जलवायु परिवर्तन के कारण विकासशील देशों द्वारा उठाए जाने वाले घाटे और क्षति को लेकर परिचर्चाओं और उसके लिए पूंजी की व्यवस्था स्थापित करने और मुआवज़ा देने से जुड़ी परिचर्चाओं को तीन दशकों तक टालते रहने के बाद आख़िरकार संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ताएं एक महत्वपूर्ण आम सहमति बनाने में सफल रहीं. हालंकि, जलवायु परिवर्तन से निपटने की कार्रवाई में आगे की राह के लिए विवादित सवालों के कांटे अब भी बिछे हुए हैं.
आज दुनिया पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की मार बढ़ती जा रही है. लेकिन, इन दुष्प्रभावों को कम करने (mitigation) और नई परिस्थितियों के हिसाब से ढलने (adaptaion) के प्रयासों की गति बहुत धीमी है. इसका नतीजा ये हुआ है कि, जिन विकासशील देशों ने ग्रीनहाउस गैसों (GHG) के उत्सर्जन में शायद सबसे कम योगदान दिया है, उन्हें जलवायु परिवर्तन के कारण भयंकर घाटे और नुक़सान का सामना करना पड़ रहा है. इन क्षतियों में घर और मूलभूत ढांचों की बर्बादी, रोज़ी-रोटी और खेती की ज़मीनों की तबाही और तेज़ी से मिटती जा रही सांस्कृतिक विरासत शामिल है. अब इन सबको आर्थिक और ग़ैर-आर्थिक नुक़सानों में वर्गीकृत किया जा रहा है. विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन से घाटे और क्षति का आर्थिक मूल्य वर्ष 2050 तक 1 से 1.8 ख़रब डॉलर तक पहुंचने की आशंका है.
जिन विकासशील देशों ने ग्रीनहाउस गैसों (GHG) के उत्सर्जन में शायद सबसे कम योगदान दिया है, उन्हें जलवायु परिवर्तन के कारण भयंकर घाटे और नुक़सान का सामना करना पड़ रहा है.
हाल ही में पाकिस्तान में आई भयंकर बाढ़ के बाद वहां की सरकार ने इस क़ुदरती आपदा से 40 अरब डॉलर का नुक़सान होने का अंदाज़ा लगाया था. जिसके चलते पाकिस्तान की सरकार को दुनिया भर के क़र्ज़दाताओं से वित्तीय मदद की गुहार लगानी पड़ी थी. प्राकृतिक आपदाओं के ऐसे ही संकट हमने दुनिया कई हिस्सों में देखे. कीनिया, यूरोप और दक्षिणी चीन सूखे, और भयंकर गरमी के शिकार हुए तो अमेरिका में चक्रवाती तूफ़ानों ने तबाही मचाई. समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के कारण, प्रशांत क्षेत्र के कई द्वीपों के निवासियों को अपना देश छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ा. आज जब जलवायु परिवर्तन से आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के जोखिम और उनसे निपटने में हमारी कमज़ोरियां बढ़ती जा रही हैं, तो बहुत से विकासशील देश जलवायु वित्त की ऐसी व्यवस्था की मांग कर रहे हैं, जो विशेष रूप से घाटे और क्षति से निपटने के लिए बनाई गई हो.अतीत में जलवायु वित्त का विषय संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलनों की वार्ताओं का एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑफ़ क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) में घाटे और क्षति के वित्त के मुद्दे को पहली बार शर्म अल-शेख़ में हुई 27वीं कॉंफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ (COP27) में औपचारिक एजेंडे के विषय के तौर शामिल किया गया. वैसे तो UNFCCC के तहत घाटे और क्षति के वित्त से जुड़ी परिचर्चाओं पर बातचीत और 2015 के पेरिस जलवायु समझौते का पूरी दुनिया में स्वागत किया गया है. लेकिन, इस विषय विशेष के लिए अलग से वित्तीय सुविधा की स्थापना हमेशा से विवाद का मसला रही है.
वैसे तो इसे अफ्रीका में ‘लागू किए जाने वाले सम्मेलन’ के तौर पर प्रचारित किया गया, क्योंकि अफ्रीका पहले से ही जलवायु परिवर्तन के कारण घाटे और क्षति से जूझ रहा है. लेकिन, ये सम्मेलन तमाम बड़ी उम्मीदों और कई अनसुलझे मुद्दों के साथ समाप्त हुआ. विकासशील देश, UNFCCC के तहत घाटे और क्षति के लिए एक फंड या व्यवस्था कि स्थापना को लेकर अड़े रहे, जो पेरिस जलवायु समझौते से मेल खाता हो और जिसे संयुक्त राष्ट्र की संधि के दिशा निर्देशों के दायरे में संस्थागत बनाया जाए.
