Author : Nandan Dawda

Expert Speak Terra Nova
Published on Jun 25, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत को अगर नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करना है, तो उसे अपने ट्रांसपोर्ट सेक्टर को कार्बन मुक्त करने के लिए हर हाल में अपनी नीतियों और संस्थागत ढांचे को मज़बूत करना होगा. 

भारत के परिवहन क्षेत्र को हरित बनाने की पहल

भारत में सड़क परिवहन के लिए गाड़ियों की बढ़ती मांग ने सड़क परिवहन सेक्टर में होने वाली ऊर्जा खपत में काफ़ी बढ़ोतरी की है और इससे कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन में भी वृद्धि हुई है. आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष 2021 तक देश में होने वाली कुल ऊर्जा खपत में रोड ट्रांसपोर्ट सेक्टर की हिस्सेदारी 14 प्रतिशत थी. भारत में परिवहन सेक्टर में एनर्जी की जितनी भी खपत होती है, उसमें सड़क परिवहन की हिस्सेदारी 92 प्रतिशत है, जबकि रेल परिवहन और घरेलू विमानन सेक्टर की हिस्सेदारी चार-चार प्रतिशत है. इसके अलावा, भारत में ऊर्जा से संबंधित CO2 उत्सर्जन में भी परिवहन सेक्टर की हिस्सेदारी 14 प्रतिशत है. फिलहाल देश की आबादी के लिहाज़ से सड़क पर चलने वाली गाड़ियों का अनुपात कम है, लेकिन जिस प्रकार से भारत में वाहनों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, उसके मुताबिक़ आने वाले वक़्त में कुल कार्बन उत्सर्जन में सड़क परिवहन क्षेत्र की भागीदारी में और इज़ाफा हो सकता है. देश में इंटर्नल कंबस्टन इंजन (ICE) व्हीकल यानी आंतरिक दहन इंजन वाली गाड़ियों की मांग में निरंतर बढ़ोतरी की वजह से पेट्रोल या डीज़ल के उपभोग और कार्बन उत्सर्जन में काफ़ी वृद्धि हुई है. आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2000 की तुलना में यह वृद्धि दोगुनी हो चुकी है.

 जिस प्रकार से भारत में वाहनों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, उसके मुताबिक़ आने वाले वक़्त में कुल कार्बन उत्सर्जन में सड़क परिवहन क्षेत्र की भागीदारी में और इज़ाफा हो सकता है.

इसके अतिरिक्त, भारत में सड़क के जरिए फ्रेट ट्रांसपोर्ट यानी माल ढुलाई में दुनिया में सबसे अधिक ईंधन की खपत होती है. भारत में 1990 के दशक से माल परिवहन में दस गुना बढ़ोतरी हुई है और इसमें से अधिकतर माल ढुलाई सड़क मार्ग से की जाती है. ख़ास तौर यह माल ढुलाई आंतरिक दहन इंजन वाले हेवी-ड्यूटी वाहनों (HDV) यानी बड़े ट्रकों द्वारा की जाती है. इससे पता चलता है कि सड़क परिवहन सेक्टर में डीज़ल की खपत में आगे और ज्यादा बढ़ोतरी होगी.

 

देखा जाए तो सड़क परिवहन सेक्टर अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मुख्य रूप से पेट्रोल और डीज़ल पर निर्भर है. सड़क पर चलने वाले 95 प्रतिशत वाहनों को पेट्रोल और डीज़ल से ही चलाया जाता है. इतना ही नहीं भारत में सबसे अधिक डीज़ल और पेट्रोल का उपभोग सड़क पर वाहनों को चलाने में किया जाता है और वर्ष 2021 में देश में कुल तेल की खपत में 44 प्रतिशत हिस्सेदारी इसी सेक्टर की थी. भारत में सड़क परिवहन सेक्टर में प्राकृतिक गैस, बिजली और जैव ईंधन जैसे वैकल्पिक ईंधनों की हिस्सेदारी बहुत कम है. भारत में वर्ष 2000 के बाद से सड़क परिवहन क्षेत्र की ऊर्जा मांग और CO2 उत्सर्जन, दोनों ही तीन गुना से ज़्यादा हो गया है. इस बढ़ोतरी में माल ढुलाई करने वाले ट्रकों और यात्री कारों, दोनों की ही लगभग एक तिहाई यानी बराबर भूमिका है. वर्ष 2021 में भारत में सड़क ट्रांसपोर्ट में कुल उपभोग किए जाने वाले ईंधन और कुल कार्बन उत्सर्जन में ट्रकों की हिस्सेदारी 38 प्रतिशत थी, जबकि कारों की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत थी. हालांकि, 2021 में भारत में जितने भी वाहन थे, उनमें दोपहिया और तिपहिया वाहनों संख्या 80 प्रतिशत थी, लेकिन ऊर्जा की मांग और कार्बन उत्सर्जन में इनकी हिस्सेदारी सिर्फ़ 20 प्रतिशत ही थी. लेकिन, एक सच्चाई यह है कि 2010 के दशक से दोपहिया और तिपहिया वाहनों की संख्या में लगातार बढ़ रही है और तेल की खपत एवं उत्सर्जन में भी वृद्धि हो रही है. कुल मिलाकर, देखें तो सड़क परिवहन क्षेत्र से होने वाले प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में वर्ष 2000 के बाद से 2.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है

