Author : John C. Hulsman

Published on Apr 12, 2021 Updated 0 Hours ago

अमेरिका के ये सारे हित, एशिया पहले की ओर इशारा करते हैं. वहां उभरती विश्व शक्तियों से गठबंधन बनाने का नुस्खा सुझाते हैं.

यूरोप के निरपेक्षवाद से मिले संकेत के बाद अमेरिका को अपने लक्ष्य में बदलाव करना चाहिए
Javier Ghersi — Getty

जैसा कि अमेरिका के मशहूर उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने कहा था: ‘असली ग़लती वही है जिससे हम कुछ सीखते नहीं हैं.’

फोर्ड की इस वज़नदार बात के हवाले से अब हमें ये देखना है कि अमेरिका का बाइडेन प्रशासन पुराने तौर तरीक़े अपनाते हुए तल्ख़ सच्चाई की ओर से आंखें मूंदे रहता है. या फिर, अमेरिका इस हक़ीक़त को स्वीकार करता है कि दुनिया में क्रांतिकारी ढंग से वास्तविक बदलाव आ चुका है.

क्योंकि, जो बाइडेन और उनकी टीम पूर्व राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के नज़रिए वाले जिन दिनों की याद कर रही है, वो जा चुके हैं. अब न तो शीत युद्ध के दौरदोर की दो ध्रुवों वाली दुनिया है (जिसमें असली फ़ैसले अमेरिका और सोवियत संघ लिया करते थे और आम तौर पर अपनी इच्छा को अपने सहयोगियों पर थोपा करते थे) और न ही अब दुनिया वैसी एकध्रुवीय रही, जिसमें सिर्फ़ अमेरिका का दबदबा हुआ करता था. तब सोवियत संघ के विघटन के बाद कुछ दिनों के लिए अमेरिका ने धरती पर ख़ुद के इकलौती महाशक्ति होने का सुख पाया था. इन सबके बजाय, हमारे सामने आज जो युग है वो मोटा-मोटी दो ध्रुवों में बंटा है. जिसमें एक ध्रुव अमेरिका है, तो दूसरा ध्रुव चीन है. पर, इन दो महाशक्तियों के साथ-साथ दुनिया में भारत, जापान, अंग्रेज़ी भाषी देशों, यूरोपीय संघ और रूस जैसी बड़ी ताक़तें इनके नीचे दूसरी पायदान पर खड़ी हैं. ये सभी शक्तियां अपनी अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की राह तय करने में सक्षम हैं.

हमारे सामने आज जो युग है वो मोटा-मोटी दो ध्रुवों में बंटा है. जिसमें एक ध्रुव अमेरिका है, तो दूसरा ध्रुव चीन है. पर, इन दो महाशक्तियों के साथ-साथ दुनिया में भारत, जापान, अंग्रेज़ी भाषी देशों, यूरोपीय संघ और रूस जैसी बड़ी ताक़तें इनके नीचे दूसरी पायदान पर खड़ी हैं. ये सभी शक्तियां अपनी अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की राह तय करने में सक्षम हैं.

लेकिन, यहां भी एक बात है, जो अमेरिका के हित में है. भारत, जापान, यूरोपीय संग और अंग्रेज़ी भाषी देशों के सामने जो बुनियादी सामरिक विकल्प है, वो ये है कि या तो वो निरपेक्ष रहें या फिर अमेरिका के प्रति झुकाव रखें. वहीं, रूस के सामने बुनियादी सामरिक विकल्प ये है कि वो या तो चीन के साथ गठबंधन कर ले या फिर दोनों महाशक्तियों के बीच निरपेक्ष बना रहे. ये समीकरण अमेरिका को एक ऐसा विशाल अवसर प्रदान करते हैं, जिसके बारे में अब तक सोचा नहीं गया. पर, ये अवसर अमेरिका के हित में तभी काम आ सकेगा, जब अमेरिका ये स्वीकार कर ले कि दुनिया के कई बड़े देश अपनी राह तय करने के लिए तुलनात्मक रूप से स्वतंत्रता चाहते हैं. अमेरिका को आज न सिर्फ़ इन बड़ी शक्तियों को अपने पाले में आने के लिए लुभाने की ज़रूरत है, बल्कि उसे ये भी समझना पड़ेगा कि हर देश अपनी ख़ास ज़रूरतों के हिसाब से अमेरिका के साथ खुलकर गठबंधन बनाने के बजाय कई मामलों में निरपेक्षता की राह पर चलना चाहेगा.

