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यूक्रेन पर रूसी हमले से गतिशीलता के हरित विकल्पों से जुड़ी क़वायद में अनचाहे नतीजे देखने को मिल सकते हैं.
#Green Mobility Transition: आवागमन के क्षेत्र में हरित विकल्पों की तलाश और भू-राजनीति से जुड़े क़िस्से
यू्क्रेन पर रूसी हमले के फ़ौरन बाद रूस पर पश्चिमी देशों ने कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए. नतीजतन मॉस्को स्टॉक एक्सचेंज में कई दिनों तक कारोबार ठप रहा. अचरज की बात ये है कि लंदन मेटल एक्सचेंज में भी एक ख़ास चीज़ की ट्रेडिंग में रुकावट आ गई. वो चीज़ थी निकेल. यूक्रेन पर रूसी चढ़ाई की वजह से निकेल की क़ीमत में चार गुणा बढ़ोतरी हो गई. इसके बाद इसका कारोबार रोक दिया गया. निकेल कई मायनों में बेहद अहम धातु है. ख़ासतौर से स्टील के क्षेत्र में इसकी अहमियत सबसे ज़्यादा है. स्टेलनेस स्टील के उत्पादन में निकेल बेहद अहम घटक है. निर्माण कार्यों और ऑटोमोटिव उद्योग में इस्तेमाल होने वाले स्टील के उत्पादन में निकेल की काफ़ी अहम भूमिका है.
यूक्रेन पर रूसी चढ़ाई की वजह से निकेल की क़ीमत में चार गुणा बढ़ोतरी हो गई. इसके बाद इसका कारोबार रोक दिया गया. निकेल कई मायनों में बेहद अहम धातु है. ख़ासतौर से स्टील के क्षेत्र में इसकी अहमियत सबसे ज़्यादा है.
बहरहाल, बैटरियों के उत्पादन में भी निकेल एक बेहद अहम कारक है. दरअसल, निकेल-मेटल हाइड्राइड (Ni-MH) बैटरियां बड़े पैमाने पर उत्पादित होने वाली पहली रिचार्जेबल बैटरियां थीं. ज़्यादातर बड़ी रिचार्जेबल बैटरी प्रणालियों में लीथियम ने ‘अहम’ घटक के तौर पर निकेल का स्थान ले लिया है. फिर भी लैपटॉप और स्मार्टफ़ोन जैसे कंज़्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स और इलेक्ट्रिक वाहनों में प्राथमिक तौर पर जिस बैटरी प्रणाली का इस्तेमाल हो रहा है उसे लीथियम-निकेल, मैंगनीज़ और कोबाल्ट (लीथियम-NMC) कहा जाता है. लीथियम और निकेल के तात्विक भार में अंतर के मद्देनज़र एक औसत इलेक्ट्रिक वाहन की बैटरी में वज़न के हिसाब से निकेल की मौजूदगी बेहद अहम है. अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के एक ताज़ा अध्ययन का आकलन है कि टिकाऊ विकास की क़वायद के मद्देनज़र इलेक्ट्रिक वाहनों की वजह से बैटरियों की मांग में 2020 से 2040 के बीच 40 गुणा की बढ़ोतरी हो जाएगी. नतीजतन निकेल की मांग में 41 गुणा की ज़बरदस्त बढ़ोतरी देखने को मिलेगी.
निकेल की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी से वैश्विक स्टील उद्योग में हड़कंप मच गया है. हालांकि इस संकट ने इलेक्ट्रिक कारों के निर्माताओं को तैयार निकेल के स्रोत के तौर पर रूस को छोड़कर दूसरे विकल्प की तलाश करने को भी प्रेरित किया है. ग़ौरतलब है कि दुनिया में होने वाले कुल निकेल उत्पादन का तक़रीबन 12 प्रतिशत रूस से हासिल होता है. हालांकि निकेल के खनन के मामले में इंडोनेशिया दुनिया का सबसे बड़ा देश है. दुनिया में निकेल के उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा इंडोनेशिया से आता है.
