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विश्व में औद्योगिक क्रांति के दौर के बाद से आधुनिक युग तक जनसंख्या में ज़बरदस्त वृद्धि दर्ज़ की गई है. वर्ष 1700 में वैश्विक आबादी 600 मिलियन थी, जो वर्ष 2023 में 8 बिलियन तक पहुंच गई है. वैश्विक जनसंख्या में यह बढ़ोतरी आर्थिक विकास और बेहतर चिकित्सा सुविधाओं एवं दवाओं की उपलब्धता की वजह से संभव हुई है. इस आर्थिक प्रगति एवं बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि के कारण बड़ी मात्रा में भोजन की भी ज़रूरत पड़ी और इसकी पूर्ति के लिए इस दौरान दो कृषि क्रांतियां भी हुई हैं. 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान ब्रिटिश कृषि क्रांति हुई, जिसमें कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिए खेती-किसानी से जुड़ी मशीनों व उपकरणों का विकास हुआ, साथ ही फसल चक्र और कमोडिटी ट्रेडिंग के उपयोग को बढ़ावा दिया गया. इसी प्रकार से 20वीं शताब्दी के मध्य में हरित क्रांति (Green Revolution) हुई, जिसमें हाइब्रिड बीजों और जीवाश्म ईंधन से प्राप्त रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के उपयोग को बढ़ावा दिया गया.
जीवाश्म ईंधन के एक टिकाऊ और हरित विकल्प के रूप में जैव ईंधन इन दिनों काफ़ी लोकप्रियता हासिल कर रहा है. वर्तमान में वैश्विक स्तर पर खेती की 8 प्रतिशत भूमि पर जैव ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है
बीती शताब्दियों के दौरान दुनिया में ज़बरदस्त तेज़ी के साथ बढ़ती आबादी के भरण-पोषण के लिए खेती योग्य भूमि में भी कई गुना बढ़ोतरी हुई है. वर्ष 1750 में विश्व में कृषि योग्य भूमि (खेती और चारागाह) 1.1 बिलियन हेक्टेयर थी, जो वर्ष 2016 में बढ़कर 4.87 बिलियन हेक्टेयर हो चुकी है. यह कृषि के लिए जंगलों एवं चारागाहों को साफ करके हासिल की गई लोगों के बसने योग्य भूमि के क़रीब 50 प्रतिशत के बराबर है. दुनिया में जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ी, वैसे-वैसे एनिमल प्रोटीन की मांग भी बढ़ने लगी. वर्तमान में पशुधन के पालन-पोषण एवं उत्पादन के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जितनी ज़मीन का उपयोग किया जाता है, वो कुल उपलब्ध कृषि भूमि का 77 प्रतिशत है, जबकि वैश्विक स्तर पर कुल कैलोरी आपूर्ति में इसका योगदान महज 18 प्रतिशत ही है. इसके अलावा, जीवाश्म ईंधन के एक टिकाऊ और हरित विकल्प के रूप में जैव ईंधन इन दिनों काफ़ी लोकप्रियता हासिल कर रहा है. वर्तमान में वैश्विक स्तर पर खेती की 8 प्रतिशत भूमि पर जैव ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है और कुल अनाज उत्पादन में इसका हिस्सा 11 प्रतिशत है. ऐसे में खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा हासिल करने के लिए वैश्विक भूमि संसाधनों पर ज़बरदस्त दबाव बना हुआ है.
पिछली सदी में पूरी दुनिया की जनसंख्या चार गुना बढ़ चुकी है और वर्तमान में 8 बिलियन तक पहुंच गई है. इतना ही नहीं वर्ष 2080 तक दुनिया की आबादी 10.4 बिलियन तक पहुंचने की संभावना है. ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए तेज़ी के साथ अधिक कैलोरी, बेहतर पोषण और प्रोटीन की ज़रूरत होगी और कहीं न कहीं इसका हमारे सीमित संसाधनों पर भी दबाव पड़ेगा. ऐसी परिस्थितियों में भविष्य की खाद्य ज़रूरतों को पूरा करने में एशिया और उप-सहारा अफ्रीका के देशों के छोटे किसान उल्लेखनीय भूमिका निभाएंगे. कहने का मतलब है कि इन देशों में कृषि उत्पादकता और क्षमता को प्रोत्साहन देने के लिए यह एक बहुत बड़ा अवसर है.
