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Published on Dec 27, 2024 Updated 0 Hours ago

भविष्य में भारत को ग्रीन इकोनॉमी यानी हरित अर्थव्यवस्था बनाने के लिए हरित परिवर्तन के महत्व व प्रभाव को सुनिश्चित करने वाली व्यापक आर्थिक नीतियों के साथ ही ग्लोबल नॉर्थ का सहयोग बेहद ज़रूरी है.

ग्रीन ट्रांजिशन: विकास, स्थिरता और ऊर्जा परिवर्तन के बीच संतुलन ज़रूरी

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जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का सामना करने और जलवायु अनुकूलन के लिए वर्तमान में सबसे बड़ी ज़रूरत हरित अर्थव्यवस्था की ओर क़दम बढ़ाने की है. ग्रीन इकोनॉमी की ओर बदलाव को आम तौर पर ग्रीन ट्रांजिशन यानी 'हरित परिवर्तन' कहा जाता है. भारत खुद को हरित अर्थव्यवस्था के रूप में परिवर्तित करने के लिए तमाम उपाय कर रहा है और इसी क्रम में अपनी आर्थिक नीतियों व ऊर्जा रणनीतियों को नए सिरे से तैयार कर रहा है. भारत द्वारा इसके लिए इलेक्ट्रिक गाड़ियों के उत्पादन व उपयोग को प्रोत्साहित किया जा रहा है, ग्रीन हाइड्रोजन के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है और औद्योगिक उत्पादन के तौर-तरीक़ों यानी उपयोग किए जाने वाले ईंधन में बदलाव किया जा रहा है. भारत द्वारा किए जा रहे इन उपायों का मकसद हरित परिवर्तन की प्रक्रिया में तेज़ी लाना है, ताकि देश को हरित अर्थव्यवस्था में बदला जा सके. हरित परिवर्तन की ओर बढ़ते यह तेज़ क़दम आज सिर्फ़ पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिहाज़ से ही ज़रूरी नहीं हैं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक लिहाज़ से भी हरित अर्थव्यवस्था की ओर यह बदलाव बेहद आवश्यक है. हरित परिवर्तन भारतीय अर्थव्यवस्था में बुनियादी बदलाव लाने का काम कर रहा है. ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर और टेक्नोलॉजी में निवेश का असर असीमित होता है और हर सेक्टर में इसका प्रभाव होता है. यानी इस प्रकार का निवेश विनिर्माण, सेवा और कृषि जैसे क्षेत्रों को प्रोत्साहन देने में बेहद कारगर साबित हो सकता है. तेज़ी के साथ हरित आर्थिक परिवर्तन से कई ख़तरे और चुनौतियां भी पैदा होती हैं. इनका सामना करने के लिए आवश्यक नीतिगित हस्तक्षेप एवं नियम-क़ानूनों की ज़रूरत होती है. ऐसा करके ही भारत अपने हरित लक्ष्यों से भटके बिना आर्थिक विकास और स्थिरता के बीच संतुलन स्थापित कर सकता है. इसके अतिरिक्त, इस दिशा में ग्लोबल नॉर्थ यानी विकसित अर्थव्यवस्थाओं को भी सहयोगी क़दम उठाने चाहिए. ग्लोबल नॉर्थ को हरित परिवर्तन की इस प्रक्रिया को निर्बाध रूप से चलाए रखने के लिए भारत समेत दूसरे विकासशील देशों को न केवल रियायती दर पर फंड उपलब्ध कराना चाहिए, बल्कि उन्हें आर्थिक मदद देने में भी तेज़ी लानी चाहिए.

