Author : Sohini Nayak

Published on May 03, 2021 Updated 0 Hours ago

ये असमंजस की स्थिति तब और भी बढ़ जाती है जब इस गठबंधन में भागीदार पार्टियों का मुख्य एजेंडा राजनीतिक स्थिरता बनाने के बदले गठबंधन का नेतृत्व करने की ओर ज़्यादा दिखाई देता है. 

क्या नेपाल में लोकतंत्र पुनः स्थापित हो सकता है?

नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएन- माओवादी केंद्र) के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ के द्वारा देश में नई सरकार बनाने के संकेत के बाद नेपाल में आंतरिक असंतोष चरम पर है. के पी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार को हटाने की कोशिश के तहत तीन बड़ी पार्टियों- नेपाली कांग्रेस (एनसी), नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएन) और जनता समाजवादी पार्टी- ने एक चुनावी गठबंधन किया है. इस गठबंधन से नेपाल में ऐसी स्थिति बन गई है जो यहां लोकतंत्र को फिर से खड़ा कर भी सकती है और नहीं भी. ये असमंजस की स्थिति तब और भी बढ़ जाती है जब इस गठबंधन में भागीदार पार्टियों का मुख्य एजेंडा राजनीतिक स्थिरता बनाने के बदले गठबंधन का नेतृत्व करने की ओर ज़्यादा दिखाई देता है. बिना किसी संदेह के जनता समाजवादी पार्टी देश को चलाने में धुरी बनने की कोशिश कर रही है क्योंकि संसद में उसकी 32 सीटों का समर्थन ओली और नये गठबंधन- दोनों के लिए बेहद ज़रूरी है. निर्णय लेने की ये उलझन हर बीतते दिन के साथ जटिल होती जा रही है. ऐसे में नेपाल की अस्थिर लोकतांत्रिक प्रणाली और इसकी वजह से नेपाल के आर्थिक और वैश्विक दर्जे पर सवाल खड़ा होता है. 

नेपाल के ताज़ा सत्ता संघर्ष को समझिए

20 दिसंबर 2020 को प्रधानमंत्री ओली ने प्रतिनिधि सभा को भंग किया था. राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने फ़ैसले का समर्थन करते हुए इसे मंज़ूरी दे दी. इससे 2021 में नेपाल में फिर से चुनाव की स्थिति बन गई लेकिन इस फ़ैसले की वजह से नेपाल को पूरी तरह राजनीतिक अस्थिरता का सामना करना पड़ा. स्वाभाविक तौर पर इस फ़ैसले ने पूरे देश और राजनीतिक वर्ग को अस्त-व्यस्त कर दिया. इसकी वजह से सत्ताधारी पार्टी- सीपीएन- फिर से दो धड़ों में बंट गई. 2018 में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी केंद्र) और एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी को मिलाकर सीपीएन की स्थापना की गई थी. प्रतिनिधि सभा भंग करने के ऐतिहासिक फ़ैसले की वजह से संघवाद ख़तरे में आ गया जो 2015 के संविधान का एक बड़ा हिस्सा है. कई नीति निर्माताओं के मुताबिक़ इस फ़ैसले की वजह से ‘राजतंत्र समर्थकों और छोटे-छोटे गुटों की लोकतंत्र विरोधी गतिविधियों’ में बढ़ोतरी हुई. 

नेपाल में अस्थिर सरकार होने के कई कारण हैं. पहली वजह के तौर पर निश्चित रूप से भ्रष्टाचार का ज़िक्र होना चाहिए जिसे अक्सर नेपाल में एक ‘बीमारी’ माना जाता है.

फरवरी 2021 में मुख्य न्यायाधीश चोलेंद्र शमशेर राणा के नेतृत्व वाली संवैधानिक पीठ ने प्रतिनिधि सभा को भंग करने के फ़ैसले को ‘असंवैधानिक’ बताते हुए इसे फिर से बहाल कर दिया. लेकिन इस फ़ैसले के बावजूद लगता नहीं है कि एक स्थायी सरकार का शासन नेपाल में चल रहा है. एक तरफ़ जहां ओली पर नैतिक ज़िम्मेदारी के तहत अपने पद से हटने का दबाव है वहीं दूसरी तरफ़ इस खालीपन को कौन भरेगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है क्योंकि गठबंधन के सदस्यों के बीच अभी तक कोई सर्वसम्मति नहीं बनी है. इस परिस्थिति में ओली के द्वारा संसद के सत्र से ठीक पहले अपने निवास स्थान बालुवाटार में सर्वदलीय बैठक बुलाना एक स्वागत योग्य क़दम लगता है. 

