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भाषायी श्रेष्ठता और अनुचित हस्तक्षेप की राजनीति की प्रतिकूल प्रतिक्रिया दार्जिलिंग और कलिंगपोंग जिलों में खलबली मची हुई हैं।
अलग गोरखा राज्य की मांग फिर उठने लगी है। नेपाली भाषी गोरखा लोगों को बंगाली पढ़ाने के पश्चिम बंगाल सरकार के अविवेकपूर्ण कदम ने लम्बे अर्से से शांत पड़ी गोरखालैंड की मांग को फिर से हवा दे दी है। पर्वतों में घुसपैठ करने और अब तक उनके लिए महफूज रहे राजनीतिक धरातल पर कब्जा जमाने के तृणमूल कांग्रेस के प्रयासों के कारण गोरखा उत्तेजित हैं। भाषायी श्रेष्ठता और अनुचित हस्तक्षेप की राजनीति की प्रतिकूल प्रतिक्रिया शुरू हो चुकी है तथा विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र वाले दार्जिलिंग और कलिंगपोंग जिलों के पहाड़ी क्षेत्रों में खलबली मची हुई हैं। अर्धसैनिक बलों की तैनाती से हालात पर काबू पाने में मदद नहीं मिल सकी है और भारतीय रक्षा बलों में बड़ी संख्या में गोरखा लोगों द्वारा सेवाएं प्रदान किए जाने के मद्देनजर सेना को बुलाना गलत कदम हो सकता है। कोलकाता और दिल्ली पर धीरे-धीरे सुलग रहे इस संघर्ष के क्या प्रभाव पड़ सकते हैं, उनके पास कौन से विकल्प हैं?
अगस्त 2016 में एनसीआर के एक न्यूज चैनल के एक सम्पादक से जब यह पूछा गया कि उन्होंने असम की बोडो पहाड़ियों में भड़की हिंसा की जगह एक नजदीकी शहर की मामूली सी घटना को कवर करने कई रिपोर्टर क्यों भेज दिये, तो उन्होंने सम्पादकीय निर्णय लेने में सीधे तौर पर हुई इस चूक का दोष तथाकथित ‘निर्मम दूरी’ पर मढ़ दिया। जरूरी नहीं कि उन्होंने यह बात मजाक में कही हो। ‘निर्मम दूरी’ लम्बे अर्से से फरक्का बैराज के पार स्थित भारत के उस हिस्से के बारे में नई दिल्ली की विकृत धारणा तथा घटनाक्रमों की निष्पक्ष वास्तविकता के बीच की खाई का कारण रही है।
इसीलिए पिछले हफ्त भर से, पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग और कलिंगपोंग जिलों के पहाड़ जब अलग गोरखा राज्य या गोरखालैंड की नए सिरे से उठी मांग के कारण धधक रहे हैं, तो नई दिल्ली में वहां के हालात को लेकर सतर्कता तो बहुत दूर की बात है, नाममात्र की या बिल्कुल भी चिंता नहीं है। इन शांत, खूबसूरत पहाड़ियों में फिर से 1986 और 1988 के बीच भड़की हिंसा की तरह बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का दौर दोबारा शुरू हो चुका है। नाराज लोग रोज़ाना सड़कों पर उतर रहे हैं, कानून और व्यवस्था बहाली के लिए तैनात सेना और अर्धसैनिक बलों के कर्मियों की अवहेलना कर रहे हैं। दुकानें बंद हैं, होटल बंद हैं, कारोबार बंद हैं और बैकों के एटीएम खाली पड़े हैं, वह भी ऐसे समय में, जब लाखों पर्यटक दार्जिलिंग, कुर्सियांग और कलिंगपोंग का रुख करते हैं। यह सचमुच ऐसे असंतोष की गर्मियां है, जिसके अनिष्टकारी पूर्वाभास को केवल भारत की चिंताओं की सूची को और लम्बा करने का जोखिम उठाकर ही नजरंदाज किया जा सकता है। खासतौर पर इसलिए क्योंकि यह राष्ट्रीय सुरक्षा सरोकारों को गंभीर खतरे में डाल सकता है।
