पिछले तीन दशकों के दौरान आमदनी के पिरामिड के सबसे निचले स्तर के लोगों (लिटिल वुमन) की आशंकाओं को ख़ारिज करने की परंपरा सी बन गई है. इस वर्ग से जुड़ी आशंकाओं को निराधार, अतार्किक और जानकारी के अभाव से पैदा हुई असुरक्षा कहकर ख़ारिज किया जाता रहा है.
और ऐसा हो भी क्यों न, उचित नियामक व्यवस्था होती, तो बाज़ार ने बहुत शानदार नतीजे दिए हैं और ग़रीब अर्थव्यवस्थाओं को विकसित देशों की तुलना में ज़्यादा फ़ायदा हुआ है. दक्षिण एशिया में वर्ष 1990 से 2019 के बीच प्रति व्यक्ति GDP (PPP 2017 के पैमाने पर) 3.3 गुना बढ़ी है. जबकि पूरी दुनिया में ये ये विकास दर केवल 0.7 गुना रही.
ग़रीबी उन्मूलन के मोर्चे पर तो नतीजे और भी बेहतर रहे हैं. 2019 में दुनिया में ग़रीब (2011 की PPP के अनुसार प्रति व्यक्ति हर दिन 1.9 डॉलर से कम आमदनी वाले) लोगों की संख्या 9.2 प्रतिशत थी, जो 1990 के मुक़ाबले बस एक चौथाई है. भारत में ग़रीबी जो 1993 में 47.6 प्रतिशत थी, वो 2011 में आधी से भी ज़्यादा घटकर 22.5 फ़ीसद रह गई. उसके बाद के आंकड़े साफ़ नहीं हैं.
खुली, वैश्विक अर्थव्यवस्था की कामयाबी की सबसे अच्छी मिसाल पूरी दुनिया में कोई है, तो वो चीन है. जिसके औद्योगिक उत्पादन की अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में खपत हुई और उसकी तरक़्क़ी हुई. खुली अर्थव्यवस्था से चीन की कुशल और काम की भूखी औद्योगिक इकाइयों को पूंजी भी मिली और नई तकनीक भी हासिल हुई.
खुली, वैश्विक अर्थव्यवस्था की कामयाबी की सबसे अच्छी मिसाल पूरी दुनिया में कोई है, तो वो चीन है. जिसके औद्योगिक उत्पादन की अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में खपत हुई और उसकी तरक़्क़ी हुई. खुली अर्थव्यवस्था से चीन की कुशल और काम की भूखी औद्योगिक इकाइयों को पूंजी भी मिली और नई तकनीक भी हासिल हुई.
अब तो साम्यवादी देश क्यूबा भी कोविड-19 महामारी के दबाव में सुधार कर रहा है. क्यूबा में आर्थिक सुधार मानो, सरकारी व्यवस्था और समाजवाद की मौत का पैग़ाम हैं. क्योंकि क्यूबा का आर्थिक सुधार करना वैसा ही बड़ा बदलाव है, जैसा सऊदी अरब का महिलाओं को गाड़ी चलाने की इजाज़त देना.
सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के बड़े क़दम उठाने का एलान
ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था में सुधार की इस लहर में भारत भी पीछे नहीं रहना चाहता है. तभी तो, देश की वित्त मंत्री ने फ़रवरी महीने में देश के बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के बड़े क़दम उठाने का एलान किया. निजीकरण के दायरे में देश की पहचान सरकारी एयरलाइन एयर इंडिया और कुप्रबंधन के शिकार सरकारी बैंक शामिल हैं. ये उचित फ़ैसला भले ही हो, लेकिन ऐसे क़दमों को साहसिक नहीं कहा जा सकता. क्योंकि, भारत से बाहर रहने वाले किसी भी इंसान के लिए सरकारी कंपनियों का निजीकरण अब पुरानी बात हो चुकी है. लेकिन, ऐसा लगता है कि भारत की सरकार अभी भी संविधान में 1976 में संशोधन के ज़रिए डाले गए ‘समाजवादी’ शब्द के बोझ तले तबी हुई है. इसी वजह से भारत में सरकार का अर्थव्यवस्था में नई जान डालने के लिए खुलकर निजी पूंजी और प्रबंधन की अहमियत मानना ठीक वैसा ही है, मानो चीन ने अपनी कम्युनिस्ट पार्टी से किनारा कर लिया हो.
ऐसा लगता है कि भारत की सरकार अभी भी संविधान में 1976 में संशोधन के ज़रिए डाले गए ‘समाजवादी’ शब्द के बोझ तले तबी हुई है.
