ये लेख हमारी सीरीज़- रायसीना फाइल्स 2022 का एक हिस्सा है.
हम एक साथ कई बदलावों से गुज़र रहे हैं. इनमें से कुछ तो मंज़िल पर पहुंचने के कगार पर खड़े हैं, तो कुछ ने अभी आधा सफ़र ही तय किया है और कुछ अभी शुरुआती दौर में ही हैं. लेकिन, ये सभी परिवर्तन हमारी ज़िंदगी, रहन-सहन और रोज़ी-रोटी को नए सिरे से परिभाषित कर रहे हैं, नया रूप दे रहे हैं और नए सांचे में ढाल रहे हैं. इन बदलावों और उठा-पटक का कुल असर क्या होगा, इसकी महज़ परिकल्पना ही की जा सकती है, क्योंकि इनके बारे में हमें कुछ भी नहीं पता. ये उठा-पटक कैसा असर दिखा सकती है, इसकी एक झलक हमें कोविड-19 महामारी ने दिखा दी है. ये ‘न्यू नॉर्मल’ की तरफ़ से तेज़ रफ़्तार से हुआ बदलाव ही है, जिसने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं की कमज़ोरियों को उजागर कर दिया है. कहा जा रहा है कि साल 2020 में विश्व की अर्थव्यवस्था लगभग 3.5 फ़ीसद सिकुड़ गई. [1] इसने विरोधाभासों की एक नई तस्वीर भी हमारे सामने रखी है; जहां लॉकडाउन की वजह से सेहत और रोज़ी-रोटी में से एक का चुनाव करना पड़ा. इसका भी इम्तिहान हुआ कि हमारी आर्थिक और स्वास्थ्य व्यवस्थाएं ऐसी चुनौती और सुस्ती का मुक़ाबला करने के लिए कितनी पर्याप्त हैं और उनमें कितनी क्षमता है. इसी दौरान श्रम बाज़ार की तो चूलें हिल गईं और बदक़िस्मती से इस खलल ने बाज़ार में पैबस्त उस भेदभाव को उजागर कर दिया, जहां सबसे कमज़ोर असंगठित मज़दूर और कुछ विशेष क्षेत्रों को तो ख़ास तौर से नुक़सान उठाना पड़ा.
महामारी ने शायद हमारे सामने खड़ी एक और चुनौती की तस्वीर भी बड़ी तेज़ी से हमारे सामने खींच दी- ये चुनौती जलवायु परिवर्तन की है, जो लगातार बढ़ रहे उत्सर्जन के कारण पैदा हुई है; फ़र्क़ बस इतना है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या कोई नई नहीं है और इससे निपटने की कोशिशें लंबे समय से की जा रही हैं.
महामारी ने शायद हमारे सामने खड़ी एक और चुनौती की तस्वीर भी बड़ी तेज़ी से हमारे सामने खींच दी- ये चुनौती जलवायु परिवर्तन की है, जो लगातार बढ़ रहे उत्सर्जन के कारण पैदा हुई है; फ़र्क़ बस इतना है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या कोई नई नहीं है और इससे निपटने की कोशिशें लंबे समय से की जा रही हैं. अलबत्ता ये प्रयास उस रफ़्तार और पैमाने पर नहीं हो रहे है, जिसकी आज ज़रूरत है. ये उन समस्याओं में से एक है, जिसका असर दुनिया के हर कोने पर पड़ रहा है, और इसी वजह से ये चुनौती हमें एकजुट करती है और एक साझा मक़सद की तरफ़ धकेलती है- ताकि हम सभी लोगों (ख़ास तौर से कमज़ोर समुदायों) पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के (प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष) प्रभावों को कम कर सकें और ख़ुद को इसके हिसाब से ढालकर इसका सामना कर सकें.
हालांकि, हक़ीक़त ये है कि दुनिया भर के समुदाय और अपने सामाजिक आर्थिक सफ़र में वो चाहे जिस मोड़ पर खड़े हों, वो सब के सब दुनिया के तमाम हिस्सों में अलग अलग रूप में दिखते हैं. फिर चाहे वो अलग अलग देशों में हों. या फिर, एक ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में आबाद हों. इसका मतलब है कि जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने की क्षमता और उसके मुक़ाबले ख़ुद को ढाल पाने के उपाय दुनिया के हर इलाक़े और देशों के विभिन्न क्षेत्रों में बिल्कुल अलग दिखते हैं. ये विभेद तब और उजागर हो जाता है, जब हम ये देखते हैं कि दुनिया के कुछ हिस्सों में हम कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए बिजली ग्रिड के आधुनिकीकरण, डिजिटलीकरण, उन्नत तकनीक वाली गाड़ियों वगैरह को अपनाने के बारे में सोच रहे हैं. वहीं, कई हिस्सों में आबाद समुदाय आज भी ऊर्जा के संसाधनों तक पहुंच न होने, परिवहन के मामले में वीरानी और काम-काज के ख़राब हालात की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. ये चुनौतियां उनके जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ख़ुद को ढालने की क्षमता पर गहरा असर डालती हैं.