एक नज़र:
विकासशील देशों के लिए घाटे और क्षति के लिए वित्त जुटाने के विचार की जड़ें 1992 तक जाती हैं, जब छोटे द्वीपीय देशों के गठबंधन (AOSIS) ने समुद्र का जल स्तर बढ़ने से हो रहे नुक़सान की भरपाई के लिए पहली बार एक वित्तीय व्यवस्था बनाने की मांग उठाई थी. वैसे तो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई. लेकिन, इस मांग से दुनिया भर में घाटे और क्षति (L&D) को लेकर बातचीत ज़रूर शुरू हो गई. इससे पहले भी L&D के लिए वित्त जुटाने के असफल प्रयास किए गए हैं. इनमें 2013 में घाटे और क्षति के लिए वार्सॉ इंटरनेशनल मैकेनिज़्म (WIM) की स्थापना करने जैसी कोशिशें भी शामिल हैं. ये व्यवस्था COP के तहत स्थापित की गई थी. लेकिन, ये अपेक्षा की गई थी कि इसे CMA के तहत बढ़ाया और मज़बूत बनाया जाएगा. इसके चलते WIM के प्रशासन के ढांचे पर सवाल उठने लगे.
L&D वित्त की परिकल्पना और उसी व्यवस्था करने हमेशा से ही चिंता का विषय रहा है. घाटे और नुक़सान की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं है. न ही UFCCC के तहत विकासशील देशों में L&D के वित्त की आवश्यकता से जुड़ी जानकारी संस्थागत तरीक़े से जुटाने की कोई व्यवस्था है.
इसके बाद घाटे और क्षति को पेरिस जलवायु समझौते की धारा 8 में शामिल किया गया. इसमें न केवल ‘जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली क्षति और घाटे को टालने, कम करने या उससे निपटने’ की अहमियत पर ज़ोर दिया गया था, बल्कि ये भी डिसीज़न 52 के विवादित तत्वों को भी हटाने की बात कही गई थी. इस फ़ैसले के तहत संबंधित पक्ष इस बात पर सहमत हुए थे कि घाटे और क्षति के लिए किसी वैधानिक मुआवज़े या जवाबदेही की आवश्यकता नहीं है. मैड्रिड में हुए जलवायु सम्मेलन (COP25) के दौरान विकासशील देशों ने WIM के प्रशासन के लिए मज़बूत संस्थागत व्यवस्थाएं बनाने की मांग की थी. इसके बाद घाटे और क्षति के लिए सैंटियागो नेटवर्क की स्थापना की गई थी और जिससे आख़िरकार घाटे और क्षति के मामले में कार्रवाई और मदद के लिए एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया गया था. दुनिया के 134 विकासशील देश, G77, चीन और छोटे द्वीपीय देशों द्वारा इसके लिए एक विशेष वित्त व्यवस्था स्थापित करने की मांग उठाए जाने पर ग्लासगो जलवायु सम्मेलन (COP26) में ‘ग्लासगो डायलॉग’ की स्थापना की गई.
L&D वित्त की परिकल्पना और उसी व्यवस्था करने हमेशा से ही चिंता का विषय रहा है. घाटे और नुक़सान की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं है. न ही UFCCC के तहत विकासशील देशों में L&D के वित्त की आवश्यकता से जुड़ी जानकारी संस्थागत तरीक़े से जुटाने की कोई व्यवस्था है. L&D के लिए वित्त को संस्थागत बनाने की राह में कई नीतिगत बाधाएं भी हैं. मिसाल के तौर पर, राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी देश अपने NDC के तहत घाटे और क्षति से जुड़ी जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं है. इससे भी ज़रूरी बात ये कि राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाओं (NAPs) जो राष्ट्रीय स्तर पर अनुकूलन की योजनाओं के लिए ज़िम्मेदार हैं, वो भी घाटे और क्षति का आकलन नहीं करते हैं.