भारत के मानचित्र पर सरसरी निगाह डालने पर इसकी वजह समझ में आ जाती है: दार्जिलिंग जिला सिलीगुड़ी गलियारे के दोआर या जिसे “चिकन्स नेक” कहकर पुकारा जाता है, से शुरू होता है। नेपाल और बांग्लादेश से अलग होता इसका सबसे संकरा हिस्सा 27 किलोमीटर से भी कम है और वह भारत को आठ पूर्वोत्तर राज्यों से जोड़ता है तथा सिक्किम के बाद सरहद तक का अकेला मार्ग है। पहाड़ों में असंतोष सुलगने देने का आशय “चिकन्स नेक” का दम घुटने का जोखिम उठाना हो सकता है, भारत ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होने दे सकता। भारत की सामरिक भौगोलिक स्थिति की यह कमजोर कड़ी खुद को मुसीबत में डालने के लिए मशहूर सामान्य संदिग्धों की ताकत हो सकती है।
असंतुष्ट और नाखुश लोगों का नेतृत्व करने वालों को ‘सिस्टम’ में सम्मिलित करने के व्यवहारिक तरीकों के जरिये पहचान से जुड़ी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को शांत करने वाली ग्रेट इंडियन रोप ट्रिक संभवत: दार्जिलिंग में पनपकर खुद ही खत्म हो गई। सुभाष घीसिंग, जिन्होंने अलग होने की मांग की अगुवाई की और जिनके गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) ने 1980 के दशक के आखिर में दो साल से ज्यादा अर्से तक तबाही मचाई, उन्हें पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्र सरकार द्वारा 1988 में त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के दौरान अपने में सम्मिलित कर लिया गया। इस समझौते ने दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद (डीजीएचसी) की स्थापना का प्रावधान किया, जिसे संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत स्वायत्तता मिलनी थी, लेकिन उसे पश्चिम बंगाल सरकार के विधायी नियंत्रण में रहना था।
घीसिंग डीजीएचसी के अध्यक्ष बन गए और उसके बाद जो हुआ, उसका अनुमान पहले से था: परिषद को जिस ‘स्वायत्तता’ की गारंटी दी गई थी, वह झूठ साबित हुई, लेकिन वह पर्याप्त धनराशि नहीं, जो उसको प्रदान की गई थी। सम्मिलित होने के बाद सहयोग की स्थिति बनी, जो वास्तविक और महसूस होने वाले दोनों तरह के — भ्रष्टाचार को अपने साथ लेकर आई। घीसिंग, लोकप्रिय हीरो से जल्द ही लोकप्रिय विलेन बन गए। 2015 में उनका निधन होने तक उनकी प्रतिष्ठा तार-तार हो चुकी थी और उनकी धरोहर की धज्जियां उड़ चुकी थीं। उनकी कहानी सगिना महतो के उत्थान और पतन से अलग नहीं थी।
इस बीच, 2007 में, बिमल गुरुंग के नेतृत्व में घीसिंग के करीबी विश्वासपात्र बदनाम हो चुके जीएनएलएफ से बाहर निकल आए और उन्होंने अपने संगठन गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) की शुरूआत की। इस संगठन ने अस्तित्व में आते ही 40 दिन का बंद रखा और इसने जनता से सरकार को अपने बिल या राजस्व का भुगतान नहीं करने का आह्वान किया। गुरुंग और उनके सहयोगियों ने फिर से, लेकिन बदली हुई रणनीति के साथ गोरखालैंड की मांग करनी शुरू कर दी। कलकत्ता उनकी मनचाही मुराद पूरी नहीं करता, इसलिए वे दिल्ली में अपना मामला उठाने के लिए भाजपा तक जा पहुंचे। नेता प्रतिपक्ष होने के नाते एल.के.