अमेरिका और चीन के बाद भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश है. 2022 में भारत में तेल की खपत अमेरिका से एक-तिहाई जबकि चीन से आधी थी. 2022 में अमेरिका में प्रति व्यक्ति तेल की खपत 20 बैरल थी. चीन में ये खपत 3.6 बैरल जबकि भारत में 1.3 बैरल थी. अब इस तरह की भविष्यवाणियां की जा रही हैं कि आने वाले दशकों में चीन को पीछे छोड़कर भारत तेल की मांग में वृद्धि करने वाला प्रमुख देश बन जाएगा. हालांकि ये भविष्यवाणी उतनी सही नहीं लगती क्योंकि 2022 में चीन में तेल की मांग 14.2 मिलियन बैरल प्रतिदिन (एमबीपीडी) थी जबकि भारत में सिर्फ 5.1 मिलियन बैलर प्रतिदिन. भारत में तेल की मांग बढ़ने को लेकर जो पूर्वानुमान लगाए जा रहे हैं, उसके पीछे की सबसे बड़ी वजह आर्थिक विकास की तेज़ दर, औद्योगिकीकरण और मिडिल क्लास में बढ़ोत्तरी को बताया जा रहा है. अन्तर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA)के अनुमान के मुताबिक भारत 2023 से 2030 के बीच चीन को बहुत कम अंतर से पीछे छोड़कर वैश्विक स्तर पर तेल की मांग बढ़ाने वाला सबसे अहम देश बन जाएगा. अगले सात साल में भारत में तेल की मांग में 1.2 एमबीपीडी की बढ़ोतरी होगी, जो दुनियाभर में हुई वृद्धि की एक तिहाई होगी. यानी 2030 तक तेल की मांग हर साल औसतन 3.5 प्रतिशत की वृद्धि होगी. आईईए के अनुमान में कहा गया है कि 2030 तक तेल की राष्ट्रीय मांग में डीजल की हिस्सेदारी आधी और वैश्विक स्तर पर छठे हिस्से के बराबर होगी. आईईए के मुताबिक भारत के परिवहन सेक्टर में जिस तरह इलेक्ट्रिक गाड़ियों की हिस्सेदारी बढ़ रही है उससे 2030 तक पेट्रोल की मांग में सालाना 0.7 फीसदी की ही बढ़ोत्तरी होगी. भारत में जिस तरह इलेक्ट्रिक गाड़ियों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, जिस तरह बेहतर ऊर्जा क्षमता वाले उपकरण बन रहे हैं, उससे 2030 तक पेट्रोल की डिमांड में 480,000 बैरल प्रतिदिन की कमी आएगी. हालांकि तेल की मांग को लेकर पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (OPEC)का पूर्वानुमान ज्यादा आशावादी है. इसके मुताबिक गैर ओईसीडी ( ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) देशों में तेल की मांग के मामले में भारत का योगदान 28 प्रतिशत का होगा. ओपेक का अनुमान है कि 2030 तक भारत में तेल की मांग में 2.2 एमबीपीडी की बढ़ोतरी होगी. यानी तेल की डिमांड में सालाना 5.9 प्रतिशत की वृद्धि होगी. ऊर्जा क्षेत्र में शोध करने वाली बिजनेस इंटेलिजेंस कंपनी रिस्टैड एनर्जी के मुताबिक 2024 में भारत में तेल की मांग 150,000 बीपीडी रहेगी जो 2023 में 290,000 बीपीडी थी.
ओपेक का अनुमान है कि 2030 तक भारत में तेल की मांग में 2.2 एमबीपीडी की बढ़ोतरी होगी. यानी तेल की डिमांड में सालाना 5.9 प्रतिशत की वृद्धि होगी.
