Published on Apr 12, 2021 Updated 0 Hours ago

अब भारत को ‘शून्य कार्बन उत्सर्जन’ का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए और इसे भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित प्रतिबद्धताओं (NDC) का हिस्सा बनाना आदर्श क़दम होगा.

हरित भारत का रास्ता कार्बन न्यूट्रल बनने से होकर गुज़रता है

अगर जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने में हम आत्मसंतोष के चलते नाकाम  हुए, तो ध्यान भटकाने वाली बातों से ज़रूर हो जाएंगे. आज जब दुनिया कोविड-19 की महामारी से जूझ रही है, तो जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से निपटने के लिए की जाने वाली प्रतिबद्धताएं नीति नियंताओं की प्राथमिकता सूची से खिसकती जा रही हैं. हां, ये बात तो सच है कि इस महामारी और आर्थिक वृद्धि और ऊर्जा के इस्तेमाल पर इसके प्रभाव के चलते दुनिया भर में कार्बन उत्सर्जन कम हुआ है. उदाहरण के लिए, क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के अनुसार, भारत में वर्ष 2019 की तुलना में 2020 में ग्रीनहाउस गैसों (GHC) के उत्सर्जन में 6 से 10 प्रतिशत तक की गिरावट आई है. हालांकि, भारत के लिए बुद्धिमानी इसी में है कि वो जलवायु संरक्षण को लेकर किए गए अपने वादों से मुंह  मोड़े. इससे भी अच्छा तो ये होगा कि भारत, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए और वचनबद्धता दिखाए.

आजदुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 21 भारत मेंहैं- और जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभाव लोगों की सेहत और दूरगामी आर्थिक प्रगति के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुके हैं.

चूंकि भारत, दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है. ग्रीन हाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी 7.1 प्रतिशत है. ऐसे में भारत के सामने अपनी अलग तरह की चुनौतियां हैं. ग़रीबी उन्मूलन और आमदनी में टिकाऊ वृद्धि के लिए आर्थिक विकास ज़रूरी है. लेकिन, इससे पर्यावरण को काफ़ी नुक़सान भी हो रहा हैआज दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 21 भारत में हैं और जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभाव लोगों की सेहत और दूरगामी आर्थिक प्रगति के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुके हैं. ऐसे में जलवायु का संरक्षण करना, बाद में सोचने वाली बात नहीं रह गई है; बल्कि, आज इसे भारत के विकास की रणनीति का प्रमुख स्तंभ बनाने की आवश्यकता है.

धरती के बढ़ते तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का लक्ष्य सुरक्षित तो है, लेकिन ये बहुत अच्छा लक्ष्य नहीं कहा जा सकता है

तमाम आकलन कहते हैं कि 2015 के पेरिस जलवायु समझौते की परिकल्पना के तहत हर देश द्वारा तय किए गए योगदान, धरती के बढ़ते तापमान को औसतन 2 डिग्री सेल्सियस के स्तर पर सीमित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. और इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस के महत्वाकांक्षी लक्ष्य तक लाने की तो गुंजाइश ही नहीं दिखती. राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान (NDCs) की हर पांच साल में होने वाली समीक्षाएं भी इस मामले में पर्याप्त साबित नहीं हुई हैं. क्लाइमेट वाच के मुताबिक़, दुनिया के 82 वो देश, जो वैश्विक उत्सर्जन के 32.7 प्रतिशत के लिए ज़िम्मेदार हैं, उन्होंने और कार्बन उत्सर्जन के और महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित करने का इरादा जताया है. इनमें से केवल 44 देश और यूरोपीय संघ के 27 सदस्य देश ही हैं, जो वर्ष 2020 तक राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं वाले लक्ष्य को तय समयसीमा तक जमा कर पाए थे. ये विशेषज्ञों द्वारा सुझाए गए लक्ष्य से काफ़ी कम है: कार्बन उत्सर्जन को घटाने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य आज की तुलना में कम से कम तीन गुने ज़्यादा होने चाहिए, जिससे कि 2 डिग्री सेल्सियस की राह पर आगे बढ़ा जा सके. वहीं, एमिसन गैप रिपोर्ट के अनुसार, धरती के बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए हमें अपनी मौजूदा ज़िम्मेदारियों को कम से कम पांच गुना तक बढ़ाना होगा.

