Published on Nov 14, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत जैसे जिन विकासशील देशों ने जियोइंजीनियरिंग पर रिसर्च की शुरुआत कर दी है, उन्हें इसके लिए समावेशी नज़रिए पर आधारित एक प्रशासनिक ढांचे की मांग की अगुवाई करनी चाहिए.

जियोपॉलिटिक्स, जियोइंजीनियरिंग प्रशासन और विकासशील देशों की भूमिका

प्रस्तावना

ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में दुनिया भर के लोग जलवायु परिवर्तन से निपटने के तौर-तरीक़ों पर चर्चा के लिए इकट्ठे हुए हैं. इस सम्मेलन यानी कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ 26 (COP26) के सामने ऐसी कई चुनौतियां खड़ी हैं, जो पेरिस जलवायु समझौते में तय किए गए लक्ष्य हासिल करने के लिए असरदार फ़ैसले करना मुश्किल बना रही हैं. अब दुनिया भर में ‘नेट ज़ीरो’ को जलवायु परिवर्तन से निपटने का सबसे ज़ोरदार तरीक़ा माना जा रहा है. एक के बाद एक, सरकारें और अन्य भागीदार अपने ‘नेट ज़ीरो’ के लक्ष्यों का एलान कर रही हैं, जिससे वो एक ज़िम्मेदार भागीदार के तौर पर विश्व जलवायु व्यवस्था का हिस्सा बन जाएं. ‘नेट ज़ीरो’ का लक्ष्य इसलिए भी तय किया जा रहा है, ताकि घरेलू स्तर पर हर देश दूरगामी संरचनात्मक बदलाव करके, अपनी अर्थव्यवस्था को और हरित या पर्यावरण के अनुकूल बना सके. ‘नेट ज़ीरो’ के इन लक्ष्यों ने उत्सर्जन कम करने वाली तकनीकों (NETs) और जियोइंजीनियरिंग की अन्य तकनीकों जैसे कि सोलर रेडिएशन मैनेजमेंट (SRM) की तरफ़ भी दुनिया का ध्यान केंद्रित किया है.

‘नेट ज़ीरो’ का लक्ष्य इसलिए भी तय किया जा रहा है, ताकि घरेलू स्तर पर हर देश दूरगामी संरचनात्मक बदलाव करके, अपनी अर्थव्यवस्था को और हरित या पर्यावरण के अनुकूल बना सके

इसके साथ साथ, दुनिया के सामने सबसे ताज़ा चुनौती है वैश्विक ऊर्जा संकट की. इस संकट ने पूरे विश्व, और ख़ास तौर से सबसे ज़्यादा कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन करने वाले इलाक़ों जैसे कि अमेरिका, यूरोपीय संघ (EU) और चीन को अपनी चपेट में ले लिया है. पिछले कुछ महीनों के दौरान, कोविड के बाद अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठन, तमाम देशों की सरकारें और कंपनियां अर्थव्यवस्था की ‘ग्रीन रिकवरी’ के ख़्वाब दुनिया को दिखा रहे थे. हालांकि, मौजूदा वैश्विक ऊर्जा संकट ने एक बार फिर से जीवाश्म ईंधनों- कोयला, तेल और गैस पर निर्भरता बढ़ा दी है. भविष्य में जलवायु परिवर्तन से निपटने के अभियान पर इसका गंभीर असर पड़ने वाला है. इन हालात में जियोइंजीनियरिंग पर निर्भरता और बढ़ने की संभावना है. क्योंकि, सभी देश अपने नेट ज़ीरो के लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश करेंगे. ऐसे में ये ज़रूरी है कि COP26 में विकासशील देश, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकसित देशों से और अधिक असरदार क़दम उठानेकी मांग करें. इसके अलावा, विकासशील देशों को चाहिए कि वो जलवायु परिवर्तन से निपटने में मददगार नई तकनीकों के प्रशासन की समानता पर आधारित प्रशासनिक व्यवस्था बनाने पर चर्चा की मांग करें, जिससे कि ये तकनीकें बड़े पैमाने पर इस्तेमाल की जा सकें.