वर्तमान में जिस प्रकार से हम जलवायु संकट से जूझ रहे हैं, उसने इस दिक़्क़त को और अधिक बढ़ा दिया है. जीवाश्म ईंधन की भारी खपत की वजह से वैश्विक तापमान में वर्ष 1920 से ही लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 1980 से ही पर्यावरणीय मुद्दों एवं नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को लेकर जागरूकता लाने की पैरोकारी की जा रही है. इस बीच, 20वीं सदी के आख़िर में चीन और भारत जैसे देश आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरे हैं और अपनी बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आसानी से उपलब्ध जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं. ज़ाहिर है कि पर्यावरण की क्षति को आगे रोकने के लिए दुनिया के तमाम देशों को जितना ज़ल्दी हो सके वैकल्पिक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर परिवर्तन करना चाहिए. इसके अतिरिक्त, पूरी दुनिया में कार्बन डाई ऑक्साइड का जितना भी उत्सर्जन होता है, उसका लगभग 18.4 प्रतिशत उत्सर्जन (भारत में 14 प्रतिशत) कृषि के कारण होता है. ऐसे हालातों में टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाकर CO2 उत्सर्जन को कम किया जाना चाहिए.
उपज की इस बर्बादी को रोकने के लिए गंभीरता से कार्य करने की ज़रूरत है और इसके लिए फूड सिस्टम को टिकाऊ बनाने की दिशा में काम करना चाहिए.
कहने का तात्पर्य यह है कि कृषि न केवल पर्यावरण की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा का मार्ग भी प्रशस्त कर सकती है. आज हम एक और कृषि क्रांति के मुहाने पर हैं. यह एक ऐसी कृषि क्रांति होगी, जिसमें टिकाऊ तरीक़ों को अपनाकर कृषि उत्पादकता को अधिक से अधिक बढ़ाने के लिए डिजिटल और जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाएगा.
ज़ाहिर है कि नवीकरणीय ऊर्जा की प्रगति बहस का एक मुद्दा है. एनर्जी क्रॉप्स को उगाने के लिए यानी वो फसलें जिन्हें केवल नवीकरणीय जैव ऊर्जा उत्पादन के लिए उगाया जाता है, और इंफ्रास्ट्रक्चर एवं ट्रांसमिशन लाइनों के लिए भी ज़रूरी क्षेत्र की आवश्यकता होती है और यह भी पर्यावरण व स्थानीय आबादी को और ज़्यादा नुक़सान पहुंचा सकता है. इसलिए, इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि खाद्य सुरक्षा और ऊर्जा सुरक्षा का समाधान एक साथ किया जाना चाहिए और ऐसा किया जाना संभव है.
भारत में खेती योग्य भूमि लगभग 179 मिलियन हेक्टेयर है और पूरी दुनिया में खेती करने लायक जितनी भी ज़मीन है, यह उसके 10 प्रतिशत से अधिक है. भारत की फसल गहनता (cropping intensity) यानी एक साल में फसल बोए जाने की संख्या 1.41 है. जबकि वैश्विक स्तर पर फसल गहनता 1.13 है. अगर विश्व के दूसरे देशों से तुलना की जाए तो भारत प्रतिवर्ष औसतन 25 प्रतिशत अधिक भूमि पर खेती करता है. लेकिन भारत में कम पैदावार होना एक बड़ी समस्या है और इससे खेती योग्य भूमि का बिना मतलब में दोहन होता, जिसे आगे बताई गई तुलना में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. इसके अतिरिक्त, भारत में कृषि उपज की आपूर्ति और मांग में असंतुलन होने की वजह से, साथ ही इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी तमाम चुनौतियों के कारण, पैदावार होने के बाद उपज को बाज़ारों या उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के दौरान वैल्यू चेन्स में उसका 5 से 15 प्रतिशत हिस्सा बर्बाद हो जाता है. इससे अधिक चिंता वाली बात यह है कि भारत में फसलों के अपशिष्ट को जलाने और खेती-बाड़ी के दौरान बिना जानकारी के अत्यधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल के कारण पर्यावरण को गंभीर नुक़सान हो रहा है.