हालांकि, दुनिया के भविष्य के लिहाज़ से सब कुछ बुरा ही नहीं हो रहा है. दुनिया के 120 से अधिक देशों ने कार्बन न्यूट्रल होने के अपने मक़सदों का एलान कर दिया है. इनमें सबसे हालिया देश है चीन, जो विश्व में कार्बन डाई ऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जक है. जो बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका में नए राष्ट्रपति के आगमन के साथ ही अमेरिका, दोबारा पेरिस जलवायु समझौते में शामिल हो गया है. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा अपनी सरकार में जलवायु परिवर्तन से जुड़े मसले देखने के लिए कैबिनेट स्तर के एक नए पद का गठन किया गया है. जो बाइडेन ने इस पद के लिए अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री जॉन केरी का चुनाव किया है. ये फ़ैसला इस बात का प्रतीक है कि बाइडेन अपनी विदेश नीति में जलवायु को केंद्र में रखने को प्रतिबद्ध हैं.

लेकिन, इन सभी वचनों के बावजूद, बाईसवीं सदी की शुरुआत के वक़्त ग्लोबल वॉर्मिंग हमारे तय लक्ष्यों से कहीं अधिक रह सकती है. यही वो बात है, जहां भारत एक महत्वपूर्ण भुमिका निभा सकता है. भारत ने इस मामले में अपनी संभावनाओं से कहीं कम उपलब्धियां हासिल की हैं. हालांकि क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर (CAT) के विश्लेषणों में ये कहा जा रहा है कि भारत 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को प्राप्त करने की सही राह पर है. लेकिन, अभी भी देश की नीतियां ऐसी नहीं हैं कि भारत 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को प्राप्त कर सके. इससे भी ख़राब बात ये है कि अभी तक भारत अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) को भी संशोधित नहीं कर सका है.

एक अधिक हरित और ज़्यादा समृद्ध भविष्य का रास्ता

ऐसा लगता है कि भारत सरकार जलवायु परिवर्तन की अहमियत और हरित अर्थव्यवस्था की ज़रूरत को भलीभांति समझती है. नवीनीकरण योग्य ऊर्जा और बिजली से चलने वाले वाहनों (EV) को लेकर भारत की जो नीतियां हैं, वो इसी की ओर इशारा करती हैं. फिर भी, भारत के लिए उचित यही होगा कि वो कार्बन न्यूट्रल होने का लक्ष्य पाने के लिए व्यापक और एक दूसरे से जुड़ी हुई नीतियां बनाए और लक्ष्य निर्धारित करे.

.अमेरिका, दोबारा पेरिस जलवायु समझौते में शामिल हो गया है. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा अपनी सरकार में जलवायु परिवर्तन से जुड़े मसले देखने के लिए कैबिनेट स्तर के एक नए पद का गठन किया गया है

निश्चित रूप से भारत का ध्यान प्रमुख रूप से ऊर्जा के क्षेत्र पर होना चाहिए. वर्ष 2030 तक भारत की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने वाले 60 प्रतिशत संसाधनों के नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोत से आने का लक्ष्य अच्छा है. लेकिन, इस मक़सद को हासिल करने के लिए आवश्यक नीतियों को लागू करने की गति तेज़ की साज सकती है. एक दशक पहले की तुलना में आज इससे जुड़े बाज़ार की स्थिति भी बेहतर हुई है. नवीनीकरण योग्य ऊर्जा संसाधनों में भी अधिक ज़ोर, सौर और पवन ऊर्जा पर होना चाहिए. चूंकि, जल विद्युत परियोजनाओं से पारिस्थितिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. इसलिए, इसे केवल आख़िरी विकल्प के तौर पर आज़माया जाना चाहिए. सबसे बड़ी चुनौती कोयले के इस्तेमाल की है. भारत की ऊर्जा संबंधी फ़ौरी ज़रूरतें पूरी करने में कोयले की भूमिका महत्वपूर्ण है. लेकिन, कोयले से सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है. ऐसे में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के स्रोतों को बढ़ाने से हम कोयले के इस्तेमाल की मजबूरी से मुक्ति पा सकेंगे और इससे बिजली की अबाध आपूर्ति की राह में बाधा भी नहीं पड़ेगी.

