चीन ने हाल में दो हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल्स का परीक्षण किया, जिससे दुनिया की चिंता बढ़ गई है. चिंता इस बात की है कि चीन नई पीढ़ी के हथियारों को तैयार करने की दिशा में तेज़ी से तरक्की कर रहा है. ब्रिटिश अखबार फाइनेंशियल टाइम्स ने इन परीक्षणों की जानकारी दी है. इस पूरे मामले में एक तरफ़ तो अमेरिकी अधिकारियों ने चुप्पी ओढ़ रखी है, जबकि दूसरे जानकार भी इनमें प्रदर्शित की गई क्षमताओं को लेकर खामोश हैं. इससे पहले सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों के हवाले से चीन को लेकर दूसरी खबरें भी आई थीं. उनमें बताया गया था कि वह सैकड़ों की संख्या में मिसाइल के गोदाम तैयार कर रहा है, जिनमें इंटरकॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल रखे जा सकते हैं.
इन हाइपरसोनिक मिसाइलों की खास बात यह है कि ये बैलेस्टिक मिसाइलों की तरह पैराबोलिक (परवलय) ट्रैजेक्टरी पर नहीं चलते. इसलिए इन ग्लाइड व्हीकल्स का पता लगाना और उन्हें खत्म करना मुश्किल होता है.
फाइनेंशियल टाइम्स ने हाइपरसोनिक मिसाइलों के परीक्षणों की तफ़सील से जानकारी दी है. इनमें बताया गया कि एक लॉन्ग मार्च रॉकेट को हाइपरसोनिक ग्लाइड की मदद से धरती की निचली कक्षा में पहुंचाया गया. जहां यह अपने लक्ष्य की ओर अंतरिक्ष में उड़कर पहुंचा. हालांकि, मिसाइल लक्ष्य को 30-40 किलोमीटर की दूरी से मिस कर गया. इन हाइपरसोनिक मिसाइलों की खास बात यह है कि ये बैलेस्टिक मिसाइलों की तरह पैराबोलिक (परवलय) ट्रैजेक्टरी पर नहीं चलते. इसलिए इन ग्लाइड व्हीकल्स का पता लगाना और उन्हें खत्म करना मुश्किल होता है.
फाइनेंशियल टाइम्स की रिपोर्ट पर टिप्पणी करते हुए अमेरिकी प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा कि ‘जिस तेज़ी से चीन अपनी परमाणु क्षमताओं को बढ़ा रहा है, जिसमें नॉवेल डिलीवरी सिस्टम्स का डेवेलपमेंट’ भी शामिल है, उससे अमेरिका चिंतित है. उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि ‘चीन दशकों से मिनिमम डेटरेंस पर आधारित जिस परमाणु रणनीति पर चलता आया है, वह उससे हट रहा है.’ इस मामले में चीन के पास अपने तर्क हैं. उसका कहना है कि हमने एक ऐसे अंतरिक्ष यान का परीक्षण किया है, जिसे फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है. चीन का यह दावा भी है कि यह परीक्षण जुलाई के मध्य में किया गया था, न कि अगस्त में, जैसा कि फाइनेंशियल टाइम्स की रिपोर्ट में बताया गया है.
परमाणु हथियार को लेकर रणनीति
परमाणु हथियारों के बारे में चीन का यही कहना रहा है कि जब तक कोई उसके खिलाफ़ इनका इस्तेमाल नहीं करता, तब तक वह भी इनका प्रयोग नहीं करेगा. इस मामले में उसका रुख़ भारत की तरह ही रहा है. दोनों ही देशों ने यह वादा किया है कि वे परमाणु हथियार का किसी के खिलाफ़ पहले इस्तेमाल नहीं करेंगे. इतना ही नहीं, भारत और चीन के पास परमाणु हथियारों का बड़ा जख़ीरा भी नहीं है. चीन के पास ऐसे 300 हथियार हैं, जबकि भारत के पास करीब 150. इनकी तुलना में अमेरिका और रूस के पास परमाणु हथियारों का विशाल जख़ीरा है. दोनों ही देशों के पास ऐसे करीब 6,000 हथियार हैं. हालांकि, इनमें से ज्यादातर को तैनात नहीं किया गया है.
