ये लेख व्यापक ऊर्जा निगरानी: भारत और विश्व सीरीज़ का हिस्सा है.
ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन उन प्रमुख विषयों में से हैं जिनके समाधान की कोशिश G20 के दिल्ली शिखर सम्मेलन में नेताओं के घोषणापत्र (लीडर्स डिक्लेरेशन) में की गई है. घोषणापत्र में कोई हैरान करने वाली बात नहीं है क्योंकि ज़्यादातर प्रमुख बिंदुओं में पहले किए गए वादों को ही दोहराया गया है. कोयले पर आधारित बिजली के लगातार इस्तेमाल को धीरे-धीरे ख़त्म करने की कोशिशों को तेज़ करना, एक अंतर्राष्ट्रीय बायो-फ्यूल अलायंस की स्थापना, न्यायसंगत ऊर्जा बदलाव के लिए समर्थन की अपील और जलवायु वित्त एवं तकनीकी हस्तांतरण के लिए आवश्यकता, उन मुद्दों में से हैं जिन्हें नेताओं के घोषणापत्र में शामिल किया गया है. लेकिन G20 के सदस्य देशों में विकास से जुड़ी अलग-अलग स्थिति को देखते हुए असली चुनौती शब्दों को वास्तविकता में बदलना है.
GHG को कम करना इस मायने में भी किसी मुकाबले से दूर है कि एक देश में इसे कम करने के अभियान से पूरी दुनिया को फायदा मिल सकता है और किसी भी देश को इसका फायदा उठाने से अलग नहीं किया जा सकता है.
गेम थ्योरी
ग्रीन हाउस गैस (GHG) को कम करना पूरी दुनिया की भलाई से जुड़ा अभियान है और इसलिए हर देश में दूसरे देश की कोशिशों में शामिल होने के लिए बढ़ावा देने की व्यवस्था है. GHG को कम करना इस मायने में भी किसी मुकाबले से दूर है कि एक देश में इसे कम करने के अभियान से पूरी दुनिया को फायदा मिल सकता है और किसी भी देश को इसका फायदा उठाने से अलग नहीं किया जा सकता है. गेम का सैद्धांतिक मॉडल जलवायु से जुड़ी बातचीत को एक ‘सार्वजनिक भलाई’ के गेम के तौर पर देखता है जिसमें ज़्यादा मशहूर गेम जैसे कि प्रिज़नर्स डिलेमा (गेम की एक थ्योरी जिसमें दिखाया जाता है कि लोग एक-दूसरे पर भरोसा न करने की वजह से कभी-कभी उस समय भी आपस में तालमेल नहीं कर पाते जब इससे उन्हें साफ तौर पर फायदा हो रहा है) की तुलना में सहयोग के लिए कम प्रोत्साहन है. एक समान देशों (आकार और पैसों के मामले में) की दुनिया में जलवायु रूप-रेखा की व्यवस्था इसमें शामिल होने के लिए बहुत कम या नहीं के बराबर प्रोत्साहन मुहैया कराती है लेकिन समस्या उस वक्त खड़ी होती है जब आकार और पैसों के मामले में देशों में अंतर होता है.
भारत और दूसरे विकासशील देश अब बहुपक्षीय मंचों जैसे कि G20 में सावधानीपूर्वक ख़ुद को जलवायु के लिए फरिश्ता और जलवायु पीड़ित के तौर पर दिखाने की आवश्यकता में संतुलन स्थापित करते हैं.