दूसरा क़दम जो भारत उठा सकता है, वो परिवहन की हरित व्यवस्था की ओर तेज़ी से क़दम बढ़ाने का है. इलेक्ट्रिक गाड़ियों के महत्वाकांक्षी लक्ष्य एक अच्छी शुरुआत कहे जा सकते हैं. लेकिन, ऐसे परिवहन के लिए कार और बैटरी निर्माताओं के साथसाथ बैटरी चार्ज करने के मज़बूत इकोसिस्टम का विकास भी महत्वपूर्ण है. ऐसा करने के लिए, निजी और सरकारी क्षेत्र से वर्ष 2030 तक लगभग 180 अरब डॉलर के निवेश की ज़रूरत होगी. ये अनुमान सेंटर फ़ॉर एनर्जी फाइनेंस द्वारा किए गए अध्ययन पर आधारित है. भारतीय रेल द्वारा वर्ष 2030 शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य पाने के लिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच साझेदारी को भी बढ़ाने की ज़रूरत होगी.

तीसरी बात ये है कि भारत को शहरी आवास की नए सिरे से परिकल्पना करने की ज़रूरत है. भारत में शहरों के विकास की संभावनाओं को देखते हुए, शहर के भीतर परिवहन की मांग में वृद्धि होगी. इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए शहरों को बिजली से चलने वाली गाड़ियों के साथ साथ ऐसी परिवहन व्यवस्था की भी ज़रूरत होगी, जो कार्बन न्यूट्रल हो. नए रिहाइशी प्रोजेक्ट और कारोबारी संपत्तियों के लिए हरित नियम बनाने होंगे. इसके अलावा पुरानी इमारतों को कार्बन न्यूट्रल बनाने के लिए उनमें भी बदलाव करना होगा. इसे शहरों में पर्यावरण के अनुकूल रिहाइशी व्यवस्था का विकास हो सकेगा. इन सबके साथसाथ शहरों में पेड़ों की संख्या बढ़ाने की भी ज़रूरत होगी.

कोयले से सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है. ऐसे में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के स्रोतों को बढ़ाने से हम कोयले के इस्तेमाल की मजबूरी से मुक्ति पा सकेंगे और इससे बिजली की अबाध आपूर्ति की राह में बाधा भी नहीं पड़ेगी

और आख़िर में, नीति निर्माताओं को कोयले से बिजली बनाने की व्यवस्था में ऐसा बदलाव करना होगा, जिससे वो कार्बन उत्सर्जन की भरपाई कर सकें. यही बात स्टील, सीमेंट और केमिकल उद्योग पर भी लागू करनी होगी. कार्बन संरक्षण, उपयोग और भंडारण (CCUS) को बढ़ावा देना इसका एक विकल्प हो सकता है. एक और विकल्प ये हो सकता है कि स्वच्छ ईंधन के स्रोतों जैसे कि हाइड्रोजन का इस्तेमाल करने को इनाम देकर प्रोत्साहित किया जाए. बल्कि बेहतर होगा कि इन उद्योगों को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित कार्बन प्रतिबद्धताओं का हिस्सा बनाने से वैश्विक स्तर पर हमने जो बचन दिए हैं, उन्हें पूरा करने के लिए नए नए विचार मिल सकेंगे. वहीं अगर ऐसी प्रतिबद्धताओं से कार्बन टैक्स और कुशल उत्सर्जन वाले कारोबार के लिए ज़रूरी नियमों में बदलाव हो सके, तो भारत अपनी पर्यावरण संबंधी चुनौतियों से आसानी से निपट सकेकोयले से सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है. ऐसे में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के स्रोतों को बढ़ाने से हम कोयले के इस्तेमाल की मजबूरी से मुक्ति पा सकेंगे और इससे बिजली की अबाध आपूर्ति की राह में बाधा भी नहीं पड़ेगी.गा. इससे भारत के उद्योग भी भविष्य की उन चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार हो सकेंगे, अगर कोई नियमों पर आधारित ऐसी वैश्विक व्यवस्था निर्मित की जाए, जो लंबी अवधि में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को मानक बनाएं.

जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य बेहद महत्वपूर्ण है

भारत सरकार द्वारा हाल में उठाए गए नीतिगत क़दम उत्साह बढ़ाने वाले हैं उदाहरण के लिए, भारत पेरिस जलवायु समझौते के तहत दिए गए अपने वादे पूरी करने की सही दिशा में बढ़ रहा है, ये सुनिश्चित करने के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक उच्च स्तरीय अंतर मंत्रिस्तरीय समिति का गठन किया है. ये समिति पेरिस जलवायु समझौते को लागू करने पर नज़र रखेगी. लेकिन, अब समय और साहसिक क़दम उठाने का है. अब भारत को शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए और इसे भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित प्रतिबद्धताओं (NDC) का हिस्सा बनाना आदर्श क़दम होगा. ख़ास तौर से तब और जब भारत, इस ग्रह को आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित करने की वैश्विक लड़ाई का अगुवा बनना चाहता है.

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