शांति और सुरक्षा से जुड़े मसलों में लिंग का अहम रोल है. इसके बावजूद नीतिगत परिचर्चाओं में इसे वाजिब अहमियत नहीं दी जाती. अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और महाशक्तियों के बीच की प्रतिस्पfर्धा के मुख्य विषयों के बीच लैंगिक मुद्दों पर होने वाली चर्चाओं को अक्सर हाशिए पर ही जगह मिलती दिखाई देती है. हालांकि, इन दोनों के बीच किसी तरह के विरोधाभास की आवश्यकता नहीं है. इसके उलट विदेश नीति से जुड़े मसलों को लैंगिक तौर पर और ज़्यादा संवेदनशील बनाए जाने की ज़रूरत है.
लैंगिक समानता के पैमाने पर किसी समाज के प्रदर्शन को आंकने का एक तरीका ये है कि हम ये देखें कि वहां अगुआई वाले पदों पर कितनी महिलाएं कार्यरत हैं, ख़ासतौर से उन क्षेत्रों में जिनमें लैंगिक प्रतिनिधित्व की समानता के मामले में ख़राब रिकॉर्ड रहा है. इन क्षेत्रों में सुरक्षा से जुड़े विभाग और सुरक्षा से जुड़े शैक्षणिक अध्ययनों तक शामिल हैं. विकसित देशों में भी इन क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी काफ़ी कम है. दूसरी ओर कई लोगों का ये मत है कि महिलाओं का सशक्तिकरण और उनको ज़्यादा प्रतिनिधित्व दिए जाने से अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मसलों से निपटने के लिए वैकल्पिक रुख़ सामने आ सकते हैं. कई लोगों का तो यहां तक कहना है कि संघर्ष वाले हालातों के समाधान में लैंगिक रूप से संतुलित शांति प्रस्ताव ज़्यादा कारगर साबित हो सकते हैं. वैसे तो लैंगिक असंतुलन ही अपने आप में टकराव का एक स्रोत हो सकता है. महिलाओं पर सीधा प्रभाव डालने वाले मुद्दों पर होने वाली चर्चाओं से ख़ुद महिलाओं को ही बाहर रखना नैतिकता के पैमाने पर खरा नहीं उतरता. इसके साथ ही आधी आबादी की क्षमताओं का भरसक इस्तेमाल न करना भी तर्कसंगत नहीं जान पड़ता.
कई लोगों का ये मत है कि महिलाओं का सशक्तिकरण और उनको ज़्यादा प्रतिनिधित्व दिए जाने से अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मसलों से निपटने के लिए वैकल्पिक रुख़ सामने आ सकते हैं.
यूएनएससीआर संकल्प 1325
वैसे तो पिछले कुछ दशकों में हालात में बहुत सुधार आया है, फिर भी अभी इस रास्ते पर काफ़ी आगे जाना है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अक्टूबर 2000 में एक प्रस्ताव (यूएनएससीआर 1325) पारित किया था. इस संकल्प में शांति और सुरक्षा के साथ लैंगिक समानता के प्रत्यक्ष संबंधों पर ज़ोर दिया गया था. यूएनएससीआर 1325 एक महत्वपूर्ण कदम है. इसके ज़रिए शांति और सुरक्षा के मसलों में महिलाओं की भूमिका को बढ़ावा दिया जा सकता है. इस संकल्प में संघर्षों के समाधान से जुड़े तमाम पहलुओं को शामिल किया गया है. इनमें टकरावों की रोकथाम और निदान, शांति वार्ताओं के संचालन, अमन का माहौल बनाना, शांति स्थापना, संघर्ष वाले हालातों में लैंगिक आधार पर होने वाली हिंसक घटनाओं- ख़ासतौर से बलात्कार और यौन उत्पीड़न की तमाम वारदातों की रोकथाम से जुड़े मसले शामिल हैं. इस संकल्प में “शांति और सुरक्षा कायम करने और उनको बढ़ावा देने से जुड़े तमाम प्रयासों में उनकी (महिलाओं की)पूर्ण हिस्सेदारी और सहभागिता” पर ज़ोर दिया गया है.