भारत और चीन से ये दोनों देश एक और मामले में अलग हैं. उन्होंने इनके पहले इस्तेमाल को लेकर कोई वादा नहीं किया है. अमेरिका कहता रहा है कि परमाणु हथियारों को लेकर उसका रुख़ सभी क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ बने रहने की इच्छा से तय होगा. इनमें परमाणु और पारंपरिक हथियार दोनों ही शामिल हैं. अमेरिका और रूस दोनों ने ही यह भी नहीं कहा है कि अगर उन्हें किसी की ओर से परमाणु हमले की आशंका होगी तो वे इन हथियारों का इस्तेमाल नहीं करेंगे.
परमाणु हथियारों के बारे में चीन का यही कहना रहा है कि जब तक कोई उसके खिलाफ़ इनका इस्तेमाल नहीं करता, तब तक वह भी इनका प्रयोग नहीं करेगा. इस मामले में उसका रुख़ भारत की तरह ही रहा है.
इधर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), रोबोटिक्स और क्वांटम कंप्यूटिंग के क्षेत्र में काफी तरक्की हुई है. अमेरिका इनकी मदद से ऐसे हथियार तैयार कर सकता है, जिससे वह दुश्मन देश के पारंपरिक या परमाणु हथियारों के पहले इस्तेमाल की क्षमता को खत्म कर सकता है. ऐसे में दुश्मन देश किसी भी तरह की जवाबी कार्रवाई नहीं कर पाएगा. ऐसा लगता है कि इन बातों को ध्यान में रखकर चीन नई पीढ़ी के हथियारों पर काम कर रहा है. ऐसा सिर्फ़ एटमी हथियारों को लेकर ही नहीं हो रहा है. वैश्विक हमले की सूरत में इस्तेमाल की जाने वाली पारंपरिक तकनीक और अब हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल्स वेपन्स बहुत जल्द दुश्मन के परमाणु हथियारों और मिसाइल सिस्टम को ध्वस्त कर सकते हैं.
इधर ड्रोन का भी इस्तेमाल बढ़ा है. इसलिए पहले की तुलना में बहुत मामूली बात पर भी पारंपरिक संघर्ष शुरू हो सकते हैं. ईरान के कमांडर कासेम सुलेमानी को ड्रोन की मदद से मारा गया. जम्मू-कश्मीर में हथियार और बम गिराने के साथ सऊदी अरब में तेल ठिकानों पर बमबारी के लिए भी ड्रोन का इस्तेमाल हो चुका है. इससे परमाणु हथियारों को लेकर दुनिया की सोच पर असर पड़ना लाजिमी है. बड़ी संख्या में एआई नियंत्रित ड्रोन, नेटवर्क इंटेलिजेंस और निगरानी क्षमताओं का इस्तेमाल एयरक्राफ्ट कैरियर्स, मिसाइल लॉन्चर्स और परमाणु हथियार के ठिकानों पर पारंपरिक हमले के लिए किया जा सकता है. इस तरह के हमले से किसी देश की हार या जीत तय हो सकती है. इसलिए इन्हें लेकर कई देश द्वंद्व में फंसे हैं.
सामरिक मामलों में सर्वेश्रेष्ठ बने रहने का संघर्ष
2015 के एक आलेख में मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी की फियोना कनिंघम और एम टेलर फ्रावेल ने लिखा था कि अमेरिका भले ही सामरिक मामलों में सर्वश्रेष्ठ बने रहना चाहता है, लेकिन इस वजह से चीन ‘जवाबी हमले’ की अपनी रणनीति में बदलाव नहीं करेगा. हालांकि, वह जवाबी हमले के लिए अपनी तैयारियों का स्तर बढ़ा सकता है. वह इसके लिए मिसाइलों की संख्या और उनकी मारक क्षमता में बढ़ोतरी कर सकता है, जो सीधे अमेरिका पर हमला कर पाएंगे. ऐसा लग रहा है कि उसके बाद से चीन यही कर रहा है. हालांकि, इस रणनीति की वजह से वह अपने ‘मिनिमम डेटरेंस’ वाले रुख़ से पीछे हट रहा है.
ईरान के कमांडर कासेम सुलेमानी को ड्रोन की मदद से मारा गया. जम्मू-कश्मीर में हथियार और बम गिराने के साथ सऊदी अरब में तेल ठिकानों पर बमबारी के लिए भी ड्रोन का इस्तेमाल हो चुका है. इससे परमाणु हथियारों को लेकर दुनिया की सोच पर असर पड़ना लाजिमी है.