सीमित सफलता
शर्म अल-शेख़ जलवायु सम्मेलन (COP27) से ये उम्मीद थी कि वो ग्लासगो डायलॉग के तहत घाटे और क्षति के लिए फंड की व्यवस्था स्थापित करने और WIM की प्रशासनिक व्यवस्था पर अंति मुहर लगाने समेत इन सभी मुद्दों का समाधान उपलब्ध कराएगा. वैसे तो विकसित और विकासशील देश हमेशा ही वित्त के मामले पर टकराते रहे हैं. ऐसे में इस वर्ष भी परिस्थितियां अलग नहीं थी. विकसित देश, ‘समाधानों के तमाम विकल्पों’ के तहत संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन संधि की रूप-रेखा (UNFCCC) के दायरे के बाहर वित्तीय व्यवस्थाएं विकसित करने पर ज़ोर देते रहे. इससे विकासशील देशों द्वारा UNFCCC के तहत जो वित्तीय व्यवस्था बनाने पर ज़ोर दिया जाता रहा है, उससे जुड़ी परिचर्चाओं की शुरुआत में भी देर हुई.
जलवायु परिवर्तन की बड़ी पहेली तब तक अधूरी रहेगी, जब तक शमन, अनुकूलन और घाटे व क्षति की तीन पहेलियों को एक साथ हल नहीं कर लिया जाता है. L&D के लिए स्थापित नया फंड एक छोटा मगर क्रांतिकारी क़दम है.
G77 और चीन के साथ साथ सबसे कम विकसित और छोटे द्वीपीय देशों के गठबंधन (AOSIS) समेत ज़्यादातर विकासशील देश इस बात पर ज़ोर दे रहे थे कि WIM के प्रशासन को जलवायु सम्मेलन के तहत ही जारी रहने देना चाहिए. वहीं, अमेरिका, यूरोपीय संघ, कनाडा, जापान और ब्रिटेन जैसे कई विकसित देश ये तर्क दे रहे थे कि धारा 8 स्पष्ट तौर पर इस बात का उल्लेख करती है कि WIM सिर्फ़ CMA के प्रशासन में रहेगा. इस मामले में COP के अध्यक्ष ने WIM के प्रशासन के फ़ैसले को भविष्य के जलवायु सम्मेलनों (COPs) पर छोड़ दिया. इससे इस मामले पर कई ठोस फ़ैसला एक बार फिर टल गया.
G7 और सबसे कमज़ोर 20 देशों (V20) ने वैश्विक सुरक्षा कवच भी लॉन्च किया है. इसकी बीमा पर आधारित बेहद हल्का समाधान बताकर व्यापक रूप से गंभीर आलोचना की गई. जहां विकासशील देशों ने एक सुर से वित्तीय व्यवस्था बनाने की मांग की. लेकिन, ये मांग मानने के बजाय एक ऐसी व्यवस्था में निवेश की कोशिशों को ध्यान भटकाने वाला माना गया, जिसमें न तो सभी कमज़ोर विकासशील देश आते हैं और न ही जलवायु परिवर्तन के कई अन्य दुष्प्रभावों को शामिल किया गया था. इसी वजह से ये विकल्प स्थायी नहीं माना गया. घाटे और क्षति को कम करने के लिए बीमे को समाधान के तौर पर देखना, तबाही लाने वाला हो सकता है. क्योंकि, इससे विकसित देशों के लिए दुनिया के सबसे कमज़ोर और ग़रीब समुदायों के और शोषण करने का रास्ता खुलता है.
आज जब घाटे और क्षति के बढ़ते हुए दुष्प्रभाव हमारी आंखों से सामने बढ़ते जा रहे हैं. वैसे में, 2020 में तय हुए 100 अरब डॉलर के फंड को भी शमन और अनुकूलन की बढ़ती ज़रूरतों के लिहाज़ से काफ़ी कम माना जा रहा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि विकासशील देशों ने इस बात पर ज़िद की कि न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (NCQG)के तहत घाटे और क्षति से निपटने के प्रयासों का तीसरा स्तंभ बनाया जाए. इससे L&D के वित्त को लेकर किए गए वादे का तालमेल समानता के सिद्धांतों एवं UNFCCC के अंतर्गत सभी देशों के सम्मिलित परंतु अलग अलग उत्तरदायित्वों (CBDR)के साथ बैठाया जा सकेगा. इन प्रयासों का विकसित देशों ने डटकर विरोध किया. जिससे NCQG के अधिकार क्षेत्र को शमन और अनुकूलन (mitigation and adaptation) के दायरे से आगे बढ़ाने पर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया जा सका.