ऐसा माना जा रहा है कि आगे चलकर भारत समेत दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी लीथियम के और ज़्यादा भंडार पाए जा सकते हैं. बहरहाल, लीथियम की मांग बेतहाशा बढ़ रही है. न सिर्फ़ कारों बल्कि करोड़ों उपकरणों में लीथियम आयन बैटरियों का इस्तेमाल होता है.
हालांकि, समस्या सिर्फ़ निकेल को लेकर नहीं है. लीथियम भी एक बड़ा मुद्दा है. दुनिया में लीथियम के चार सबसे बड़े और जाने-माने स्रोत हैं- अर्जेंटीना, चिली, ऑस्ट्रेलिया और चीन. इसके अलावा बोलिविया, पेरू और यहां तक कि अमेरिका में भी इसका अच्छा-ख़ासा भंडार होने का अनुमान है. बहरहाल, लीथियम के खनन को लेकर पर्यावरण संबंधी चिंताओं ने इसके खनन से जुड़ी क़वायद में रुकावट डाल रखी है. ऐसा माना जा रहा है कि आगे चलकर भारत समेत दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी लीथियम के और ज़्यादा भंडार पाए जा सकते हैं. बहरहाल, लीथियम की मांग बेतहाशा बढ़ रही है. न सिर्फ़ कारों बल्कि करोड़ों उपकरणों में लीथियम आयन बैटरियों का इस्तेमाल होता है. ऐसे में बड़े पैमाने पर खनन से जुड़ी नई क़वायदों के अभाव में देर सबेर लीथियम की किल्लत से जुड़ा संकट खड़ा हो जाने की आशंका है. इस सिलसिले में हम गले की फांस बनने वाली समस्या पर अभी ध्यान ही नहीं दे रहे हैं. वो फांस है चीन. दरअसल दुनिया में लीथियम की आपूर्ति का एक बड़ा हिस्सा चीन के नियंत्रण में है. लीथियम अयस्क के सबसे बड़े खदान पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में है और इन खदानों पर चीन का नियंत्रण है. इतना ही नहीं चीनी कंपनियों ने लीथियम की खुदाई के लिए अटाकामा मरुस्थल के इलाक़े में भी दख़ल बनाने में कामयाबी पा ली है.
बहरहाल लीथियम-NMC बैटरियों से जुड़ा सबसे ज़्यादा परेशानियों वाला सबब कॉन्गो में मौजूद है. वो मसला है कोबाल्ट का खनन. कॉन्गो के कोबाल्ट खनन उद्योग में चीनी खनन कारोबार ने गहरी पैठ बना ली है. इसके अलावा दुनिया के इस सबसे ग़रीब इलाक़े में कोबाल्ट के खनन में एक बहुत बड़ा ‘घरेलू’ उद्योग भी जुटा हुआ है. इस क़वायद में सुरक्षा से जुड़ी किसी तरह की निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है और न ही मानव अधिकारों का कोई नामलेवा है. कोबाल्ट एक ऐसा बदसूरत मुद्दा है जिसे वैश्विक ऑटोमोटिव उद्योग और यहां तक कि युवा पर्यावरणवादी हस्तियों ने भी जानबूझकर नज़रअंदाज़ कर दिया है.