 

परिवहन क्षेत्र में हरित ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा

कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए भारत के परिवहन सेक्टर में ऊर्जा के उपभोग के तौर-तरीक़ों को बदलने की ज़रूरत है. रोड ट्रांसपोर्ट क्षेत्र में अगर जीवाश्म ईंधन के स्थान पर हरित ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा दिया जाता है, तो इसके कई दूसरे लाभ भी हासिल होंगे. जैसे कि कार्बन उत्सर्जन कम होने से लोगों का स्वास्थ्य बेहतर होगा, वाहनों का माइलेज बढ़ेगा, ध्वनि और वायु प्रदूषण में कमी आएगी, सड़क पर गाड़ियों की संख्या में कमी आएगी, जिससे यात्रा में लगने वाले समय में कमी आएगी और जीवन की गुणवत्ता बढ़ेगी. इसके अतिरिक्त, शहरी क्षेत्रों में वाहनों की आवाजाही में कमी आने से पैदल चलने वालों और साइकिल चालकों को आवागमन में सहूलियत होगी. इसके अलावा, अगर माल ढुलाई में लॉजिस्टिक्स का बेहतर प्रबंधन किया जाता है, यानी वस्तुओं को एक से दूसरी जगह ले जाने के लिए व्यवस्थित, बेहतर और प्रभावी विकल्प तलाशे जाते हैं, तो इससे केवल ख़र्च को कम किया जा सकता है, बल्कि कामकाज की बेहतर परिस्थितियां भी बनाई जा सकती हैं.

 

भारत को वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए परिवहन सेक्टर को कार्बन उत्सर्जन से मुक्त करना और हरित ऊर्जा की ओर परिवर्तन करना बेहद ज़रूरी है.

 

ऊर्जा परिवर्तन की राह में चुनौतियां

भारत के ट्रांसपोर्ट सेक्टर में ऊर्जा परिवर्तन करना बेहद जटिल प्रतीत हो रहा है, क्योंकि इसमें तमाम बाधाएं हैं

 

I.सामाजिक चुनौतियां

भारत में कोयला खनन सेक्टर पर बहुत बड़ी आबादी निर्भर है और उसकी कमाई का यही एक साधन है. कोयला सेक्टर देश की जीडीपी में 2 प्रतिशत का योगदान देता है और 12 लाख रोज़गार उपलब्ध कराता है. ऐसे में अगर स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की ओर परिवर्तन किया जाता है, तो बड़ी संख्या में लोगों के जीविकोपार्जन के साधनों एवं स्थानीय आर्थिक गतिविधियों में रुकावट पैदा होने का ख़तरा है. ज़ाहिर है कि हरित ऊर्जा की तरफ जाने के लिएन्यायसंगत परिवर्तनफ्रेमवर्क की ज़रूरत है, ताकि इसके सामाजिक-आर्थिक प्रभावों को कम किया जा सके. इसके अलावा इस तरह के न्यायसंगत परिवर्तन ढांचे का मकसद अनौपचारिक कोयला क्षेत्र को औपचारिक बनाना भी होना चाहिए. कोयला सेक्टर क़रीब 2.5 से 3 लाख कामगारों को आजीविका प्रदान करता है. ऐसा करने पर केवल इसके फायदे सभी लोगों तक पहुंचाना संभव होगा, बल्कि प्रभावित समुदायों को भी स्वच्छ ऊर्जा की ओर परिवर्तन के दौरान पैदा होने वाली परेशानियों से निजात मिलेगी.