ओमनीवोर (Omnivore) नाम के संगठन ने खेती-किसानी की चुनौतियों और उपज के मार्केट तक पहुंचने के दौरान होने वाली तमाम समस्याओं का समाधान करने, साथ ही भविष्य के उन्नत एग्रीकल्चर एंड फूड सिस्टम्स का निर्माण करने के लिए काम करने वाले एग्रीकल्चर स्टार्टअप्स की एक सूची बनाई है. इनमें से कुछ कृषि स्टार्टअप्स का विवरण आगे दिया गया है, जो न केवल कृषि के व्यवसाय को फायदे का सौदा बनाने में जुटे हैं, बल्कि उसे लचीला और टिकाऊ भी बना रहे हैं.
सबसे पहले बात करते हैं ‘फसल’ (Fasal) नाम के हॉर्टिकल्चर स्टार्टअप की. ‘फसल’ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) जैसी टेक्नोलॉजी से लैस है और किसानों के लिए एक प्लग-एंड-प्ले फार्म सेंसर उपलब्ध कराता है. यह सेंसर किसानों को मौसम, उपज, मिट्टी आदि जैसी 18 अलग-अलग चीजों के बारे में विश्लेषण के बाद जानकारी देता है, साथ ही यह किसानों को सिंचाई एवं कीटनाशकों के छिड़काव के बारे में भी पहले से ही बता देता है. ज़ाहिर है कि इससे जहां फसल की उत्पादकता में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है, वहीं पानी और कीटनाशकों की खपत भी 20 से 40 प्रतिशत तक कम हो जाती है. इससे खेती से संबंधित कार्बन फुटप्रिंट्स कम करने में भी मदद मिली है. ‘फसल’ स्टार्टअप जब से मार्केट में अपनी गतिविधियों को संचालित कर रहा है, तब से अपनी तकनीक़ की बदौलत सिंचाई में इस्तेमाल किए जाने वाला 70 बिलियन लीटर पानी बचा चुका है. इतनी बड़ी मात्रा में जल संरक्षण पर्यावरण के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण है, वो भी तब, जब भारत में खेती के लिए 80 प्रतिशत सरफेस वाटर का उपयोग किया जाता है. पूरी दुनिया में भारत फलों एवं सब्जियों का एक प्रमुख उत्पादक है, बावज़ूद इसके वैश्विक फ्रूट मार्केट में भारत की हिस्सेदारी 1 प्रतिशत से भी कम है और इसकी सबसे बड़ी वजह खाद्य सुरक्षा से जुड़े मुद्दे हैं. जिस प्रकार से ‘फसल’ स्टार्टअप की तकनीक़ का उपयोग करने से कीटनाशकों का इस्तेमाल कम हो जाता है, उससे न केवल देश में उच्च गुणवत्ता वाली उपज तैयार करने में मदद मिलती है, बल्कि भारत की फलों व खाद्यान्न निर्यात क्षमता को भी प्रोत्साहन मिलता है.
इसी प्रकार से निको रोबोटिक्स (Niqo Robotics) नाम के स्टार्टअप ने AI द्वारा संचालित होने वाली स्पॉट-स्प्रे टेक्नोलॉजी विकसित की है. इस तकनीक़ से जब फसल के ऊपर कीटनाशकों, दवाओं एवं उर्वरकों का छिड़काव किया जाता है, तो यह केवल पौधों को ही कवर करता है और आस-पास की मिट्टी पर रसायनों का छिड़काव होने से बचाता है. उल्लेखनीय है कि इस लक्षित तरीक़े से कीटनाशकों, दवाओं एवं रसायनों का छिड़काव करने से फसल सुरक्षा के केमिकल्स एवं हर्बीसाइड्स का उपयोग क्रमशः 60 प्रतिशत और 90 प्रतिशत कम हो जाता है. ज़ाहिर है कि इससे न केवल किसानों का पैसा बचता है, बल्कि खेती-बाड़ी में इस्तेमाल किए जाने वाले रासायनिक पदार्थों से पैदा होने वाले ख़तरों में भी उल्लेखनीय रूप से कमी आती है.