नेपाल का नाज़ुक लोकतंत्र

2019 में वास्तव में ओली पहले ऐसे प्रधानमंत्री बने जो पिछले 29 वर्षों में, पूर्व राजा ज्ञानेंद्र को छोड़ दें तो, अपनी ‘कुर्सी’ कम-से-कम एक साल तक बचाए रखने में कामयाब रहे. नेपाल ने इस दौरान 25 प्रधानमंत्रियों को देखा. नेपाल पिछले तीन दशकों में उथल-पुथल वाले राजनीतिक बदलाव का सामना कर रहा है. इस दौरान एक दशक तक (1996-2006) सशस्त्र संघर्ष भी चला. पिछले 70 वर्षों में नेपाल ने सात संविधान देखे हैं. इस तरह लोकतंत्र की तरफ़ पहला ‘जटिल और बड़ा राजनीतिक परिवर्तन’ 2006 में शांति समझौते और 2007 में एक अस्थायी संविधान की घोषणा से हुआ. अंत में जब 2015 में नेपाल के आख़िरी संविधान ने देश को एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य, जिसमें सरकार के तीन स्तर (केंद्रीय, प्रांतीय और स्थानीय) होंगे, में बदला तो स्थिर संतुलन के लिए एक उम्मीद की किरण नज़र आई. लेकिन 2015 से नेपाल में ऐसी एक भी सरकार नहीं बनी जो मुश्किलों से उबर पाई हो. नेपाल को इस दौरान भारत की घेराबंदी का भी सामना करना पड़ा जिसे अभी भी न सिर्फ़ वित्तीय विवाद बल्कि एक मानवीय संकट के तौर पर भी याद किया जाता है. 

नेपाल में अस्थिर सरकार होने के कई कारण हैं. पहली वजह के तौर पर निश्चित रूप से भ्रष्टाचार का ज़िक्र होना चाहिए जिसे अक्सर नेपाल में एक ‘बीमारी’ माना जाता है.  2018 में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में नेपाल का स्कोर 31 था (इंडेक्स में 100 स्कोर का मतलब सबसे कम भ्रष्ट). वैश्विक और क्षेत्रीय मानवाधिकार समूहों के मुताबिक सार्वजनिक संसाधनों के दुरुपयोग से लेकर 2019 में मीडिया को लेकर बनाए गए सख़्त क़ानून, जिसका उद्देश्य ‘असंतोष को दबाना और आलोचना की आवाज़ों को चुप करना’ था, तक शासन व्यवस्था कमज़ोर और अस्पष्ट है. जहां राजनीतिक व्यवस्था पर ‘संभ्रांतों का कब्ज़ा हो, राजनीतिक संरक्षण और भ्रष्टाचार की वजह से भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई में तकनीकी समर्थन में कमी आए’ वहां मुस्तैद सिविल सोसायटी, मीडिया और नागरिकों के संगठन बनने लगे.  

नेपाल जैसे ‘नाज़ुक देश’ में इस वक़्त की सबसे बड़ी ज़रूरत है सूचनाओं तक नागरिकों की पहुंच, राजनीतिक पार्टियों के साथ समन्वय के अवसर और लोगों की तरफ़ से बेहतर चुनावी चेतना.

‘गवर्नेंस एंड इंस्टीट्यूशनल रिस्क्स एंड चैलेंजेज इन नेपाल’ के शीर्षक से रचना श्रेष्ठ द्वारा तैयार एशियाई विकास बैंक की एक रिपोर्ट (दिसंबर 2019) में उन और कुछ महत्वपूर्ण कारणों के बारे में बताया गया है जिसकी वजह से नेपाल में अविश्वसनीय सरकार हैं जैसे नियमों और क़ानूनों को ख़राब ढंग से लागू करना; कमज़ोर संस्थागत क्षमता; भ्रष्ट और कमज़ोर न्यायिक प्रणाली और ‘सुविधा शुल्क’ की वजह से नेपाल में कारोबार करने की ज़्यादा लागत. नतीजतन नेपाल जैसे ‘नाज़ुक देश’ में इस वक़्त की सबसे बड़ी ज़रूरत है सूचनाओं तक नागरिकों की पहुंच, राजनीतिक पार्टियों के साथ समन्वय के अवसर और लोगों की तरफ़ से बेहतर चुनावी चेतना. 