 अगर स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की ओर परिवर्तन किया जाता है, तो बड़ी संख्या में लोगों के जीविकोपार्जन के साधनों एवं स्थानीय आर्थिक गतिविधियों में रुकावट पैदा होने का ख़तरा है.

ii.वैकल्पिक ईंधन

भारत में इथेनॉल के उत्पादन की राह में कई सारी चुनौतियां बनी हुई हैं. इनमें फीडस्टॉक यानी कच्चे माल की उपलब्धता और ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी चुनौतियां शामिल हैं. ज़ाहिर है कि इथेनॉल उत्पादन यूनिटों को स्थापित करने और इसके परिवहन की व्यवस्था करने एवं भंडारण के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण करने के लिए व्यापक स्तर पर निवेश की ज़रूरत है. इसके अलावा भी बायोडीज़ल उत्पादन में तमाम बाधाएं सामने आती हैं. जैसे कि तेल कंपनियां बायोडीज़ल को ख़रीदने में दिलचस्पी नहीं दिखाती हैं और इसका उत्पादन करने के लिए आवश्यक फीडस्टॉक की खेती करने वाले किसानों को वाजिब दाम नहीं मिल पाता है. इसी तरह से मेथनॉल के उपयोग में भी कई तरह की दिक़्क़तें हैं. हालांकि, मेथनॉल के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन में कमी आती है, लेकिन इसका उपयोग करने के लिए वाहनों के कलपुर्जों में बदलाव करना पड़ता है. मेथनॉल उत्पादन में आने वाला भारी-भरकम ख़र्च और वाहनों में बदलाव करने की अधिक लागत इसके उपयोग को बढ़ावा देने में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है.

 

इसके अतिरिक्त, दूसरे वैकल्पिक ईंधनों यानी बिजली और हाइड्रोजन के सामने भी कई तकनीक़ इंफ्रास्ट्रक्चर से संबंधित एवं आर्थिक चुनौतियां हैं. इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (EVs) को चार्जिंग से संबंधित सुविधाओं के बुनियादी ढांचे, लंबी दूरी तक चलने की क्षमता और किफ़ायती बैटरी टेक्नोलॉजियों की ज़रूरत होती है, ताकि वे पारंपरिक वाहनों का मुक़ाबला कर सकें. इसकी प्रकार से हाइड्रोजन से चलने वाली गाड़ियों के लिए व्यापक स्तर पर ईंधन भरने से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर की ज़रूरत होती है, साथ ही हाइड्रोजन के उत्पादन, वितरण और भंडारण से संबंधित कई चुनौतियां भी बनी हुई हैं. ज़ाहिर है कि इन दिक़्क़तों को दूर करने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास और नई-नई तकनीक़ों के खोज के लिए अत्यधिक निवेश की आवश्यकता होती है. इसके अलावा, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स और हाइड्रोजन से चलने वाले वाहनों को लेकर उपभोक्ता की दिलचस्पी भी बेहद अहम है, क्योंकि ऐसा होने पर ही इनका उत्पादन बढ़ाने और बाधाओं को दूर करने की प्रेरणा मिलेगी.

 

iii.बुनियादी ढांचा एवं फाइनेंस से जुड़ी चुनौती 

भारत में कार्बन मुक्त उत्सर्जन वाले सड़क परिवहन की राह को बुनियादी ढांचे की कमी एवं वित्तीय बाधाएं और ज़्यादा मुश्किल बनाती हैं. ज़ाहिर है कि भारत में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों और बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए बहुत अधिक निवेश की ज़रूरत है. इसके अलावा, ज़मीन के अधिग्रहण के मसले, पेचीदा विनियामक ढांचा और प्रशासन की तरफ से पैदा की जाने वाली दिक़्क़तों की वजह से अक्सर परियोजनाओं के क्रियान्वयन में देरी होती है, जिससे परियोजनाएं लटकी रहती हैं और उनकी लागत भी बढ़ जाती है.

IV. नीतिगत, संस्थागत और विनियामक समर्थन

भारत में ऊर्जा परिवर्तन को लेकर स्पष्ट प्रशासनिक व्यवस्था और नियम-क़ानून मौज़ूद नहीं हैं. इसकी वजह से समन्वित नीतिगत प्रयासों एवं संस्थागत सहयोग में रुकावटें पैदा होती हैं. इसके साथ ही संस्थागत हितों को लेकर मतभेद एवं ऊर्जा परिवर्तन को लेकर सक्रिय उपायों की गैरमौज़ूदगी भी हालात को और बदतर बना देती है. भारत में इथेनॉल उत्पादन के लिए देश में पैदा होने वाले और दूसरे देशों से आयात किए जाने वाले फीडस्टॉक को बढ़ावा देने के लिए प्रभावी नीति की ज़रूरत है, साथ ही इसके लिए संस्थागत एवं विनियामक सहयोग भी आवश्यक है. इसी प्रकार से इथेनॉल के उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिए मूल्य श्रृंखला में शामिल सभी हितधारकों को बढ़ावा देना भी ज़रूरी है और इसके लिए स्पष्ट नीतियां एवं क़ानूनी फ्रेमवर्क की स्थापना आवश्यक हैं.