फिर भी ये दोनों विरोधाभासी हालात, स्वच्छ/हरित परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने की साझा ख़्वाहिश रखते हैं और सच तो ये है कि यहां पर एक लंबी छलांग लगाने के अनूठे अवसर मौजूद हैं. मिसाल के तौर पर, भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था ये मानती है कि न सिर्फ़ स्वच्छ पर्यावरण के लिए, बल्कि एक मज़बूत आर्थिक भविष्य के लिए भी नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की ओर महत्वाकांक्षी क़दम उठाना महत्वपूर्ण है. ग्लासगो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2030 तक 500 गीगावाट नवीनीकरण योग्य ऊर्जा और कुल बिजली उत्पादन का 50 प्रतिशत ग़ैर जीवाश्म ईंधन वाले स्रोतों से बनाने का फ़ौरी लक्ष्य रखा था. इसके अलावा भारत ने 2070 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य रखा है. इसे ग्लास्गो जलवायु सम्मेलन (COP26) में किसी देश द्वारा तय किए गए बेहद महत्वाकांक्षी लक्ष्य के तौर पर देखा गया. इस लक्ष्य को हासिल करने के दौरान स्वच्छ ऊर्जा और ख़ास तौर से बड़े क्षेत्र में फैले नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के क्षेत्र में 34 लाख नई नौकरियां पैदा हो सकती हैं, जो न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को मज़बूत बनाएंगी, बल्कि इससे ऊर्जा तक पहुंच और बिजली के मामले में लचीलापन भी आएगा. [2]
ग्लासगो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2030 तक 500 गीगावाट नवीनीकरण योग्य ऊर्जा और कुल बिजली उत्पादन का 50 प्रतिशत ग़ैर जीवाश्म ईंधन वाले स्रोतों से बनाने का फ़ौरी लक्ष्य रखा था. इसके अलावा भारत ने 2070 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य रखा है. इसे ग्लास्गो जलवायु सम्मेलन (COP26) में किसी देश द्वारा तय किए गए बेहद महत्वाकांक्षी लक्ष्य के तौर पर देखा गया.
हालांकि कम कार्बन उत्सर्जन के रास्ते जलवायु परिवर्तन के असर कम करने वाले लक्ष्य हासिल करने का मतलब सिर्फ़ उत्सर्जन कम करना नहीं है. इसका ये मतलब भी है कि नए आर्थिक अवसर पैदा होंगे और सबसे अहम बात ये है कि इससे रोज़ी-रोटी को इस तरह नए सिरे से ढालने के अवसर भी मिलेंगे, जो ‘न्यायोचित बदलाव’ के सिद्धांतों के प्रति जवाबदेह होंगे. हरित बदलाव के इन अवसरों के सामाजिक आर्थिक हक़ीक़तों और ज़रूरतों से मेल खाना, सरकार और कारोबार के लिए एक नया उभरता आयाम है, जो एक बराबरी वाले बदलाव की दिशा में बढ़ने की ज़रूरत की तरफ़ इशारा करता है.
न्यायोचित परिवर्तन की साझा आवश्यकता
उत्सर्जन के चलते जलवायु पर बढ़ते बुरे असर को कम करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा का बदलाव तय और ज़रूरी है. स्थानीय स्तर पर लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को सुधारने के लिए भी ये ज़रूरी हो चुका है. इसके साथ साथ, स्वच्छ ईंधन की तरफ़ बढ़ रहे इन क़दमों से औद्योगिक और तकनीकी बदलाव आएंगे. जिससे नई नौकरियां पैदा होंगी, मगर बहुत सी नौकरियां ख़त्म भी होंगी. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के मुताबिक़, दुनिया के तापमान में इज़ाफ़े को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए अगर तमाम देश तय की गई बदलाव की राह पर आगे बढ़ते हैं, तो इससे 2.4 करोड़ नई नौकरियों का सृजन होगा. हालांकि इससे क़रीब 60 लाख रोज़गार हमेशा के लिए ख़त्म हो जाने का अंदेशा भी है, जिसका दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अलग तरह से असर देखने को मिलेगा. [3] जीवाश्म ईंधन पर आधारित उद्योगों को बंद करने से इतने बड़े पैमाने पर लोगों के रोज़गार इसलिए जाएंगे, क्योंकि इन उद्योगों में लोगों को न सिर्फ़ सीधे तौर पर नौकरी मिलती है, बल्कि इससे अप्रत्यक्ष रूप से भी रोज़गार के कई अवसर पैदा होते हैं, और इनसे स्थानीय आर्थिक गतिविधियों को भी बढ़ावा मिलता है. अगर ऊर्जा के क्षेत्र में परिवर्तन बहुत बड़ी चुनौती है- तो इससे जुड़ा जो सामाजिक बदलाव होना अनिवार्य है- वो भी बराबरी की ही चुनौती है, हालांकि इस चुनौती को शायद ही स्वीकार किया जाता हो. हालांकि, इसका ये मतलब नहीं कि हम अपनी महत्वाकांक्षा को कम कर लें. बल्कि इससे हमारे क़दमों की तीव्रता और शिद्दत में और इज़ाफ़ा होना चाहिए.
