Author : Oommen C. Kurian

Published on Jul 13, 2020 Updated 0 Hours ago

अब चूंकि कोविड-19 ज़्यादातर मरीज़ों में अपने आप से ठीक हो जाने वाली बीमारी है. तो किसी भी दवा के वास्तविक प्रभाव का पता केवल गहराई से वैज्ञानिक रिसर्च करके ही लगाया जा सकता है. इस प्रक्रिया में अगर किसी के कारोबारी हित शामिल हो जाते हैं, तो उनका न सिर्फ़ सख़्ती से विरोध होना चाहिए.

युद्ध का कोहरा: HCQ पर राजनीति और इसके अर्थशास्त्र ने वैज्ञानिक परिचर्चा को पीछे धकेल दिया है

कोविड-19 महामारी से दुनिया भर में 12 लाख से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं. जबकि, इस महामारी से पूरे विश्व में साढ़े पांच लाख से ज़्यादा लोगों की मौत दर्ज़ की गई है. ये आंकड़े बताते हैं कि नए कोरोना वायरस का प्रकोप बिल्कुल भी धीमा नहीं पड़ा है. हालांकि, शुरुआती हॉट स्पॉट के बजाय अब ये महामारी ब्राज़ील, मेक्सिको, रूस और भारत जैसे देशों में जड़ें जमा रही है. इस महामारी के इलाज के लिए वैक्सीन बनाने की होड़ पूरी दुनिया में लगी है. हालांकि, अब तक किसी को सफलता नहीं मिली है. समाचार के मुताबिक़, कम से कम सौ वैक्सीन का विकास चल रहा है. और, इनमें से दस का क्लिनिकल ट्रायल भी शुरू हो चुका है. दुनिया की बड़ी-बड़ी दवा कंपनियां एक दूसरे से होड़ लगाए हुए हैं कि कौन सबसे पहले कोविड-19 का टीका तैयार करता है. तब तक मौजूदा दवाओं को ही कोविड-19 के मरीज़ों को देकर उनका इलाज किया जा रहा है. क्योंकि इस महामारी के इलाज के विकल्प बेहद सीमित हैं. और तलाश जारी है.

अगर कोविड-19 से मृत्यु की दर बहुत अधिक होती, तो इस महामारी के इलाज के लिए हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन दवा को लेकर जो मौजूदा बहस छिड़ी हुई है, वो बेमानी हो जाती है. हालांकि HCQ को क्लोरोक्वीन के मुक़ाबले काफ़ी सुरक्षित माना जाता है. फिर भी इस दवा के गंभीर साइड इफेक्ट होते हैं. ख़ासतौर से उन लोगों को जिन्हें पहले से कुछ बीमारियां होती हैं. चूंकि, जो लोग इस दवा को कोविड-19 के इलाज के लिए लेते हैं, उन्हें अपनी सेहत की अन्य परेशानियों का पता नहीं होता. ऐसे में वो HCQ के साइड इफेक्ट के ख़तरों से अनजान होते हैं. कोविड-19 जैसी बीमारी, जो ज़्यादातर आबादी के लिए घातक नहीं है, उसके इलाज के लिए बड़े पैमाने पर  HCQ का इस्तेमाल और इसके फ़ायदे (जो स्पष्ट नहीं हैं) को लेकर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं.

अगर कोविड-19 से मृत्यु की दर बहुत अधिक होती, तो इस महामारी के इलाज के लिए हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन दवा को लेकर जो मौजूदा बहस छिड़ी हुई है, वो बेमानी हो जाती है. हालांकि HCQ को क्लोरोक्वीन के मुक़ाबले काफ़ी सुरक्षित माना जाता है. फिर भी इस दवा के गंभीर साइड इफेक्ट होते हैं

