28 जुलाई को अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने ज़ोर देकर कहा था कि क्वॉड कोई सैन्य गठबंधन नहीं है. बल्कि, ये एक ऐसी व्यवस्था है जो अंतरराष्ट्रीय नियमों और मूल्यों को बनाए रखकर क्षेत्रीय सहयोग और सुरक्षा स्थापित करने की अगुवाई करेगा. जब ब्लिंकेन ने बयान दिया, तो वो दो दिन के भारत दौरे पर आए हुए थे.
इसी तरह से, भारत के विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर ने कहा कि कुछ देशों को इस सोच से आगे बढ़ना होगा कि ‘दूसरे देश ऐसे काम कर रहे हैं जो उनके ख़िलाफ़ मोर्चेबंदी है’. हालांकि इन सभी बातों के बावजूद चीन ने क्वॉड के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाया हुआ है, और वो ख़ुद को असुरक्षित महसूस करता है. दिलचस्प बात ये है कि कुछ अन्य देश भी इस नज़रिए से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं. भले ही वो कुछ कम हो या ज़्यादा.
.आज जब हिंद प्रशांत और अन्य क्षेत्रों में क्वॉड अपनी भूमिका को मज़बूत करता जा रहा है, तो पांच देशों के एक दिलचस्प गठबंधन चर्चाएं भी ख़ूब चल रही हैं. जब पिछले साल ईरान के दूत ने ये प्रस्ताव पाकिस्तान के सामने रखा था, तब से इस विषय पर काफ़ी बयान आ रहे हैं कि चीन, रूस, पाकिस्तान, ईरान और तुर्की एक साथ आकर सुरक्षा की एक क्षेत्रीय सहयोग वाली व्यवस्था बना सकते हैं.
आज जब हिंद प्रशांत और अन्य क्षेत्रों में क्वॉड अपनी भूमिका को मज़बूत करता जा रहा है, तो पांच देशों के एक दिलचस्प गठबंधन चर्चाएं भी ख़ूब चल रही हैं. जब पिछले साल ईरान के दूत ने ये प्रस्ताव पाकिस्तान के सामने रखा था, तब से इस विषय पर काफ़ी बयान आ रहे हैं कि चीन, रूस, पाकिस्तान, ईरान और तुर्की एक साथ आकर सुरक्षा की एक क्षेत्रीय सहयोग वाली व्यवस्था बना सकते हैं.
हक़ीक़त ये है कि जो देश एक जैसे मूल्यों पर यक़ीन नहीं रखते, उनके बीच भरोसे की कमी के चलते ऐसे सहयोग की व्यवस्था जटिल हो जाती है. फिर ये गठबंधन आपसी तालमेल के मामले में ज़्यादा कामयाबी नहीं हासिल कर पाते. इससे भी ज़्यादा अहम ये है कि जिस ख़ास गठबंधन की बात हम कर रहे हैं, उनमें वो देश शामिल हैं, जो अपने अपने सामरिक मक़सदों का एक संकीर्ण नज़रिया आपस में साझा करते हैं. इन बातों को देखते हुए, क्वॉड के प्रभाव का मुक़ाबला करने के लिए ऐसी व्यवस्था शायद योजना के मुताबिक़ आगे न बढ़ सके.
साझा विचारों के क्षेत्र
इन पांच देशों को जो बात साथ लाती है, वो ये है कि इनमें से हर देश को क्वॉड के किसी न किसी देश से शिकायतें हैं, या फिर उसके सामरिक हित क्वॉड के किसी देश से टकराते हैं. चीन और रूस शुरू से ही चार देशों के गठबंधन क्वॉड के ख़िलाफ़ रहे हैं. क्योंकि उन्हें डर है कि ये गठबंधन उनकी घेरेबंदी और उन्हें अलग थलग करने के लिए बना है. क्वॉड के प्रति संतुलन बनाने की कोशिश में रूस और चीन कई बार साथ आए हैं. इस साल हुए क्वॉड के पहले शिखर सम्मेलन पर जब प्रतिक्रिया मांगी गई, तो चीन ने बिफ़रते हुए कहा था कि, ‘कुछ देशों के वैचारिक गठबंधन को पैमाना बनाना निश्चित रूप से अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को तबाही की ओर ले जाने वाला क़दम है.’
वहीं दूसरी तरफ़ रूस ने भी कम-ओ-बेश ऐसे ही तर्क देते हुए कहा है कि, ‘हिंद प्रशांत सामरिक रणनीति’ और ‘तथाकथित क्वॉड’ को बढ़ावा देकर ‘पश्चिमी देश चीन विरोधी खेल खेल रहे हैं’. इसके अलावा, 2014 में यूक्रेन के हवाले से पश्चिमी देशों ने रूस पर जो सख़्त पाबंदियां लगाई हैं, उसके चलते रूस ने एक आर्थिक विकल्प के तौर पर चीन से नज़दीकी बढ़ाने की नीति पर अमल किया है.