आडवाणी ने उनकी बात गौर से सुनी। वाजपेयी सरकार में गृहमंत्री के रूप में छोटे राज्यों के प्रबल समर्थक होने के कारण उन्होंने झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ की स्थापना का प्रबंध किया था और वे तेलंगाना और विदर्भ दोनों के समर्थक थे — उन्हें गोरखालैंड के मामले में फायदा दिखाई दिया। गुरुंग उपयोगी राष्ट्रीय सहयोगी की तलाश में थे, आडवाणी भाजपा की लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ाना चाहते थे। वह 2009 था और और उनके प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद थी। जसवंत सिंह को ऐन मौके पर और भाजपा का चुनाव घोषणा पत्र जारी होने से महज चंद दिन पहले दार्जिलिंग से भाजपा का जीजेएम समर्थित उम्मीदवार बनाया गया। उससे पहले तक ममता बेनर्जी के नेतृत्व वाले तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के साथ गठबंधन वाली भाजपा, बंगालियों की दुखती रग —पश्चिम बंगाल से गोरखालैंड बनाए जाने के प्रति आधिकारिक रूप से अनिच्छा जाहिर कर चुकी थी।
गोरखालैंड के लिए भाजपा दर्शाने के लिए आडवाणी को अस्पष्ट भाषा में 2009 के चुनाव घोषणापत्र में संशोधन करना पड़ा: “हम दार्जिलिंग जिले और दोआर क्षेत्र के गोरखाओं, आदिवासियों और अन्य लोगों की काफी अर्से से लंबित मांगों पर सहानुभूतिपूवर्क और उचित प्रकार से विचार करेंगे।” जसवंत सिंह ने अपनी रैलियों में उत्साह से उमड़ी भीड़ को बताया कि किस तरह सत्ता में आने पर भाजपा संविधान में संशोधन कर गोरखाओं की इच्छा के मुताबिक उनके लिए राज्य की स्थापना करेगी और कोलकाता में बैठी सरकार को निष्प्रभावी करेगी। उन्होंने वादा निभाने के लिए अपनी रेजिमेंट के आदर्श वाक्य ‘इज्जत ओ इकबाल’ (सम्मान और गौरव) को दांव पर लगा दिया। भाजपा यह चुनाव हार गई , आडवाणी कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सके, मतों के बड़े अंतर से जीतने वाले जसवंत सिहं दोबारा कभी दार्जिलिंग नहीं लौटे, कम से कम हिमालय की गोद में बसने के लिए तो कभी नहीं, जिसका वादा उन्होंने चुनाव जीतने से पहले मतदाताओं से किया था।
गुरुंग खुद को बचाने के लिए बाहर हो गए, आंदोलन शुरू कर दिया। दो साल तक यह आंदोलन रूक-रूक कर चलता रहा। 2011 की गर्मियों में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सत्ता से बाहर हो गया और ममता बेनर्जी की टीएमसी सत्ता में आ गई। जुलाई 2011 में गुरुंग ने घीसिंग जैसा कदम उठाते हुए उसी तरह के एक त्रिपक्षीय समझौते पर दस्तखत कर दिये, जिसकी बदौलत दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद की जगह गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) ने ले ली। गुरुंग की यह सोच बेकार साबित हुई कि जीटीए, डीजीएचसी से तीन गुणा ज्यादा शक्तिशाली साबित होगी। परिषद का केवल 19 विभागों पर नियंत्रण था, जबकि जीटीए का शिक्षा और कृषि सहित 59 विभागों पर नियंत्रण होगा। जीटीए का नियंत्रण दार्जिलिंग से दोआर तक होगा। उसके बाद हुए चुनावों में जीजेएम सभी 45 सीटें जीत गई और गुरुंग उसके प्रमुख बन गए।