ये बदलाव हमें लोगों की ज़िंदगी और रोज़ी-रोटी के बारे में इस तरह से नए सिरे से विचार करने का मौक़ा दे रहे हैं, जो ऊर्जा की पारंपरिक व्यवस्थाओं में नहीं हैं. मिसाल के तौर पर हमें विकासशील देशों के संदर्भ में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की व्यवस्थाओं के विकेंद्रीकरण और लोकतांत्रीकरण को देखना चाहिए. विकेंद्रीकृत नवीनीकरण योग्य ऊर्जा, एक ऐसा उपाय है, जो कार्बन उत्सर्जन कम करने को बिजली की भरोसेमंद (फिर चाहे वो दूर-दराज़ या आपदा वाले इलाक़ों में ही क्यों न हो) सेवा से जोड़ता है और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को उभरकर ख़ुद को टिकाऊ बनाने में मददगार होता है. इसका बिजली की उपलब्धता, नवीनीकरण योग्य ऊर्जा का ग्रिड से बेहतर एकीकरण और आर्थिक विविधता की संभावनाएं बढ़ाकर लोगों के रोज़ी रोज़गार में स्वायत्तता बढ़ाने पर सकारात्मक असर पड़ सकता है. इसके साथ साथ विकसित और विकासशील देशों के बीच तकनीकी जानकारी साझा करने को लेकर वैश्विक समन्वय करना, तरक़्क़ी की छलांग लगाने के लिहाज़ से अहम हो सकता है, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपाय अपनाने को भी रफ़्तार दे सकता है.
विकेंद्रीकृत नवीनीकरण योग्य ऊर्जा, एक ऐसा उपाय है, जो कार्बन उत्सर्जन कम करने को बिजली की भरोसेमंद सेवा से जोड़ता है और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को उभरकर ख़ुद को टिकाऊ बनाने में मददगार होता है. इसका बिजली की उपलब्धता, नवीनीकरण योग्य ऊर्जा का ग्रिड से बेहतर एकीकरण और आर्थिक विविधता की संभावनाएं बढ़ाकर लोगों के रोज़ी रोज़गार में स्वायत्तता बढ़ाने पर सकारात्मक असर पड़ सकता है.
आज जब दुनिया के देश इस बदलाव की योजना बना रहे हैं, तो इसमें सभी साझीदारों को जोड़ना और उन्हें योजना बनाने और फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में शामिल करना आसान बनाना भी अहम होगा. बदलाव की योजना की जानकारी सही तरीक़े से देना भी अहम होगा, जैसा हम दक्षिण अफ्रीका के संदर्भ में देख ही रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका इस बात की मिसाल है कि हम स्वच्छ ईंधन की दिशा में हो रहे परिवर्तन से प्रभावित होने वाले पक्षों को योजना बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा कैसे बना सकते हैं. श्रमिक संगठनों के कहने पर दक्षिण अफ्रीका ने 2012 में ही ‘न्यायोचित परिवर्तन’ को अपने राष्ट्रीय विकास की योजना का हिस्सा बना लिया था. इसके बाद उसने एक वैधानिक संस्था का गठन किया जिसमें न्यायोचित परिवर्तन की योजना के सभी भागीदारों को राष्ट्रव्यापी संवाद के लिए एक मंच पर ले आती है. [4] योजना बनाने में न्यायोचित परिवर्तन को जोड़ने की इस पहल को जलवायु परिवर्तन से निपटने की व्यापक योजना में भी अपनाया जाना चाहिए.
तमाम समुदायों पर स्वच्छ ईंधन की दिशा में इस बदलाव से जुड़े असर की प्रकित ही तय करेगी कि इस परिवर्तन के नतीजे इंसाफ़ की बुनियाद पर टिके हैं या नहीं. नौकरियों से आगे बढ़कर, नौकरी की सुरक्षा के ज़रिए सामाजिक आर्थिक तरक़्क़ी और विकास, परिवहन और ऊर्जा के संसाधनों तक पहुंच, स्थानीय उद्योगों की प्रगति वग़ैरह भी अहम हैं. तभी हम अनिश्चितताओं से निपट पाने और ख़ुद को ढालने की समुदायों की क्षमता का निर्माण कर सकेंगे.