इसके अतिरिक्त शांति और सुरक्षा में महिलाओं की भूमिका पर ज़ोर देने वाले कई अन्य प्रस्ताव भी संयुक्त राष्ट्र में पारित किए गए हैं. इनमें से हरेक संकल्प में राज्यसत्ता और बहुपक्षीय संस्थाओं को लैंगिक तौर पर और अधिक संवेदनशील बनाने पर बल दिया गया है. इन प्रस्तावों में शांति और सुरक्षा से जुड़े मसलों में महिलाओं की भूमिका को मज़बूत बनाने के लिए नया दृष्टिकोण अपनाने और नीतियां बनाने की बात कही गई है. हालांकि इन प्रस्तावों को पारित हुए 20 साल से भी ज़्यादा का वक़्त हो गया है लेकिन भारत समेत अनेक देश अब तक इनसे जुड़ी राष्ट्रीय कार्य-योजना नहीं बना सके हैं. भारत जैसे देश में महिलाओं ने संयुक्त राष्ट्र शांतिस्थापना के राष्ट्रीय एजेंडे में देश की ओर से विशिष्ट योगदान दिया है. यूएनएससीआर 1325 का ये एक अहम एजेंडा है. इन योगदानों के बावजूद भारत में इस सिलसिले में अब तक कोई राष्ट्रीय कार्य-योजना नहीं बन पाई है.
भारत जैसे देश में महिलाओं ने संयुक्त राष्ट्र शांतिस्थापना के राष्ट्रीय एजेंडे में देश की ओर से विशिष्ट योगदान दिया है. यूएनएससीआर 1325 का ये एक अहम एजेंडा है.
इन तमाम प्रस्तावों और हर वर्ष होने वाले यूएनएससीआर 1325 के सालगिरह समारोहों के बावजूद इस रास्ते पर सफ़र की गति बेहद धीमी रही है. हालांकि कुछ सकारात्मक संकेत ज़रूर दिखाई दे रहे हैं. दुनिया में कुछ देशों ने विदेश नीति में नारीवादी एजेंडा लागू करने की दिशा में बेहतरीन काम किया है. इस संदर्भ में ख़ासतौर से मेक्सिको की मिसाल दी जा सकती है. जनवरी 2020 में नारीवादी विदेश नीति अपनाने वाला मेक्सिको ग्लोबल साउथ का पहला देश बन गया. लिहाजा इस पैमाने पर मेक्सिको ग्लोबल साउथ के लिए आदर्श बन गया है. ये एक बेहतरीन उपलब्धि है. आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक इस नई व्यवस्था के तहत अंतरराष्ट्रीय वार्ता प्रक्रियाओं में मेक्सिको अब लैंगिक मसलों को केंद्र में रखेगा. मेक्सिको सरकार की नीति के अनुरूप इस नए रुख़ से “ढांचागत भेदभावों, लैंगिक अंतरों या असमानताओं को ख़त्म या कम करने” पर ध्यान दिया जाएगा. इस रास्ते में मेक्सिको अब आगे पांच प्रमुख सिद्धातों पर अमल सुनिश्चित करेगा. ये सिद्धांत हैं, “विदेशों में लैंगिक नज़रिए और नारीवादी एजेंडे के अनुरूप विदेश नीति; लैंगिक समानता वाला विदेश मंत्रालय; हिंसा मुक्त और सबके लिए सुरक्षित विदेश मंत्रालय; विदेश मंत्रालय में ज़ाहिर तौर पर महिलाओं के साथ समान व्यवहार; और विदेश मंत्रालय के हर क्षेत्र में नारीवाद को प्रोत्साहन.” नीतिगत स्तर पर इस तरह की स्पष्टता से शांति और सुरक्षा के एजेंडे समेत तमाम मसलों से निपटने में और अधिक संवेदनशीलता बरते जाने की उम्मीद बढ़ जाती है.
