Author : Renita D'souza

Published on Nov 16, 2021 Updated 0 Hours ago

दुनिया में तीसरे सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जक देश के रूप में  भारत के लिए आवश्यक है कि वह ग्रीन इनिशिएटिव के तहत कार्बन उत्सर्जन को कम कर 1.5 डिग्री तापमान के पर्यावरण लक्ष्य को पाने के लिए अपनी विकास की योजनाओं को तैयार करे.

क्या भारत में कार्बन उत्सर्जन विकास आधारित है?

दुनिया के पास पर्यावरण बदलावों का सामना करने का मौका लगातार सिमटता जा रहा है. जैसा कि ग्लासगो में 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप-26) के पहले कहा गया कि इस शताब्दी के आधे तक यह कार्बन उत्सर्जन की सीमा को शून्य करने के लक्ष्य को पाने के लिए ‘बनाने या बिगाड़ने’ का मौका है. लिहाजा दुनिया भर के मुल्कों को अपनी जलवायु गतिविधियों को लेकर बेहद महत्वाकांक्षी होने की ज़रूरत है. अब जबकि विकासशील देशों को लेकर यह उम्मीद है  कि वो पर्यावरण बदलाव के झंडाबरदार बनेंगे और कार्बन उत्सर्जन को कम कर 1.5 डिग्री तापमान  के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपने विकास की परियोजनाओं में बदलाव करेंगे. इस संवर्धित लक्ष्य को हासिल करने के लिए विकासशील देशों जैसे भारत पर पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन बनाने का बहुत ज़्यादा दबाव है.

भारत में मध्यम स्तर के मानव विकास दर्ज़ किए गए

2019 में जारी संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट (एचडीआर) के मुताबिक, भारत में 2019 तक गरीबों की संख्या करीब 364 मिलियन तक पहुंच जाएगी, जो भारत की आबादी का करीब 28 फ़ीसदी है. कोरोना महामारी ने इस तादाद को और बढ़ा दिया है. साल 2021 के ग्लोबल हंगर इन्डेक्स के मुताबिक, 27.5 स्कोर के साथ 116 देशों में भारत का स्थान  101 वां है, जिसका मतलब है कि भारत में भुखमरी की स्थिति काफी गंभीर है. साल 2020 के मानव विकास इंडेक्स (एचडीआई) में भारत 0.645 स्कोर के साथ 189 देशों में 131 वें पायदान पर था जिसका मतलब यह हुआ कि भारत में मध्यम स्तर के मानव विकास दर्ज़ किए गए. क्रय शक्ति समता के आधार पर भारत में प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा घटकर साल 2019 में 6,681 अमेरिकी डॉलर हो गया जबकि साल 2018 में यह 6,829 अमेरिकी डॉलर था. भारत के विकास के संदर्भ में यह कुछ ऐसे संकेतक हैं जिन पर तुरंत काम करने की ज़रूरत है. ये सारे विकास से जुड़े प्रोजेक्ट को हासिल करने में कार्बन उत्सर्जन का ख्याल रखना ज़रूरी होगा.

संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून ने ऊर्जा को लेकर कहा था कि यह “सोने का वो धागा है जो आर्थिक विकास, सामाजिक समानता और पर्यावरणीय स्थिरता को जोड़ता है”. इस लेख में आर्थिक विकास और सामाजिक समानता के बीच उसी संबंध को तलाशने की कोशिश की गई है. ऊर्जा, उत्पाद एवं सेवाओं  के उत्पादन को आगे बढ़ाती है. आजीविका के मौकों पर इसका बहुत सकारात्मक प्रभाव है और यहां तक कि किसी मुल्क के ढांचागत प्रोफाइल पर भी इसका असर पड़ता है. कुछ हद तक ऊर्जा के उपभोग में बढ़ोतरी अधिक आय और उत्पादन समेत शैक्षणिक और स्वास्थ्य परिणामों से जुड़ा होता है. ऊर्जा का उपभोग भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रदान करने में शामिल होता है जैसे कि संचार  और यातायात को विकास और सामाजिक इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे, शैक्षणिक संस्थान, साफ-सफाई, पेय जल आपूर्ति और हाउसिंग के लिए लाइफलाइन माना जाता है.