चीन भले ही अपनी क्षमता अमेरिका को ध्यान में रखकर बढ़ा रहा है, लेकिन उसका असर भारत पर पड़ना तय है. हाल में चीन और भारत के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव बढ़ा है. इस बीच, पारंपरिक और परमाणु हथियारों को लेकर चीन जो अपनी क्षमता बढ़ा रहा है, उसका असर हम पर पड़ना तय है. जिस तर्क के आधार पर चीन अपने हथियारों की संख्या और मारक क्षमता में बढ़ोतरी कर रहा है, वही तर्क चीन के मुकाबिल भारत के लिए भी ठीक बैठता है. हमारी दिक्कत यह है कि जहां चीन पहले ही एआई और क्वांटम कंप्यूटिंग जैसी तकनीक के मामले में अमेरिका की बराबरी कर रहा है, वहीं भारत में अभी तक डीआरडीओ इस्तेमाल करने लायक ड्रोन भी तैयार नहीं कर पाया है.
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटिजिक स्टडीज (आईआईएसएस) के 2021 अंक के मुताबिक, अभी तक सैन्य संतुलन के मामले में चीन के मुकाबले भारत बहुत पीछे है. भारत के पास तो इंटरमीडिएट रेंज की बैलेस्टिक मिसाइलों (अग्नि 3) की भी पूरी ताकत नहीं है, फिर इंटरकॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइलों (अग्नि 5) की बात तो रहने ही दीजिए. शॉर्ट रेंज की अग्नि 1 और पृथ्वी मिसाइलें पाकिस्तान से निपटने के लिए तो पर्याप्त हैं, लेकिन चीन से मुकाबले के लिए भारत के पास सीमित क्षमता ही है. अभी दुनिया के जिन देशों के पास परमाणु हथियार हैं, उनमें से ज्यादातर मानते हैं कि अस्तित्व का संकट आने पर ही वे इनका इस्तेमाल करेंगे. दूसरी तरफ, भारत और चीन ने अभी तक यही संकेत दिए हैं कि वे परमाणु हथियारों के दम पर किसी की जोर-जबरदस्ती बर्दाश्त नहीं करेंगे और वे इनका इस्तेमाल भी जवाबी कार्रवाई के लिए ही करेंगे. हालांकि, पारंपरिक तकनीक के क्षेत्र में जिस तरह से विकास हो रहे हैं, उससे यह तर्क कमजोर पड़ रहा है. दरअसल, इन तकनीकों की वजह से भारत और चीन जैसे देशों के लिए खतरा बढ़ गया है.
भारत और चीन ने अभी तक यही संकेत दिए हैं कि वे परमाणु हथियारों के दम पर किसी की जोर-जबरदस्ती बर्दाश्त नहीं करेंगे और वे इनका इस्तेमाल भी जवाबी कार्रवाई के लिए ही करेंगे. हालांकि, पारंपरिक तकनीक के क्षेत्र में जिस तरह से विकास हो रहे हैं, उससे यह तर्क कमजोर पड़ रहा है.
इस चुनौती का हल किसी तरह से इन तकनीकों के विस्तार को रोकना है ताकि इंसानों के हाथ से महत्वपूर्ण मामलों में फैसला लेने का अधिकार ही न छिन जाए. लेकिन ऐसी तकनीक के प्रसार को रोकने के लिए वैश्विक सहयोग की बहुत उम्मीद नहीं दिख रही है. इधर, हथियार नियंत्रण समझौतों पर बहुत दबाव दिख रहा है. 2002 में अमेरिका एंटी-बैलेस्टिक मिसाइल समझौते से बाहर निकल गया था. हाल ही में उसने इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज (आईएनएफ) संधि को भी खत्म कर दिया. बाइडेन सरकार ने न्यू स्ट्रैटिजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटी (स्टार्ट) को लेकर रूस के साथ बातचीत की अवधि बढ़ाई है. उसने यह भी कहा है कि वह हथियार नियंत्रण के और उपाय करने को भी तैयार है. दिक्कत यह है कि इस तरह की पहल से चीन को जोड़ना जरूरी है, जो अभी तक इससे कतराता आया है.
असल में, अब यह मसला सिर्फ परमाणु हथियारों और वॉरहेड तक सीमित नहीं रह गया है. यह नई और उभरती हुई तकनीकों से भी जुड़ गया है.
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