भारत इलेक्ट्रिक वाहनों के क्षेत्र में सरपट दौड़ना चाह रहा है. साथ ही अरबों डॉलर की क़ीमत के कच्चे तेल के आयात पर अपनी निर्भरता को भी कम से कम करना चाहता है. ऐसे में भारत को लीथियम आपूर्ति श्रृंखला को बेहद कुशलता से आगे बढ़ाने की चीनी क़वायद को बड़े ग़ौर से देखना चाहिेए
भारत इलेक्ट्रिक वाहनों के क्षेत्र में सरपट दौड़ना चाह रहा है. साथ ही अरबों डॉलर की क़ीमत के कच्चे तेल के आयात पर अपनी निर्भरता को भी कम से कम करना चाहता है. ऐसे में भारत को लीथियम आपूर्ति श्रृंखला को बेहद कुशलता से आगे बढ़ाने की चीनी क़वायद को बड़े ग़ौर से देखना चाहिेए. संसाधन जुटाने के साथ-साथ चीन लीथियम के शोधन से जुड़ा ज़्यादातर काम अपनी सरज़मीं पर ही करता है. भले ही ‘बैटरी पैक्स’ का उत्पादन अक्सर बड़े ‘गीगाफ़ैक्ट्रियों’ (टेस्ला के एलन मस्क ने इस जुमले का इज़ाद किया है) में होता है, लेकिन सेल्स का उत्पादन चीन में ही हो रहा है. ख़ासतौर पर CATL और BYD जैसी चीनी कंपनियों ने बैटरियों के क्षेत्र में बौद्धिक संपदा तैयार करने की क़वायद तेज़ कर दी है.
वैकल्पिक लीथियम बैटरी टेक्नोलॉजी (जिसे लीथियम फ़ेरो-फ़ॉस्फेट LFP के नाम से जाना जाता है) के क्षेत्र में BYD कामयाबी के झंडे गाड़ रहा है. यहां तक कि ऑटोकार इंडिया ने भी इस बात की पुष्टि की है कि गुजरात स्थित TDSG फ़ैक्ट्री में LFP बैटरी केमिस्ट्री का इस्तेमाल करने वाले BYD के ‘ब्लेड’ सेल्स का प्रयोग किया जाएगा. ग़ौरतलब है कि TDSG फ़ैक्ट्री जापानी कंपनियों पैनासॉनिक, तोशिबा, डेनसो, सुज़ुकी और टोयोटा का संयुक्त उपक्रम है. इस फ़ैक्ट्री में भारत में मारुति-सुज़ुकी और टोयोटा के इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए बैटरी पैक्स का उत्पादन किया जाएगा. साथ ही यहां से इसका निर्यात भी होगा. LFP में Li-NMC के मुक़ाबले भौतिक तौर पर कई तरह के फ़ायदे हैं. सबसे अहम बात ये है कि इसके लिए महंगे निकेल या सवालों के घेरे में रहने वाले (और बेशक़ीमती) कोबाल्ट की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. ऐसे में ये उत्पाद Li-NMC की तुलना में 10-20 प्रतिशत सस्ता पड़ता है. हालांकि LFP सेल्स अधिक वज़नदार होते हैं और ये प्रति किलोग्राम भार में 10-15 प्रतिशत कम ऊर्जा सहेज सकते हैं. इसके अलावा ये Li-NMC के मुक़ाबले निम्न वोल्टेज आउटपुट पर संचालित होते हैं. LFP सेल्स के साथ एक और ख़ास क़िस्म की दिक़्क़त है. पहली और दूसरी पीढ़ी के मोबाइल उपकरणों का इस्तेमाल कर चुके लोगों को इस समस्या की याद होगी. दरअसल इसमें बैटरी मेमोरी में सेल (लीथियम अणुओं के बीच केमिकल ‘लेटिस’ ढांचे की बजाए) ही चार्ज की अवस्था और दरों की मेमोरी को ‘बरकरार’ रखता है. हालांकि बैटरी मैनेजमेंट के बेहतर सॉफ़्टवेयर द्वारा इस समस्या से काफ़ी हद तक पार पाया जा सकता है.
