Published on Apr 27, 2021 Updated 0 Hours ago

आज भारत, चीन और अमेरिका के साथ श्रीलंका के संबंधों को परिभाषित करने में जियोपॉलिटिक्स बहुआयामी भूमिका निभा रही है.

श्रीलंका में एक कंटेनर टर्मिनल की जियोपॉलिटिक्स: चीन का पिछलग्गू बनने की कोशिश
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मज़दूर संगठनों के नेताओं का जियोपॉलिटिक्स पर कुछ बोलना बड़ी असामान्य सी बात है. लेकिन, प्रोग्रेसिव वर्कर्स एसोसिएशन फॉर कमर्शियल इंडस्ट्री ऐंड सर्विसेज़ (PWACIS) के अध्यक्ष संजय कुमार वेलिगामा ने एक इंटरव्यू में कहा कि, ‘हमारे अपने पूर्वी कंटेनर टर्मिनल को भारत को पट्टे पर देने के मामले में जियोपॉलिटिक्स की बाधा नहीं आनी चाहिए.’ वेलिगामा ने जब ये इंटरव्यू दिया तो उनके साथ मज़दूर संघों की एसोसिएशन के सचिव शमाल सुमनरत्ना भी मौजूद थे. अपने पीछे की राजनीतिक ताक़तश्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षेकी तारीफ़ करते हुए वेलिगामा ने कहा कि, ‘ये महिंदा राजपक्षे ही थे, जिन्होंने हमारे बंदरगाह को बचाया थावरना इन सबका निजीकरण होने वाला था.’ कोलंबो बंदरगाह के 23 एकीकृत श्रमिक संगठनों की देशभक्ति को वाजिब ठहराते हुए वेलिगामा ने कहा कि, ‘इस देश की कोई भी देशभक्त ताक़त ये नहीं चाहेगी कि वो अपनी सरकार को उखाड़ फेंके. बल्कि कोशिश यही होगी कि हम सरकार को सही राह पर चलने में मदद करें.’ 

श्रीलंका की उग्र राष्ट्रवादी ताक़तों ने विदेशी शक्तियों द्वारा श्रीलंका की सामरिक संपत्तियों को अपने क़ब्ज़े में लेने का भय दिखाकर सरकार को अपने क़दम पीछे खींचने पर तो मजबूर कर दिया. लेकिन इससे श्रीलंका की पहले से ही बीमार अर्थव्यवस्था के सामने खड़े सीमित अवसरों में से एक हाथ से निकल गया.

श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे पहले ये चाहते थे कि वो वर्ष 2019 में भारत और जापान के साथ हस्ताक्षर किए गए त्रिपक्षीय समझौते पर आगे बढ़ें. इस समझौते के तहत पूर्वी कंटेनर टर्मिनल में 49 प्रतिशत हिस्सेदारी भारत की होनी थी. हालांकि, 51 प्रतिशत हिस्से के साथ श्रीलंका का इस पर मालिकाना हक़ बना रहना था. लेकिन, श्रमिक संगठनों के कड़े विरोध के कारण ये फ़ैसला टालना पड़ा. राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे एक प्रगतिवादी रास्ते पर चलना चाह रहे थे. उन्होंने श्रमिक संघों के साथ एक बैठक में कहा था कि 51/49 का जो त्रिपक्षीय समझौता हुआ था, वो जियोपॉलिटिक्स के लिहाज़ से सबसे उचित निर्णय था. लेकिन, राजनीतिक रूप से प्रभावशाली मज़दूर संघों ने इस मसले पर राष्ट्रपति के ऊपर विजय हासिल कर ली. श्रमिक संगठनों की इस जीत के बाद श्रीलंका की सरकार के उदारवादी आर्थिक मूल्यों के बजाय, और अधिक संरक्षणवादी मार्ग पर चलने की संभावना है. जियोपॉलिटिक्स के लिहाज़ से देखें तो ये निर्णय बिल्कुल ग़लत गुणागणित वाला फ़ैसला था. क्योंकि, श्रीलंका में तब तो ऐसे डर का प्रदर्शन नहीं किया गया था, जब सरकार ने एक बंदरगाह को चीन को 99 साल के पट्टे पर दिया था. श्रीलंका की उग्र राष्ट्रवादी ताक़तों ने विदेशी शक्तियों द्वारा श्रीलंका की सामरिक संपत्तियों को अपने क़ब्ज़े में लेने का भय दिखाकर सरकार को अपने क़दम पीछे खींचने पर तो मजबूर कर दिया. लेकिन इससे श्रीलंका की पहले से ही बीमार अर्थव्यवस्था के सामने खड़े सीमित अवसरों में से एक हाथ से निकल गया. इस फ़ैसले का असर श्रीलंका के आम लोगों के जीवन पर पड़ेगा. जियोपॉलिटिक्स से अलग, श्रीलंका की सरकार के इस फ़ैसले के पीछे एक और कारण वहां के मीडिया ने बताया था. कहा जा रहा है कि भारत में श्रीलंका के उच्चायुक्त ने राष्ट्रपति को एक अवैध भुगतान लेने के लिए उकसाया था.

भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस. जयशंकर के सफल श्रीलंका दौरे के कुछ दिनों बाद ही श्रीलंका के लोकप्रिय अख़बार  संडे टाइम्स ने लिखा था कि पूर्वी कंटेनर टर्मिनल को भारत को पट्टे पर देने के समझौते की राह में सिर्फ़ एक ही रोड़ा है और वो है चीन की ख़ुफ़िया एजेंसियां. अख़बार ने जो बात लिखी, वो सबसे महत्वपूर्ण कारण है क्योंकि चीन लगातार श्रीलंका के सामरिक निर्णयों पर अपना प्रभाव डालने की कोशिश में जुटा हुआ है. आज की तारीख़ में श्रीलंका में चीन सबसे प्रभावशाली ताक़त बन चुका है. इसके साथ साथ जिस समय ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल का ठेका भारतीय कंपनी अदानी समूह को  देने का फ़ैसला किया गया, तभी श्रीलंका की कैबिनेट ने नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के एक साझा प्रोजेक्ट को चीन को देने का फ़ैसला किया था. इस प्रोजेक्ट की लागत बीस लाख डॉलर बताई जा रही है. ये भारत की सुरक्षा की दृष्टि से चिंता की बात है, क्योंकि ये प्रोजेक्ट भारत के समुद्र तट के काफ़ी क़रीब है.

सुदूर दक्षिण में चीन की नौसेना ने अपने लिए हंबनटोटा बंदरगाह का रास्ता खोला है, तो पश्चिम में कोलंबो बंदरगाह शहर की राह सुगम बनाई है. इसके अलावा चीन ने कोलंबो बंदरगाह और इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल के सामने के समुद्री क्षेत्र पर क़ब्ज़ा जमा लिया है.

आज भारत, चीन और अमेरिका के साथ श्रीलंका के संबंधों को परिभाषित करने में जियोपॉलिटिक्स बहुआयामी भूमिका निभा रही है. भारत और चीन के बीच संबंध का सीधा असर श्रीलंका की विदेश नीति पर पड़ रहा है, क्योंकि श्रीलंका की कोशिश यही होती है कि वो दोनों देशों के साथ संबंधों को लेकर एक संतुलन बनाए रखे. श्रीलंका में चीन के बढ़ने प्रभाव ने भारत और श्रीलंका के संबंधों पर भी गहरा असर डाला है. बंदरगाह से जुड़ी जियोपॉलिटिक्स को अभी भी संतुलन बनाने के इच्छुक नीति नियंता नहीं समझ पा रहे हैं. ये वर्ग अक्सर चीन का पिछलग्गू बनकर लाभ उठाने की हिमायत करता है. नीति निर्माताओं का ये वर्ग ये बात याद दिलाता रहता है कि एक पनडुब्बी के कोलंबो बंदरगाह आने का असर भारत और श्रीलंका के द्विपक्षीय सुरक्षा संबंधों पर पड़ेगा. ये प्रभाव ठीक उसी तरह का होगा, जैसा 2014 में चीन की नौसेना की एक पनडुब्बी के कोलंबो बंदरगाह पर ठहरने का हुआ था.

राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे आज भौगोलिक कूटनीति के ऐसे शिकंजे में फंसे हैं, जो चीन के एक बड़ी क्षेत्रीय ताक़त के रूप में उभरने की कोशिश में श्रीलंका पर कसता ही जा रहा है. जब भी श्रीलंका के सामरिक रूप से महत्वपूर्ण बंदरगाहों की बात आती है, तो चीन की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता है. चीन ने आज श्रीलंका की पश्चिमी और दक्षिणी समुद्री सीमाओं को बदल दिया है. सुदूर दक्षिण में चीन की नौसेना ने अपने लिए हंबनटोटा बंदरगाह का रास्ता खोला है, तो पश्चिम में कोलंबो बंदरगाह शहर की राह सुगम बनाई है. इसके अलावा चीन ने कोलंबो बंदरगाह और इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल के सामने के समुद्री क्षेत्र पर क़ब्ज़ा जमा लिया है. चीन पहले ही कोलंबो बंदरगाह के इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल को संचालित करता है. ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल के ठीक बगल में स्थित कोलंबो इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल (CICT) पूरी तरह से चीन के नियंत्रण में है.

श्रीलंका की भौगोलिक सामरिक अहमियत का निर्धारण इसके बंदरगाहों से होता है, जो इस द्वीप में प्रवेश के द्वार हैं. चीन ने 13 साल पहले ही अपने लिए सामरिक राह तय कर ली थी. तब उसने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के अपने बड़े सामरिक नक़्शे में श्रीलंका को भी शामिल कर लिया था. चीन के सामरिक विशेषज्ञों ने श्रीलंका के हंबनटोटा जैसे बंदरगाहों में निवेश की राह खोलने के लिए अपने निवेश से कम लाभ होने की बात भी स्वीकार कर ली थी. चीन का असल मक़सद श्रीलंका में लंबे समय तक टिकना था. दूरगामी सोच अपनाते हुए चीन ने भारत के आसपास के तीसरे भौगोलिक कोने में अपना डेरा जमाया था. चीन ने भारत के क़रीब जिन अन्य दो बंदरगाहों पर अपना स्थायी ठिकाना बनाया है, उनमें से एक पाकिस्तान में है, तो दूसरा म्यांमार में. इन दो देशों में चीन अपने BRI प्रोजेक्ट के ज़रिए बहुत अधिक निवेश कर रहा है. एक तो चीन म्यांमार आर्थिक गलियारा (CMEC) है. वहीं दूसरा है चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC).

कई ग़लत सामरिक विकल्पों का चुनाव

चीन की पाकिस्तान और म्यामांर के साथ बढ़ती नज़दीकियों के चलते, दक्षिण एशिया के अन्य देशों के साथ भारत के द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संबंधों पर असर पड़ रहा है. इनमें कनेक्टिविटी का विषय भी शामिल है. भारत की विदेश नीति ऐसी होनी चाहिए थी कि वो इस मामले में चीन के प्रभाव पर अधिक सावधानी से विचार करे. ऐसा लगता है कि चीन का प्राचीनकाल का खेल वेई की इस समय तीन मोर्चों पर खेला जा रहा है; अपना शक्ति संतुलन इस तरह से स्थापित करना कि विरोधी पर हावी हुआ जाए. इसीलिए चीन ने श्रीलंका, पाकिस्तान और म्यांमार को अपना पिछलग्गू बना लिया है. क्योंकि इन देशों को ये लगता है कि चीन भविष्य की एक मज़बूत ताक़त है. यानी अब ये देश भारत और चीन के बीच संतुलन बनाए रखने की नीति छोड़ चुके हैं. जहां तक संतुलन बनाने की बात है तो श्रीलंका के लिए बेहतर यही होगा कि वो समान विचारधारा वाले देशों के साथ मिलकर आक्रामक ताक़तों के ख़िलाफ़ मोर्चा बनाए,  कि किसी एक देश का पिछलग्गू बन जाए. स्टीफन एम. वाल्ट ने अपनी किताब,  ओरिजिन ऑफ एलायंसेज़ में लिखा है कि कोई देश जितना ही कमज़ोर होता है, वो उतना ही किसी संतुलन बनाने के बजाय पिछलग्गू बनने का विकल्प चुनता है. श्रीलंका ने अपनी बिगड़ती आर्थिक स्थितियों और कई ग़लत सामरिक विकल्पों का चुनाव करके ख़ुद को कमज़ोर बना लिया है, और अब वो चीन का पिछलग्गू बन रहा है.