एक वास्तविक महत्वपूर्ण घटना के तहत COP27 का समापन विकासशील देशों को घाटे और क्षति से निपटने में मदद के लिए लॉस ऐंड डैमेज फंड की स्थापना पर सहमति के साथ हुआ. ये सही दिशा में उठा हुआ पहला क़दम हो सकता है. ये इसीलिए संभव हो सका क्योंकि पश्चिमी देशों के लगातार विरोध करने के बाद भी विकासशील देश लगातार इस मुद्दे पर चर्चा करते रहे और पूरी ताक़त से इस मुद्दे पर आम सहमति बनाने में लगे रहे. विकासशील देशों के बहुमत वाली 24 सदस्यीय ट्रांज़िशनल समिति का भी गठन किया गया, जो वित्त व्यवस्था को लागू करने के तौर तरीक़े तय करने के लिए काम करेगी. इस समिति को COP और CMA की संधियों के तहत चलाया जाएगा. इसके साथ साथ, सैंटियागो नेटवर्क की व्यवस्थाएं लागू करने पर भी सहमति बनी, जिससे G77 और चीन की एक बड़ी मांग पूरी हो गई. इसके अलावा, बहुत से विकसित देशों ने निजी स्तर पर भी घाटे और क्षति के लिए वित्त का वादा किया. जर्मनी ने 17.5 करोड़ डॉलर, बेल्जियम ने 25 लाख डॉलर, ऑस्ट्रिया और स्कॉटलैंड ने क्रमश:5 करोड़ और 50 लाख डॉलर की मदद देने का एलान किया और न्यूज़जीलैंड ने 1.2 करोड़ डॉलर की मदद देने का वादा किया. हालांकि इसमें से ज़्यादातर रक़म वैश्विक कवच के लिए है न कि किसी विशेष घाटे और क्षति की सुविधा के लिए.
इसमें कोई शक नहीं कि घाटे और क्षति के फंड की स्थापना का फ़ैसला, एक मील का पत्थर है और इसने L&D के मसले पर और संवाद की गुंजाइश भी निकाली है. लेकिन हमें ये सुनिश्चित करना होगा कि ये छोटे छोटे क़दम हमें जलवायु परिवर्तन की नई ऊंचाई तक ले जाने में मदद करेंगे. अभी भी फंड की जवाबदेही और उपलब्धता जैसे विवादित प्रश्न बने हुए हैं. इसके लिए देशों को मिलकर काम करने की ज़रूरत होगी, ताकि वो नए फंड को पूरी तरह सक्रिय बना सकें. इसके लिए संधि के दायरे के भीतर ही नहीं, बाहर भी प्रयास करने होंगे.
इस साल के जलवायु सम्मेलन (COP27) के नतीजे मिले जुले रहे हैं. आंशिक सफलताएं मिलीं और कुछ अवसर गंवाए भी गए. कार्रवाई में देरी की भारी क़ीमत है और अभी भी अनुकूलन और घाटे और क्षति की ज़रूरतें पूरी करने के लिए वित्त को बढ़ाने की आवश्यकता है. युद्ध, ऊर्जा सुरक्षा और महामारी के आर्थिक दुष्प्रभावों की परिस्थियि में विकसित देशों जलवायु वित्त उपलब्ध कराने में बेहद ख़राब इतिहास कमज़ोर और हाशिए पर पड़े समुदायों के अविश्वास का कारण बना है. ये भरोसा दोबारा हासिल करने के लिए ज़रूरी होगा कि विकसित देश जवाबदेही लें, समानता सुनिश्चित करें और UNFCCC के तहत महत्वपूर्ण प्रगति सुनिश्चित करें. सैंटियागो नेटवर्क और WIM के दिशा निर्देशों को भी तुरंत लागू करने की ज़रूरत है, जिनके तहत इस फंड का उपयोग हो सकेगा. जलवायु परिवर्तन की बड़ी पहेली तब तक अधूरी रहेगी, जब तक शमन, अनुकूलन और घाटे व क्षति की तीन पहेलियों को एक साथ हल नहीं कर लिया जाता है. L&D के लिए स्थापित नया फंड एक छोटा मगर क्रांतिकारी क़दम है, जिसके सहारे जलवायु न्याय और नेट ज़ीरो के परिवर्तन की ऊंची दीवार को लांघा जा सकेगा.
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