LFP बैटरियों में Li-NMC बैटरियों के मुक़ाबले एक और बड़ा फ़ायदा ये है कि वो तापमान के मोर्चे पर ज़्यादा स्थिर होते हैं. लीथियम बैटरियां अक्सर काफ़ी गर्म हो जाती हैं. लिहाज़ा तापमान एक बड़ा मसला है. इसके चलते दुनिया भर में आग लगने की अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं. सेल मैन्युफ़ैक्चरिंग और बैटरी असेंबली में ज़्यादा से ज़्यादा स्वचालित तकनीकों के इस्तेमाल के बावजूद ये समस्या लगातार देखने को मिल रही है. हाल ही में भारत में दोपहिया इलेक्ट्रिक वाहनों में आग के अनेक मामले इस बात के जीते जागते सबूत हैं. इस मसले को बेहतर बैटरी मैनेजमेंट सॉफ़्टवेयर (ख़ासतौर से थर्मल मैनेजमेंट) की मदद से सुलझाया जा सकता है. हालांकि इस दिशा में एक बड़ी चुनौती देश में केमिकल इंजीनियरों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी करने से जुड़ी होगी.
तमिलनाडु में ग़लतफ़हमी के चलते हुए प्रदर्शनों के चलते स्टरलाइट कॉपर प्लांट के बंद होने से भारत तांबे का शुद्ध आयातक बन गया है. दरअसल इलेक्ट्रिक कारों की बैटरी और ड्राइव सिस्टम के धातु कारकों में लीथियम और निकेल से कहीं ज़्यादा तांबे की ज़रूरत पड़ती है. इस सिलसिले में हम ऑडी ईट्रॉन या BMW iX जैसे 75-90 किलोवाट-घंटा बैटरी कारों की मिसाल ले सकते हैं.
बैटरी द्वारा संचालित वाहनों के मामले में भारत दुनिया के बड़े बाज़ारों में से एक होगा. हालांकि, इन बदलावों के लिए दुनिया भर से ज़रूरी भौतिक संसाधन जुटाने या घरेलू तौर पर क्षमताओं के स्तर को समुचित रूप से ऊंचा उठाने में भारत बुरी तरह से विफल रहा है. मिसाल के तौर पर तमिलनाडु में ग़लतफ़हमी के चलते हुए प्रदर्शनों के चलते स्टरलाइट कॉपर प्लांट के बंद होने से भारत तांबे का शुद्ध आयातक बन गया है. दरअसल इलेक्ट्रिक कारों की बैटरी और ड्राइव सिस्टम के धातु कारकों में लीथियम और निकेल से कहीं ज़्यादा तांबे की ज़रूरत पड़ती है. इस सिलसिले में हम ऑडी ईट्रॉन या BMW iX जैसे 75-90 किलोवाट-घंटा बैटरी कारों की मिसाल ले सकते हैं. हो सकता है कि इनमें लीथियम केवल 10 किलोग्राम हो और निकेल भी महज़ 5-10 किलोग्राम ही हो लेकिन इनमें तांबे की मात्रा 40 किलोग्राम तक हो सकती है. भारत में खनन का काम पर्यावरणीय मसलों और भ्रष्टाचारियों के चलते बाधित होता रहा है. इस क्षेत्र की नीतियों में तत्काल बदलाव किए जाने की दरकार है. पहले से ही भारत कच्चे तेल के लिए अरब देशों पर निर्भर रहा है. ऐसे में रफ़्तार के हरित विकल्प से जुड़ी विकास यात्रा में भारत को चीन पर निर्भर होने के हालात नहीं आने देने चाहिए.