इसी तरह से एग्रीज़ी (Agrizy) नाम का स्टार्टअप कृषि-प्रसंस्करण (agri-processing) इकाइयों के लिए एक मार्केटप्लेस का सृजन कर रहा है. इसका उद्देश्य ऐसी इकाइयों की क्षमता को बढ़ाना और इनका भरपूर उपयोग करना है, साथ ही अंतिम ग्राहकों की ज़रूरतों के मुताबिक़ प्रसंस्करण आवश्यकताओं को पूरा करना है. उल्लेखनीय है कि भारत में कृषि उत्पादन का 10 प्रतिशत से भी कम प्रसंस्करण किया जाता है और इसमें से भी ज़्यादातर प्रसंस्करण शुरुआती स्तर का है. अगर इसकी दूसरे देशों के साथ तुलना की जाए, तो चीन में 40 प्रतिशत, ब्राज़ील में 70 प्रतिशत और मलेशिया में 80 प्रतिशत कृषि उत्पादों का समुचित और आधुनिक तरीक़े से प्रसंस्करण किया जाता है. इन देशों की तुलना में भारत का कृषि उत्पादन के प्रसंस्करण का आंकड़ा बहुत कम लगता है. यही वजह है कि भारत में विभिन्न कृषि उत्पादों का 5 से 15 प्रतिशत तक हिस्सा बर्बाद हो जाता है. एग्रीज़ी का मकसद देश के संपूर्ण कृषि-प्रसंस्करण सेक्टर के विस्तार में सहयोग करना है, इसके अलावा मूल्य श्रृंखला के साथ-साथ खाद्य सामग्रियों की बर्बादी को कम से कम करने में सहायता करना है. यानी उत्पादन से लेकर परिवहन और उपभोग के दौरान वस्तुओं के ख़राब होने की संभावनाओं को कम से कम करना है.
बायोप्राइम कंपनी ने अपनी टेक्नोलॉजी के माध्यम से खेती में होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने का काम किया है, साथ ही इसका उपयोग करने वाले किसान अब अपनी ज़मीन पर अधिक फसलें भी उगा सकते हैं.
एक और एग्री स्टार्टअप बायोप्राइम (Bioprime) है. बायोप्राइम एक एग्री बायोटेक कंपनी है, जो भारत में बड़ी मात्रा में पाई जाने वाली की विभिन्न वनस्पतियों और सूक्ष्मजीवों से बायोलॉजिकल प्रोडक्ट्स का निर्माण करती है. भौगोलिक नज़रिए से देखा जाए तो भारत में 15 कृषि जलवायु क्षेत्र (agroclimatic zones) हैं. इनमें से प्रत्येक एग्रोक्लाइमेटिक ज़ोन में अपनी विशेष प्रकार की वनस्पतियां एवं सूक्ष्मजीव होते हैं. बायोप्राइम द्वारा SNIPR (पौधों के लिए) और BioNexus (सूक्ष्मजीवों के लिए) नाम के दो प्लेटफॉर्म विकसित किए गए हैं. इस प्लेटफॉर्म का कार्य पौधों और सूक्ष्मजीवों की जांच-पड़ताल करना है, साथ ही जैव-उत्प्रेरक (bio-stimulants), जैव-पोषण (bio-nutrition) एवं जैव-नियंत्रण (bio-control) उत्पादों को बनाने के लिए संकेतक अणुओं (signalling molecules) का संश्लेषण या समन्वय करना है. बायोप्राइम के विभिन्न प्रकार के प्रोडक्ट्स ने जहां खेती में इस्तेमाल होने वाले रसायनों के उपयोग को लगभग 30 प्रतिशत तक कम किया है, वहीं इनसे पौधों की हेल्थ भी सुधरी है, साथ ही उनके पेस्ट रेजिस्टेंस में सुधार हुआ है. इस प्रकार से बायोप्राइम के उपयोग से कृषि उत्पादन में 50 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. बायोप्राइम कंपनी ने अपनी टेक्नोलॉजी के माध्यम से खेती में होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने का काम किया है, साथ ही इसका उपयोग करने वाले किसान अब अपनी ज़मीन पर अधिक फसलें भी उगा सकते हैं.
लूपवर्म (Loopworm) एक ऐसी कंपनी है, जो वैकल्पिक प्रोटीन का उत्पादन करती है. यह कंपनी झींगा, मछली, मुर्गी और पालतू जानवरों के भोजन के लिए ब्लैक सोल्जर फ्लाई के लार्वा और रेशम कीट (Silkworm) के प्यूपा से टिकाऊ प्रोटीन का उत्पादन करती है. इस कंपनी का उद्देश्य अपने उत्पादों के माध्यम से फिश मील, क्रिल मील और सोयामील का विकल्प उपलब्ध कराना है. फिश मील एवं क्रिल मील को अमूमन समुद्री मछलियों, जैसे कि सार्डिन्स, मैकेरल्स, एन्कोवी , क्रिल और स्क्विड आदि से बनाया जाता है, जबकि सोयाबीन और मक्का की फसल कृषि लायक भूमि पर स्वच्छ पानी में होती है. ज़ाहिर है कि इन्सेक्ट प्रोटीन्स जैसे टिकाऊ अवयव इन प्राकृतिक संसाधनों को फिर से पैदा करने की सुविधा प्रदान करते हैं, या फिर इनका मनुष्यों द्वारा सीधे भोजन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, नतीज़तन एक ज़्यादा टिकाऊ फूड सिस्टम बन सकता है. इतना ही नहीं हाल फिलहाल में एंटोमोफैगी, यानी कीड़े-मकोड़ों को खाया जाना भी काफ़ी लोकप्रिय हो गया है. जिस प्रकार से कीड़े-मकोड़ों को खाने के मामलों का अनुपात लगभग 1.7 है, उसे देखते हुए निकट भविष्य में मानव उपभोग के लिए कीड़े-मकोड़े पशु प्रोटीन का एक व्यावहारिक वैकल्पिक स्रोत बन सकते हैं.