ऐसा लगता है कि नेपाल के जनसाधारण में राजनीतिक जागरूकता की कमी है. इसकी वजह से आम लोगों और राजनीतिक पार्टियों के बीच दूरी बढ़ जाती है. सामाजिक और आर्थिक स्थिति जैसे ग़रीबी और सदियों पुरानी जाति प्रथा जैसी प्रणाली को बनाए रखने को अक्सर इसकी वजह माना जाता है. आम लोगों और राजनीतिक पार्टियों के बीच इसी दूरी का फ़ायदा उठाकर 1996 में माओवादी आंदोलन की शुरुआत हुई जिसका मक़सद राजशाही वाली संसदीय प्रणाली को जनतांत्रिक सामाजिक गणराज्य में बदलना था. इस आंदोलन की वजह से कमज़ोर वर्गों जैसे दलितों और महिलाओं के समूहों के साथ ‘लोकतांत्रिक संवाद’ की शुरुआत हुई. राष्ट्रीय महिला आयोग की पंचवर्षीय रणनीतिक योजना (2009-2014) इसकी गवाह है.  

नेपाल में फिर से चुनाव कराना ज़रूरी है लेकिन ये तब तक संभव नहीं है जब तक कि आंतरिक तनाव ख़त्म नहीं होता. ये इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि ‘व्यापक ग़रीबी और पिछड़ापन के साथ किसी भी तरह की हिंसा या संस्थागत काम का ठप होना’ नेपाल को एक बार फिर अतीत के अशांत दौर में ले जा सकता है. 

निष्कर्ष

ये दलील अक्सर दी जाती है कि लोकतांत्रिक देश में नेपाल का बदलाव एक ‘अधूरी परियोजना’ है. इस बात को निश्चित तौर पर मानना चाहिए कि नेपाल ख़ुद को बार-बार स्थिर करने की कोशिश कर रहा है.  उदाहरण के तौर पर माओवादी उग्रवाद, जिसका अंत 2006 में हुआ था, और मौजूदा कोविड-19 संकट नेपाल जैसे निम्न मध्यम आय वाले देश के लिए बड़ा झटका साबित हो सकते हैं. 

न तो ओली को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर किया जा सकता है और न ही बिना तैयारी के सरकार बनाई जा सकती है. लोकतंत्र का मूल तत्व फ़ैसला लेने और सर्वसम्मति बनाने में है जो सिर्फ़ बातचीत और उसके बाद चुनाव के ज़रिए ही हासिल किया जा सकता है.

इस मुद्दे का हल सबसे पहले नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर आंतरिक मतभेदों को दूर करने से हो सकता है और उसके बाद दूसरी पार्टियों जैसे जनता समाजवादी पार्टी को अपनी बात स्पष्ट तरीक़े से रखने के लिए मौक़ा देकर, जिसका नतीजा गठबंधन के रूप में हो सकता है. न तो ओली को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर किया जा सकता है और न ही बिना तैयारी के सरकार बनाई जा सकती है. लोकतंत्र का मूल तत्व फ़ैसला लेने और सर्वसम्मति बनाने में है जो सिर्फ़ बातचीत और उसके बाद चुनाव के ज़रिए ही हासिल किया जा सकता है. इसके साथ-साथ नेपाल को बाहरी ताक़तों जैसे भारत और चीन के हस्तक्षेप से भी परहेज़ करना चाहिए. ये दोनों ऐसे देश हैं जिनके बारे में अक्सर कहा जाता है कि नेपाल की आंतरिक राजनीति के पीछे इनकी भूमिका है. मज़बूत पड़ोसियों को लेकर अपने व्यवहार में नेपाल को संतुलन बनाना चाहिए और ‘बफर’ देश के अपने दर्जे से आगे बढ़ना चाहिए. अगर सब कुछ सोच-समझकर जल्द-से-जल्द फ़ैसला नहीं लिया गया तो नेपाल की अस्थिर राजनीतिक रूप-रेखा पर एक अनिश्चित भविष्य का ख़तरा छिपा हुआ है. 

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