2014 में यूक्रेन के हवाले से पश्चिमी देशों ने रूस पर जो सख़्त पाबंदियां लगाई हैं, उसके चलते रूस ने एक आर्थिक विकल्प के तौर पर चीन से नज़दीकी बढ़ाने की नीति पर अमल किया है.
अमेरिका के साथ ईरान के रिश्ते भी लगातार बिगड़ते ही जा रहे हैं. इसकी बड़ी वजह ट्रंप प्रशासन द्वारा ईरान पर लगाए गए कड़े आर्थिक प्रतिबंध हैं, जिनका ईरान पर बहुत बुरा असर पड़ा है. इसके अलावा उठा-पटक के इस दौर में चीन ने अमेरिका द्वारा लगाई गई पाबंदियों के ख़िलाफ़ जाते हुए, ईरान से तेल आयात करके ख़ुद को एक अहम साझीदार के तौर पर पेश किया है.
इसके साथ साथ, इस साल मार्च में ईरान और चीन ने 400 अरब डॉलर का एक बड़ा सामरिक समझौता किया है. इसके तहत चीन, ईरान से कच्चा तेल ख़रीदेगा. वहां निवेश बढ़ाएगा और दोनों देश आपसी सैन्य सहयोग को भी मज़बूत करेंगे. चीन के साथ रूस ने भी ईरान के अहम सुरक्षा साझीदार के तौर पर अपने रिश्तों को मज़बूती दी है.
उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) का एक सदस्य देश होने के बावजूद तुर्की, अमेरिका से असंतुष्ट है. इसकी बड़ी वजह ये है कि ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका के काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शंस एक्ट (CAATSA) क़ानून के तहत तुर्की पर इसलिए पाबंदी लगा दी, क्योंकि तुर्की ने पिछले साल रूस से S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदने का समझौता किया था. इसके अलावा, पाकिस्तान की ओर से तुर्की द्वारा भारत के घरेलू मामलों में दखल देने और मुद्दों का अंतरराष्ट्रीयकरण करने का, भारत ने भी तुर्की को कड़ा जवाब दिया था. इसलिए तुर्की भी क्वॉड के ख़िलाफ़ बन रहे गठबंधन के प्रति झुकाव रखता है.
वहीं दूसरी तरफ़, पाकिस्तान तो हर उस व्यवस्था का समर्थन करता है जो भारत के ख़िलाफ़ है, या फिर उसके प्रभाव को सीमित करती है. भारत के पूर्व राजदूत विष्णु प्रकाश के मुताबिक़, ‘पाकिस्तान हर उस मोर्चेबंदी का हिस्सा बनने के लिए तैयार रहता है, जिससे किसी भी तरह से भारत को नुक़सान पहुंचने की संभावना हो.’
भारत से संतुलन बनाने की इस कोशिश में चीन, पाकिस्तान का सबसे बड़ा सहयोगी रहा है. इसके अलावा पाकिस्तान लगातार इस्लामिक देशों की अगुवाई करने की ज़िम्मेदारी लेने की तुर्की की कोशिशों का समर्थन करता रहा है, क्योंकि तुर्की ने कश्मीर मसले पर खुलकर पाकिस्तान के हक़ में आवाज़ उठाई है. इसके साथ साथ भारत के अमेरिका से नज़दीकी बढ़ाने के चलते पाकिस्तान लगातार रूस और ईरान के साथ अपने सामरिक रिश्तों को मज़बूत करने में जुटा हुआ है.
क्या ये कारण पर्याप्त हैं?
हालांकि, ये कारण तो सुरक्षा का एक मज़बूत क्षेत्रीय ढांचा बनाने के लिए ही पर्याप्त नहीं हैं. इनके आधार पर क्वॉड से संतुलन बनाने वाला एक ताक़तवर गठबंधन तो क्या ही बनेगा. कुछ ख़ास मक़सद इन देशों को एक मोर्चे पर तो साथ ज़रूर लाते हैं. मगर, ये सभी पांच देश आपस में मूल्य और सिद्धांत साझा नहीं करते, जिनके आधार पर कोई टिकाऊ व्यवस्था खड़ी की जा सके. इनमें से कुछ देश तानाशाही हैं तो कुछ धर्म के आधार पर बने हैं. इसलिए, इन देशों के बीच इतना लचीलापन नहीं है, जिससे गठबंधन बहुत दूर तक जा सके. इसके अलावा, इन सभी में से हर देश के मन में दूसरे के प्रति अविश्वास की दुविधा भी है.
हो सकता है कि अपने कुछ ख़ास सामरिक लक्ष्य साधने के लिए इस वक़्त चीन और रूस अहम सामरिक साझीदार बन गए हों; लेकिन, अगर क़रीब से निगाह डालें तो पता चलता है कि चीन, रूस के साथ कुछ ख़ास मसलों पर ही सहयोग करता है, जिससे उसके निजी हित सध सकें. कई बड़े मौक़ों पर चीन ने रूस का साथ देने में अपनी अनिच्छा ज़ाहिर की है. इनमें क्राइमिया और यूक्रेन के मसले पर उसका रूस के साथ खड़े होने से इनकार करना शामिल है.