इससे नीचे के हिस्से में हम इन बातों पर और गहराई से चर्चा करेंगे
‘न्यायोचित’ परिवर्तन की राह विकसित करना
‘न्यायोचित परिवर्तन’ ऐसे हरित बदलाव का व्यापक नज़रिया पेश करता है, जो इंसाफ़ और समानता पर आधारित है. इसमें पर्यावरण संबंधी न्याय (सभी समुदायों के बीच पर्यावरण के फ़ायदे और बोझ का बराबरी से वितरण), ऊर्जा संबंधी न्याय (ऊर्जा व्यवस्थाओं तक सबकी समान पहुंच और भागीदारी) के साथ साथ जलवायु परिवर्तन के न्याय (तमाम समुदायों और अलग अलग पीढ़ियों के बीच जलवायु परिवर्तन के नफ़ा-नुक़सान का एक बराबर वितरण) जैसे तत्व शामिल हैं. [5] जलवायु परिवर्तन से निपटने के अभियान की तरह, न्यायोचित परिवर्तन भी सभी देशों के संदर्भों में अहम है. मगर ऊर्जा के परिवर्तन के मोर्चे और सामाजिक या श्रम संबंधी बदलाव से निपटने की हर देश की और एक देश के भीतर अलग अलग समुदायों की क्षमता में भी फ़र्क़ है. इस हिस्से में हम स्वच्छ ईंधन से जुड़े बदलावों की साझा आवश्यकताओं और अलग अलग हक़ीक़तों को तीन बड़े भागों में बांटकर पेश कर रहे हैं, जो इंसाफ़ और समानता के बुनियादी सिद्धांत पर आधारित हैं.
भू-राजनीतिक बदलावों से तालमेल बिठाना
- आपूर्ति श्रृंखलाओं का क्षेत्रीयकरण: कोविड-19 महामारी की शुरुआत के साथ ही हमने देखा था कि दुनिया में आर्थिक परिवर्तन आ रहे हैं. सामाजिक और राजनीतिक उठा-पटक हो रही है. जब महामारी का असर अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर पड़ा, तो तमाम देश, अपने अंदर झांककर देखने लगे. भारत में भी आपूर्ति श्रृंखलाओं के क्षेत्रीयकरण को बढ़ावा देने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ अभियान की शुरुआत की गई. आज जब हम कम कार्बन उत्सर्जन वाली आपूर्ति श्रृंखलाओं की दिशा में बढ़ रहे हैं, तो हमें इस बात का भी अंदाज़ा हो जाना चाहिए कि उभरते हुए संसाधनों और तकनीक के केंद्रों के चलते, आर्थिक और भू-राजनीतिक समीकरणों में भी बदलाव आने तय हैं. जब सभी देशों में ग्रीन हाइड्रोजन, बैटरी भंडारण, सोलर पैन, की मांग बढ़ेगी और कोयले, तेल व गैस की मांग घटेगी तो सत्ता और राजनीति भी इस नए बदलाव से तालमेल बिठाएंगे. इस वक़्त रूस और यूक्रेन के युद्ध के चलते, यूरोप की रूस की गैस पर निर्भरता और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं के जुड़े होने से उन पर युद्ध का असर चर्चा के केंद्र में है. इस वजह से पूरी दुनिया में महंगाई बढ़ गई है. ये ठीक उसी तरह है, जब 2000 के दशक में कई तरह की उथल-पुथल जैसे कि वित्तीय संकट, सार्स महामारी और सुनामी के असर पूरी दुनिया में महसूस किए गए थे. इन सभी उथल-पुथल के कारण सभी देशों को नए जोखिम लेकर अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं को स्थानीय स्तर पर विकसित करने पर ज़ोर दिया था. [6] ऊर्जा के बदलाव के लिए, वैसे तो ऐसे क़दम ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने की ज़रूरत से प्रेरित होंगे. मगर जोखिम इस बात का है कि जो देश टिकाऊ और स्वतंत्र रूप से कम कार्बन उत्सर्जन वाले बदलाव की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाएंगे, वो अलग-थलग पड़ जाएंगे. ये ठीक उसी तरह होगा, जैसे वैक्सीन राष्ट्रवाद ने कोविड-19 महामारी से उबरने के वैश्विक लक्ष्य की राह में रोड़े अटकाए हैं. जिन देशों ने स्वच्छ ईंधन की तकनीकों के मामले में बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है, उन्हें पूरी शिद्दत से ये तकनीक अन्य देशों को देने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि जिनके पास ये तकनीक नहीं है, उन्हें इनका विकास करने की मशक़्क़त दोबारा न करनी पड़े.
