सिद्धांतों को चुनिंदा तौर पर लागू करने के इल्ज़ाम लगते हैं. 

इसके अलावा, रोम संधि में शामिल देशों से भी आईसीसी के ख़िलाफ़ विरोध के सुर उठे हैं. चेक गणराज्य के प्रधानमंत्री पीटर फियाला ने इज़राइल के चुने हुए नेताओं की तुलना आतंकवादी समूहों से करने के लिए आईसीसी की आलोचना की थी और कहा था कि अपनी हरकतों से अदालत ने ख़ुद को नीचा दिखाया है. मलाबो प्रोटोकॉल जैसे प्रस्तावों से भी आईसीसी के लिए मामला और जटिल हो गया. इस प्रोटोकॉल में अफ्रीका के कोर्ट ऑफ जस्टिस ऐंड ह्यूमन राइट्स की प्रस्तावित अदालत के संविधान में संशोधन की मांग उठाई गई है. मांग ये है कि मौजूदा राष्ट्राध्यक्षों और सरकारी अधिकारियों को दी जाने वाली रियायतों के प्रावधान में आपराधिक न्याय क्षेत्र को भी शामिल किया जाए.

 

चुनिंदा इंसाफ़?

 

इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट ने अब तक जितने लोगों पर अभियोग चलाया है, उनमें से लगभग 90 प्रतिशत अफ्रीका के हैं. इससे उस पर न्यायिक सिद्धांतों को चुनिंदा तौर पर लागू करने के इल्ज़ाम लगते हैं. उल्लेखनीय है कि कई लोग मलाबो प्रोटोकॉल में छूट के प्रावधान के पीछे तर्क देते हैं कि ये आईसीसी की आलोचना को अफ्रीका का उत्तर है. आईसीसी की एक और आलोचना इस बात के लिए भी होती है कि वो ताक़तवर देशों के प्रति नरमी बरतता है. इसकी मिसाल हम 2002 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा अमेरिकी सैनिकों को मुक़दमा चलाने से छूट देने के फ़ैसले के रूप में देखते हैं. जब दुनिया भर में अबु घरीब जेल को लेकर हंगामा हुआ था, तब जाकर इस नीति को ख़त्म किया गया था. वैसे तो अमेरिका, इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट का सदस्य नहीं है. लेकिन वो अपने सैन्य बलों पर आईसीसी द्वारा मुक़दमा चलाने का विरोध करता है. इसके लिए वो अमेरिकन सर्विस मेंबर्स प्रोटेक्शन एक्ट का हवाला देता है. वहीं, अमेरिका अपनी सुविधा के हिसाब से आईसीसी कुछ आदेशों का आदेशों का समर्थन भी करता है, जैसा कि उसने रूस के ख़िलाफ़ किया था. ये दोहरा रवैया, आईसीसी के बाहरी प्रभाव से आज़ाद रहकर भू-राजनीतिक प्रतिद्वंदिताओं से ऊपर उठकर स्वतंत्र रूप से काम कर पाने की क्षमता पर सवाल उठाता है. यही नहीं, अपने सदस्य देशों के नेताओं के ऊपर मुक़दमा चलाने के मामले में आईसीसी की सीमाएं भी एक निष्पक्ष न्यायालय के तौर पर इसकी वैधता को कठघरे में खड़ा करती हैं

 आईसीसी की एक और आलोचना इस बात के लिए भी होती है कि वो ताक़तवर देशों के प्रति नरमी बरतता है. इसकी मिसाल हम 2002 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा अमेरिकी सैनिकों को मुक़दमा चलाने से छूट देने के फ़ैसले के रूप में देखते हैं. 

आरोपों में कितना दम है?