घीसिंग की तरह, गुरुंग को जल्द ही अपने साथ हुए धोखे का अहसास हो गया। जिस ईनाम को पाने की खातिर उनके लोगों ने संघर्ष किया था, उसकी जगह जीटीए उन्हें महज खुश करने के लिए तोहफे के तौर पर सौंप दी गई थी। वित्तीय अधिकार डिस्ट्रिक्ट मेजिस्ट्रेट के पास ही रहे और निर्णय लेने का अधिकार कोलकाता में पश्चिम बंगाल सरकार के सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग्स के हाथ रहा। गोरखालैंड आंदोलन की शुरूआत से ही (कुछ लोगों का कहना है कि 1907 में पहली हिलमेन्स एसोसिएशन ने पहली बार पर्वतीय जनता के लिए अलग मातृभूमि की मांग की थी) उसे कमजोर बनाती आई गुटीय राजनीति ने उनकी राह में अड़चने पैदा कीं और जिस जगह घीसिंग नाकाम हुए थे, वहीं से आगे बढ़ पाने की उनकी बची-खुची संभावनाएं भी खत्म कर दी। जीटीए के कामयाब होने के कोई आसार न थे। अपने पिछले स्वरूप के समान, यह तथाकथित ‘स्वायत्त’ संस्था भी वास्तविक मामलों: जातीय पहचान द्वारा चिन्हित राजनीतिक महत्वाकांक्षा तथा ‘बंगाल-बंगाली शासन’ का अंत देखने की इच्छा को पूरा कर पाने में नाकाम रही।
ममता बेनर्जी की योजनाएं कुछ अलग थीं। उन्होंने गोरखाओं के क्षेत्र पर अतिक्रमण करना शुरू किया, गुरुंग के कामकाज की निरंकुश शैली से असंतुष्ट स्थानीय नेताओं के साथ गठबंधन करने शुरू किए। उन्होंने जीएनएलएफ के बचे-खुचे लोगों के साथ गठबंधन किया और 2016 के विधानसभा चुनाव के दौरान पहला कदम उठाया। धीरे-धीरे उन्होंने इस साल के नगर निगम चुनावों में टीएमसी की पैंठ बढ़ाई और जीएनएलएफ की मदद से पर्वतीय क्षेत्र में चारों निगमों में से सबसे छोटे मिरिक पर कब्जा जमा लिया। टीएमसी को दार्जिलिंग, कलिंगपोंग और कुर्सियांग में भारी नुकसान हुआ, लेकिन इसके बावजूद उसने टीएमसी की जीत का बढ़-चढ़कर जश्न मनाया। इससे बहुत से परस्पर विरोधी गुट खुद को इतना कमजोर समझने लगे कि उन्हें एकजुट होना पड़ा।
उत्तेजना का समय 15 मई को आया, जब राज्य शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी ने पश्चिम बंगाल के सभी स्कूलों में बंगाली को अनिवार्य विषय बनाते हुए त्रि-भाषा नीति की घोषणा की। एक दिन बाद ममता बेनर्जी ने दोहराया कि ऐसा बिना किसी भेदभाव के किया जाएगा। नाखुश गुरुंग ने इस मौके का इस्तेमाल अलग गोरखालैंड की मांग को दोबारा सुलगाने में किया। जहां भारत में गोरखाओं की पहचान मोटे तौर पर धर्म, भाषा के बाद — सबसे ज्वलंत मामले के रूप में परिभाषित की गई है — वहीं गोरखालैंड में उसे संरक्षित किया जाएगा और वह ‘बाहरी’ लोगों यानी ‘बंगालियों’ द्वारा रौंदी नहीं जाएगी। शिथिल आंदोलन में फिर से नई जान आ गई और ममता बेनर्जी को यह स्पष्टीकरण देकर आग बुझानी पड़ी कि दार्जिलिंग के स्कूलों को नए नियम से छूट दी जाएगी और राज्य लोक सेवा परीक्षाओं में (जो अजीबोगरीब रूप से अभ्यर्थियों को वैकल्पिक विषय के रूप में अरबी, फारसी और फ्रेंच का चयन करने की इजाजत देती है) नेपाली (गोरखली) को वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल करने की पेशकश करनी पड़ी। लेकिन इससे उनके रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। लोगों का गुस्सा इतना बढ़ा कि जीएनएलएफ ने भी टीएमसी को छोड़ अपने घोर शत्रु गुरुंग का दामन थाम लिया।