अलग-अलग देशों के बीच ध्रुवीकरण की शुरुआत आकार और पैसे जैसे अंतर के साथ होती है (भौगोलिक स्थिति, आदतें, संसाधन, व्यवस्था की संरचना इत्यादि अन्य अंतर हो सकते हैं जिनका हिसाब गेम के सैद्धांतिक मॉडल में नहीं रखा जाता है). गेम के सैद्धांतिक मॉडल के अनुसार अगर अलग-अलग देशों के बीच आकार इकलौता अंतर है तो बड़े देश ग्रीन हाउस गैस में कमी करने को अधिक महत्व देंगे जबकि छोटे देश उसी अनुपात में कम महत्व देंगे. अगर देशों के बीच पैसा बड़ा अंतर है तो अमीर देशों की तुलना में ग़रीब देश ग्रीन हाउस गैस में कमी को कम महत्व देंगे और पैसा खर्च नहीं करना चाहेंगे. जलवायु परिवर्तन को लेकर बातचीत की मौजूदा रूप-रेखा ये मानकर चलती है कि सभी देश राहत की कोशिशों को समान महत्व देंगे और अगर अलग-अलग देशों के बीच कोई अंतर है भी तो उसका समाधान वैज्ञानिक तथ्यों और नैतिक विचारों की अपील के ज़रिए किया जा सकता है. लेकिन साफ तौर पर ये अभी तक नहीं हुआ है और इस बात की उम्मीद नहीं है कि ये हालात निकट भविष्य में बदलेंगे. कई रिपोर्ट, जिनमें गणित के मॉडल के आधार पर विकासशील देशों के लिए जलवायु से जुड़ी आपदाओं का अनुमान लगाया गया है और जिनमें कोयला जलाने वाले बिजली के प्लांट से धरती को ‘बचाने’ की ज़ोरदार अपील की गई है, के बावजूद अभी तक कोयले पर निर्भर देश इस बात के लिए तैयार नहीं हो पाए हैं कि वो बिजली उत्पादन के लिए अपनी योजना में महत्वपूर्ण बदलाव करें.
क्वॉंटिटी और क्वॉलिटी
भारत जो कि विशाल आकार (जनसंख्या के आंकड़े) और अपेक्षाकृत ग़रीबी (कम प्रति व्यक्ति आमदनी) का एक अद्भुत मेल है, गेम के सैद्धांतिक मॉडल के कुछ अनुमानों का गवाह है. ग़रीब देश के तौर पर भारत के पास राहत की कार्रवाई के लिए स्पष्ट रूप से कम प्रोत्साहन है लेकिन एक बड़े देश के तौर पर राहत की कार्रवाई के लिए उसके पास अपेक्षाकृत ज़्यादा प्रोत्साहन है (क्योंकि जलवायु परिवर्तन के अधिक पीड़ित हैं और इसके नतीजतन राहत की कार्रवाई से ज़्यादा लाभ होगा). हालांकि, एक ग़रीब देश के तौर पर पैसे खर्च नहीं करने का प्रोत्साहन एक बड़े देश के तौर पर अधिक राहत चाहने के प्रोत्साहन से कहीं अधिक है क्योंकि उसकी घरेलू दलील पैसे बचाने के साथ मेल खाती है. जलवायु के मामले में राहत के अभियान से फायदा मिलने की दूरगामी संभावना की तुलना में ज़्यादा तात्कालिक चिंताएं जैसे कि ग़रीबी उन्मूलन और इसकी वजह से आर्थिक विकास को अधिक महत्वपूर्ण देखा जाता है. भारत और दूसरे विकासशील देश अब बहुपक्षीय मंचों जैसे कि G20 में सावधानीपूर्वक ख़ुद को जलवायु के लिए फरिश्ता और जलवायु पीड़ित के तौर पर दिखाने की आवश्यकता में संतुलन स्थापित करते हैं.
एक देश के तौर पर ‘आगे नहीं बढ़ना’ विकासशील देशों के लिए एक विकल्प नहीं है क्योंकि अधूरी आकांक्षाओं के साथ ‘ग़रीब’ बने रहना मध्यम अवधि में जलवायु परिवर्तन की तुलना में राष्ट्रीय और वैश्विक सुरक्षा के लिए ज़्यादा बड़ा ख़तरा है.