हो सकता है कि साहसिक सुधारों वाले इन क़दमों में से कुछ, महामारी के चलते पूरे विश्व पर छाए निराशा के बादल छंटने में मदद करें. आप तुलनात्मक रूप से कहें, तो अगर दुनिया 2021 तक 2019 की 2.8 फ़ीसद की GDP विकास दर की रफ़्तार से भी आगे बढ़ती रहती, तो भी 2021 में इसकी तरक़्क़ी को 7 प्रतिशत या मौजूदा क़ीमत पर 6.15 ख़रब डॉलर का नुक़सान होता. ये रक़म वर्ष 2019 में कम और निम्न मध्यम आमदनी वाले उन्यासी देशों (भारत भी इनमें से एक है) की कुल GDP के बराबर है. दुनिया की ये कम आमदनी वाले देश ही हैं, जो अर्थव्यवस्था को लगे झटके का सबसे ज़्यादा बोझ उठाएंगे और उन्हें उबरने में भी सबसे ज़्यादा वक़्त लगेगा.
संरचनात्मक सुधार दरकार
अकेले भारत ही इस आर्थिक वर्ग का 42 फ़ीसद हिस्सा है. भारत की अर्थव्यवस्था को 12 प्रतिशत का स्थायी नुक़सान होने की आशंका है, क्योंकि इसकी अर्थव्यवस्था 2020 में महामारी के हमले से पहले से ही सुस्त पड़ने लगी थी. अर्थव्यवस्था को दोबारा 8 प्रतिशत सालाना विकास दर की रफ़्तार देने के लिए भारत को संरचनात्मक सुधार करने होंगे. निजीकरण ऐसा ही एक सुधार हो सकता है. अगर इसे फ़ौरन लागू किया गया, तो इससे सार्वजनिक क्षेत्र की सेवाओं, औद्योगिक कंपनियों और वित्तीय संस्थानों के चलते, GDP को हर साल होने वाले 1 प्रतिशत (2 ख़रब रुपयों) के नुक़सान से बचाया जा सकेगा. सरकारी बैंकों की डूबती रक़म के 2021 में 12 से 14 फ़ीसद या GDP का लगभग 5 प्रतिशत तक पहुंचने की आशंका है.
सरकारी ख़ज़ाने की कमी पूरी करने के लिए उधार लेना एक अच्छा विकल्प नहीं है, ख़ास तौर से तब और जब महामारी से पहले 4 प्रतिशत GDP विकास दर की तुलना में दस साल के सरकारी बॉन्ड पर रिटर्न 6.25 प्रतिशत हो. जबकि इसे 6 फ़ीसद से कम रखने के लिए रिज़र्व बैंक ने पुरज़ोर कोशिश की है. इसके लिए उसने ऐसे बॉन्ड बेच दिए, जिनकी मियाद पूरी हो रही थी और उनकी जगह लंबी अवधि के सरकारी बॉन्ड ख़रीदे थे.
अर्थव्यवस्था को दोबारा 8 प्रतिशत सालाना विकास दर की रफ़्तार देने के लिए भारत को संरचनात्मक सुधार करने होंगे.
1996 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल के आख़िरी दिनों में 1991 के मशहूर आर्थिक सुधारों की समीक्षा करते हुए, सम्मानित अर्थशास्त्रियों दीपक नैय्यर और अमित भंडारी ने कहा था कि लगातार आर्थिक सुधार निश्चित रूप से अच्छे क़दम होंगे. लेकिन, उन्हें लागू करने को राजनीतिक रूप से दिलकश बनाने के लिए, इस बात का ध्यान रखना होगा कि कल्याणकारी योजनाओं में कटौती और बेरोज़गारी की चोट से ग़रीबों को बचाया जाए. इसकी एक स्वदेशी मिसाल गांधी जी की सलाह हो सकती है कि सरकार के किसी भी क़दम से समाज के कमज़ोर तबक़े को कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए.
समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग को सुरक्षित रखते हुए, बड़े आर्थिक सुधार करना कोई मामूली चुनौती नहीं है. लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहुत शोर-शराबे वाली होती है. ऐसे में कमज़ोर वर्ग के प्रति नरमी रखते हुए, संपन्न लोगों के प्रति सख़्त रवैया अपनाने की दोहरी नीति पर चलने फ़ायदे बहुत कम होते हैं. हालिया मिसालें बताती हैं कि वैश्विक आर्थिक सुधारों से अमीरों को ही तुलनात्मक रूप से ज़्यादा फ़ायदा होता है.
आपस में जुड़ी हुई दुनिया में ऐसे नियामक क़दम उठाने और मुश्किल हो जाते हैं. जैसे हमारे पास टैक्स रियायतों के गढ़ और चतुर गुणा भाग के चलते दुनिया में फैलती ग़रीबी को रोकने के अंतरराष्ट्रीय तरीक़े नहीं हैं. उसी तरह सरकारों के सामने भी ये असंभव सी चुनौती है कि वो घरेलू विकास को इतना ही प्रोत्साहन दें, जिससे उससे अतिरिक्त नौकरियां पैदा हों और धीरे धीरे आमदनी बढ़े. बेहद ज़रूरी प्रोत्साहन से अधिक क़दम उठाने से सबसे अमीर तबक़े को फ़ायदा होता है और समाज की सबसे निचली पायदान के लोगों को नुक़सान होता है. इससे ख़ज़ाना भी ख़ाली होता है और सरकार पर पूंजीपतियों से मिली-भगत का इल्ज़ाम भी लगता है. इसके उलट, कुछ भी न करने से आर्थिक विकास में लगातार कमी होती जाती है, जबकि तरक़्क़ी ही समृद्धि के उचित बंटवारे की पहली शर्त है.