 

हरित परिवर्तन की राह में आने वाली आर्थिक व सामाजिक चुनौतियां

ग्रीन एनर्जी की तरफ परिवर्तन और इससे जुड़े उद्योगों को स्थापित करने के लिए शुरुआती दौर में व्यापक स्तर पर निवेश की ज़रूरत होती है. तमाम विभागों और एजेंसियों के मुताबिक़ भारत को नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने के लिए अगले 25 से 45 वर्षों में हर साल औसतन 200 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश की ज़रूरत होगी. भारत द्वारा जिस प्रकार से हरित प्रौद्योगिकियों के विकास और उपयोग को बढ़ावा देने के लिए व्यापक धनराशि ख़र्च की जा रही है, उससे यह लगता है कि आर्थिक तरक़्क़ी एवं रोज़गार सृजन के लिहाज़ से अहम दूसरे सेक्टरों को मज़बूत करने के लिए पूंजी जुटाने में दिक़्क़तों का सामना करना पड़ सकता है. कहने का मतलब है कि गैर-हरित सेक्टर (जरूरी नहीं कि अधिक कार्बन उत्सर्जन वाले क्षेत्र) से ग्रीन सेक्टर की तरफ परिवर्तन, या कहें की हरित क्षेत्र के विकास और विस्तार के लिए अपेक्षाकृत ज़्यादा निवेश करने से निकट भविष्य में रोज़गार के अवसर कम हो सकते हैं, साथ ही सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की बढ़ोतरी भी थम सकती है.

भारत द्वारा किए जा रहे इन उपायों का मकसद हरित परिवर्तन की प्रक्रिया में तेज़ी लाना है, ताकि देश को हरित अर्थव्यवस्था में बदला जा सके. हरित परिवर्तन की ओर बढ़ते यह तेज़ क़दम आज सिर्फ़ पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिहाज़ से ही ज़रूरी नहीं हैं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक लिहाज़ से भी हरित अर्थव्यवस्था की ओर यह बदलाव बेहद आवश्यक है.

हरित परिवर्तन से जो सबसे बड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है, वो अकुशल यानी गैर-प्रशिक्षित कामगारों की आजीविका और उनके जीवन पर आने वाला संकट है. ज़ाहिर है कि बड़ी संख्या में ऐसे कामगार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोज़ी-रोटी के लिए उन सेक्टरों पर निर्भर हैं, जिनमें बहुत अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है. कार्बन-गहन उद्योग (जैसे कोयला) के स्थान पर स्वच्छ ऊर्जा (नवीकरणीय ऊर्जा) को अपनाने के लिए बहुत ज़्यादा निवेश की ज़रूरत होती है और विशेषज्ञता भी हासिल करनी होती है. लेकिन कोयला जैसे सेक्टरों में कार्यरत कामगारों के पास ऐसा कुछ भी नहीं है. ऐसे में उन राज्यों को, जो ख़ास तौर पर राजस्व के लिए कोयला पर निर्भर हैं और उनकी बड़ी आबादी इस सेक्टर में कार्यरत है, उन्हें हरित ऊर्जा में परिवर्तन के कारण बेरोज़गार हो गए श्रमिकों व दूसरे लोगों की वित्तीय मदद के लिए आर्थिक संसाधन जुटाना होगा और यह काफ़ी परेशानी का सबब हो सकता है. ऐसे हालातों में ग्लोबल नॉर्थ के देशों को जस्ट ट्रांजिशन यानी हरित ऊर्जा में ‘न्यायसंगत परिवर्तन’ के लिए भारत की वित्तीय मदद करनी चाहिए.

 