श्रीलंका ने अपनी बिगड़ती आर्थिक स्थितियों और कई ग़लत सामरिक विकल्पों का चुनाव करके ख़ुद को कमज़ोर बना लिया है, और अब वो चीन का पिछलग्गू बन रहा है

श्रीलंका की सरकार ने कई बार अपने निर्णयों पर नए सिरे से विचार किया है. अपने पुराने फ़ैसलों को साल दर साल या सरकारों के साथ बदला है. ये अपने आप में श्रीलंका के सामरिक विशेषज्ञों की कमज़ोरी का प्रतीक है. वर्ष 2015 में जब सिरीसेनाविक्रमसिंघे की सरकार सत्ता में आई थी, तब चीन के सभी प्रोजेक्ट को रोककर उनकी जांच करने का निर्णय लिया गया था. लेकिन, कुछ महीनों के बाद उसी सरकार ने प्रोजेक्ट पर कुछ अतिरिक्त वित्तीय बोझ डालकर उन्हें हरी झंडी दे दी थी. जब वर्ष 2019 के अंत में गोटाबाया राजपक्षे सत्ता में आए, तो उन्होंने वादा किया था कि वो हंबनटोटा बंदरगाह को चीन को 99 वर्ष के पट्टे पर देने के निर्णय की समीक्षा करेंगे. क्योंकि उनके मुताबिक़ बंदरगाह को चीन को पट्टे पर देना, श्रीलंका की बड़ी सामरिक क्षति थी और अब वो बंदरगाह को चीन से वापस श्रीलंका के नियंत्रण में लेंगे. ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल का ठेका रद्द होने के बाद हंबनटोटा बंदरगाह को लेकर चीन के साथ हुए समझौते पर बंदरगाह प्राधिकरण के अध्यक्ष जनरल दया रत्नायके ने सवाल उठाए थे. इसके माध्यम से भारत को संकेत दिया गया था कि चीन के साथ हुए समझौतों पर भी प्रश्नचिह्न लगाए जा सकते हैं. अमेरिका से मिलने वाली MCC मदद, SOFA जापान के साथ LRT समझौता, जिन पर पिछली सरकार के कार्यकाल में हस्ताक्षर किया गया था, उन सभी पर मौजूदा सरकार ने या तो रोक लगा दी या उन्हें रद्द कर दिया. इनमें से अधिकतर फ़ैसलों के बारे में पुनर्विचार किया गया. ये शायद एक कमज़ोर सामरिक नज़रिए का नतीजा था, या फिर सभी समझौतों का ज़रूरत से ज़्यादा राजनीतिकरण करके, उनका ये कहकर सार्वजनिक रूप से शोर मचाया गया कि मौजूदा सरकार तो देश के सामरिक संसाधनों को सुरक्षित कर रही है. हालांकि, इसकी प्रासंगिकता बेहद कम थी. सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी वाली इन प्रगतिशील साझेदारियों को तोड़ने से श्रीलंका को भारी नुक़सान हुआ है. कई समझौतों को आर्थिक नज़रिए से देखें, तो ऐसा लगता है कि श्रीलंका अंतरराष्ट्रीय व्यापार के नियमों के विरुद्ध जा रहा है और अपने आर्थिक बर्ताव को दाग़दार बना रहा है. पूरब से पश्चिम तक के टर्मिनल से जुड़े निर्णय, कैबिनेट की साप्ताहिक बैठकों में बदले जा रहे हैं. इससे श्रीलंका की सरकार की नीतियों की अनियमितता तो उजागर होती ही है, निवेशकों के विश्वास को भी चोट पहुंचती है.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में बड़ा बदलाव