विश्व स्तर पर खनिजों को निकालने और फिर उन्हें कम कार्बन वाली तकनीक में इस्तेमाल करने और इसके कचरे को नष्ट के मामले में बहुत असमानता दिखती है. तमाम देशों के बीच स्वच्छ ईंधन वाली अर्थव्यवस्था बनने की जो होड़ चल रही है, उस पर इन बातों का अलग अलग तरह से असर होता है.
- दुनिया में कार्बन उत्सर्जन कम करने की क्षमता की खाई को कम करना: स्वच्छ ईंधन की तरफ़ हो रहे बदलाव में शामिल होने के लिहाज़ से दुनिया के अलग अलग देशों की क्षमता में अंतर है और वो कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य हासिल करने की राह में अलग अलग मकामों पर खड़े हैं. इसकी एक वजह तो ये भी है कि ये देश सामाजिक आर्थिक और तकनीकी विकास के मामले में अलग अलग स्तर पर हैं. और, जैसा कि हमने ऊपर ज़िक्र किया है, इस वजह से विकासशील और कमज़ोर देशों को अंतरराष्ट्रीय सहायता देना उचित हो जाता है. इशका दूसरा पहलू वैश्विक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के ऐतिहासिक व्यवहार में छुपा है. जिसमें कई बार हम ये देखते हैं कि प्रचुर मात्रा में संसाधन होने के बावजूद, कई स्थानीय समुदायों का शोषण इसलिए होता है, क्योंकि वहां पर मज़बूत संस्थागत और श्रम क़ानून नहीं होते हैं. स्वच्छ ईंधन वाले भविष्य में ‘संसाधन के अभिशाप’ वाली ये प्रवृत्ति ख़ुद को न दोहराए, इसके लिए एक समान और न्यायोचित बदलाव ज़रूरी है. [7] मिसाल के तौरा पर अफ्रीका के कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य या घाना जैसे देशों को ही लें. एक तरफ़ तो इन देशों में खनिज होने से यहां उनके खनन के ज़रिए शोषण होता है और फिर इलेक्ट्रॉनिक कचरे को नष्ट करने के लिए इन्हें कचरे के डब्बे की तरह इस्तेमाल किया जाता है. यानी कम कार्बन उत्सर्जन वाली तकनीक की आपूर्ति श्रृंखला के मुहाने पर भी और फिर आख़िर में भी, इन देशों का शोषण होता है. [8] ये देश इससे जुड़े पर्यावरण और स्वास्थ्य के जोखिम का सामना करते हैं. विश्व स्तर पर खनिजों को निकालने और फिर उन्हें कम कार्बन वाली तकनीक में इस्तेमाल करने और इसके कचरे को नष्ट के मामले में बहुत असमानता दिखती है. तमाम देशों के बीच स्वच्छ ईंधन वाली अर्थव्यवस्था बनने की जो होड़ चल रही है, उस पर इन बातों का अलग अलग तरह से असर होता है. अगर कार्बन उत्सर्जन घटाने के दौरान, इस फ़ासले को कम किया जाए, तो जलवायु परिवर्तन से निपटने की पूरी दुनिया की चुनौती पर इसका असर पड़ेगा और इससे ‘कार्बन उत्सर्जन की खाई’ को पाटा जा सकेगा. [9] वहीं दूसरी तरफ़ नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की तकनीकें और ग्रीन हाइड्रोजन (यानी स्वच्छ ईंधन से हाइड्रोजन का उत्पादन) से कुछ हद तक विकेंद्रीकरण को बढ़ावा मिलता है, जिससे कुछ क्षेत्रों को ऊर्जा के मामले में एक हद तक आज़ादी और मुश्किलों का सामना करने की ताक़त मिलती है.