NATOका एक सदस्य देश होने के बावजूद तुर्की, अमेरिका से असंतुष्ट है. इसकी बड़ी वजह ये है कि ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका के काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शंस एक्ट (CAATSA) क़ानून के तहत तुर्की पर इसलिए पाबंदी लगा दी, क्योंकि तुर्की ने पिछले साल रूस से S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदने का समझौता किया था.
इसके साथ साथ चीन, रूस के पारंपरिक प्रभाव क्षेत्रों जैसे कि मध्य एशिया में अपनी सामरिक शक्ति बढ़ा रहा है. अब चीन का हथियारों की फ़रोख़्त, प्रशिक्षण के कार्यक्रम और नए सैन्य अड्डे बनाकर पूर्व सोवियत गणराज्यों पर अपनी दादागीरी जमाने से आगे चलकर निश्चित रूप से रूस के प्रभाव और उसके हितों को नुक़सान पहुंचेगा.
वैसे तो तुर्की और ईरान के बीच आर्थिक संबंध सुधर रहे हैं. लेकिन, उनके सामरिक संबंधों के बारे में ये बात कह पाना मुश्किल है. कई क्षेत्रीय जियोपॉलिटिकल मुद्दों मसलन, सीरिया की जंग, ईराक़ के हालात और इज़राइल से संबंधों को लेकर, तुर्की और ईरान एक दूसरे के विरोधी ख़ेमे में खड़े नज़र आए हैं. इसके अलावा जब तुर्की ने ईरान के साथ कच्चा तेल ख़रीदना कम कर दिया, तो इससे दोनों देशों के आपसी संबंध की उपयोगिता को लेकर मिले जुले संकेत देखने को मिले थे.
रूस के साथ भी तुर्की के संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं. रिश्तों में गर्मजोशी बढ़ाने की तमाम कोशिशों के बावजूद, रूस और तुर्की के बीच अविश्वास बढ़ाने वाले कई मसले क़ायम हैं. दक्षिणी कॉकेशस और मध्य एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने में तुर्की की दिलचस्पी और यूक्रेन को तुर्की का सक्रिय सैन्य सहयोग, रूस के साथ उसके संबंध को भड़काने का काम करते रहे हैं.
ज़मीनी हालत की ये सच्चाइयां ये बताती हैं कि जिस पांच देशों वाले गठबंधन की बातें हो रही हैं वो ख़ुद को एक मज़बूत और एकजुट समूह के रूप में ही खड़ा नहीं कर सकता, क्वॉड का ताक़तवर प्रतिद्वंदी तो वो ख़ैर क्या ही बनेगा.
वहीं, ईरान के साथ रिश्तों में दरार पाटने की पाकिस्तान की कोशिशों की राह में भी कई रोड़े नज़र आते हैं. चूंकि, पाकिस्तान आर्थिक मदद के लिए सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात पर बहुत अधिक निर्भर है, तो उसको कई मसलों पर ईरान के साथ अपने रिश्ते सुधारने में मुश्किलें आती हैं. इसके अलावा तुर्की के साथ चीन के रिश्ते भी विवादों से घिरे हुए हैं, ख़ास तौर से वीगर मुसलमानों के साथ चीन के नाइंसाफ़ी भरे बर्ताव को लेकर, दोनों देशों में तनाव रहा आता है.
ज़मीनी हालत की ये सच्चाइयां ये बताती हैं कि जिस पांच देशों वाले गठबंधन की बातें हो रही हैं वो ख़ुद को एक मज़बूत और एकजुट समूह के रूप में ही खड़ा नहीं कर सकता, क्वॉड का ताक़तवर प्रतिद्वंदी तो वो ख़ैर क्या ही बनेगा. इसके पीछे बड़ी वजह इन देशों के बीच भरोसे की कमी और अपने अपने सामरिक हित साधने की छोटी सोच है. जहां क्वॉड स्थिरता, पारदर्शी विकास और क्षेत्र के सभी देशों के बीच व्यवस्थित संबंध की बातें करता है. वहीं, पांच देशों के इस गठबंधन के हर देश की महत्वाकांक्षाओं का ही शिकार बनने की आशंका है. इससे बाक़ी दुनिया को एक महत्वपूर्ण और सकारात्मक लाभ देने का लक्ष्य हासिल करना और मुश्किल हो जाएगा. इससे पांच देशों के इस प्रस्तावित गठबंधन की न सिर्फ़ उपयोगिता कम हो जाएगी, बल्कि ये दुनिया में शांति के संतुलन के लिए भी तबाही लाने वाला होगा.
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