नीतिगत क़दम उठाना

भारत में जिस तरह से रिन्यूएबल एनर्जी का उत्पादन बढ़ाने और इलेक्ट्रिक गाड़ियों (EVs) का उपयोग अधिक से अधिक बढ़ाने को लेकर आपाधापी का माहौल बना हुआ है, उससे यह निश्चित है कि थोड़े समय के लिए नवीकरणीय ऊर्जा एवं हरित परिवहन के साधनों के उपयोग की लागत अधिक हो सकती है. इतना ही नहीं, जब तक भारतीय कंपनियां हरित तकनीक़ के लिए ज़रूरी बैटरियों एवं सोलर पैनल के निर्माण में महारत हासिल नहीं कर लेती हैं और स्वच्छ ऊर्जा व इलेक्ट्रिक गाड़ियों के लिए आवश्यक लिथियम जैसी आवश्यक चीज़ों के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं हो जाती हैं, तब तक फिलहाल भारत को इन तकनीक़ों और चीज़ों के लिए आयात पर निर्भर होना पड़ेगा. इसके अलावा, अगर हरित टेक्नोलॉजी अपनाने के लिए आवश्यक कच्चे माल की लागत में बढ़ोतरी होती है या रुपये की क़ीमत में गिरावट आती है या फिर मैन्युफैक्चरिंग लागत बढ़ती है, तो ज़ाहिर तौर पर इससे ग्रीन एनर्जी की तरफ परिवर्तन काफ़ी महंगा साबित हो सकता है और इससे कहीं न कहीं देश की अर्थव्यवस्था पर ही दबाव बनेगा. इतना ही नहीं, स्टील, सीमेंट और ऑटोमोबाइल जैसे कार्बन-गहन और इकोनॉमी के लिहाज़ से ज़रूरी उद्योगों पर कार्बन टैक्सों की शुरुआत होने से भी इन सेक्टरों के उत्पादों की लागत और ज़्यादा बढ़ सकती है. गौरतलब है कि इन हालातों में देश में ऐसे नीतिगत उपायों को अमल में लाने की ज़रूरत है, जो अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त लागत के बोझ को कम करने में मददगार हों. उदाहरण के तौर पर अगर सरकार द्वारा कार्बन करों का उपयोग दूसरी चीज़ों के बजाए उपभोक्ताओं को कम कार्बन उत्सर्जन वाली टेक्नोलॉजियों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने के लिए बढ़ावा देने हेतु किया जाता है, तो यह काफ़ी कारगर सिद्ध हो सकता है.

 

भारत सरकार को वित्तीय नज़रिए से हरित परिवर्तन को लेकर कुछ कड़े क़दम उठाने होंगे, ताकि इस पूरी प्रक्रिया के दौरान संतुलन बनाया जा सके. इसके लिए जहां ग्रीन ट्रांजिशन के लिए उन सेक्टरों में सरकारी निवेश बढ़ाने की ज़रूरत होगी, जिनमें निजी निवेशकों की ख़ास दिलचस्पी नहीं होती है, जबकि ऐसे सेक्टर भारत के हरित परिवर्तन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए बेहद ज़रूरी हैं. अगर इन सेक्टरों में सरकारी निवेश बढ़ाया जाएगा, तो बजट की बड़ी धनराशि इसमें ख़र्च हो जाएगी. ऐसा करने से सरकार पर वित्तीय बोझ बढ़ सकता है, यानी देश का राजकोषीय घाटा बढ़ सकता है, साथ ही सरकारी कर्ज़ में भी बढ़ोतरी हो सकती है. ऐसे में यह ज़रूरी है कि ग्रीन सेक्टर में निवेश को बढ़ाने के लिए सरकारी बजट का समझबूझ के साथ उपयोग किया जाए, जिससे इसमें निजी निवेशक भी दिलचस्पी लेने लगें. इसके लिए नए-नए वित्तीय साधनों, जैसे कि मिश्रित वित्तपोषण का उपयोग किया जाना चाहिए. ऐसा करने पर सरकारी कर्ज़ नहीं बढ़ेगा, साथ ही सरकार को दूसरे ज़रूरी कामों और योजनाओं के लिए बजट ख़र्च करने का अवसर मिलेगा. इसके अलावा, ग्लोबल नॉर्थ के देशों को भी रियायती पूंजी, अनुदान और रिस्की कैपिटल यानी ऐसी पूंजी जिसमें नुक़सान की अत्यधिक संभावना होती है एवं पेशेंस कैपिटल या दीर्घकालिक पूंजी यानी ऐसा निवेश जिससे रिटर्न हासिल होने में कई सालों का वक़्त लगता है, उपलब्ध करानी चाहिए. इसका इस्तेमाल हरित सेक्टर में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए भी समझदारी से किया जा सकता है. इनमें से ग्लोबल नॉर्थ से मिलने वाली अनुदान राशि और रियायती पूंजी का उपयोग प्राइवेट कैपिटल को आकर्षित करने के लिए किया जा सकता है, ऐसा करने से हरित परियोजनाओं के जोख़िम को कम करने में मदद मिलेगी. इसके अलावा, रिस्की कैपिटल और पेशेंस कैपिटल का इस्तेमाल ऐसी प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देने में किया जा सकता है, जिनमें कार्बन उत्सर्जन कम होता है, ज़ाहिर है कि इन तकनीक़ों से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश का रिटर्न हासिल करने में बहुत समय लगता है, इसलिए इनमें निजी निवेश बहुत अधिक नहीं होता है. हालांकि, ऐसा करने से समय बीतने के साथ-साथ इनमें निजी निवेश के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जा सकता है.