जलवायु परिवर्तन से निपटने के अभियान की सामाजिक न्याय के नज़रिए से समीक्षा
- जलवायु परिवर्तन से निपटने का साझा अभियान: विकासशील देशों के लिए टिकाऊ विकास के लक्ष्य दूरगामी अवधि में उनकी बेहतरी के लिहाज़ से सबसे अहम हैं. जलवायु परिवर्तन के असर विकास की इस प्रक्रिया के लिए ख़तरा पैदा करते हैं. इसके साथ-साथ, जो सेक्टर ख़त्म होने वाले हैं, उन पर किसी क्षेत्र की सामाजिक आर्थिक निर्भरता जितनी अधिक होगी, उसके लिए इंसाफ़पसंद बदलाव और ज़रूरी हो जाएगा. [10] हरित बदलाव और इससे जुड़ी विकास की प्रक्रिया जितनी अधिक न्यायोचित तरीक़े से चलाई जाएगी, उतना ही इन जोखिमों से निपटने का ख़याल रखा जाएगा. इसके साथ ही साथ लोगों की रोज़ी-रोटी का भी इंतज़ाम होगा और उनकी कमज़ोर और ज़रूरतमंद वाली स्थिति और ख़राब होने से भी रोकी जा सकेगी. इसमें प्रक्रिया संबंधी न्याय और वितरण संबंधी इंसाफ़ भी शामिल है. इससे फ़ैसले लेने की प्रक्रिया ही नहीं, इससे होने वाले फ़ायदों तक भी आम जनता की पहुंच सुनिश्चित होती है. न्यायोचित परिवर्तन ये मांग करता है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने की प्रक्रिया पूरी व्यवस्था के नज़रिए से चले और इसके केंद्र में आम लोग हों. इसीलिए बदलाव की प्रक्रिया में सबको समान रूप से मौक़ा देने और शामिल करने से जनता की सहमति लेना आसान हो जाता है. [11] इससे परिवर्तन की पूरी प्रक्रिया तुलनात्मक रूप से सहज हो जाती है और इससे जुड़े सभी पक्ष आपस में सहयोग करते हैं. सरकारें आर्थिक विविधता लाने और नौकरी तलाशने में इस तरह से मदद दे सकती हैं, जिससे कामकाजी लोग अपने हुनर का इस्तेमाल कई क्षेत्रों में कर पाएं.
- परिवर्तन की योजना बनाने में मानव केंद्रित नज़रिया: जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो क़दम उठाए जा रहे हैं, उनका कोई अनचाहा और अनअपेक्षित असर पड़ने से रोकने के लिए इसके लक्ष्यों में ‘न्यायोचित परिवर्तन’ को भी शामिल किया जाना चाहिए. इसका मतलब ये होगा कि हर देश द्वारा अपने स्तर पर किए जाने वाले योगदान के लक्ष्य समावेशी हों और ये ज़मीनी स्तर तक पहुंचे, जिसमें आख़िरी आदमी भी शामिल हो. [12] भारत के लिए इसका मतलब ये होगा कि केंद्र और राज्यों ही नहीं स्थानीय सरकारों और समुदायों से नज़दीकी रखने वाले संगठनों के बीच सहयोग मज़बूत हो (सहकारी संघवाद). इसके लिए ज़रूरत इस बात की होगी की बदलाव के बारे में ‘इंसान पर आधारित स्वरूप’ वाला नज़रिया अपनाया जाए. [1] इससे कार्बन उत्सर्जन की प्रक्रिया और टिकाऊ विकास की कोशिशों में मेल हो जाएगा.
रोज़गार के क्षेत्र में परिवर्तन की नई परिकल्पना
- रोज़गार पैदा करने से आगे बढ़ना: जैसा कि पहले भी ज़िक्र किया गया है, न्यायोचित परिवर्तन रोज़गार पैदा करने से आगे की बात है. मिसाल के तौर पर कितनी तादाद में नई नौकरियां पैदा हुईं, ये कहने भर से ये नहीं समझा जा सकता है कि नए रोज़गार किस तरह के हैं. इस तरह से महज़ रोज़गार गिना देने से पर्यावरण, ऊर्जा या फिर जलवायु परिवर्तन से निपटने में इंसाफ़ की बात साफ़ नहीं होती. न्यायोचित बदलाव के ज़रिए नौकरी तक पहुंच, रोज़गार की गुणवत्ता और सुरक्षा के साथ साथ इसका लोगों की ज़िंदगी और रोज़-रोटी पर पड़ने वाला असर समझा जा सकता है.
- असंगठित से संगठित नौकरियों की ओर क़दम: अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक़, आज की तारीख़ में भी दुनिया के 60 फ़ीसद से ज़्यादा कामगर, ‘असंगठित अर्थव्यवस्था’ का हिस्सा हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो असंगठित क्षेत्र की पहचान आम तौर पर काम के अच्छे माहौल के न होने से होती रही है. [13] असंगठित रोज़गार से उन लोगों और परिवारों की बदलाव से तालमेल करने की क्षमता को चोट पहुंचती है, जो ऐसी नौकरियों में फंसे रहते हैं. ख़ास तौर से कोविड-19 महामारी जैसे झटकों या फिर किसी उद्योग के मिट जाने जैसी स्थिति में तो वो और भी मुश्किल में पड़ जाते हैं. अगर हर देश की सामाजिक स्थिति के हिसाब से बदलाव के मानक तय हों, तो इनके बेहतर नतीजे निकल सकते हैं. मिसाल के तौर पर, भारत में साल 2020 से 2022 के बीच कामकाजी लोगों में महिलाओं की भागीदारी 4 प्रतिशत घट गई. [14] पुरुष कामगारों की तुलना में आज भी महिला कामगार, महामारी के पहले के स्तर तक नहीं पहुंच सकी हैं. इसकी बड़ी वजह महामारी के दौरान महिलाओं पर घर के काम का बढ़ा बोझ रहा है. [15] जहां तक स्वच्छ ईंधन की तरफ़ बदलाव की बात है, तो संस्थागत सामाजिक आर्थिक भेदभाव और असमानता से निपटने की कोशिश इस नज़रिए से बेहद अहम होगी कि इस प्रक्रिया में कमज़ोर समुदायों के भागीदार बदलाव को कितने सक्षम तरीक़े से अपनाते हैं.