दुनिया की ये भौगोलिक सामरिक हक़ीक़त निश्चित रूप से जो बाइडेन की विदेश नीति वाली टीम के उस ख़्वाब से टकराने वाली है, जिसमें वो यूरोपीय संघ को प्राथमिकता देने की बातें करते हैं, और लंबे समय तक चलने वाले शीत युद्ध के नज़रिए से ख़ुद को यूरोपीय संघ के संरक्षक के रूप में देखते हैं. लेकिन, एक मूलभूत वास्तविक सच्चाई ये है कि जर्मनी के व्यापारवाद और फ्रांस के स्वायत्तवादी नज़रिए के चलते आज यूरोप, चीन बनाम अमेरिका के दौर में ख़ुद को निरपेक्ष ही रखना चाहता है. 

नीतिगत मोर्चे पर एक वैचारिक प्रयोग

दुनिया की इस नई सच्चाई को हम नीतिगत मोर्चे पर एक वैचारिक प्रयोग के माध्यम से समझ सकते हैं. कल्पना कीजिए कि जो बाइडेन ने यूरोपीय संघ की सबसे ताक़तवर नेता, जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल को अपनी पहली फ़ोन कॉल में कुछ इस तरह बात की होगी, ‘एंगेला मुझे आपके और आपकी सरकार के साथ मिलकर काम करने में बहुत ख़ुशी होगी क्योंकि हम दोनों के देश एक जैसे नियमों, मूल्यो और हितों के प्रति बुनियादी प्रतिबद्धता रखते हैं और अब जबकि डॉनल्ड ट्रंप सत्ता से बाहर हैं, तो कृपया आप अपनी सुरक्षा के लिए और अधिक पैसे ख़र्च कीजिए (वर्ष 2019 में जर्मनी ने अपनी सुरक्षा में अपनी GDP का महज़ 1.3 प्रतिशत ही व्यय किया था). आइए हम दोनों मिलकर रूस के बाग़ी नेता एलेक्सी नवालनी और रूस में मानव अधिकारों का समर्थन करते हैं. इसके लिए आपको बनकर लगभग तैयार पाइपलाइन नॉर्ड स्ट्रीम 2 से हाथ खींचना होगा. और आप यूरोपीय संघ को बाल्कन देशों और उत्तरी अफ्रीका की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए राज़ी करिए. क्योंकि तब तक हम चीन पर ध्यान केंद्रित करते हैं. आप अपने दूरसंचार नेटवर्क से चीन की कंपनी हुआवेई को निकाल बाहर कीजिए और यूरोपीय संघ को अमेरिका के साथ दोबारा ले आइए, ताकि हम दोनों मिलकर चीन का सामना कर सकें.’ इसके बाद एंगेला मर्केल शर्मिंदगी के भाव से अपनी जूतियों पर नज़र डालती हैं, लेकिन बाइडेन की कही हुई कोई भी बात नहीं मानती हैं. तब और केवल तभी जाकर बाइडेन और उनकी टीम को यूरोपीय संघ के साथ संबंधों में व्यवहारिक दिक़्क़तों का एहसास होता है. हाल ही की बात है, जब बेवजह की जल्दबाज़ी दिखाते हुए यूरोपीय संघ ने चीन के साथ निवेश संधि (बाइडेन की टीम के ऐतराज़ के बावजूद) पर हस्ताक्षर किए हैं. वो भी उस समय जब अमेरिका के नए राष्ट्रपति की टीम, चीन पर ये तोहमत लगा रहे थे कि उसने शिन्जियांग सूबे में वीगरों के मानव अधिकारों का हनन किया है और चीन की वायुसेना बड़ी बेशर्मी से ताइवान की वायु सीमा का उल्लंघन कर रही है.

यहां भी एक बात है, जो अमेरिका के हित में है. भारत, जापान, यूरोपीय संग और अंग्रेज़ी भाषी देशों के सामने जो बुनियादी सामरिक विकल्प है, वो ये है कि या तो वो निरपेक्ष रहें या फिर अमेरिका के प्रति झुकाव रखें. वहीं, रूस के सामने बुनियादी सामरिक विकल्प ये है कि वो या तो चीन के साथ गठबंधन कर ले या फिर दोनों महाशक्तियों के बीच निरपेक्ष बना रहे.