 

परिवहन सेक्टर को कार्बन उत्सर्जन मुक्त करने के लिए ज़रूरी क़दम

भारत के ऊर्जा परिवर्तन सुनिश्चित करने के लिए और परिवहन क्षेत्र को कार्बन उत्सर्जन मुक्त करने के लिए केवल व्यापक स्तर पर रणनीति बनाने की ज़रूरत है, बल्कि पूरी गंभीरता के साथ नीतियों को लागू करने की भी आवश्यकता है. अगर आगे बताई गईं कुछ नीतियों पर सख़्ती के साथ अमल किया जाता है, तो निश्चित तौर पर इस दिशा में परिवर्तनकारी बदलाव सामने सकते हैं:

 

आंकड़ों की उपलब्धता और उनका विश्लेषण: ऊर्जा परिवर्तन किस प्रकार से आगे बढ़ाया जाएगा और इसके लिए किस तरह की प्रभावी नीतियां तैयार करनी होंगी, इसके लिए सिर्फ़ व्यापक स्तर पर आंकड़े जुटाने की ज़रूरत है, बल्कि उनका विश्लेषण करने एवं निष्कर्ष निकालने के लिए एक फ्रेमवर्क बनाना भी बेहद आवश्यक है. ज़ाहिर है कि किस प्रकार के परिवहन माध्यमों का उपयोग किया जा रहा है, ईंधन की खपत का तौर-तरीक़ा क्या है और किस तरह की गाड़ियों का प्रचलन है, इसके बारे में आंकड़े जुटाने एवं उनका विश्लेषण करने के लिए तमाम हितधारकों के बीच पारस्परिक सहयोग भी बहुत ज़रूरी है. इस तरह के सटीक आंकड़े जुटाने की पुख्ता प्रक्रिया स्थापित होने से प्रभावी फैसले लेने और नीतियां बनाने में मदद मिलेगी.

 

अलग-अलग क्षेत्रों की ख़ास दिक़्क़तों की पहचान और समाधान: हरित ईंधन और कम कार्बन उत्सर्जन वाले वाहनों की अपनी ख़ास दिक़्क़तें होती हैं और उन्हें दूर करने के तरीक़े भी अलग ही होते हैं. ऐसे में इन बाधाओं की पहचान और उनके समाधान के लिए विशेष टूलसेट बनाना बेहद अहम है. ज़ाहिर है कि ऐसा करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों के मुताबिक़ इनके बारे में विस्तृत आंकड़े जुटाना और पिछले आंकड़ों से उनकी तुलना करना, साथ ही निर्णय लेने के लिए व्यापक जानकारी इकट्ठा करना आवश्यक है. इस प्रकार की दिक़्क़तों को पहचानने वाले और उनका समाधान करने वाले उपकरण नीति निर्माताओं को नीतिगत फैसले लेने में मदद करते हैं, क्योंकि इनकी सहायता से अलग-अलग क्षेत्रों और सेक्टरों में मौज़ूद अलग-अलग चुनौतियों एवं अवसरों के बारे में पता चलता है और फिर उसी के अनुसार क़दम उठाए जा सकते हैं.

 

नीतिगत, संस्थागत और क़ानूनी दख़ल: ट्रांसपोर्ट सेक्टर में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए सिर्फ़ राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर एक जैसी नीतियों की आवश्यकता है, बल्कि ऐसी नीतियों की भी ज़रूरत है, जो टिकाऊ परिवहन को बढ़ावा देने वाली हों. ज़ाहिर है कि टिकाऊ परिवहन के किफ़ायती विकल्प विकसित करने के लिए सरकारी संस्थानों, उद्योगों और नागरिक समाज के संगठनों समेत प्रमुख हितधारकों के बीच पारस्परिक सहयोग बेहद अहम है. इतना ही नहीं, अगर ऊर्जा परिवर्तन, परिवहन और एनर्जी सेक्टर से जुड़ी नीतियों के बीच एकीकरण किया जाता है, तो निश्चित तौर पर यह कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में एक व्यापक नज़रिया विकसित करने का काम करेगा.