स्वच्छ ईंधन की तरफ़ बदलाव के चलते नौकरियों के ख़ात्मे और नई नौकरियां हासिल करने के बीच अस्थायी तौर पर कुछ वक़्त लगने का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. ऐसे में सरकारों को चाहिए कि वो लोगों को इस बदलाव से निपटने में मदद करें. इससे नौकरियों में बदलाव के दौरान कमज़ोर समुदायों द्वारा के मुश्किल हालात का सामना करने की स्थिति बनने से रोकी जा सकती है और अस्थायी मदद उपलब्ध कराई जा सकती है.
- बदलाव में सहयोग: स्वच्छ ईंधन की तरफ़ बदलाव के चलते नौकरियों के ख़ात्मे और नई नौकरियां हासिल करने के बीच अस्थायी तौर पर कुछ वक़्त लगने का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. ऐसे में सरकारों को चाहिए कि वो लोगों को इस बदलाव से निपटने में मदद करें. इससे नौकरियों में बदलाव के दौरान कमज़ोर समुदायों द्वारा के मुश्किल हालात का सामना करने की स्थिति बनने से रोकी जा सकती है और अस्थायी मदद उपलब्ध कराई जा सकती है. समुदायों के लिए सामाजिक- आर्थिक सहयोग के अभाव से बदलाव के नकारात्मक असर और गहरे पड़ेंगे. इससे विकास और समानता के लक्ष्य भी जोखिम में पड़ सकते हैं.
- अलग अलग सेक्टर और अंतरराष्ट्रीय सहयोग और तालमेल: असंगठित क्षेत्र का मूल्यांकन करना बेहद अहम है, जिससे निजी हो या सार्वजनिक क्षेत्र, दोनों ही अपने प्रशिक्षम देने और कौशल विकास की योजनाओं में इसे शामिल कर सकें और प्रशिक्षण के ये कार्यक्रम श्रमिकों के हिसाब से और बेहतर बनाए जा सकते हैं. इस कोशिश में निजी क्षेत्र का सहयोग बहुत अहम होगा, चूंकि उनकी कामगारों तक सीधी पहुंच होती है और वो अपने कारोबार के दायरे में आने वाले असंगठित क्षेत्र के कामगारों को स्थायी नौकरियां दे सकते हैं. श्रमिक बाज़ार में बदलाव के मामले में ऐसे सहयोग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लागू किया जाना चाहिए. सभी देशों को न्यायोचित बदलाव लाने में अंतरराष्ट्रीय मदद और भागीदारी बेहद महत्वपूर्ण होगी. लेकिन, चूंकि जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोशिशों में पैसे की कमी आड़े आती रही है और पिछले कई वर्षों के दौरान इसमें कोई साझेदारी नहीं विकसित हुई है. ऐसे में सरकारों के लिए बेहतर यही होगा कि वो इस मामले में किसी और पर निर्भर रहें.
निष्कर्ष
जैसे जैसे हम जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, ये बात और भी साफ़ होती जा रही है कि कम कार्बन उत्सर्जन वाली राह- जो जलवायु परिवर्तन का असर कम करने के लिहाज़ से निश्चित रूप से अपेक्षित है- वो जीवाश्म ईंधन वाली व्यवस्था की तुलना में सामाजिक रूप से और अधिक तभी फ़ायदेमंद होगी, जब न्यायोचित परिवर्तन के लिए सक्रियता से काम किया जा सके. हमें ये समझना होगा कि स्वच्छ ईंधन वाले भविष्य का ये मतलब नहीं कि ये समानता वाला हो. दूसरे शब्दों में कहें तो स्वच्छ व्यवस्था का मतलब ये नहीं कि एक तरफ़ अच्छे लोग तो दूसरी ओर बुरे लोग होंगे. हमें ये सवाल पूछना पड़ेगा कि इतने बड़े पैमाने पर हो रहे बदलाव में आम आदमी किस तरह से फिट होता है. इसकी क़ीमत कौन चुका रहा है और अलग अलग व्यक्ति किस तरह की भूमिकाएं निभा सकते हैं, जिससे उनकी ज़िंदगी और रोज़ी-रोटी सुरक्षित रहे. हर देश में इन सवालों के अलग अलग जवाब भी मिलेंगे और इसीलिए न्यायोचित परिवर्तन के सिद्धांतों को हर देश के हिसाब से ढालना होगा.