जब इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (ICMR) ने बिना लक्षण वाले कोविड-19 के मरीज़ों के इलाज और उनकी देखभाल में लगे स्वास्थ्य कर्मियों को HCQ देने की सिफ़ारिश की थी, तो बहुत से विशेषज्ञों ने इस पर चिंता जताई थी. ICMR ने संक्रमण की पुष्टि वाले मरीज़ों के संपर्क में आए और घर में रह रहे लोगों को भी हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन देने की सिफारिश की थी. जब ICMR ने ये सिफ़ारिश की थी, तब तक HCQ से कोविड-19 मरीज़ों के ठीक होने के सबूत नहीं सामने आए थे. इसके बावजूद, भारत के कई राज्य, इस दवा का कोविड-19 के मरीज़ों के इलाज में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रहे हैं. क्योंकि इसका सस्ता और असरदार विकल्प अभी मौजूद नहीं है. इस संदर्भ में ICMR ने एक अध्ययन प्रकाशित किया है जिसमें कहा गया है कि हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन के बहुत बड़े साइड इफेक्ट नहीं हैं, और रोग निरोधक के तौर पर इस दवा का इस्तेमाल जारी रहना चाहिए.

22 मई को भारत सरकार ने हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन के इस्तेमाल का दायरा बढ़ा दिया. अब इस दवा को फ्रंटलाइन के स्वास्थ्य कर्मियों के इलाज में किया जा सकता था. जैसे कि पुलिसकर्मी या घर-घर जाकर  कोविड-19 के मरीज़ों के बारे में सर्वे करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारी. हालात की गंभीरता के अलावा, आईसीएमआर का फ़ैसला इस बात से भी प्रभावित था कि फ्रंटलाइन के कार्यकर्ताओं में महामारी को लेकर भय न व्याप्त हो जाए. इसलिए उन्हें अस्थायी समाधान के तहत HCQ देने का फ़ैसला किया गया. इस निर्णय को लेकर सरकार का नज़रिया शायद ये था कि कोई समाधान न होने से बेहतर कुछ न कुछ करना है.

लेकिन, जब मई महीने में मशहूर वैज्ञानिक पत्रिका लैंसेट ने एक अध्ययन प्रकाशित किया. जिसमें कहा गया कि कोविड-19 से लड़ने में HCQ से कोई लाभ नहीं है. बल्कि, इस दवा से दिल की धड़कन असामान्य होने और अस्पताल में कोविड-19 से मौत का ख़तरा बढ़ जाता है. लैंसेट की इस रिसर्च के बाद लोगों को हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन देने के ICMR के फ़ैसले का नए सिरे से ज़ोरदार विरोध होने लगा.

इसके अलावा प्रतिष्ठित पत्रिका, न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ़ मेडिसीन (NEJM) द्वारा 3 जून को प्रकाशित एक रिसर्च में पाया गया कि नए कोरोना वायरस से संक्रमित व्यक्तियों को HCQ देने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता. हालांकि इस अध्ययन में ये भी कहा गया कि सैद्धांतिक रूप से इस दवा के इस्तेमाल से ऐसे संक्रमण रुकने के संकेत मिलते हैं, जिनकी तस्दीक़ हो सके. न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ़ मेडिसीन ने इस बारे में और सबूत जुटाने की बात कही.

दिलचस्प बात ये है रि न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ़ मेडिसीन के अध्ययन में इस बात पर रिसर्च नहीं की गई, कि जो लोग कोरोना वायरस के संपर्क या इससे संक्रमित लोगों के संपर्क में नहीं आए हैं, उन्हें रोग प्रतिरोधक के तौर पर HCQ देने के क्या फ़ायदे या नुक़सान हैं. भारत में यही सबसे बड़े विवाद का केंद्र है. हालांकि, इस स्टडी में शामिल जिन 414 लोगों को हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन दी गई थी, उनमें दवा का कोई विपरीत प्रभाव देखने को नहीं मिला.