भारत के पास Li-NMC बैटरियों में इस्तेमाल होने वाली किसी भी धातु के पर्याप्त संसाधन मौजूद नहीं हैं. ऐसे में भारत को अपने ऑटोमोटिव उद्योग को LFP सिस्टम्स की दिशा में और ज़्यादा आक्रामक तरीक़े से पड़ताल करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. इस क़वायद का एक और लाभ ये है कि ये पर्यावरण के हिसाब से भी टिकाऊ है. Li-NMC बैटरियों की ऊर्जा सघनता और वज़न से जुड़े फ़ायदे बरकरार रहने को लेकर कोई ख़ास संदेह नहीं है. यही वजह है कि बेहद उन्नत क़िस्म के और महंगे ऑटोमोटिव साज़ोसामानों में इनका इस्तेमाल निरंतर जारी है. परफॉर्मेंस कारों और मोटरसाइकिलों में वज़न और ताक़त बेहद अहम होते हैं. लिहाज़ा इन क्षेत्रों में ऐसी बैटरियों का इस्तेमाल बदस्तूर जारी रहने की संभावना है. दोपहिया वाहनों के लिए भी वज़न काफ़ी अहमियत रखता है. लिहाज़ा ‘हाई पावर’ पैसेंजर दोपहिया गाड़ियों में भी Li-NMC का इस्तेमाल होने के आसार हैं. बहरहाल आग लगने की एक के बाद एक कई वारदातों ने ये साबित किया है कि भारत को एक बार फिर ये विचार करना होगा कि वो किस प्रकार के इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहनों को बढ़ावा देगा. लागत और इस्तेमाल के नज़रिए से छोटे ‘मध्यम’ शक्ति और रेंज वाले इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहन भारत के लिए ज़्यादा मुफ़ीद होंगे.
बहरहाल, सुज़ुकी और टोयोटा द्वारा भविष्य में अपने वाहनों के लिए LFP बैटरी प्रणाली का प्रयोग करने से जुड़े सकारात्मक क़दमों की सराहना की जानी चाहिए. आसार यही हैं कि एक बार देश के सबसे बड़े कार निर्माता द्वारा ये तौर-तरीक़ा अपनाए जाने से दूसरे भी इसी रास्ते पर चल पड़ेंगे. अगर सचमुच LFP भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों के क्षेत्र में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक बन जाती है तो हमें देश में तत्काल धातु सर्वेक्षण करना होगा. हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि भारत में व्यापारिक तौर पर इस्तेमाल में आने वाले लीथियम के पर्याप्त भंडार हैं या नहीं. कोविड काल से पहले भारत में ऑटोमोटिव सेक्टर की बिक्री का सबसे ऊंचा स्तर तक़रीबन 30 लाख सवारी कारों का रहा था. 2030 के अंत तक इस आंकड़े के 50 लाख यात्री कार तक पहुंच जाने की उम्मीद है. अगर 2030 तक बेची जाने वाली सभी पैसेंजर कारों में से 30 प्रतिशत भी इलेक्ट्रिक होती है (हालांकि संभावना इससे ज़्यादा की है) तो भारत को सिर्फ़ पैसेंजर कारों के लिए 15MT रिफाइंड लीथियम की दरकार होगी. दोपहियों और व्यापारिक इस्तेमाल में आने वाले वाहनों को जोड़ने पर रिफ़ाइंड लीथियम की ज़रूरत 25MT से भी आगे निकल जाएगी. सेल मैनुफ़ैक्चरिंग की दिशा में आगे बढ़ने की जुगत लगा रही भारतीय कंपनियों को भारत की तात्कालिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए लीथियम संसाधन जुटाने के वैश्विक अवसरों की पड़ताल शुरू कर देनी चाहिए.
दिलचस्प रूप से इस मसले पर एक उम्मीद मौजूद है. हालांकि ये संभावना अभी पूरी तरह से सिरे नहीं चढ़ पाई है. सबसे अचरज की बात ये है कि ये उम्मीद चीन और दुनिया के सबसे बड़े बैटरी-सेल निर्माता CATL की ओर से दिखाई देती है. वो उम्मीद सोडियम आयन बैटरियों को लेकर है. वैसे तो डॉक्टर इंसानों को सोडियम के इस्तेमाल में कटौती करने की सलाह देते हैं लेकिन ये तत्व बैटरी तकनीकी के मामले में भारत के लिहाज़ से बड़ा मददगार साबित हो सकता है. देश के सबसे बड़े उद्यम रिलायंस इंडस्ट्रीज़ ने ब्रिटिश टेक्नोलॉजी फ़र्म फ़ाराडियोन की ख़रीद पर निवेश किया है. ये फ़र्म उनके लिए सोडियम आयन टेक्नोलॉजी विकसित कर रही है. हालांकि रासायनिक तत्वों की सारणी पर सरसरी तौर पर नज़र दौड़ाने से हम पाते हैं कि लीथियम के मुक़ाबले सोडियम कहीं ज़्यादा भारी होता है.