स्वीडन की विदेश नीति का नारीवादी नज़रिया
बहरहाल, मुश्किल ये है कि इस मसले पर हम अब भी केवल कुछ मुट्ठीभर देशों की ही बात कर रहे हैं. स्वीडन पहला देश है जिसने विदेश नीति का नारीवादी नज़रिया पेश किया था. स्वीडन का ये दृष्टिकोण तीन मूलभूत तत्वों (3R) से प्रेरित है. ये हैं- अधिकार (राइट्स), प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) और संसाधन (रिसोर्सेज़). स्वीडन की पूर्व विदेश मंत्री मार्गोट वॉलस्ट्रॉम ने 3R की इस नीति को विस्तार से समझाया है. इस सिलसिले में उन्होंने महिलाओं के लिए “हर देश में एक समान क़ानूनी और मानव अधिकार होने” के महत्व को रेखांकित किया है. “महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाने वाले स्थानों पर” महिलाओं को किस तरह का प्रतिनिधित्व मिल रहा है, इसपर भी नज़र रखना ज़रूरी है. संसाधनों के संदर्भ में स्वीडन की पूर्व मंत्री का सवाल है कि क्या देश ने “लिंग आधारित बजट” बनाया है और क्या “लड़कियों और महिलाओं की ज़रूरतें” पूरी हो पा रही हैं या नहीं. स्वीडन हमेशा से ही दुनिया के उन चंद देशों में शामिल रहा है जिसने हर बहुपक्षीय मंच पर महिलाओं की अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित किए जाने पर ज़ोर दिया है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली परिचर्चाओं में महिलाओं से जुड़े मुद्दों को शामिल किए जाने पर बल दिया जाना ज़रूरी है. नीतिगत फ़ैसले लेने वाली तमाम संस्थाओं में महिलाओं की समुचित भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए. स्वीडन ने यौन हिंसा को एक बड़े मुद्दे के तौर पर स्वीकार किए जाने को लेकर कई मौकों पर अपनी आवाज़ बुलंद की है. बहुपक्षीय एजेंडों में महिलाओं से जुड़े मुद्दों को अपने-आप ही स्थान नहीं मिलेगा. स्वीडन ने भी ऐसी ही आशंका जताई है. इसके लिए लगातार ज़ोर लगाने की ज़रूरत पड़ेगी. आमतौर पर ये बातें अब भी हमारे अभ्यास में नहीं आ सकी हैं. इन बहुपक्षीय संस्थाओं और राष्ट्रीय मंचों पर महिलाओं को स्थान दिया जाना कतई आसान नहीं है. आधी आबादी पर असर डालने वाले ये मुद्दे भविष्य में एक समावेशी एजेंडे के उभार के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं.
शांति और सुरक्षा के प्रति नारीवादी दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने वाले देशों की संख्या अब भी बेहद सीमित है. हालांकि, उनके प्रयास इस मायने में महत्वपूर्ण हैं कि इनसे दूसरे देशों पर ऐसी ही नीतियां बनाने और उनको अमल में लाने का प्रभाव पड़ सकता है
विदेश नीति में नारीवादी दृष्टिकोण अपनाने वाले दो और देश हैं- कनाडा और फ्रांस. कनाडा ने 2017 में अपनी नई नीति सामने रखी थी. नई नीति पर रोशनी डालते हुए कनाडा की विदेश मंत्री क्रिश्टिया फ्रीलैंड ने कहा था कि कनाडा का रुख़ “लैंगिक समानता को लक्ष्य बनाकर तय किया गया है. लड़कियों और महिलाओं का सशक्तिकरण के इस एजेंडे से कनाडा वैश्विक स्तर पर होने वाले इन प्रयासों की अगुवाई कर रहा है. ये बुनियादी इंसाफ़ और मौलिक अर्थव्यवस्था से जुड़ा मुद्दा है.” कूटनीति के नारीवादी स्वरूप के लक्ष्य के साथ फ्रांस ने 2019 में ये ऐलान किया कि लैंगिक समानता उसकी प्राथमिकता बनी रहेगी.
हालांकि, नीतिगत मामलों में लैंगिक समानता को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दिखाने वाले देशों की संख्या अब भी 10 से कम है. आर्थिक और विकासवादी नीतियों और स्वास्थ्य नीति के साथ-साथ सुरक्षा से जुड़े मसलों पर फ़ैसला लेने में महिलाओं की ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी सुनिश्चित करना देशों का मूल लक्ष्य है. बहरहाल, इस तरह का ढांचा तैयार करने की दिशा में अब-तक बस कुछ मुट्ठी भर देशों ने ही कदम बढ़ाए हैं. शांति और सुरक्षा के प्रति नारीवादी दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने वाले देशों की संख्या अब भी बेहद सीमित है. हालांकि, उनके प्रयास इस मायने में महत्वपूर्ण हैं कि इनसे दूसरे देशों पर ऐसी ही नीतियां बनाने और उनको अमल में लाने का प्रभाव पड़ सकता है. यहां ये देखना महत्वपूर्ण होगा कि ये मुल्क किस प्रकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने इन नेक इरादों को अमल में लाने लायक बनाने में कामयाब होते हैं. ये बात अबतक स्पष्ट नहीं है कि बहुपक्षीय कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर नारीवादी एजेंडे का कैसा और क्या असर होता है. हालांकि, ये बात ही अपने आप में अहम है कि चंद महिलाओं को इन नीतिगत सवालों की अगुवाई का मौका मिल रहा है. शांति और स्थिरता लाने में चाहे ये महिलाएं जितना भी प्रभावी हो पाएं, ये बात अपने आप में ज़्यादा अहम है कि वो अपनी आवाज़ पहुंचाने में सक्षम हो रही हैं और उनके नज़रिए की अहमियत समझी जा रही है.