 

इज़राइल के नेताओं के ऊपर जो इल्ज़ाम हैं, उनमें ग़ज़ा के आम नागरिकों को मदद पहुंचाने से रोकना और भुखमरी को युद्ध के एक तौर तरीक़े के रूप में इस्तेमाल करने से जुड़े हैं, जो नरसंहार से अलग हैं. गिरफ़्तारी के वारंट में साफ़ तौर पर कमान की जवाबदेही के सिद्धांत को लेकर इज़राइल के नेताओं को निशाना बनाया गया है. इसमें सार्वजनिक रूप से उन नीतियों को स्वीकार करने का हवाला दिया गया है, जिनकी वजह से ग़ज़ा में भुखमरी के हालात बने. इसे सबूत माना गया है. उल्लेखनीय है कि रक्षा मंत्री योआव गैलेंट ने ग़ज़ा कीपूरी तरह से नाकेबंदीका जो आदेश दिया था, उसका हवाला भी वारंट में दिया गया है. गैलेंट के आदेश के मुताबिक़ ग़ज़ा में बिजली, खाने और ईंधन की आपूर्ति रोक दी गई थी. इज़राइल पर मानवीय सहायता रोकने, दिव्यांगों के लिए छड़ी और मां बनने वाली महिलाओं के लिए मैटरनिटी किट की आपूर्ति इस आधार पर प्रतिबंधित करने के इल्ज़ाम लगे हैं कि इनका घातक इस्तेमाल भी हो सकता है. वैसे तो अस्थायी तौर पर सीमा चौकियों को दोबारा खोल दिया गया था. लेकिन, तर्क ये दिया गया था कि बाद के सैन्य अभियानों में सीमा खोलने का भी कोई ख़ास फ़ायदा ग़ज़ा के नागरिकों को नहीं हुआ.

अपनी स्थापना के बाद से आज तक इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट ने 32 में से 14 मामलों में ही सज़ा सुनाई है. बाक़ी के मामले अब तक अनसुलझे हैं. ये रिकॉर्ड भी उसके सामने खड़ी चुनौतियों को बड़ा बनाते हैं.

मानवीय सहायता का अंतरराष्ट्रीय क़ानून ये कहता है कि संघर्ष वाले क्षेत्रों में रह रहे नागरिकों को बिना बाधा के मानवीय मदद मिलनी चाहिए. हालांकि, इस मामले में इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट के दावे पर परिचर्चा करना ज़रूरी है. 2024 के मध्य में जब मुक़दमा चलाने वालों ने प्री-ट्रायल चैंबर के सामने वारंट की अर्ज़ियां लगाई थीं, तब इंटीग्रेटेड फूड सिक्योरिटी फेज क्लासिफिकेशन (IPC) की अकाल समीक्षा समिति ने रिपोर्ट दी थी कि, ‘उत्तरी प्रशासनिक इलाक़ों में खाद्य और ग़ैर खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति की इजाज़त मिलने से इनकी उपलब्धता में बढ़ोत्तरी हुई थीऔरपोषण, पानी, साफ़-सफ़ाई और स्वच्छता (WASH) स्वास्थ्य क्षेत्र की सुविधाओं में भी इज़ाफ़ा हुआ था, और अकाल के कोई सबूताएं ग़ज़ा में नहीं दिखे थे.’ यही नहीं, मानवीय सहायता रोकने की छोटी मोटी घटनाएं और राजनीतिक रूप से उकसावे वाले बयान, आईसीसी के जान-बूझकर सहायता रोकने की नीति या संगठित और नियमित रूप से ऐसा करने के पैमाने पर खरे नहगीं उतरते. इससे निश्चित रूप से इज़राइली नेताओं के ख़िलाफ़ वारंट की वैधता और कठघरे में खड़ी होती है और आईसीसी पर अपने दायरे से आगे बढ़कर एक जटिल मानवीय संकट की राजनीतिक व्याख्या करने के इल्ज़ाम लग सकते हैं. आख़िर में इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट की कार्यवाही नीयत साबित करने के लिए पर्याप्त सबूतों पर निर्भर करती है, जिसका संतुलन मौजूदा संघर्ष के दौरान इज़राइल द्वारा अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में क़दम उठाने के तर्क के साथ बनाना होगा.

 

विश्वसनीयता की चुनौती

 