उत्सर्जन कम करने के आगे के क़दम: वादे और जोखिम

जलवायु परिवर्तन के असर को कम करना (कार्बन उत्सर्जन घटाने वाली तकनीकें), जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने का सबसे पारंपरिक तरीक़ा रहा है. ऐतिहासिक रूप से सभी देश इसी में ज़्यादा निवेश करते आए हैं. हालांकि, जलवायु संकट के बढ़ते जाने और ‘जलवायु परिवर्तन के आपातकाल’ जैसी आशंकाओं के चलते, अब पेरिस जलवायु समझौते के अंतर्गत और बड़े और साहसिक क़दम उठाने की मांग ज़ोर पकड़ रही है. इसी वजह से अब क्लाइमेट इंजीनियरिंग- जैसे कि, कार्बन डाई ऑक्साइड रिमूवल (CDR) या SRM (बड़े पैमाने पर जलवायु और पर्यावरण में दख़ंदाज़ी)- को लेकर चर्चा, ख़ास तौर से विकसित देशों में ज़ोर पकड़ रही है. इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि इस क्षेत्र में अनुसंधान और विकास (R&D) का ज़्यादातर काम उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों के संस्थानों में ही हो रहा है [1]. हालांकि, चीन और भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाएं भी अब इन विकल्पों पर गंभीरता से विचार करने लगी हैं.

मौजूदा वैश्विक ऊर्जा संकट ने एक बार फिर से जीवाश्म ईंधनों- कोयला, तेल और गैस पर निर्भरता बढ़ा दी है. भविष्य में जलवायु परिवर्तन से निपटने के अभियान पर इसका गंभीर असर पड़ने वाला है. इन हालात में जियोइंजीनियरिंग पर निर्भरता और बढ़ने की संभावना है. 

जियोइंजीनियरिंग तकनीक के फ़ायदों का तो ख़ूब प्रचार किया जा रहा है. लेकिन, इन तकनीकों से कई तरह के जोखिम भी जुड़े हुए हैं. जैसे कि कार्बन कैप्चर और भंडारण से जुड़ी बायोएनर्जी तकनीक (BECCS) या एक जाल को अगर बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाएगा, तो इससे ज़मीन के इस्तेमाल (जिसमें ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़े और उससे जुड़े संघर्ष) पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा. इससे खाने और पानी की सुरक्षा को भी नुक़सान हो सकता है. जीवाश्म ईंधन की तुलना में कार्बन कैप्चर की तकनीक में ऊर्जा की खपत भी ज़्यादा है. इसमें परिवहन, ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव और अन्य गतिविधियों से उत्सर्जन बढ़ने की भी आशंका है. इसी तरह समुद्री जियोइंजीनियरिंग तकनीक, जैसे कि ओशन आयरन फर्टिलाइज़ेशन (OIF) है. जिस पर अभी कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (CBD) ने सावधानी के तौर पर प्रतिबंध लगा दिया है. इस तकनीक से समुद्र में काही और शैवाल बढ़ने (eutrophication) की आशंका है, जो समुद्री इकोसिस्टम पर दूरगामी असर डाल सकती है. स्ट्रैटोस्फेरिक एरोसॉल इंजेक्शन की तकनीक तो सबसे ज़्यादा विवादित है. इसके ज़रिए सूरज की किरणों को वापस अंतरिक्ष की तरफ़ मोड़ने का प्रस्ताव है. इसका वैश्विक और क्षेत्रीय जलवायु पर ऐसा असर भी देखने को मिल सकता है, जिसके बारे में शायद अंदाजा ही न लगाया गया हो.

जियोइंजीनियरिंग की जियोपॉलिटिक्स

हमने ऊपर जियोइंजीनियरिंग की जिन तरीक़ों और  तकनीकों का ज़िक्र किया उनसे जुड़ी धारणाएं और जोखिम अपनी तरफ़ हैं. मगर, उनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाने की काफ़ी संभावना है. इसके अलावा, चूंकि पेरिस जलवायु समझौते (2 या 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान कम करने) के लक्ष्य हासिल करने के लिए सभी देश कार्बन क्रेडिट की व्यवस्था बनाने पर बातचीत कर ही रहे हैं, तो इनमें से (नए जंगल लगाने और पुराने जंगल बचाने के अलावा) कुछ तकनीकों और तरीक़ों का इस्तेमाल ग्रीनहाउस गैसों (GHG) के उत्सर्जन को कम करने के लिए किया जा सकता है. पेरिस जलवायु समझौते में कार्बन कैप्चर से जुड़ी तकनीकों (CDR) के इस्तेमाल की पर्याप्त संभावना रखी गई है, ‘जिससे कि तापमान कम करने के दूरगामी लक्ष्य हासिल किए जा सकें… ताकि इस सदी के दूसरे हिस्से में सभी देश समानता के आधार पर मानवीय गतिविधियों से होने वाले उत्सर्जन और ग्रीन हाउस गैसों को जमा करने के बीच एक संतुलन बना सकें.’ फिर भी इससे पहले अमेरिका, सऊदी अरब और ब्राज़ील जैसे कई देशों ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावण सभा (UNEA) में जियोइंजीनियरिंग के प्रशासन के लिए प्रस्ताव लाने की कोशिशों में अड़ंगा लगाया था.