2022-23 में तेल की खपत के रुझान
2021-22 की तुलना में 2022-23 में तेल की मांग में 10.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई. हालांकि ये काफी ज्यादा है लेकिन अगर पिछले दो दशकों की बात करें तो तेल की मांग में अधिकतम बढ़ोत्तरी 2015-16 में हुई. तब तेल की मांग में 11.6 फीसदी की वृद्धि हुई. 2022-23 में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हवाई जहाज के ईंधन (ATF) में दिखी. 7.4 मिलियन टन की खपत के साथ इसमें 48 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई. लेकिन कोरोना से पहले यानी 2018-19 में ये खपत 8.3 मिलियन टन थी. अगर पेट्रोल की खपत की बात करें तो इसमें 13.6 फीसदी की सालाना बढ़ोत्तरी दिख रही है. 35 मिलियन टन की खपत के साथ इसने कोरोना महामारी से पहले यानी 2019-20 की उच्चतम खपत 29.90 एमटी को पीछे छोड़ दिया. पेट्रोल की मांग में इस बढ़ोतरी की वजह निजी वाहनों की संख्या बढ़ने को माना जा सकता है. 2022-23 में गाड़ियों की रजिस्ट्रेशन में 11 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई. इसमें यात्री वाहनों और दोपहिया वाहनों की वृद्धि दर 9 फीसदी थी. 2022-23 में केरोसिन यानी मिट्टी के तेल में तो 66 प्रतिशत की भारी गिरावट आई. इससे ये संकेत मिलता है कि बिजली और एलपीजी गैस के प्रचार और प्रसार के बाद अब लोग खाना बनाने के लिए मिट्टी तेल का कम इस्तेमाल कर रहे हैं. हालांकि इस दौरान एलपीजी की खपत में 0.7 प्रतिशत की मामूली बढ़त हुई. 2021-22 में ये 28.3 एमटी थी जो 2022-23 में बढ़कर 28.5 एमटी हो गई. इससे ये संकेत भी मिलता है कि गरीब अब खाना पकाने के लिए एलपीजी की बजाए लकड़ी, गोबर और बायोमास के दूसरे साधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं. भारत में एलपीजी की 90 फीसदी खपत घरेलू क्षेत्र में होती है. ऐसे में इसकी मांग धीमी होने का मतलब ये है कि शहरी क्षेत्रों में एलपीजी की मांग अपने उच्चतम स्तर को छू चुकी है. गरीब परिवारों एलपीजी की कम खपत की वजह ये हो सकती है कि सब्सिडी कम होने के बाद सिलेंडर महंगा हो चुका है.
इसकी मांग धीमी होने का मतलब ये है कि शहरी क्षेत्रों में एलपीजी की मांग अपने उच्चतम स्तर को छू चुकी है. गरीब परिवारों एलपीजी की कम खपत की वजह ये हो सकती है कि सब्सिडी कम होने के बाद सिलेंडर महंगा हो चुका है.
2002-2023 में तेल की खपत के रुझान
अगर हम पिछले दो दशकों में पेट्रोलियम उत्पादों की खपत के आंकड़े देखें तो ये सामने आता है कि पेट्रोल को छोड़कर बाकी चीजों की मांग में ज्यादा वृद्धि नहीं हुई है. 2016 में हुई नोटबंदी और 2020 के बाद आई कोरोना महामारी की वजह से आर्थिक गतिविधियों में आई कमी को भी मांग में गिरावट के लिए जिम्मेदार माना जा सकता है. 2002 से 2013 के बीच तेल की मांग में 4.1 प्रतिशत की वृद्धि रही जबकि 2013 से 2023 के बीच ये बढ़ोत्तरी 3.5 फीसदी थी. अगर एलपीजी की बात करें तो इस दौरान उसमें 6.4 और 6.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई. पेट्रोल की मांग में इन दो दशकों में 7.5 और 8.3 फीसदी की बढ़ोत्तरी रही जबकि डीजल में 6.61 और 2.2 प्रतिशत वृद्धि दिखी. डीजल की मांग में आई कमी को समझना मुश्किल है. 2020-23 के बीच दोपहिया वाहनों समेत पेट्रोल गाड़ियों की बिक्री में 4.2 फीसदी की वृद्धि दिखी, वहीं डीज़ल की गाड़ियां 7.9 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी. अगर डीजल की मांग में कमी की वजह खोजने की कोशिश करें तो हम ये पाते हैं कि 2023 में खत्म हुए दशक में जीडीपी की औसत विकास दर 5.8 फीसदी थी, जबकि 2013 में खत्म हुए दशक में जीडीपी की औसत विकास दर 6.9 प्रतिशत थी. इसका मतलब ये हुआ कि 2023 में खत्म हुए दशक में आर्थिक गतिविधियां थोड़ी सुस्त रही, शायद इसी वजह से डीजल की मांग में कमी रही. इसी तरह अगर केरोसिन की बात करें तो 2013 में खत्म हुए दशक में इसकी खपत में 3.2 फीसदी की कमी आई जबकि 2023 में खत्म हुए दशक में केरोसिन की खपत में 23 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई. इसकी सबसे बड़ी वजह खाना पकाने के लिए एलपीजी का इस्तेमाल और हर घर बिजली पहुंचना रहा.