जर्मनी की सत्ताधारी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (CDU) के नए नेता आर्मिन लैशेट (जो अपनी पार्टी के भीतर रूस को पसंद करने वाले गुट के सदस्य हैं) के बयानों से भी अमेरिका के लिए कोई राहत भरी ख़बर नहीं देखने को मिलती. लैशेट ने कहा था कि चीन के प्रति जर्मनी का रवैया अलग हो सकता था, अगर उनके देश में कार उद्योग नहीं होता (फॉक्सवैगन की हर दो कारों में से एक चीन में बेची जाती है). स्पष्ट है कि जर्मनी के व्यापारवाद के चलते ही, यूरोपीय संघ आज चीन और रूस के क़रीब जा रहा है. वो अपने पुराने सहयोगी अमेरिका की तरह रूस और चीन को भौगोलिक सामरिक प्रतिद्वंदियों के रूप में नहीं देखता है.

अमेरिका के लिए विकल्प 

ऐसे में जो बाइडेन की टीम, जो अभी भी पूर्व राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के नज़रिए से यूरोप को प्राथमिकता देने के बारे में सोचती है, उसके सामने एक अलग तरह का सामरिक सवाल खड़ा होगा. चूंकि, चीन और अमेरिका के बीच तीखे होते शीत युद्ध में यूरोप ख़ुद को लगातार निरपेक्ष बनाने में जुटा हुआ है, तो ऐसे में अमेरिका के सामने सवाल ये होगा कि वो किन देशों को अपना वास्तविक सहयोगी माने? अमेरिका के लिए अच्छी ख़बर ये है कि उसके सामने एक दूसरा दृष्टिकोण अपनाने का विकल्प खुला हुआ है, जो इस महत्वपूर्ण सवाल का जवाब दे सकता है. नए युग में अमेरिका के क़ुदरती सहयोगी, जापान और भारत जैसे बड़े और ताक़तवर देश हैं. इनमें वो ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा और ब्रिटेन को भी जोड़ सकता है.

अमेरिका के लिए अच्छी ख़बर ये है कि उसके सामने एक दूसरा दृष्टिकोण अपनाने का विकल्प खुला हुआ है, जो इस महत्वपूर्ण सवाल का जवाब दे सकता है. नए युग में अमेरिका के क़ुदरती सहयोगी, जापान और भारत जैसे बड़े और ताक़तवर देश हैं. इनमें वो ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा और ब्रिटेन को भी जोड़ सकता है.

ये सभी देश, एशिया में चीन के विस्तारवाद को विश्व व्यवस्था के लिए ख़तरे के रूप में देखते हैं. इन सभी देशों ने तय ये किया है कि वो अपने यहां के दूरसंचार नेटवर्क में चीन की कंपनी हुआवेई की भागीदारी को सीमित रखेंगे, जो यूरोपीय संघ के रवैये के उलट है. ये सभी देश पहले ही आपस में जुड़े अलग अलग समूहों में मिलर काम कर रहे हैं. फिर चाहे चतुर्भुज गठबंधन (Quadrilateral Initiative) की पहल हो जिसमें भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ अमेरिका शामिल है, या फिर वो ख़ुफ़िया जानकारियां जुटाने वाले गठबंधन (फाइव आईज़ एलायंस जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड शामिल हैं) के झंडे तले इकट्ठे काम कर रहे हैं. बड़ी ताक़तों के ये अनौपचारिक मगर बेहद महत्वपूर्ण समूह बिल्कुल स्पष्ट है, एक दूसरे से मेल खाती हुई है और पहले से अस्तित्व में है. ये समूह अमेरिका के सामने एक ऐसा विकल्प पेश करते हैं, जिससे वो यूरोपीय देशों के सामने चीन और रूस से दूरी बनाने के लिए गिड़गिड़ाने के बजाय, इन समूहों को अपने यूरोपीय साझीदारों का विकल्प बना सकता है. यूरोपीय देशों की तुलना में ये गठबंधन नए युग के हिसाब से बिल्कुल अलग नज़रिया रखते हैं.

इस बारे में मुझे वॉशिंगटन में प्रचलित उस मशहूर जुमले से हौसला मिलता है, जिसमें कहा जाता है कि, ‘अमेरिकी बातें तो हिप्पियों की तरह करते हैं, लेकिन उनका बर्ताव गैंगस्टर जैसा होता है.’ आसान शब्दों में कहें, तो दुनिया को रंगीन चश्मा पहनकर बचकाने और ग़लत नज़रिए से देखने के बजाय अमेरिका अक्सर वास्तविकता को आसानी से पहचान लेता है, ख़ुद को नई सच्चाई से बौद्धिक रूप से संतुलित कर लेता है और अपने ठोस वास्तविक हितों की पूर्ति के लिए काम करता है.

फिलहाल तो अमेरिका के ये सारे हित, एशिया पहले की ओर इशारा करते हैं. वहां उभरती विश्व शक्तियों से गठबंधन बनाने का नुस्खा सुझाते हैं.

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