सोडियम आयन बैटरी प्रणाली में वज़न के हिसाब से सोडियम की मात्रा लीथियम की मात्रा के मुक़ाबले तीन गुणा ज़्यादा होती है. टेस्ला मॉडल 3 या BMW iX जैसी गाड़ियों के लिए इसके मायने ये हैं कि इनमें 10 किलोग्राम लीथियम की बजाए 30 किलोग्राम सोडियम का इस्तेमाल होगा. बहरहाल सोडियम आयन टेक्नोलॉजी को अभी विकास के कई चरण पूरे करने हैं. सोडियम और पूरे तौर पर सोडियम आयन बैटरियों के अहम पहलुओं के तथ्य बेहद सामान्य हैं: सोडियम आयन टेक्नोलॉजी भारत जैसे देशों को अहम धातुओं और संसाधनों पर नियंत्रण रखने वाले चंद देशों के आसरे नहीं छोड़ेगी. आख़िरकार समुद्री जल से हमें भरपूर मात्रा में सोडियम हासिल हो रहा है. हालांकि बैटरियों में इस्तेमाल होने वाला ज़्यादातर सोडियम सोडा राख से हासिल नहीं होने वाला.
ख़ुद एलन मस्क ने सार्वजनिक तौर पर ये कहा है कि 2023 में स्टैंडर्ड रेंज और परफ़ॉर्मेंस टेस्ला गाड़ियों में सोडियम आयन बैटरियों का इस्तेमाल शुरू कर दिया जाएगा. दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक वाहन तैयार करने वाली अगुवा कंपनी की ओर से इस तरह का समर्थन सोडियम आयन बैटरी टेक्नोलॉजी के लिए हौसला बढ़ाने वाला है.
बहरहाल, सोडियम की ख़ामियां सिर्फ़ उसके वज़न तक ही सीमित नहीं हैं. सोडियम आयन टेक्नोलॉजी को लेकर एक अहम चिंता ये है कि इसमें आज मानक बन चुके लीथियम आयन बैटरियों के मुक़ाबले प्रति किलोग्राम तक़रीबन 30 फ़ीसदी कम ऊर्जा भंडारित होती है. सोडियम आयन बैटरियों में ये आंकड़ा 160Wh/kg है जबकि स्टैंडर्ड लीथियम आयन बैटरियों में ये 220Wh/kg से भी ज़्यादा है. बेहद उन्नत क़िस्म की लीथियम बैटरियों में ऊर्जा का ये भंडार 250Wh/kg है. बहरहाल ऊर्जा की सघनता का बैटरियों के तापमान और गर्म हो जाने की घटनाओं के साथ एक हद तक सीधा सह-संबंध (correlation) है. सोडियम आयन बैटरियों की एक और बड़ी ख़ामी Li-NMC के मुक़ाबले कम वोल्टेज से जुड़ी हुई है. हालांकि इसे सुधारने की क़वायद जारी है और उनसे मदद मिलने की उम्मीद की जा रही है. माना जा रहा है कि इससे सोडियम आयन बैटरियां LFP सेल्स के बराबर की वोल्टेज चार्ज और डिस्चार्ज दरें हासिल कर लेगी. और तो और इससे 15 मिनट में ही तेज़ी के साथ (80 प्रतिशत) चार्ज होने की क्षमता भी हासिल हो जाएगी. हालांकि शोध पत्रों और चीनी फ़र्म CATL द्वारा दायर पेटेंटों के मुताबिक दूसरी पीढ़ी के बैटरियों के तहत 180Wh/kg सोडियम आयन बैटरियों के विकास का काम बस पूरा होने ही वाला है. ये घटनाक्रम बेहद सकारात्मक हैं. ख़ुद एलन मस्क ने सार्वजनिक तौर पर ये कहा है कि 2023 में स्टैंडर्ड रेंज और परफ़ॉर्मेंस टेस्ला गाड़ियों में सोडियम आयन बैटरियों का इस्तेमाल शुरू कर दिया जाएगा. दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक वाहन तैयार करने वाली अगुवा कंपनी की ओर से इस तरह का समर्थन सोडियम आयन बैटरी टेक्नोलॉजी के लिए हौसला बढ़ाने वाला है.