मुद्दे क्या हैं
भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की मांग को लेकर कोई आधिकारिक पूर्वानुमान नहीं लगाया है लेकिन भारत में तेल रिफाइनरी की क्षमता में हो रही बढ़ोत्तरी से इसे लेकर कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता है. अभी भारत की तेल रिफाइनिंग क्षमता 254 मिलियन टन सालाना है, यानी 5 मिलियन बैरल प्रतिदिन. 2028 तक इसमें सालाना 56 एमटी यानी रोज़ाना 1.1 एमबीपीडी की बढ़ोतरी होने का अनुमान है. रिफाइनिंग की क्षमता में इस बढ़ोत्तरी का पूर्वानुमान इसलिए किया जा रहा है क्योंकि सरकार को उम्मीद है कि उसकी बनाई नीतियों से उद्योग धंधों, कंस्ट्रक्शन और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में तेज़ी आएगी. प्राइवेट कंपनियां रिफाइनरी में निवेश इसलिए बढ़ा रही है क्योंकि यूक्रेन युद्ध के बाद उन्हें रशिया से सस्ते दाम पर कच्चा तेल मिल रहा है और इसे रिफाइन करके बेचने में (GRMs) उन्हें ज्यादा मुनाफा हो रहा है.
अगर परिवहन व्यवस्था में बिजली से चलने वाली गाड़ियों की हिस्सेदारी तेज़ी से बढ़ती है तो माना जा रहा है कि 2030 तक तेल की कीमतें 20 डॉलर प्रति बैरल तक गिर सकती हैं. लेकिन तब ये हो सकता है कि सस्ता तेल इसकी मांग फिर बढ़ा दे.
लेकिन कुछ घटनाक्रम ऐसे हो रहे हैं, जिससे तेल की मांग में कमी आ सकती है. जीवाश्म ईंधन की वजह से पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखते हुए इसके इस्तेमाल में कमी लाने की कोशिशें की जा रही हैं. भारत भी ये कह चुका है कि वो इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बढ़ावा देकर जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में कमी लाएगा. भारत का तेल बाज़ार कीमतों को लेकर बहुत संवेदनशील है. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ये कह चुका है कि ऊर्जा क्षेत्र में आ रहे बदलावों से तेल की कीमतें कम होंगी. अगर परिवहन व्यवस्था में बिजली से चलने वाली गाड़ियों की हिस्सेदारी तेज़ी से बढ़ती है तो माना जा रहा है कि 2030 तक तेल की कीमतें 20 डॉलर प्रति बैरल तक गिर सकती हैं. लेकिन तब ये हो सकता है कि सस्ता तेल इसकी मांग फिर बढ़ा दे. हालांकि अगर पेट्रोलियम प्रोडक्ट सप्लाई करने वाले देश तेल, गैस और कोयले में निवेश कम कर दें. इनका खनन कम करें तो इससे तेल फिर महंगा हो सकता है. इससे तेल की मांग में कमी आएगी. यानी फिलहाल तेल की मांग को लेकर कोई भविष्यवाणी करना बहुत मुश्किल है क्योंकि ये कई बातों पर निर्भर करती है. लेकिन फिर भी अगर पिछले दो दशकों के रुझान को देखें तो ये कहा जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने इलेक्ट्रिक गाड़ियों के प्रसार के बाद भारत में पेट्रोल की मांग में कमी को लेकर जो भविष्यवाणी की थी, वो कुछ ज्यादा ही आशावादी है. कुछ ऐसा ही रिस्टैड एनर्जी के पूर्वानुमान को लेकर भी कहा जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि 2024 तक भारत में तेल की मांग कम होने लगेगी. ओपेक की ये भविष्यवाणी भी सही नहीं लग रही कि 2030 तक भारत में तेल की मांग में सालाना 5.9 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी. इन सब पूर्वानुमानों को लेकर यही कहा जा सकता है कि ये वास्तविकता पर नहीं बल्कि उम्मीदों पर आधारित हैं.
Source: PPAC for oil demand growth and RBI for GDP growth
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