“बंगाल का विभाजन” न होने देने की शपथ लेने वाली और प्रदर्शनकारियों को “आतंकवादी” बताकर खारिज करने वाली ममता बेनर्जी ने मई के मध्य से कड़ा रुख अपना रखा है।8 जून को, प्रदर्शनकारी गोरखा लोगों पर आंसूगैस छोड़े जाने और लाठीचार्ज किए जाने से हिंसा के हालात बन गए, जो तब से जारी है। 17 जून को, सुरक्षाबलों की गोलीबारी में तीन प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई, क्रोधित भीड़ ने एक पुलिसकर्मी को चाकू घोंप दिया, हालात बिगड़ चुके हैं। निष्क्रिय जीटीए का पांच साल का कार्यकाल पूरा हो चुका है और कोलकाता से लाए गए प्रशासनिक अधिकारी उसे नियंत्रण में ले चुके हैं। यदि ममता बेनर्जी जीटीए पर टीएमसी पर के नियंत्रण की योजना बना रही थीं, तो उनकी योजना विफल हो चुकी है। नए चुनाव जल्द होने पर संदेह हैं।
इसका निष्कर्ष यह है कि यह पूरे पश्चिम बंगाल को टीएमसी के प्रभाव में लाने संबंधी ममता बेनर्जी की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ विद्रोह है। अब तक अलिखित नियम यह रहा है कि दार्जिलिंग, कुर्सियांग, कलिंगपोंग और मिरिक, दोआर तक का पहाड़ी और मैदानी इलाका, गोरखा लोगों के लिए छोड़ दिया जाए। यदि ममता बेनर्जी ‘जीजेएम-मुक्त दार्जिलिंग’ का प्रयास कर रही हैं, तो वे केवल उन लोगों को ‘टीएमसी-मुक्त दार्जिलिंग’घोषित करने के लिए उकसाने का काम कर रही हैं, जो महसूस करते हैं कि उनकी जगह पर अतिक्रमण किया गया है। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की आंच को और तेज करने का काम उन्होंने ‘बांटो और शासन करो’ की नीति के तहत प्रत्येक जनजाति के लिए पृथक 15 विकास बोर्डों का गठन करके किया। गोरखा इसे अपनी सामूहिक पहचान और अपने लोगों को इच्छा को कमजोर बनाने के प्रयास के रूप में देख रहे हैं।
गोरखालैंड की मांग यूं तो 1980 के दशक के मध्य में व्यक्त हुई, लेकिन इसका उद्गम 1949 की भाषा संबंधी जनगणना की दोषपूर्ण रिपोर्ट में है, जो भाषायी राज्यों की स्थापना से पहले कराई गई थी। इस जनगणना में पाया गया कि दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में केवल 49,000 लोग गोरखली बोलते हैं और इसलिए बंगाल से अलग करके कोई भाषायी राज्य बनाए जाने की जरूरत नहीं है।गोरखा लोगों का कहना है कि वह संख्या वास्तविकता नहीं दर्शाती — वहां लेप्चा, भोटिया और तमांग जैसी कई जनजातियां हैं, जिनकी अपनी बोली है, इसके बावजूद नेपाली पर्वतीय क्षेत्र की सामान्य भाषा रही है।
लेकिन यह सब बीते जमाने की बात है। अब न ही यह महत्वपूर्ण रह गया है कि संविधान की आठवीं अनुसूची नेपाली को सिक्किम और दार्जिलिंग की राजभाषा के रूप में सूचीबद्ध करती है। नेपाली माध्यम वाले सरकारी स्कूलों में समय पर पश्चिम बंगाल सरकार से पाठ्य पुस्तकें न पहुंचने जैसी पुरानी शिकायतें एक बार फिर से सामने आने लगी हैं। यह ‘गोरखा गौरव’ बनाम ‘बंगाली श्रेष्ठतावाद’ है।भारत के पूर्वोत्तर में अन्य स्थानों पर जो हुआ, यह उसी का दोहराव है, जहां अतीत में खासतौर असम और मणिपुर में लोगों ने बंगाली भाषा की कल्पित श्रेष्ठता स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। पहचान, भाषा और क्षेत्रीय नियंत्रण का मिला-जुला रूप इस समय पर्वतीय क्षेत्र में हो रहे गोरखालैंड आंदोलन का प्रेरक बल है।