 

सफल हो चुकी पहलों से सबक: पूरी दुनिया में ऊर्जा परिवर्तन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया गया है और परिवहन सेक्टर को कार्बन मुक्त करने के लिए तमाम पहलों को सफलतापूर्वक संचालित किया जा रहा है. भारत इन वैश्विक पहलों से काफ़ी कुछ सीख सकता है और देश में परिवहन सेक्टर में व्यापक ऊर्जा परिवर्तन के लिए रूपरेखा बना सकता है. इस दिशा में विकसित देशों और संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) जैसे वैश्विक संगठनों के साथ अगर गठजोड़ किया जाता है, तो निश्चित तौर पर ऊर्जा परिवर्तन के क्षेत्र में ताज़ा जानकारियों का आदान-प्रदान किया जा सकता है और इस तरह से कार्बन उत्सर्जन कम करने की कोशिशों में तेज़ी लाई जा सकती है.

 

क्षमता निर्माण और संस्थागत फ्रेमवर्क: परिवहन सेक्टर को कार्बन मुक्त करने के लिए नीतियां बनाना एवं उन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने के बीच के अंतर को समाप्त करना बेहद ज़रूरी है. इसके लिए परिवहन सेक्टर को लेकर पुख्ता योजना बनाने की आवश्यकता है. ज़ाहिर है कि इसके लिए तकनीक़ी कौशल को बढ़ाना और परिवहन सेक्टर के लिए समर्पित संस्थानों की स्थापना करना ज़रूरी है. ऐसे समर्पित संस्थानों के बनने से नीति निर्माताओं, योजनाकारों और तकनीक़ी विशेषज्ञों समेत इस सेक्टर के सभी हितधारकों की क्षमता में इज़ाफा होगा और निश्चित तौर पर यह ऊर्जा परिवर्तन से संबंधित रणनीतियों को धरातल पर प्रभावी तरीक़े लागू करने में लाभकारी सिद्ध होगा.

 

निवेश और वित्तीय मदद से जुड़े क़दम: कम कार्बन उत्सर्जन वाले बुनियादी ढांचे में निवेश को बढ़ावा देने के लिए व्यापक आकलन और अलग-अलग वित्तीय स्रोतों की ज़रूरत होती है. ऐसे में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप एवं टिकाऊ वित्तीय ढांचे केवल निजी निवेश को बढ़ावा दे सकते हैं, बल्कि टिकाऊ परिवहन परियोजनाओं के लिए संसाधनों को जुटाने में भी मदद कर सकते हैं. इसके अलावा, इसमें स्पष्ट नियम-क़ानून, उच्च स्तर की पारदर्शिता और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने जैसी चीज़ें काफ़ी सहायक सिद्ध हो सकती हैं.

अगर भारत परिवहन क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए ज़िम्मेदार प्रत्येक हितधारक की तरफ से की जाने वाली कोशिशों को एकजुट करने में विफल रहता है और इसके लिए स्पष्ट नियम-क़ानूनों को स्थापित करने एवं विभिन्न उत्तरदायी संस्थाओं के बीच मेलजोल क़ायम करने में नाक़ाम रहता है

विनियामक उपाय: अगर बड़े ट्रकों द्वारा की जाने वाली माल ढुलाई में उपयोग किए जाने वाले ईंधन को लेकर निर्धारित मानकों को लागू करने में सख़्ती बरती जाती है, तो इससे कार्बन उत्सर्जन में काफ़ी कमी सकती है. ज़ाहिर है कि कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को हासिल करना एवं हरित ऊर्जा से संचालित होने वाले वाहनों को बढ़ावा देना बहुत ज़रूरी है. इसके लिए सरकारी ख़रीद में इलेक्ट्रिक वाहनों को प्राथमिकता देने जैसे नीतिगत क़दम और EVs के उपयोग बढ़ावा देने के लिए जागरूकता अभियान जैसे उपाय कारगर सिद्ध हो सकते हैं

 

निष्कर्ष

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि भारत नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन की प्रतिबद्धता को पूरा कर पाता है या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि भारत कितनी शिद्दत के साथ परिवहन सेक्टर को कार्बन उत्सर्जन मुक्त करने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण करता है और इसके लिए ज़रूरी नीतियां बनाकर उन्हें लागू करता है. एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर भारत परिवहन क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए ज़िम्मेदार प्रत्येक हितधारक की तरफ से की जाने वाली कोशिशों को एकजुट करने में विफल रहता है और इसके लिए स्पष्ट नियम-क़ानूनों को स्थापित करने एवं विभिन्न उत्तरदायी संस्थाओं के बीच मेलजोल क़ायम करने में नाक़ाम रहता है, तो यह सिर्फ़ घरेलू स्तर पर पर्यावरणीय लक्ष्यों को हासिल करने की भारत की मुहिम को कमज़ोर कर सकता है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का सामना करने की व्यापक वैश्विक प्रतिबद्धताओं को भी जोख़िम में डाल सकता है.


नंदन एच दावड़ा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के अर्बन स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.

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