altM नाम की कंपनी भी कार्बन उत्सर्जन कम करने की दिशा में उल्लेखनीय तौर पर कार्य कर रही है. यह कंपनी व्यापक पैमाने पर बायो-मटेरियल का निर्माण करती है और अपने औद्योगिक इनोवेशन के ज़रिए उद्योगों को उनकी आपूर्ति श्रृंखला के दौरान होने वाले कार्बन उत्सर्जन को कम करने में मदद करती है. altM कंपनी कृषि अपशिष्ट का अपेक्षाकृत बेहतर तरीक़े से उपयोग करके हाई-वैल्यू उत्पाद बनाने का काम करती है. ज़ाहिर है कि भारत में हर साल 350 से 990 मिलियन टन कृषि अपशिष्ट पैदा होता है और इसका ज़्यादातर हिस्सा किसानों द्वारा यूं ही जला दिया जाता है, जिससे पर्यावरण को अत्यधिक क्षति पहुंचती है. AltM फसल और पेड़-पौधों के सूख चुके पत्तों और दूसरे हिस्सों को सेलुलोज़, हेमिकेल्यूलोज़, सिलिका और लिग्निन के रूप में अलग-अलग कर देता है. बाद में इन पदार्थों से कॉस्मेटिक, फार्मास्युटिकल और पैकेजिंग उद्योगों के लिए हाई वैल्यू प्रोडक्ट्स बनाए जाते हैं. उल्लेखनीय है कि यह कहीं न कहीं भारत के लिए पेट्रोकेमिकल्स, आयातित लकड़ी से उत्पन्न कंपाउंड्स एवं बायो-मटेरियल का आयात कम करने में सहायक सिद्ध होगा. अगर सरकारी स्तर पर ग्रामीण इलाक़ों में खेतों में पड़े कृषि अपशिष्ट को एकत्र करने के लिए समुचित नीतियां बनाई जाती हैं, तो निश्चित तौर पर इससे इस सेक्टर को अत्यधिक लाभ पहुंचेगा.
उपरोक्त उदाहरणों की तरह ही सरकारी एवं कॉर्पोरेट्स स्टार्टअप्स के साथ-साथ तमाम और स्टार्टअप्स भी हैं, जो एग्रीकल्चर सेक्टर में काम कर रहे हैं और इस सेक्टर के विभिन्न ज्वलंत मसलों का समाधान तलाशने की कोशिश में जुटे हुए हैं.
हालांकि एग्रीकल्चर सेक्टर में काम करने वाले स्टार्टअप्स के समक्ष कई चुनौतियां भी हैं और इन्हें दूर करने के लिए नीतिगत स्तर पर सहयोग की ज़रूरत है.
इसमें कोई संदेह है कि एग्री स्टार्टअप्स से जुड़े इन सभी मुद्दों का समाधान किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए प्रक्रियागत ख़ामियों को दूर करना होगा और कार्य में तेज़ी लानी होगी. क्योंकि अब यह पूरी तरह से स्थापित हो चुका है कि हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए और कुछ हद तक हमारी ऊर्जा सुरक्षा के लिए, एग्रीकल्चर सेक्टर सबसे महत्वपूर्ण है. इतना ही नहीं कृषि हमारे लिए एक सॉफ्ट पावर भी है और इसमें पूरी दुनिया का पेट भरने की क्षमता है. इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि कृषि से जुड़ा पूरा इकोसिस्टम और प्रत्येक हितधारक एक साथ आए और इस बात को सच साबित करे.
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