जब से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कोविड-19 के इलाज के लिए हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन को असरदार हथियार बताया था. तब से ही पूरी दुनिया में इस दवा की मांग में भारी वृद्धि हो रही थी. चूंकि, भारत इस दवा का सबसे बड़ा उत्पादक देश है. इसलिए भारत के लिए भी HCQ उसकी दवा कूटनीति का प्रमुख अस्त्र बन गई

बाद के दिनों में लैंसेट और NEJM के अध्ययनों को लेकर सवाल उठे. कहा गया कि जिन रिसर्चरों ने लैंसेट में अपनी स्टडी प्रकाशित की थी, उन्होंने आंकड़ों के साथ हेरा-फेरी की थी. बाद में दोनों ही लेखों को मुख्य लेखक द्वारा वापस ले लिया गया था. क्योंकि इन अध्ययनों के ज़्यादातर लेखकों ने कहा कि वो इन अध्ययनों के मूल आंकड़ों की प्रामाणिकता की गारंटी नहीं दे सकते. इसका अर्थ ये था कि HCQ के प्रभाव को लेकर आंकड़े जुटाने वाली कंपनी ने इनके साथ छेड़ छाड़ की थी. इस कंपनी का नाम था सर्जिस्फेयर कॉरपोरेशन. विवाद उठने के बाद सर्जिस्फेयर कॉरपोरेशन के सीईओ सपन देसाई ने दावा किया कि उनके आंकड़ों को इन अध्ययनों के लेखकों के साथ साझा नहीं किया गया. इसकी वजह उनके अपने ग्राहकों के साथ गोपनीयता की शर्त जुड़ी हुई थी.

जब से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कोविड-19 के इलाज के लिए हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन को असरदार हथियार बताया था. तब से ही पूरी दुनिया में इस दवा की मांग में भारी वृद्धि हो रही थी. चूंकि, भारत इस दवा का सबसे बड़ा उत्पादक देश है. इसलिए भारत के लिए भी HCQ उसकी दवा कूटनीति का प्रमुख अस्त्र बन गई. वैश्विक राजनीति, वैज्ञानिकों के बीच असहमति और लगातार बदलते आर्थिक लाभ के एजेंडों (दवा और वैक्सीन के विकास में हो रहे निवेश) के चलते हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन को लेकर परिचर्चा बेहद पेचीदा हो गई है.

2 जून को भारत की पत्रिका इंडियन जर्नल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक लेख में HCQ के इस्तेमाल के सबूतों की समीक्षा की गई थी. इस लेख में कहा गया था कि कोविड-19 की रोकथाम के लिए एहतियातन HCQ लेने के फ़ायदे या नुक़सान को लेकर कोई ठोस सबूत सामने नहीं आए हैं. इस समीक्षा में ये सुझाव भी दिया गया कि हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन को एज़िथ्रोमाइसिन के साथ लेना असुरक्षित है. अब तक जितने अध्ययन और घोषणाएं की जा चुकी हैं, उन्हें देखकर ये लगता है कि फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के लिए रोग निरोधक के रूप में HCQ का इस्तेमाल सिर्फ़ इस दवा के सस्ते होने के कारण किया जा रहा है. साथ ही साथ इसके विकल्प भी नहीं हैं. और, कोविड-19 के बढ़ते मामलों को देख कर हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन के इस्तेमाल को लेकर किसी ठोस रिसर्च के नतीजे आने का इंतज़ार नहीं किया जा सकता है.

लैंसेट के विवादास्पद अध्ययन के बाद, विश्व स्वास्थ्य संगठन और दुनिया भर में उससे संबंधित रिसर्च संस्थाओं ने HCQ का इस्तेमाल रोक दिया था. आज WHO के इस फ़ैसले की कड़ी आलोचना हो रह है कि उसने सॉलिडैरिटी ट्रायल को रोका क्यों. इस बीच, हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन को लेकर ICMR के निर्देश, राष्ट्रपति ट्रंप और विश्व स्वास्थ्य संगठन के बयानों के बाद इस दवा का बेतहाशा इस्तेमाल हो रहा है. इसे लेने वालों के जोखिम भरी सेहत के हालात की पड़ताल भी नहीं हो रही है. न ही दवा लेने वालों पर इसके साइड इफेक्ट की लगातार निगरानी हो रही है. ये सभी बातें बहुत चिंता पैदा करती हैं. भारत को लेकर तो ये और भी फ़िक्र की बात है. क्योंकि यहां लोगों की निगरानी की व्यवस्थाएं बेहद कमज़ोर हैं. ऐसा लगता है कि भारत सरकार ने HCQ के इस्तेमाल के जोखिमों की अनदेखी करके इसका इस्तेमाल जारी रखने का निर्णय लिया है.