भारत के लिए कार्बन बज़ट का मामला

सृष्टि गुप्ता ने 2020 में एक अध्ययन किया था जिसमें उन्होंने भारत के लिए हाउसहोल्ड एनर्जी पोवर्टी इंडेक्स (एचईपीआई) को 15 ऊर्जा संकेतकों के आधार पर जोड़ा था जिसके तहत उन्होंने ऊर्जा के बहुआयामी परिदृश्य को प्रदर्शित किया था. गृहस्थों को चार वर्ग में बांटा गया था: ‘सबसे कम ऊर्जा गरीब’, ‘कम ऊर्जा गरीब’, ‘ज़्यादा ऊर्जा गरीब’, और ‘सबसे ज़्यादा ऊर्जा गरीब’. इस अध्ययन में पाया गया कि 25 फ़ीसदी कुल गृहस्थों में ‘सबसे ज़्यादा ऊर्जा गरीब’ की कटैगरी में थे, जबकि 65 फ़ीसदी लोग ‘ज़्यादा और सबसे ज़्यादा ऊर्जा गरीब’ की कटैगरी में थे जो इस बात का संकेत था कि भारत में किस हद तक ऊर्जा को लेकर गरीबी है. स्पष्ट तौर पर, ऐसे में भारत के लिए कार्बन बज़ट का मामला बनता है जिससे यहां ऊर्जा की गरीबी को मिटाया जा सके और मानव विकास के लक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके जो इस कमी की वजह से अब तक पूरे नहीं किये जा सके हैं. इस संदर्भ में जो गंभीर सवाल पैदा होते हैं, वह यह हैं कि ऐसे में भारत मानव विकास को लेकर कितना कार्बन उत्सर्जन करता है. इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि अगर भारत को किसी तरह के कार्बन बज़ट प्रदान किए जाते हैं तो भारत इसके इस्तेमाल में किस तरह की रणनीति अपनाता है.

 25 फ़ीसदी कुल गृहस्थों में ‘सबसे ज़्यादा ऊर्जा गरीब’ की कटैगरी में थे, जबकि 65 फ़ीसदी लोग ‘ज़्यादा और सबसे ज़्यादा ऊर्जा गरीब’ की कटैगरी में थे जो इस बात का संकेत था कि भारत में किस हद तक ऊर्जा को लेकर गरीबी है. 

इस सवाल का जवाब 1991-2019 तक भारत के मानव विकास को लेकर कार्बन लचीलापन की मात्रा है. एचडीआई स्कोर की प्रतिसंवेदनशीलता ( अनुपातिक बदलाव) को कार्बन उत्सर्जन में बदलाव के साथ 29 सालों के लिए जोड़ा गया है. चीन के मामले में भी ऐसी ही प्रक्रिया का प्रयोग कर इसे जोड़ा जाता है, जो भारत की स्थिति के विश्लेषण के लिए एक संदर्भ का बिंदु प्रदान करता है. चीन दुनिया में सबसे ज़्यादा और भारत तीसरे नंबर पर कार्बन उत्सर्जन करने वाला मुल्क है जो क्रमश: साल 2019 के आंकड़ों के मुताबिक 10.17 और 2.62 बिलियन टन कार्बन उत्सर्जन  कर चुका है. आबादी के स्तर और विकास को लेकर दोनों ही देशों की तुलना की जाती है.

भारत का औसत कार्बन लचीलापन एचडीआई के मुकाबले 0.32

भारत के एचडीआई स्कोर का कार्बन लचीलापन स्पष्ट रूप से एक समय-अपरिवर्तनीय वाली स्थिर प्रक्रिया है. भारत का औसत कार्बन लचीलापन एचडीआई के मुकाबले 0.32 है. इसका मतलब यह हुआ कि औसतन, कार्बन उत्सर्जन में एक फ़ीसदी की बढ़ोतरी से एचडीआई स्कोर में 0.32 फ़ीसदी की बढ़ोतरी दर्ज़ होती है. यहां संबंधित गैर लचीलापन एचडीआई का मतलब यह हुआ कि कार्बन उत्सर्जन को लेकर ज़्यादा लागत मानव विकास के सूचक को बढ़ा देता है. हालांकि आर्थिक विकास की तुलना में अधिक व्यापक, एचडीआई स्वास्थ्य, शिक्षा, और जीवन के बेहतर स्तर के कुछ आयामों में की गई प्रगति को शामिल करता है.  इस तरह यह “मानव विकास” का सीमित प्रदर्शन है.

जिन वर्षों में चीन ने विकास से कार्बन उत्सर्जन की एक डिकपलिंग का अनुभव किया, उसे अपने कार्बन उत्सर्जन के संबंध में चीन के एचडीआई की लचीलेपन की गणना से बाहर रखा गया है. चीन की एचडीआई औसतन कार्बन लचीलापन 0.79 फ़ीसदी है.

बावजूद इसके कि चीन एक विकासशील देश है, चीन के डिकपलिंग को प्राप्त करना बड़ी उपलब्धि है. यह एचडीआई के औसत कार्बन लचीलेपन को बढ़ाकर किया गया है जिससे डिकपलिंग वर्षों में एचडीआई की उपलब्धि को शामिल किया जा सके.  सामान्य वर्षों में एचडीआई की औसत कार्बन लचीलेपन के मुकाबले एचडीआई उपबल्धियों पर ज़्यादा महत्व दिया जाता है. यह स्कोर इस बात का संकेत है कि वास्तव में मानव विकास के संबंध में कितना कार्बन उत्सर्जन हुआ है. चीन के लिए यह स्कोर 1.33 है. भारत के पास विकास के उदाहरण नहीं हैं. इसलिए भारत के मानव विकास की वास्तविक उपलब्धियों के संबंध में कार्बन उत्सर्जन वैसा ही है जैसा कि इसके एचडीआई के कार्बन लचीलापन जो 0.32 है