हमास के लड़ाकों और इज़राइल के नेताओं के ख़िलाफ़ आईसीसी के वारंट, विवादित माहौल में न्याय करने की राह में आने वाली चुनौतियों को रेखांकित करते हैं. वैसे तो अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय का मक़सद ज़ुल्म ढाने वालों की जवाबदेही तय करना है. लेकिन, उसके क़दम न्याय क्षेत्र, पूरक की भूमिका और वैधता से जुड़े महत्वपूर्ण सवाल खड़े करते हैं. आईसीसी में अमेरिका, रूस और चीन जैसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों की ग़ैरमौजूदगी, उसके अधिकारों की क्षमता पर सवाल खड़े करती है. क्योंकि ये देश उसके आदेशों को वीटो कर सकते हैं. भारत जैसे प्रभावशाली देशों की अनुपस्थिति और रोम संधि पर दस्तख़त करने वाले प्रमुख देशों के इससे पीछे हटने की वजह से आईसीसी के न्यायिक क्षेत्र का दायरा सीमित हुआ है और उसकी प्रासंगिकता कमज़ोर हुई है. अपनी स्थापना के बाद से आज तक इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट ने 32 में से 14 मामलों में ही सज़ा सुनाई है. बाक़ी के मामले अब तक अनसुलझे हैं. ये रिकॉर्ड भी उसके सामने खड़ी चुनौतियों को बड़ा बनाते हैं.

 इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट की कार्यवाही नीयत साबित करने के लिए पर्याप्त सबूतों पर निर्भर करती है, जिसका संतुलन मौजूदा संघर्ष के दौरान इज़राइल द्वारा अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में क़दम उठाने के तर्क के साथ बनाना होगा.

समय की मांग ये है कि इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट की असेंबली ऑफ स्टेट पार्टीज़ के ज़रिए इसमें व्यापक स्तर पर सुधार किए जाएं. इसके अलावा निष्पक्ष विशेषज्ञों द्वारा इसके काम-काज की समीक्षा की जाए, ताकि मुक़दमे चलाने के मामले में सहयोग बढ़ाया जा सके और न्यायाधीशों और अधिकारियों के चुनाव की प्रक्रिया को और सख़्त बनाया जाए, मुक़दमे स्वीकार करने की प्रक्रिया में सुधार लाया जाए और ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारों के बीच सहयोग बढ़ाने की कोशिश हो. ख़ास तौर से पीड़ित पक्ष की भागीदारी को बढ़ाना आवश्यक है. पूर्वाग्रह के आरोपों से निपटने के लिए एक स्थायी ढांचा स्थापित करने से आईसीसी की निष्पक्षता पर यक़ीन को मज़बूती दी जा सकती है. सबसे अहम बात ये है कि इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट को क्षेत्रीय अदालतों जैसे कि अफ्रीका के मानव और जन अधिकार न्यायालय के साथ ज़्यादा मज़बूत साझेदारियां विकसित करनी चाहिए, ताकि पूरक न्यायिक व्यवस्थाओं को बढ़ावा दिया जा सके. आईसीसी को चाहिए कि वो उन देशों के साथ भी संपर्क बढ़ाए, जो उसके सदस्य नहीं हैं, ताकि वो अपनी वैधता, पहुंच और अपने आदेश लागू करने की क्षमताओं में इज़ाफ़ा कर सके. सबसे बड़ी बात, आईसीसी को चाहिए कि वो भू-राजनीतिक सच्चाइयों से निपटने के साथ साथ न्याय करने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को बनाए रखे.

 

हर साल सशस्त्र संघर्ष की वजह से अनगिनत लोगों की जान जाती है. ओस्लो के पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक़ 2023 में दुनिया भर के 34 देशोंराष्ट्रीयता पर आधारित 59 संघर्षहोते देखे गए, जो 1946 के बाद से सबसे ज़्यादा हैं. यही नहीं, इंस्टीट्यूट ने बताया कि 13 देशों की सरकारें अपने ही नागरिकों के ख़िलाफ़इकतरफ़ा हिंसाकरने की ज़िम्मेदार पायी गई थीं. ऐसे हालात में जब स्थानीय न्यायालय इंसाफ़ करने में नाकाम रहते हैं, तो इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. हालांकि, ठोस सुधार किए बग़ैर आईसीसी के सामने अपनी साख गंवाने और दुनिया के सबसे भयानक अपराधों के मामले में न्याय करने की ज़िम्मेदारी पूरी करने में नाकाम रहने का ख़तरा मंडरा रहा है.

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Authors

Jaibal Naduvath

Jaibal Naduvath

Jaibal is Vice President and Senior Fellow of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank. His research focuses on issues of cross cultural ...

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Dharmil Doshi

Dharmil Doshi

Dharmil Doshi is a Research Assistant at ORF’s Centre for New Economic Diplomacy, where his research spans international commercial law (encompassing treaties and conventions, foreign ...

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