लगभग दो सदियों में पहली बार बड़ी ‘उभरती ताकतें’ जैसे कि भारत और चीन सही मायनों में अमीर नहीं हैं. भारत और चीन की ‘आर्थिक शक्ति’ गुणात्मक कारकों यानी क्वॉलिटेटिव फैक्टर जैसे कि आर्थिक कार्यकुशलता और उत्पादकता की तुलना में मात्रात्मक कारकों यानी क्वांटिटेटिव फैक्टर (जनसंख्या के मामले में नापा गया आकार) से प्रेरित है. भारत का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 2,388 अमेरिकी डॉलर (वर्तमान अमेरिकी डॉलर में, 2022) है जो कि अंगोला (2,998.5 अमेरिकी डॉलर) से भी कम है. लेकिन जब भारत की प्रति व्यक्ति GDP को 1.4 अरब की आबादी के हिसाब से जोड़ा जाता है तो ये बढ़कर 3.39 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर (वर्तमान अमेरिकी डॉलर) की कुल GDP हो जाती है और इस तरह भारत GDP के मामले में ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और फ्रांस जैसे अमीर देशों से आगे हो जाता है. यहां तक कि चीन की 12,720 अमेरिकी डॉलर की प्रति व्यक्ति GDP भी दुनिया की औसत GDP 12,647 अमेरिकी डॉलर के करीब ही है और OECD (आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन) में शामिल देशों की 43,260 अमेरिकी डॉलर की औसत GDP का एक-तिहाई ही है.
चीन और भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की ‘मात्रात्मक’ विशेषता (जो देश के कुल आंकड़ों में दिखती है) और ‘गुणात्मक’ विशेषता (जो किसी व्यक्ति या प्रति व्यक्ति आंकड़े में दिखाई देती है) के बीच अंतर बहुपक्षीय सौदेबाज़ी के माहौल को लेकर बड़े विकासशील देशों की दुविधा को समझने में अहम है. इनकी आंतरिक राजनीति, जो लगभग पूरी तरह अर्थव्यवस्था की गुणात्मक विशेषताओं पर केंद्रित है, का बाहरी रणनीति के साथ टकराव होने लगता है जो मात्रात्मक विशेषता को प्रदर्शित करती है.
क्वांटिटेटिव फैक्टर या प्रादेशिक सीमा के द्वारा परिभाषित देश का ‘आकार’ जलवायु को लेकर मौजूदा विमर्श (नैरेटिव) में एक महत्वपूर्ण मानदंड (पैरामीटर) है. वैश्विक और राष्ट्रीय सीमा का इस्तेमाल जलवायु की समस्या को परिभाषित करने और हल करने में एक-दूसरे की जगह पर किया जाता है. जलवायु परिवर्तन की समस्या को वैश्विक सामूहिक अपराध के तौर पर बताने के लिए बिना सीमा की दुनिया का ज़िक्र किया जाता है जबकि आरोप और ज़िम्मेदारी सौंपने के लिए ‘सीमा’ का उल्लेख किया जाता है. सीमा का नहीं होना जलवायु अपराध के लोकतंत्रीकरण को आसान बनाता है क्योंकि ये इसे लगभग 7 अरब लोगों तक फैलाता है और ‘प्रति व्यक्ति’ अपराध को कम करता है.
दूसरी तरफ, ‘सीमाएं’ जलवायु परिवर्तन के मुकाबले की लागत को आसानी से आवंटित करने में मदद करती हैं जो छोटे देशों (जनसंख्या के मामले में) के पक्ष में है. इस आधार पर, अगर भारत या चीन ख़ुद को लगभग 20 करोड़ की आबादी वाले चार या पांच आर्थिक क्षेत्रों में बांटते हैं तो उन्हें “बहुत ज़्यादा प्रदूषण फैलाने वाला” नहीं कहा जा सकता है और इसलिए जलवायु को लेकर उनकी ज़िम्मेदारी बहुत कम या बिल्कुल नहीं होगी. ये एक बेतुका नतीजा है क्योंकि सभी देश जलवायु से जुड़ी ज़िम्मेदारी से परहेज करने के लिए ख़ुद को बांट सकते हैं. लेकिन न्याय में जो कुछ भी शामिल है, उसके पूरे बोझ को साझा करने का ढांचा ‘राष्ट्रों’ के अधिकारों और उत्तरदायित्वों के मामले में सुव्यवस्थित है और इस प्रकार व्यक्तियों के बदले ‘राष्ट्र’ जलवायु परिवर्तन की वजह से ख़तरे में दिखाई देते हैं और जलवायु नीति से प्रभावित होते हैं.