महामारी और महिलाएं
एक ऐसे समय में जब दुनिया कोविड-19 महामारी के असर से जूझ रही है, ये मुद्दे और भी अहम हो जाते हैं. महामारी ने हमारी मौजूदा संस्थाओं और व्यवस्थाओं की गंभीर खामियों को बेपर्दा कर दिया है. एक बार फिर संघर्ष और युद्ध जैसे हालातों की तरह लैंगिक असमानताएं और गहरी हो गई हैं. महामारी के दुष्प्रभावों का बोझ पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं पर कहीं ज़्यादा पड़ा है. ऐसे में लैंगिक मसलों का निपटारा ज़रूरी है. अगर समाज महामारी से निपटने में की गई पुरानी ग़लतियों को दोहराने से बचना चाहता है तो उसके लिए बुनियादी सुधार करने होंगे. ऐसे में लैंगिक प्रतिनिधित्व में असमानताओं और कमियों को दूर करना होगा.
राज्यसत्ता पर अंतरराष्ट्रीय मानकों का ऐसा प्रभाव नारीवादी एजेंडे की दिशा में गंभीरता से आगे बढ़ने के लिए उनपर दबाव डालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इन मुद्दों पर होने वाली परिचर्चाओं का जो प्रभाव नज़र आता है, वो सचमुच बेहद अहम है.
महिलाओं से जुड़े अहम मुद्दों के निपटारे और वैश्विक और राष्ट्रीय मंचों पर महिलाओं का दर्जा ऊंचा करने के लिए विदेश नीति में नारीवादी दृष्टिकोण मददगार हो सकता है. इससे राज्यसत्ता पर बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव बनेगा. उनपर न सिर्फ़ प्रतिबद्धता दिखाने बल्कि उनपर अमल करने की ज़िम्मेदारी भी आएगी. ऐसे दबाव अहम हैं क्योंकि दुनिया के तमाम राष्ट्र महिलाओं के मुद्दों की झंडाबरदारी करते नज़र आना चाहेंगे. राज्यसत्ता पर अंतरराष्ट्रीय मानकों का ऐसा प्रभाव नारीवादी एजेंडे की दिशा में गंभीरता से आगे बढ़ने के लिए उनपर दबाव डालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इन मुद्दों पर होने वाली परिचर्चाओं का जो प्रभाव नज़र आता है, वो सचमुच बेहद अहम है.
स्पष्ट है कि विदेश नीति में लैंगिक रूप से संवेदनशील रुख़ अपनाने से नीति निर्माण से जुड़ी प्रक्रिया में महिलाओं के लिए समुचित स्थान का निर्माण होता है. इससे उन्हें बेहतर प्रतिनिधित्व हासिल होता है और हाशिए पर पड़ी आबादी को एक नई आवाज़ मिलती है. ज़मीनी तौर पर इसका काफी प्रगतिवादी असर होता है. ऐसे वातावरण के निर्माण से एक व्यापक, समग्र अंदाज़, सोच में नयापन, विविधता और संतुलन भरा रवैया और समावेशी माहौल सामने आता है. इस दृष्टिकोण के और विकसित होकर वैश्विक स्तर पर एक निश्चित मानक के रूप में उभरने की आवश्यकता है. ऐसा होने पर राज्यसत्ता अपनी प्रतिबद्धताओं के प्रति और जवाबदेह होगी. हालांकि ये आसान नहीं है. इसके लिए यूएनएससीआर 1325 संकल्प के अनुपालन से जुड़ी ज़रूरतों पर निगाह डालना होगा. अभी हमें इस रास्ते पर कुछ और दूरी तय करनी है.
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