हालांकि यह गुस्सा बंगालियों के प्रति मूल नफरत में बदला है — क्योंकि अनेक बंगाली परिवार पर्वतीय क्षेत्रों में रह रहे हैं और उन्हें कभी निशाना नहीं बनाया गया है, न तो अतीत में और न ही वर्तमान में। दार्जिलिंग में प्रमुख बंगाली स्वर गोरखालैंड की मांग के समर्थक हैं, वहां के ‘निवासियों’ को कभी वहां विस्थापित होकर जाना नहीं पड़ा है। यह बात बंगाल के निवासी और गैर निवासी लोगों की ओर से फेसबुक पर मूर्खतापूर्ण और अपरिपक्व सब-नेशलिज्म व्यक्त करते शत्रुता भरे और नस्ली पोस्ट्स के बिल्कुल उलट है। यकीनन इससे गुस्सा शांत नहीं होगा, बल्कि दार्जिलिंग की अलग होने की मांग को ही स्वीकृति मिलेगी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार इस समय भले ही गोरखालैंड आंदोलन से मुंह मोड़ सकती हो, लेकिन ऐसे आंखें फेर लेने से कुछ हासिल नहीं होगा, यह समस्या खत्म नहीं होगी, या तो यह और ज्यादा विकराल हो जाएगी या फिर तब तक नासूर बनी रहेगी, जब तक भारत के भीतर अलग राज्य की मांग केंद्र से अलग होने की मांग में परिणत नहीं हो जाती। चीन या नेपाल में बैठे उसके प्रतिनिधियों के लिए इससे बढ़कर खुशी की और कोई बात नहीं होगी।
भाजपा के लिए, गोरखालैंड को बढ़ावा देना टीएमसी के खिलाफ अपनी राजनीतिक जंग को सीधे टकराव में बदलने की सूरत में ही आकर्षक होगा। पार्टी के 2014 के घोषणा पत्र में 2009 का ही वादा दोहराया गया है “वह दार्जिलिंग जिले तथा दोआर क्षेत्र के गोरखा, आदिवासी और अन्य लोगों की काफी अर्से से लम्बित मांग की सहानुभूतिपूर्वक जांच और उचित रूप से विचार करेगी।”
इस प्रतिबद्धता के मद्देनजर, लोक सभा में इस समय दार्जिलिंग का प्रतिनिधित्व करने वाले और मोदी सरकार में जूनियर मंत्री एस.एस. अहलुवालिया पर इस बात का बेहद दबाव है कि वह भाजपा से गोरखा लोगों की अपेक्षाओं के मुताबिक कार्य करें।लेकिन इसमें एक दुविधा है। गोरखालैंड के लिए ज्यादा जोर देना, भाजपा को बंगाली मतदाताओं से दूर कर देगा, इसलिए यह बात टीएमसी के नेतृत्व वाले क्षेत्र में घुसपैठ करने की उसकी योजना में रुकावट डालती है। राजनीतिक वफादारियों की परवाह न करते हुए, बंगालियों की काफी बड़ी संख्या गोरखालैंड की मांग की खूबियों के बारे में चर्चा करने की इच्छुक तक नहीं है: दार्जिलिंग के बारे में उनका मानना है कि वह पश्चिम बंगाल से संबंधित है। यही बात भाजपा को हेमलेट जैसी दुविधा में डालती है और शायद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की गहरी टिप्पणी “अलग गोरखालैंड राज्य के बारे में हमने अब तक अपना रुख तय नहीं किया है” की व्याख्या भी करती है।
इसके अलावा, कुछ अन्य कारकों पर भी विचार करने की जरूरत है। क्या गोरखालैंड को पूर्ण राज्य का दर्जा देना प्रशासनिक तौर पर तर्कसंगत होगा? या उसे संघ शासित प्रदेश होना चाहिए? कूच-राजबोंगशिस द्वारा इसी तरह की मांग करने या बोडो द्वारा बोडोलैंड के लिए के आवाज उठाने के राजनीतिक आशय क्या होंगे? या विदर्भ के भी अलग होने की मांग करने वालों में शरीक होने पर क्या होगा? प्रस्तावित गोरखालैंड की सामरिक स्थिति अपने आप में सुरक्षा से संबंधित मामले उठाती है। ऐसा क्षेत्र जहां का इतिहास और पहचान संघर्षपूर्ण हो, वहां आसान समाधान नहीं तलाशा जा सकता।