हालांकि, सोडियम की आसान उपलब्धता के अलावा भी सोडियम आयन बैटिरयों के लिए भौतिक रूप से कई फ़ायदे हैं. सरल इलेक्ट्रोलाइट्स ख़ासतौर से प्रूसियन व्हाइट नाम का पदार्थ प्रूसियन ब्लू (फ़ेरोसायनाइड) से तैयार होता है. इसका उत्पादन आसान है. साथ ही ये लीथियम आयन सेल्स के इलेक्ट्रोलाइटिक पार्ट्स के मुक़ाबले काफ़ी कम ज़हरीला है. सोडियम का ज़हरीलापन और रिएक्टिविटी काफ़ी कम होती है. इससे सेल पार्ट्स और बैटरी पैक में एल्युमिनियम का इस्तेमाल भी मुमकिन हो सकेगा. तैयार किए गए कार्बन से कैथोड्स का भी निर्माण किया जा सकेगा. इतना ही नहीं पदार्थ विज्ञान में तरक़्क़ियों से लागत में और कमी ला पाना मुमकिन हो सकेगा. ऐसे में लीथियम आयन के मुक़ाबले सोडियम आयन का वज़न ज़्यादा होने से जुड़ी परेशानियों को भी घटाया जा सकेगा. हालांकि शुरुआती पीढ़ियों के लिए कम भार होने से जु़ड़ी लीथियम बैटरियों की फ़ायदेमंद स्थिति से पार पाना शायद मुमकिन नहीं हो सकेगा.
यहां ये याद रखना भी ज़रूरी है कि भरपूर संभावनाओं के बावजूद सोडियम आयन बैटरियों को अब भी वाणिज्यिक रूप से इस्तेमाल में नहीं लाया गया है. बहरहाल सोडियम आयन सेल टेक्नोलॉजी का विकास करने वाली ब्रिटिश डेवलपर कंपनी फ़ाराडियोन में रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के निवेश से ये साफ़ ज़ाहिर होता है कि भारतीय कंपनियां भी अब इस तकनीक को गंभीरता से लेने लगी हैं. साफ़ तौर पर ये थोरियम परमाणु रिएक्टरों की तरह वेपरवेयर नहीं हैं, लेकिन इलेक्ट्रिक तौर पर टिकाऊ भविष्य के लिए ये एक रास्ता तैयार करता दिखाई देता है. ऐसे में भारतीय राज्यसत्ता और औद्योगिक जगत के लिए इस ओर निवेश करना बुद्धिमानी का सबब मालूम होता है. इस क्षेत्र में तेज़ रफ़्तार विकास का सिलसिला जारी रहने पर वैज्ञानिक और तकनीकी जानकारियां खड़ा करने और औद्योगिक क्षमता विकसित करने में निवेश करना फ़ायदे का सौदा साबित हो सकता है.
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Kushan Mitra is a journalist with over two decades experience covering the global automotive mobility and transportation industries extensively.
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