जियोइंजीनियरिंग से जुड़ी तकनीकों को अपनाने को लेकर, उनकी निष्पक्षता, समानता और सबके लिए न्यायोचित होने को लेकर वाजिब चिंताएं ज़ाहिर की गई हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि जियोइंजीनियरिंग पर  रिसर्च और नई तकनीकों का विकास हो या फिर भविष्य में इनके प्रशासन से जुड़ा ढांचे की परिचर्चा हो, दोनों ही क्षेत्रों में औद्योगिक देश हावी हैं. ऐसे में विकासशील और सबसे कम विकसित देशों के हितों को लेकर आशंकाएं उठनी वाजिब हैं. जलवायु परिवर्तन के ख़तरे का सबसे ज़्यादा सामना करने वाले देशों, जैसे कि प्रशांत महासागर के छोटे द्वीपीय देश, लगातार ये मांग करते रहे हैं कि कार्बन उत्सर्जन और इसके असर को कम करने की कोशिशें तेज़ हों. ये देश चाहते हैं कि जियोइंजीनियरिंग के परीक्षण और उसे अपनाने से पहले इसके रिसर्च और विकास के साथ साथ प्रशासनिक ढांचे (नियम और लागू करने की शर्तें) पर पारदर्शी तरीक़े से चर्चा हो जाए. [2] भारत के नीति निर्माताओं ने भी जियोइंजीनियरिंग तकनीकों के विकास और इन्हें अपनाने को लेकर, विकसित देशों द्वारा इकतरफ़ा फ़ैसले लेने को लेकर अपनी चिंताएं ज़ाहिर की हैं. भारत का मानना है कि इससे विकासशील देशों के हितों को नुक़सान पहुंच सकता है.

जियोइंजीनियरिंग तकनीक के फ़ायदों का तो ख़ूब प्रचार किया जा रहा है. लेकिन, इन तकनीकों से कई तरह के जोखिम भी जुड़े हुए हैं. 

जियोइंजीनियरिंग के तरीक़े और तकनीक, विकसित और विकासशील देशों के फ़ासले को और बढ़ा सकते हैं. इन तकनीकों के आने से दुनिया उन देशों में बंट सकती है, जिनके पास ये तकनीक है या नहीं है. या जो जलवायु परिवर्तन से निपटने की इस रेस के विजेता हैं या हारे हुए देश हैं. जलवायु परिवर्तन की विश्व व्यवस्था पहले से ही असमान है. ये असमानता,  उत्सर्जन कम करने, तकनीक साझा करने और आर्थिक मदद करने के विकसित देशों के अनगिनत वादे न पूरे करने से पैदा हुई है. ये असमानता जियोइंजीनिरिंग तकनीक अपनाने पर भी असर डालेगी. जानकारी, क्षमता और वाजिब बहुपक्षीय मंच न होने के कारण विकासशील देश जियोइंजीनियरिंग पर उचितमात्रा में सलाह मशविरे का हिस्सा ही नहीं बन पाएंगे. यहां एक दिलचस्प बात ये भी है कि, जियोइंजीनियरिंग को कुछ वैज्ञानिक पहले ही अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन व्यवस्था में समानता लाने के तरीक़े के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं. इन वैज्ञानिकों का तर्क है कि, जियोइंजीनियरिंग से धरती के बढ़ते तापमान को उत्सर्जन कम करने के तरीक़ों से ज़्यादा तेज़ी से कम किया जा सकता है. उनका ये भी दावा है कि इन तकनीकों को लंबी अवधि में अपनाना भी सस्ता पड़ेगा. इस नज़रिए के मुताबिक़, अमीर देशों को ग़रीब देशों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाने और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी असमानताओं से निपटने के लिए इन्हीं तकनीकों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.