अब ज़्यादा से ज़्यादा ध्यान उत्पादन गतिविधियों और आर्थिक विकास को ग्रीन बनाने पर है और ग्रीन वित्त ऐसी गतिविधियों में निवेश के लिए ज़रूरी है. क्या इस विमर्श में ग्रीन शिक्षा और स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी शामिल किया जा सकता है

इन परिणामों को दोनों मुल्कों में आगे स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए कार्बन उत्सर्जन के आखिरी मांग में शामिल किया जाता है.  शिक्षा की मांग को लेकर कार्बन उत्सर्जन औसत 2005-2015 में 11 वर्षों के बीच भारत के लिए कुल घरेलू मांग 0.12 फ़ीसदी जोड़ा जाता है. जबकि चीन के लिए यह आंकड़ा 0.21 फ़ीसदी है. कार्बन उत्सर्जन की मांग स्वास्थ्य के लिए भारत में 0.06 फ़ीसदी है जबकि चीन के लिए यह आंकड़ा 0.15 फ़ीसदी है. यहां पर यह माना जाता है कि ज़्यादा फ़ीसदी का मतलब ज़्यादा शैक्षणिक और स्वास्थ्य गतिविधियां होती हैं.

भारत के कम मानव विकास के संबंध में कार्बन उत्सर्जन को निम्नलिखित कारणों की वजह से बताया जा सकता है : पहला, ऊर्जा का उपयोग और इसके चलते कार्बन उत्सर्जन जो मानव विकास की गतिविधियों को लेकर कम है. दूसरा, मानव विकास को लेकर अगर  सक्रिय गतिविधियां होती हैं तो इसके नतीजे की गुणवत्ता, उदाहरणस्वरूप स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर यह बेहद कम है.  कोयले पर ज़्यादा निर्भरता का मानव विकास पर नकारात्मक असर होता है. कोयला आधारित कार्बन उत्सर्जन के चलते कई मौतें ( लगभग प्रति घंटे 11 मौत) और बीमारियां (प्रति वर्ष 69 फ़ीसदी डायबीटिज़ के मामलों में तेजी, 76 फ़ीसदी बच्चों में दमा के मामले  और 70 फ़ीसदी स्ट्रोक और गंभीर फेफड़े की बीमारियों में बढ़ोतरी) हो रही है. यहीं नहीं इसके चलते उत्पादन में कमी (85,86,300 काम के दिन का नुकसान) दर्ज़ की जा रही है.

आगे का रास्ता

नीति-निर्माताओं को अपना ध्यान इन संभावित कारणों की ओर ज़रूर देना चाहिए. मानव विकास के लिए ज़्यादा ऊर्जा और कार्बन उत्सर्जन के आवंटन की ज़रूरत है. इस आवंटन को हासिल करने के लिए  जागरूक प्रयास करने की आवश्यकता है. अक्षमताओं का कारण, जैसे गलत योजना और गवर्नेंस, भ्रष्टाचार, लाल फीताशाही, जो कम गुणवत्ता के परिणाम का कारण होते हैं, उन्हें मौजूदा समय में पर्यावरण चुनौतियों को देखते हुए नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. सीमित कार्बन बज़ट जो उपलब्ध होता है उसे ऐसी अक्षमताओं पर व्यय नहीं किया जा सकता है.

अब ज़्यादा से ज़्यादा ध्यान उत्पादन गतिविधियों और आर्थिक विकास को ग्रीन बनाने पर है और ग्रीन वित्त ऐसी गतिविधियों में निवेश के लिए ज़रूरी है. क्या इस विमर्श में ग्रीन शिक्षा और स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी शामिल किया जा सकता है, जबकि रिन्युएबल ऊर्जा संसाधन का इस्तेमाल शैक्षणिक और स्वास्थ्य सेवा संस्थानों को मज़बूत बनाने में किया जाता है  और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की ऊर्जा सक्षमता का इस्तेमाल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ाने के लिए किया जाता है जिससे कार्बन फुटप्रिंट में कमी आ सके साथ ही विकास की प्राथमिकताओं को भी हासिल किया जा सके ? ग्रीन वित्त का उपयोग ग्रीन स्कूल और ग्रीन अस्पतालों के निर्माण में किया जाता है जो ख़ास तरह से ग्रीन सामाजिक असर को इंगित करते हैं जो लोगों के कल्याण और धरती की सुरक्षा के साथ लाभ अर्जित करता है.

अंत में, इन रणनीतियों को सही तरीके से इस्तेमाल कर, भारत द्वारा एचडीआई के 0.8-0.9 स्कोर को हासिल करने के लिए जो कार्बन बज़ट की ज़रूरत है उसे वैश्विक चर्चा के दौरान मांग लिया जाना चाहिए. इसके अतिरिक्त एक ऐसी विकास की रणनीति की आवश्यकता है जो कार्बन डायऑक्साइड के उत्सर्जन के वित्त और तकनीक को विकास के साथ 1.5 डिग्री के स्तर पर बनाए रख सके.

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