बेहद ज़रूरी प्रोत्साहन से अधिक क़दम उठाने से सबसे अमीर तबक़े को फ़ायदा होता है और समाज की सबसे निचली पायदान के लोगों को नुक़सान होता है. इससे ख़ज़ाना भी ख़ाली होता है और सरकार पर पूंजीपतियों से मिली-भगत का इल्ज़ाम भी लगता है.
इसका सबसे आसान तरीक़ा है सरकार के काम-काज को सुधारना. वैश्विक प्रशासन सूचकांक WGI– जो तमाम देशों में प्रशासन की अलग अलग पैमाने पर गुणवत्ता का सूचक है- वो ये बताता है कि 2014 से 2019 के बीच भारत में छह में से चार पैमानों में सुधार हुआ है. यानी भ्रष्टाचार क़ाबू में आया है. सरकार असरदार हुई है, नियामक व्यवस्था बेहतर हुई है, राजनीतिक स्थिरता आई है और हिंसा ख़त्म हुई है. बाक़ी के दो सूचकांकों- क़ानून के राज और आवाज़ उठाने और जवाबदेही के मोर्चों पर चिंताजनक गिरावट दर्ज की गई है.
दो सबक़
चीन इस बात की सटीक मिसाल है कि किस तरह अर्थव्यवस्था नव उदारवादी लोकतांत्रिक विचारों में घुसपैठ करके ग़रीबी घटाकर स्थायी विकास दर हासिल करती है. लेकिन, चीन बिना किसी राजनीतिक सुधार के आर्थिक सुधारों की भी इकलौती मिसाल है. शायद कुछ ऐसे कारक, जो किसी और देश में नहीं मिलते, वो ही इन विरोधाभासों की कुछ व्याख्या कर सकते हैं. इसके बावजूद, हमें दो सबक़ तो मिलते हैं.
पहला, तो स्थानीय सरकारों में सुधार करके उन्हें प्रभावी और मज़बूत बनाना, एक ऐसा राजनीतिक सुधार है जिसका लंबे समय से इंतज़ार है. आज शहर और गांव दूर बैठी राज्य सरकारों की पूंछ बनकर रह गए हैं.
जम्मू और कश्मीर में राजनीतिक विकेंद्रीकरण पहले ही लागू किया जा चुका है. ये ऐसा नमूना है, जिसे पूरे देश में लागू करने के बारे में सोचा जाना चाहिए. अगर ये व्यवस्था जम्मू-कश्मीर के लिए अच्छी है, तो फिर इसे पूरे देश में क्यों न लागू करें?
जवाबदेही और कुशलता बढ़ाने के लिए धारदार प्रशासन को जनता के क़रीब लाना एक अहम शर्त है. चीन की एकदलीय व्यवस्था, पार्टी के भीतरी नियंत्रण के ज़रिए तीनों स्तरों पर प्रशासन का असरदार होना सुनिश्चित करती है. नियंत्रण की ये व्यवस्था लोकतंत्र में काम नहीं करती. फिर जवाबदेही सुनिश्चित करना नियमित चुनाव और न्यायपालिका के ज़रिए नागरिकों पर निर्भर हो जाता है. स्थानीय स्तर पर अधिक अधिकार और वित्तीय संसाधन देना, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए क़ुदरती विकल्प है. इससे आम जनता अर्थव्यवस्था के एक बड़े हिस्से पर नज़दीकी नियंत्रण रख सकेगी.
दूसरा, तकनीक आज भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के नेटवर्क दायरे को गई गुना बढ़ा रही है. आप सोचिए कि आज अर्थव्यवस्था को (परिवहन, औद्योगिक, खेती और घरेलू इस्तेमाल के लिए) कितनी बिजली की ज़रूरत है. नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के बढ़ते उत्पादन से बड़े पैमाने पर एकीकृत ग्रिड प्रबंधन की ज़रूरत होगी, जिससे देर तक बिजली न गुल हो. ख़राब मौसम के चलते हम टेक्सस ग्रिड ERCOT 2021 में ख़राबी भुगत चुके हैं. डेटा से जुड़े सुरक्षित और एक जैसे मानक, स्वास्थ्य और मूल्यांकन की एक जैसी सेवाएं और एक वैल्यू ऐडेड टैक्स व्यवस्था, सब मिलकर इस ओर इशारा करते हैं कि हम प्रशासन के मध्यम स्तर पर उस राजनीतिक दख़लंदाज़ी को कम करें, जो हमें आज़ादी के वक़्त विरासत में मिली थी.
अगले चार वर्षों के दौरान हमारे सामने इसका बड़ा मौक़ा होगा. इस दौरान 27 राज्यों की विधानसभा के चुनाव होंगे. इनमें से दो राज्यों के चुनाव तो 2024 के आम चुनावों के साथ होंगे. इन चुनावों में विकेंद्रीकरण के ज़रिए एकीकरण एक लुभावना नारा हो सकता है.
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