जियोइंजीनियरिंग की संभावनाओं पर इस आशंका के बादल भी मंडरा रहे हैं कि इन तकनीकों का सैन्य इस्तेमाल भी हो सकता है. मिसाल के तौर पर SRM तकनीक को दुश्मन देशों द्वारा सैन्य हथियार के तौर पर प्रयोग किए जाने की आशंकाएं जताई गई हैं. पर्यावरण में बदलाव लाने की तकनीकों के सैन्य या अन्य नुक़सानदेह मक़सदों के लिए इस्तेमाल करने की संधि (ENMOD) पर 1977 में दस्तख़त हुए थे और ये 1978 में लागू हुआ था. हो सकता है कि आज इस संधि से जियोइंजीनियरिंग तकनीकों के सैन्य इस्तेमाल को रोका जा सके. लेकिन, इसमें पर्यावरण में बदलाव लाने वाली तकनीकों के ‘शांतिपूर्ण इस्तेमाल’ के तरीक़ों की व्यवस्था नहीं है. इसलिए, इस संधि में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपनी सीमा के भीतर जियोइंजीनियरिंग तकनीक अपनाने वाले देशों से इसका पालन कराया जाए और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित की जाए. जबकि, ऐसी तकनीकें किसी एक देश में इस्तेमाल किए जाने का आस-पास के देशों पर भी बुरा असर होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है.

जियोइंजीनियरिंग तकनीक अपनाने को लेकर, ‘न्यायोचित जियोइंजीनियरिंग’ सिद्धांत के आधार पर इनसे जुड़े सुरक्षा ढांचे तय करने की भी कोशिश हुई है. ये कोशिश वाजिब और सक्षम अधिकारियों द्वारा जियोइंजीनियरिंग तकनीक लागू करने पर आधारित है (जिससे असामाजिक तत्वों को इनका इस्तेमाल करने से रोका जा सके); और इस तकनीक को अपनाने के नकारात्मक असर, इसके फ़ायदों से अधिक हों.

जियोइंजीनियरिंग प्रशासन का भविष्य

पिछले कुछ वर्षों के दौरान अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चर्चा जियोइंजीनियरिंग रिसर्च (ख़ास तौर से सोलर जियो इंजीनियरिंग) करने या न करने से हटकर अब इस बात पर केंद्रित हो गई है कि अब इन रिसर्च को कैसे ज़्यादा प्रतिनिधित्व, सांस्कृतिक बहुलता, पारदर्शी, तमाम क्षेत्रों से जुड़ा और वैधानिक बनाया जाए. अब जियोइंजीनियरिग को जलवायु परिवर्तन से निपटने के आख़िरी तकनीकी विकल्प के तौर पर देखने के बजाय इसे ऐसी तकनीक के तौर पर देखा जा रहा है, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने की पारंपरिक तकनीकों- जैसे कि उत्सर्जन कम करने और कम कार्बन उत्सर्जन की जीवनशैली अपनाने- का  है. पर चूंकि, अभी जियोइंजीनियरिंग से जुड़े जोखिमों की जटिलताएं और अनिश्चितताएं अभी दूर नहीं हुई हैं, तो इनसे जुड़ी परिचर्चाओं में नैतिकता का मुद्दा सबसे ज़्यादा हावी है.

 इसमें कोई दो राय नहीं कि जियोइंजीनियरिंग पर  रिसर्च और नई तकनीकों का विकास हो या फिर भविष्य में इनके प्रशासन से जुड़ा ढांचे की परिचर्चा हो, दोनों ही क्षेत्रों में औद्योगिक देश हावी हैं. ऐसे में विकासशील और सबसे कम विकसित देशों के हितों को लेकर आशंकाएं उठनी वाजिब हैं

अभी भी कुछ लोग जियोइंजीनियरिंग के रिसर्च को सीमित करने के नियमों पर सवाल उठा रहे हैं. इनमें से ज़्यादातर आवाज़ें वैज्ञानिक समुदाय से उठ रही हैं. उनका कहना है कि इस बहस का राजनीतिकरण ठीक नहीं है. उनके मुताबिक़ इससे तेज़ गति से हो रहे जलवायु परिवर्तन को रोकने के ईमानदार और असरदार तरीक़े अपनाने में देर होने का डर है. हो सकता है कि कुछ लोग ये कहें कि अभी जियोइंजीनियरिंग को शैतानी विकल्प के तौर पर पेश करने के पर्याप्त सबूत नहीं हैं. लेकिन, अंतरराष्ट्रीय समुदाय इससे जुड़े संभावित जोखिमों को पूरी तरह से ख़ारिज भी नहीं कर सकता क्योंकि अभी भी इनके बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है और बहुत से फ़ायदों को लेकर सिर्फ़ अटकलें ही लगाई जा रही हैं. इन कमियों को दूर करने का सबसे अच्छा विकल्प कूटनीतिक संवाद ही हो सकता है.