विकासशील देशों का राष्ट्रीय हित
एक देश के तौर पर ‘आगे नहीं बढ़ना’ विकासशील देशों के लिए एक विकल्प नहीं है क्योंकि अधूरी आकांक्षाओं के साथ ‘ग़रीब’ बने रहना मध्यम अवधि में जलवायु परिवर्तन की तुलना में राष्ट्रीय और वैश्विक सुरक्षा के लिए ज़्यादा बड़ा ख़तरा है. भारत का मामला ही ले लीजिए: 90 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के समय से भारतीय अर्थव्यवस्था की गुणवत्ता को सीधे तौर पर दोहरे अंक में आर्थिक विकास की दर पर निर्भर देखा जाता है. ऊंची आर्थिक विकास की दर को भारत में असीम ग़रीबी के स्तर को कम करने और करोड़ों घरों में रहने वाले लोगों की जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने में स्वच्छ और आधुनिक ईंधन मुहैया कराने के लिए अनिवार्य माना जाता है. जेनिफर बियर्ड के शब्दों में कहें तो, ‘विकास ऐसी जगह है जहां पहुंचने की कोशिश हर कोई कर रहा है ताकि ख़ुद को पूरा कर सके.’ वैसे तो ऊंची आर्थिक विकास की दर आर्थिक व्यवस्था में सबसे नीचे रहने वाले लोगों के लिए अनिवार्य रूप से ‘विकास’ या ‘जीवन की बेहतर गुणवत्ता’ में तब्दील नहीं होती है लेकिन ये एक ‘उम्मीद’ है जो लोगों को एक साथ बांधकर रखती है. अमीर देशों की तरफ से बिना वित्तीय और तकनीक़ी सहायता के ग्रीन हाउस गैस को कम करने की अपील करोड़ों लोगों को घोर ग़रीबी के जाल में फंसाए रखने के लिए मौजूदा असमानता को बरकरार रख सकती है. विडंबना है कि ग़रीब पहले से ही ‘हरित’ जीवन जी रहे हैं क्योंकि वो सीधे तौर पर बेहद कम या नहीं के बराबर जीवाश्म ईंधन या बिजली की खपत करते हैं. ये ऐसी स्थिति है जिसके बारे में न तो उन्हें मालूम है, न ही इसको लेकर उन्हें गर्व है और अगर विकल्प दिया जाता है तो वो इससे बाहर निकलने पर बहुत ख़ुश होंगे.
ऐसी टिप्पणियां हैं कि विकासशील देशों की ‘राष्ट्रीय हित’ से जुड़ी चिंताएं केवल ‘अभिजात हित’ की नुमाइंदगी करती हैं और आर्थिक विकास के फायदों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर मिडिल क्लास और अभिजात वर्ग के लोग करेंगे. इस दलील में कुछ दम हो सकता है क्योंकि लगातार आर्थिक विकास के बावजूद बहुत अधिक असमानताएं बनी हुई हैं लेकिन जब तक ‘राष्ट्र’ नीतिगत कार्रवाई के लिए मुख्य लक्ष्य बने रहेंगे तब तक ‘राष्ट्रीय हित’ को लेकर विकासशील देशों के ध्यान देने का विरोध नहीं किया जा सकता. जलवायु परिवर्तन की नीति को मूल रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रीय आर्थिक रणनीति के दोहरे नज़रिए से बनाया गया है, ‘राष्ट्र’ प्रमुख विमर्श है जो दूसरे विमर्शों को वैधता प्रदान करता है. इस संदर्भ में G20 जैसे मंचों पर जलवायु परिवर्तन को लेकर बातचीत की मौजूदा रूप-रेखा, जो राष्ट्रीय हित को शामिल किए बिना ग्रीन हाउस गैस में कमी जैसी वैश्विक सार्वजनिक भलाई की चीज़ों को आसान बनाने की कोशिश करती है, के मिल-जुलकर किसी तरह के नतीजे में बदलने की उम्मीद कम है.
स्रोत: ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट
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