अगर हरित टेक्नोलॉजी अपनाने के लिए आवश्यक कच्चे माल की लागत में बढ़ोतरी होती है या रुपये की क़ीमत में गिरावट आती है या फिर मैन्युफैक्चरिंग लागत बढ़ती है, तो ज़ाहिर तौर पर इससे ग्रीन एनर्जी की तरफ परिवर्तन काफ़ी महंगा साबित हो सकता है.

ऐसी भी संभावना है कि हरित परिवर्तन की वजह से भारत के एक्सचेंज मार्केट पर भी असर पड़ सकता है, यानी मुद्रा बाज़ार भी प्रभावित हो सकता है. अगर भारत के मुद्रा मूल्य की बात की जाए, तो यह व्यापार संतुलन पर बहुत अधिक निर्भर है, ख़ास तौर पर ऊर्जा आयात से तय होता है. भारत की तेल आयात पर बहुत अधिक निर्भरता है और वैश्विक स्तर पर तेल की क़ीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव से भारतीय रुपये के मूल्य पर सीधा असर पड़ता है. ऐसे में जब वर्तमान में हरित परिवर्तन की ओर तेज़ी से क़दम बढ़ाए जा रहे हैं, तो निश्चित रूप से रिन्यूएबल टेक्नोलॉजी के लिए अहम चीज़ों, जैसे कि लिथियम और कोबाल्ट जैसे दुर्लभ खनिजों का आयात बढ़ रहा है, जिससे देश का करंट अकाउंट डेफिसिट यानी चालू खाता घाटा भी अस्थायी रूप से बढ़ सकता है. चालू खाता घाटा बढ़ने की वजह से रुपये का मूल्य घट सकता है. हालांकि, तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि हरित ऊर्जा में परिवर्तन से भारत को तेल व गैस का आयात घटाने में मदद मिलेगी और ऐसा होने पर देश का करंट अकाउंट डेफिसिट भी कम होगा, जिससे रुपये के मूल्य को बनाए रखने में मदद मिलेगी. वर्तमान हालातों में देश की केंद्रीय बैंकों को ग्रीन सेक्टर में अचानक बढ़ने वाले विदेशी निवेश को संतुलित करने और तेल व गैस के आयात के लिए होने वाले विदेशी मुद्रा ख़र्च को कम करने की ज़रूरत है.

 

हरित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन: सभी के लिए फायदेमंद स्थिति

हरित परिवर्तन से होने वाले फायदों को देश के सभी राज्यों और नागरिकों के बीच समान रूप से पहुंचाना भी एक बहुत बड़ी चुनौती है. भारत में कुछ राज्य ऐसे हैं, जो हरित परिवर्तन से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश को आकर्षित करने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं. वहीं देश में कई राज्य ऐसे भी हैं, जिन्होंने इस दिशा में कुछ ख़ास नहीं किया है और अभी भी अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन वाले उद्योगों पर निर्भर हैं. ये राज्य हरित परिवर्तन के लाभों को हासिल करने में पीछे रह सकते हैं. तेज़ी से हो रहे हरित परिवर्तन का समाज पर भी असर पड़ सकता है, जिसे समझना भी बेहद ज़रूरी है. जैसे कि जो लोग कार्बन-गहन उद्योगों पर निर्भर हैं, वे ग्रीन ट्रांजिशन को बढ़ावा देने से अपनी रोज़ी-रोटी से हाथ धो सकते हैं. अगर इन सेक्टरों में काम करने वाले कामगारों को ग्रीन तकनीक़ के बारे में प्रशिक्षित नहीं किया जाता है और उनकी आर्थिक मदद नहीं की जाती है, तो हरित अर्थव्यवस्था में उनके लिए अपना अस्तित्व बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा. अगर हरित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के दौरान सभी अहम पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है, तो इससे जहां आर्थिक अस्थिरता का महौल पैदा हो सकता है, कार्बन-गहन सेक्टरों में काम करने वाले लोगों का रोज़गार छिन सकता है, साथ ही कुछ समय के लिए मुद्रास्फ़ीति में भी इज़ाफा हो सकता है. इन हालातों में राज्य सरकारों की भूमिका बहुत अहम हो जाती है और वे हरित अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने के दौरान ऐसे उपायों को अमल में ला सकती हैं, जिससे समाज के कमज़ोर वर्गों को हर प्रकार से मदद मिल सके. यानी हरित परिवर्तन को न्यायसंगत बनाने में राज्य सरकारों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. इसी के साथ हरित परिवर्तन के दुष्प्रभावों को समाप्त करने एवं कमज़ोर वर्गों के लोगों को मदद पहुंचाने में केंद्र सरकार की भी भूमिका अहम है. जो राज्य सरकारें अपने बल पर इन विकट आर्थिक परिस्थितियों का मुक़ाबला करने में सक्षम नहीं हैं, केंद्र उनकी आर्थिक मदद कर सकता है. इसके अलावा, राज्य सरकारों को अपने-अपने राज्यों में हरित परिवर्तन के लिए उचित वातावरण तैयार करने के लिए अनुकूल नीतियां व नियम-क़ानून बनाने चाहिए, ताकि अधिक से अधिक हरित निवेश को आकर्षित किया जा सके.