1966 की गर्मियों में, अमेरिकन सोशलाइट से सिक्किम के दुर्भाग्यशाली 12वें चोग्याल की ग्यालमो या क्वीन ऑफ कॉन्सर्ट बनी होप कुक ने नामग्याल इंस्टीट्यूट ऑफ तिब्बतोलॉजीस बुलेटिन में प्रकाशित एक लेख में यह लिखकर नई दिल्ली में रोष फैला दिया कि दार्जिलिंग पर भारत का अधिपत्य ईस्ट इंडिया कम्पनी को त्सुगफुड नामग्याल की ओर से ‘उपहार’ था। स्टेट्समेन के पूर्व सम्पादक सुनंदा के. दत्ता-रे ने अपनी पुस्तक ‘स्मैश एंड ग्रैब: अनैक्शन ऑफ सिक्किम’ में लिखा है कि होप ने किस तरह दलील थी कि ‘सिक्किम के किसी भी सम्राट के पास क्षेत्र को हस्तांतरित करने का अधिकार नहीं था।’
होप कुक के अनुसार, कम्पनी को त्सुगफुड नामग्याल का यह उपहार “परम्परा के संदर्भ में केवल भोगाधिकार के रूप में दिया गया था, असली अधिकार, इख्तियार और भूमि को दोबारा प्राप्त करने का अधिकार निश्चित तौर पर अपने पास रखा गया था।” उन्होंने दावा किया, “दार्जिलिंग को सौंपा जाना किसी खास मकसद के लिए दिया गया खास तरह का उपहार था और इसका अर्थ सम्प्रभु अधिकारों का हस्तांतरण नहीं था।”
ग्यालमो द्वारा चोग्याल के अविभाज्य अधिकारों का दावा किए जाने का तात्कालिक संदर्भ, एक षडयंत्र था जो काजी और अन्य स्थानीय लोगों की मदद से नई दिल्ली द्वारा रचा जा रहा था, ताकि सिक्किम पर भारत के अधिपत्य को सम्प्रभुता में परिवर्तित करते हुए गंगतोक को पूर्ण नियतंत्र के दायरे में लाया जा सके। उसके बाद जो हुआ वह सर्वविदित है: सिक्किम का विलय कर लिया गया और उसे भारत का अंग बना दिया गया, चोग्याल के सभी अधिकार छिन गए और एक हारे हुए इंसान की तरह उनका निधन हुआ और होप कुक, चोग्याल से अलग होने के बाद अमेरिका लौट गई। वे अब ब्रूकलिन हाइट्स, न्यूयार्क में रहती हैं।
मौजूदा हालात में ये बातें कोई मायने नहीं रखतीं। हालांकि दार्जिलिंग का इतिहास प्रासांगिक है,जहां गोरखालैंड की मांग नए सिरे से उठ रही है। इतिहास बताता है कि किस तरह सिक्किम की सीमाएं एक समय में पूर्वी नेपाल तक फैली हुई थीं, कैसे पृथ्वी नारायण शाह ने आपस में दुश्मनी रखने वाले कबीलों और संघर्षरत क्षेत्रों को एक साथ जोड़कर विस्तृत साम्राज्य बनाया, दार्जिलिंग पर कब्जा किया और किस तरह गोरखा लोगों के खिलाफ जनरल ऑक्टरलोनी के अभियान के परिणामस्वरूप 1816 में सुगौली की संधि हुई, जब नेपाल को दार्जिलिंग सहित 10,000 वर्ग किलोमीटर इलाका ईस्ट इंडिया को सौंपना पड़ा। यहीं नेपाल और भारत दोनों जगहों पर, गोरखा लोगों के लिए इतिहास का आरंभ और अंत होता है, जो गोरखालैंड की मांग कर रहे हैं। इस लोककथा ने यह सुनिश्चित किया है कि गोरखा ये कभी न भूलें कि दार्जिलिंग नेपाली क्षेत्र था, जो ब्रिटिश लोगों को दिया गया था, इसलिए वह हर हाल में उन्हें लौटा दिया जाना चाहिए। यहीं से उनकी राजनीतिक पहचान की तलाश शुरू होती है।