श्रीलंका ने फरवरी और मार्च महीनों में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में एक बड़ी चुनौती का सामना किया. 2021 की ह्यूमन राइट्स वाच रिपोर्ट में कहा गया था कि गोटाबाया राजपक्षे के शासनकाल में श्रीलंका में मानव अधिकारों की स्थिति ख़राब होती जा रही है. इस रिपोर्ट में श्रीलंका में बढ़ते सैन्यीकरण, ज़बरदस्ती शवदाह करने, तमिलों की शिकायतों की लगातार अनदेखी करने के साथ साथ कुछ और बातों पर भी चिंता जताई गई थी. इसके अलावा, मानव अधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र की उच्चायुक्त मिशेल बैचलेट ने चेतावनी दी थी कि अगर श्रीलंका की सरकार बहुत पहले से किए जा रहे वादे नहीं निभाती है तो मानव अधिकार परिषद, श्रीलंका के साथ अपने संवाद में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन करने के लिए बाध्य हो जाएगी. मिशेल बैचलेट ने ख़ास तौर से श्रीलंका के बढ़ते सैन्यीकरण का हवाला दिया था. हालांकि, पिछले वर्ष श्रीलंका ने संकेत दिया था कि वो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग से ख़ुद को अलग कर सकता है. लेकिन, इस साल श्रीलंका की सरकार द्वारा इन आरोपों को ख़ारिज करने और पहले की नीतियों पर चलते रहने की संभावना अधिक है. एक इंटरव्यू में श्रीलंका के विदेश सचिव ने ज़ोर देकर कहा था कि विकसित देश अक्सर श्रीलंका जैसे विकासशील देशों पर ऐसे आरोप लगाते रहे हैं. ऐसे में विकासशील देश निश्चित रूप से श्रीलंका की मदद करेंगे. ये एक ग़लत मूल्यांकन है, जिससे श्रीलंका, दुनिया के शक्तिशाली देशों से और दूर होता जाएगा. श्रीलंका को शायद इस बात का एहसास नहीं है कि मिशेल बैचलेट एक विकासशील देश से आती हैं. वो लैटिन अमेरिकी देश चिली की नागरिक हैं और मानव अधिकारों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता के चलते मिशेल का पूरी दुनिया में काफ़ी सम्मान है. श्रीलंका के नीत निर्माताओं की उम्मीद चीन जैसे देशों पर टिकी है, जो उसकी मदद के लिए आगे आएंगे. लेकिन, यहां ये समझना ज़रूरी है कि श्रीलंका में चीन की दूसरी प्राथमिकताएं हैं और उसके व्यापक वैश्विक दृष्टिकोण में श्रीलंका के छोटे मोटे मसलों की कोई अहमियत नहीं.

श्रीलंका के उत्तरी राज्य में हज़ारों लोगों ने एक विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया था. तमिल नेशनल एलायंस (TNA) के सांसद सुमनथिरन के मुताबिक़, ‘ये विरोध प्रदर्शन सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों पर लगातार लगाई जा रही पाबंदियों, उत्तरी इलाक़ों में ज़मीन हड़पने और कोविड-19 के शिकार लोगों के जबरन दाह संस्कार के ख़िलाफ और तमिल राजनीतिक क़ैदियों की रिहाई की मांग के साथ साथ मानव अधिकारों के उल्लंघन को लेकर आयोजित किया गया.’ अब समय  गया है कि श्रीलंका, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग को दिए गए वचनों को निभाए और उसके सुझावों को लागू करे. इसके साथ वो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग से अलग होने का फ़ैसला भी बदले. इस बात को 34 साल बीत चुके हैं, जब श्रीलंका की संघीय सरकार ने प्रांतों को अधिक अधिकार देने की बात कही थी. श्रीलंका के संविधान का 13वां संशोधन, अब तक किसी भी सरकार द्वारा पूरी तरह लागू नहीं किया गया है. अब समय  गया है कि इन चिंताओं का समाधान किया जाए और देश के सभी वर्गों को एकजुट करने के लिए मेलमिलाप की वास्तविक प्रक्रिया शुरू की जाए. घरेलू नीतियों और लोकतांत्रिक अधिकारों के साथ विदेशी मामलों में एक नाज़ुक संतुलन बनाना बहुत ज़रूरी है.

किसी का पिछलग्गू बनने के बजाय श्रीलंका द्वारा अपनी नीतियों पर नए सिरे से विचार करना वक्त की मांग है.

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