जियोइंजीनियरिंग तकनीक का भविष्य में कोई भी इस्तेमाल हो. इसे संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) के बुनियादी उसूलों को ध्यान में रखना होगा. इसमें ख़ास तौर से कॉमन बट डिफरेंशिएटेड रिस्पॉन्सिबिलिटीज़ ऐंड रेस्पेक्टिव कैपेबिलिटीज़ (CBDR-RC) का ख़याल रखना होगा. आम सहमति पर आधारित UNFCCC से एक ऐसी न्यायोचित व्यवस्था बनाने में मदद मिल सकती है, जिससे देशों द्वारा अपने नेट ज़ीरो के लक्ष्य पर चर्चा के साथ-साथ, इन तकनीकों को अपनाने के नियम, सिद्धांत तय किए जा सकें. कम से कम अब तक तो UNFCCC के तहत जियोइंजीनियरिंग तकनीकें लागू करने का विरोध होता रहा है. इससे CBD, इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस, लंदन प्रोटोकॉल ऑन द प्रिवेंशन ऑफ़ मरीन पॉल्यूशन और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एजेंसी (UNEA) के लिए संभावनाएं खुल गई हैं. [3]

जियोइंजीनियरिंग से जुड़ी चिंताए दूर करने के लिए समानता और इंसाफ़ के सिद्धांतों को बहुपक्षीय और क्षेत्रीय ढांचों में शामिल करने की ज़रूरत बढ़ गई है. इसके अलावा सोलर इंजीनियरिंग जैसी कुछ जियोइंजीनियरिंग तकनीकों को अपनाने के नियमों पर फिर से ज़ोर दिए जाने की ज़रूरत है.

जियोइंजीनियरिंग को कुछ वैज्ञानिक पहले ही अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन व्यवस्था में समानता लाने के तरीक़े के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं. इन वैज्ञानिकों का तर्क है कि, जियोइंजीनियरिंग से धरती के बढ़ते तापमान को उत्सर्जन कम करने के तरीक़ों से ज़्यादा तेज़ी से कम किया जा सकता है. 

जिन विकासशील देशों (जैसे कि भारत) ने इस क्षेत्र में रिसर्च के केंद्र स्थापित कर लिए हैं, उन्हें समावेशी नज़रिए वाला प्रशासनिक ढांचा बनाने की मांग करने में सबसे आगे रहना चाहिए. इस मसले पर विकासशील और सबसे कम विकसित देश मिलकर एक साझा मोर्चा बना सकते है, जिससे वो जियोइंजीनियरिंग से जुड़े फ़ायदे और जोखिमों को समझ सकें. इससे जुड़ी लागत और अनिश्चितताओं, पर्यावरण और सामाजिक आर्थिक प्रभावों और जियोपॉलिटिकल नफ़ा-नुक़सान का अंदाज़ा लगा सकें. जियोइंजीनियरिंग के जलवायु पर दूरगामी असर, फ़ायदे और ऐसे असर जिनका अंदाज़ा न हो, जैसे कई मसलों पर अभी रिसर्च में काफ़ी कमियां हैं, जिन्हें दूर किए जाने की ज़रूरत है. जानकारी और क्षमता बढ़ाने की लगातार कोशिशें करके ये देश जियोइंजीनियरिंग के नियमों के ढांचे, अपनाने के तौर-तरीक़े और औपचारिक प्रक्रिया से जुड़े सुझाव मज़बूती से दे सकेंगे.

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[1] Frank Biermann and Ina Möller, “Rich man’s solution? Climate engineering discourses and the marginalization of the Global South,” International Environmental Agreements: Politics, Law and Economics 19 (2019): 151–167.

[2] K. Beyerl and A. Maas, Perspectives on climate engineering from Pacific small island states (Potsdam: Institute for Advanced Sustainability Studies, 2014).

[3] Janos Pasztor et al., Geoengineering: The need for governance (New York: Carnegie Climate Geoengineering Governance Initiative, 2019).

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