लेकिन इतिहास महज इतनी कहानी नहीं सुनाता, बल्कि यह भी बताता है कि सुगौली की संधि के बाद 1817 में तितिलिया की संधि भी हुई थी, जिसके द्वारा ब्रिटिश लोगों ने मेची और तीस्ता नदियों के बीच की जमीन फिर से सिक्किम जिससे वे कानूनी तौर पर संबंधित थी, के लिए प्राप्त कर ली। 18 साल बाद, तत्कालीन चोग्याल ने दार्जिलिंग अंग्रेजों को पट्टे पर दे दिया, जो वहां की शांत और वनीय जलवायु में सैनटोरीअम बनवाना चाहते थे। संक्षिप्त पट्टा समझौते पर 1 फरवरी, 1835 में हस्ताक्षर किए गए, जिसमें चोग्याल का उल्लेख ‘सिक्किमपुत्ते राजा’ के रूप में किया गया। बंगाल गजट से हमें पता चलता है कि 1841 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने चोग्याल को 3000 रुपये का मुआवजा दिया, जिसे बाद में बढ़ाकर 6000 रुपये कर दिया गया।
इस तरह एक निर्जन पहाड़ी क्षेत्र दार्जिलिंग या जो कभी दोर्जिलिंग कहलाता था, बस गया। ब्रिटिश प्रशासकों को ‘मूल निवासियों’ की जरूरत थी, जो दार्जिलिंग को बेहद खूबसूरत टाउन बनाएं और संवारें । कुछ भोटिया और लेप्चा लोग पहले से ही वहां रहते थे, अन्य सिक्किम से आ गए। बुवाई करने वालों ने जब चाय के बागानों के लिए जंगल साफ कर दिये तो मजदूरों की मांग बढ़ने लगी और दार्जिलिंग की चाय बहुत बड़े राजस्व का जरिया बन गई। आज के झारखंड से आए जनजातीय लोगों की ही तरह गोरखा लोग भी यहां बागानों में कुली का काम करने के लिए आए। वे पत्तियां तोड़ते थे और टी-क्यूरिंग और पैकेजिंग फैक्ट्रियों में पालियों में काम करते थे। बंगालियों को चाय बागानों, नगर प्रशासन और अन्य प्रतिष्ठानों में बाबु (क्लर्क) के रूप में रोजगार मिला। उदाहरण के तौर पर मिशनरीज के स्कूल पहले एंग्लो-इंडियन परिवारों के बच्चों के लिए खोले गए थे।
1907 में हिलमैन्स एसोसिएशन ने ब्रिटेन से बंगाल से मुक्त अलग प्रशासनिक ढांचा स्थापित करने की मांग को लेकर याचिका दाखिल की, याचिका की तिरस्कारपूवर्क अनदेखी की गई। आजादी के बाद और राज्यों के पुनर्गठन के समय, उपर दिए गए कारणों से दोआर सहित दार्जिलिंग पश्चिम बंगाल का अंग बन गया। दार्जिलिंग तब से अलग जिले (जिससे कलिंगपोंग जिला बनाया गया) के रूप में नामित है, तलहटी में सिलीगुड़ी, जलपाईगुड़ी जिले का अंग है और दोआर कूचबिहार जिले का अंग है। दार्जिलिंग, सिलिगुड़ी और दोआर के गोरखा 1950 में भारत के नागरिक बन गए। इस बात को शामिल करने और उनकी नागरिकता के बारे में किसी तरह की अस्पष्टता दूर करने के लिए एक अलग गेजेट नोटिफिकेशन जारी की गई।
कलकत्ता और नई दिल्ली ने भले ही दार्जिलिंग और सिक्किम के विलय के बाद, गंगतोक के मसले को सुलझा हुआ मसला मना लिया हो, लेकिन गोरखा लोगों ने ऐसा नहीं माना। उनके जख्म कभी नहीं भरे, वे आए दिन रिसते रहते हैं और अगर इन पर मरहम नहीं लगाया गया और इनका इलाज न किया गया तो ये लोगों के लिए, भारत के लिए आज नहीं तो कल त्रासद परिणामों का कारण बनेंगे।
कंचन गुप्ता एक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक टीकाकार हैं जो नेशनल कैपिटल रीजन में रहते हैं।
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