 

ज़ाहिर है कि हरित परिवर्तन की दिशा में आनन-फानन में क़दम उठाने से मुश्किल परिस्थितियां पैदा हो सकती हैं, इसलिए सरकारों को इसके लिए ऐसा नज़रिया अपनाना चाहिए, जिसमें एक के बाद एक क्रमिक उपाय किए जाएं, ताकि उद्योगों एवं कामगारों को ग्रीन सेक्टरों की ओर बदलाव करने के लिए योजनाबद्ध तरीक़े से आगे बढ़ने में मदद मिले. इसके अलावा, वर्तमान में कार्बन-गहन सेक्टरों में कार्यरत श्रमिकों के लिए नई तकनीक़ के लिहाज़ से शिक्षण और प्रशिक्षण की सुविधा उपलब्ध कराना भी बेहद महत्वपूर्ण होगा. इससे जहां रोज़गार छिनने के असर को कम किया जा सकेगा, वहीं नवीकरणीय प्रौद्योगिकी वाले उद्योगों की ज़रूरत के मुताबिक प्रशिक्षित कार्यबल की उपलब्धता भी सुनिश्चित की जा सकेगी. इसके अतिरिक्त, अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वित्त की मदद से अपनाई जाने वाली लचीली मौद्रिक नीतियां यानी वो नीतियां जिसमें आर्थिक विकास, रोज़गार और मुद्रास्फ़ीति जैसे व्यापक आर्थिक कारकों का पूरा ध्यान रखा जाता है एवं ज़िम्मेदार वित्तीय रणनीति, हरित परिवर्तन के इस दौर में व्यापक रूप से आर्थिक मज़बूती बनाए रखने में मददगार साबित हो सकती हैं.

 

कुल मिलाकर भारत के हरित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन में जहां कई चुनौतियां खड़ी हैं, तो वहीं तमाम अवसर भी मौज़ूद हैं. हरित परिवर्तन की वजह से भारत को फौरी तौर पर मुद्रा विनिमय दर में उतार-चढ़ाव और बढ़ती महंगाई का सामना करना पड़ सकता है. ऐसे में अगर सरकार प्रभावशाली व संतुलित तरीक़े से निवेश को आकर्षित करती है, मुद्रा मूल्य को संभालती है और कामगारों का कौशल बढ़ाती है, तो हरित परिवर्तन के दौरान सामने आने वाली चुनौतियों का आसानी से सामना किया जा सकता है. यानी भारत को लचीली एवं समृद्ध हरित अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करने के लिए सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियां और रणनीतियां बहुत महत्वपूर्ण हैं.


चिन्मय बेहरा गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.

लाबन्य प्रकाश जेना सस्टेनेबल फाइनेंस विशेषज्ञ हैं.



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