आशंका इस बात की भी है कि हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन का इस्तेमाल तमाम देशों की सरकारों की नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए हो रहा हो. क्योंकि स्वास्थ्य कर्मियों को सरकार ज़रूरी सुरक्षा उपकरण (PPE) देने में असफल रही है. यहां तक कि विकसित देशों में भी स्वास्थ्य कर्मी PPE किट की कमी से जूझ रहे हैं. मिसाल के तौर पर NEJM के सर्वे में शामिल अमेरिका और कनाडा के 60 फ़ीसद स्वास्थ्य कर्मचारियों ने बताया कि वो कोविड-19 के मरीज़ों के पास जाने से पहले निजी सुरक्षा उपकरण नहीं पहनते हैं. भारत के लगभग सभी अस्पतालों में PPE किट की कमी की बात तो सबको पता है. ऐसे में हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन लेकर सुरक्षा का जो झूठा भरोसा जगता है, उससे लोगों को फ़ायदे के बजाय नुक़सान अधिक होता है. हालांकि, भारत में PPE किट के उत्पादन में तेज़ी से वृद्धि से इस डर को दूर किया जा सकता है. इसके बाद हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन के इस्तेमाल को लेकर हो रही चर्चा को कम प्रासंगिक बनाया जा सकेगा.

अब तक जितने अध्ययन और घोषणाएं की जा चुकी हैं, उन्हें देखकर ये लगता है कि फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के लिए रोग निरोधक के रूप में HCQ का इस्तेमाल सिर्फ़ इस दवा के सस्ते होने के कारण किया जा रहा है

कोविड-19 के खिलाफ़ जंग के अस्पष्ट होने और वैज्ञानिक समुदाय व स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा इसके इलाज के लिए वैक्सीन और असरदार दवाओं के सबूत मांगने से दवाओं पर हो रहे अध्ययनों में बड़े पैमाने पर हेरा-फेरी की आशंका बढ़ गई है. लैंसेट के अध्ययन पर उठा विवाद इस बात की पुष्टि करता है. दिलचस्प बात ये है कि लैंसेट के अध्ययन से अपने नाम वापस लेने वाले लेखकों ने अपना नाम वापस लेने वाली नोटिस के साथ जो घोषणा की थी, उसमें मूल लेख से ज़्यादा जानकारी थी. इससे पता चलता था कि इस स्टडी को लिखने वाले लेखकों के दुनिया की बड़ी दवा कंपनियों के साथ कारोबारी संबंध थे. और शायद अन्य दवा कंपनियां इस विवाद को और बढ़ावा दें.

अब चूंकि कोविड-19 ज़्यादातर मरीज़ों में अपने आप से ठीक हो जाने वाली बीमारी है. तो किसी भी दवा के वास्तविक प्रभाव का पता केवल गहराई से वैज्ञानिक रिसर्च करके ही लगाया जा सकता है. इस प्रक्रिया में अगर किसी के कारोबारी हित शामिल हो जाते हैं, तो उनका न सिर्फ़ सख़्ती से विरोध होना चाहिए. बल्कि ऐसा करने वालों को सज़ा भी दी जानी चाहिए. क्योंकि अनैतिक कारोबारी हित बहुत अधिक होते हैं. इनके लिए तमाम समुदायों के बीच वास्तविक और आभासी भय का हौव्वा खड़ा करके मुनाफ़ाखोरी करना आम बात है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.