हमें जलवायु परिवर्तन को सामाजिक न्याय के चश्मे से देखना होगा और उर्जा परिवर्तन, जलवायु परिवर्तन का असर कम करने की गतिविधियों में ज़मीनी स्तर तक पहुंचने की बात को इस तरह शामिल किया जाए, जिससे वो न्यायोचित परिवर्तन की पहचान वाले सिद्धांतों और प्रक्रिया संबंधी व वितरण संबंधी इंसाफ़ किया जा सके
हालांकि, एक बात बिल्कुल साफ़ है. न्यायोचित परिवर्तन के लक्ष्य की तरफ़ बढ़ने का मतलब है कि सबसे कमज़ोर तबक़ा और भी हाशिए पर न धकेल दिया जाए. हरित बदलावों में इंसाफ़ को पैबस्त करने के लिए कुछ स्पष्ट राहें साफ़ दिख रही हैं: वैश्विक सहयोग और साझीदारी और ऐसे नियम क़ानून का सख़्ती से लागू करना, जिससे ज़्यादा संसाधन वाले उद्योगों में लगे लोगों के लिए सामाजिक नतीजे अच्छे रहें; हमें जलवायु परिवर्तन को सामाजिक न्याय के चश्मे से देखना होगा और उर्जा परिवर्तन, जलवायु परिवर्तन का असर कम करने की गतिविधियों में ज़मीनी स्तर तक पहुंचने की बात को इस तरह शामिल किया जाए, जिससे वो न्यायोचित परिवर्तन की पहचान वाले सिद्धांतों और प्रक्रिया संबंधी व वितरण संबंधी इंसाफ़ किया जा सके; और सिर्फ़ नौकरियां पैदा करने से आगे बढ़कर किस तरह की नौकरियां हैं, इस बारे में सोचना चाहिए. दोनों नौकरियों के बीच बदलाव के दौरान भी लोगों को मदद दी जानी चाहिए. तभी ये पता चलेगा कि स्वच्छ ईंधन का उभरता हुआ उद्योग न्याय और समानता के मोर्चे पर कितनी कामयाबी हासिल कर पा रहा है.
[1] In general terms, ‘human-centred design’ places the people and contexts that a product, service, or policy is being designed for, at the centre of the design process, and includes communities to co-design solutions through multiple iterations.
[1] Eduardo Levy Yeyati, and Federico Filippini, “Social And economic impact Of COVID-19,” Brookings, 2021.
[2] Sameer Kwatra and Charlotte Steiner, comment on “India Could Create Millions of Jobs Through Renewable Energy,” NRDC Blog, comment posted on January 27, 2022.
[3] Aaron Atteridge, Isabel Blanco, and Claudia Strambo, Insights from Historical Cases of Transition: Background Paper for the EBRD Just Transition Initiative, European Bank for Reconstruction and Development, 2020.
[4] International Energy Agency, Recommendations of the Global Commission on People-Centred Clean Energy Transitions, IEA, Paris, 2021.
[5] Frida Lager et al., “A Just Transition for Climate Change Adaptation: Towards Just Resilience and Security in a Globalising World,” PreventionWeb, 2021.
[6] David Simchi-Levi and Pierre Haren, “How the War in Ukraine is Further Disrupting Global Supply Chains,” Harvard Business Review, March 17, 2022.
[7] J.-F. Mercure et al., “Reframing incentives for climate policy action,” Nature Energy, 6, (2021): 1133–1143.
[8] Benjamin K. Sovacool et al., “The decarbonisation divide: Contextualizing landscapes of low-carbon exploitation and toxicity in Africa,” Global Environmental Change 60, (2020).
[9] Sovacool et al., “The decarbonisation divide: Contextualizing landscapes of low-carbon exploitation and toxicity in Africa”
[10] Christiane Beuermann and Victoria Brandemann, Just Transition in National Climate Plans: An Analysis of Case Studies from South Africa, Costa Rica and Ukraine, Friedrich-Ebert-Stiftung, 2021.
[11] “Just Transition in National Climate Plans: An Analysis of Case Studies from South Africa, Costa Rica and Ukraine”
[12] “Just Transition in National Climate Plans: An Analysis of Case Studies from South Africa, Costa Rica and Ukraine”
[13] International labour Organization, Transition from the informal to the formal economy – Theory of Change, February 2021, Switzerland, UN, 2021.
[14] Ashmita Chowdhury, Mitali Nikore, and BehanBox, “India needs a more gender-sensitive fiscal policy,”India Development Review, April 1, 2022.
[15] Chowdhury, Nikore and BehanBox, “India needs a more gender-sensitive fiscal policy”
[16] Ian Mitchell, comment on “Climate finance is the elephant in the room at COP26,” Chatham House, comment posted November 5, 2021.
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