Author : Harsh V. Pant

Published on May 23, 2019 Updated 0 Hours ago

भारतीय समाज और यहां का राजतंत्र  इस बात को समझने में बुरी तरह से नाकाम रहा है कि मोदी का करिश्मा आख़िर क्या है और कैसे है?

फ़ैसला 2019: भारतीय राजनीति की नई परिभाषा गढ़ते नरेंद्र मोदी!

2019 के आम चुनावों के नतीजे आ चुके हैं और इसके साथ ही जो एक बात सबसे प्रख़र तरीके से सामने आयी है वो ये कि – ये सिर्फ़ और सिर्फ़ पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की सांगठनिक क्षमताओं की जीत है. ये उन दोनों की अपने-अपने इलाके में हासिल की गई उनकी कार्यकुशलता, उनके निजी पैमाने और व्यापकता की जीत है, जो इस बार 2014 से कहीं ज्य़ादा था. इस बार इन दोनों के नेतृत्व में पार्टी नई सीमाओं को लांघा है. पूर्व और उत्तरपूर्व के राज्यों जैसे बंगाल, ओडिशा और नॉर्थ ईस्ट में अपने आपको मज़बूत करने के अलावा उन्होंने अपने पुराने गढ़ों पर भी कब्ज़ा बरकरार रखा है. इस तरह से उनकी पार्टी का नए इलाकों में दख़ल मुमकिन हो पाया है.

ये एक ऐसा चुनाव था जो भारत के प्रगतिशील वर्ग की हार को दर्शाता है. बौद्धिक स्तर पर वे मोदी के करिश्मे को पहचान पाने में न सिर्फ़ नाकाम रहे, बल्कि उस अंडरकरंट को भी जिसकी बीजेपी के नेता लगातार बात कर रहे थे – इससे पहले कभी भी समाज के ये दो वर्ग यानि भारत का आम-जनमानस और इंटेलेक्चुल वर्ग, इन दोनों के बीच इतना बड़ा फर्क़ नहीं देखा गया – जो एक तरह से ये साबित करता है कि दोनों की दुनिया और सरोकार में कितना बड़ा फासला है.

हालांकि, ये पीएम मोदी के सात जुड़ा हुआ एक किस्म का पैटर्न या तरीक़ा है कि – जबसे वे राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर हुए उभरे हैं यानि मई 2014 के समय से, तब से देश का उदारवादी वर्ग में ये बेचैनी रही है कि वे कैसे उन्हें कम कर के आंके. उन्हें पीएम पद के लिए अयोग्य समझा गया, जबकि वे तीन बार गुजरात जैसे राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके थे. लगातार ये कहा जा रहा था कि – बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा झटका लग सकता है अगर वे पार्टी का चेहरा बनकर उभरें तो, लेकिन नरेंद्र मोदी ने इन सभी आंकलनों को ग़लत साबित कर दिया.

2014 चुनाव में मोदी की जीत के तुरंत बाद एक किस्म से ये एक ट्रेंड बन गया था कि उन्हें देश में होने वाली हर बड़ी-छोटी घटना के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ज़िम्मेदार ठहराया जाए. ये मानसिकता भी कहीं न कहीं उनके पक्ष में गया क्योंकि इससे वे लगातार चर्चा में बने रहे. हर चुनाव चाहे वो छात्र संघ का चुनाव हो या ब्लॉक लेवल का उसपर आने वाला फ़ैसला मोदी पर या मोदी के शासन पर आने वाला फ़ैसला बनता चला गया.

कई छोटे-छोटे नेताओं को जिनका जनाधार काफी नगण्य है, उन्हें मोदी के खिलाफ़ खड़ा करने की कोशिश की गई – मोदी ने इन सभी चालों को बड़ी सफाई अपने पक्ष में कर लिया, क्योंकि  मोदी में भारत के आम नागरिकों के साथ जुड़ने, उनसे कनेक्ट होने, उनकी उम्मीदों को परवाज़ देने की क़ाबिलियत है उसका कोई तोड़ विपक्षी पार्टियों को नहीं मिला.

भारतीय समाज और यहां का राजतंत्र  इस बात को समझने में बुरी तरह से नाकाम रहा है कि मोदी का करिश्मा आख़िर क्या है और कैसे है? इसे डिकोड में करने में वे लगातार नाक़ाम साबित हो रहा था, विपक्ष ने लगातार ये कोशिश की, कि वो गठबंधन या महागठबंधन जो मुख्य़ तौर पर जाति गणित पर आधारित हुआ करता था उसे विकल्प के तौर पर खड़ा किया जाए लेकिन – ये सारी कोशिशें फेल हुईँ और कुछ ठोस विकल्प तैयार नहीं हो पाया.

मतदाताओं में जो लॉयल्टी शिफ्ट़ देखा गया, उसे विपक्षी राजतीतिक दल समझ पाने में लगातार नाकाम रहे और इस नाकामी में वे अपनी हार का ठीकरा ईवीएम से जुड़े विवाद पर डालते रहे. पिछले पांच सालों में जो एक बात सबसे ज़्यादा दिलचस्प तरीके से सामने आती रही है वो ये कि जैसे-जैसे मोदी का कद बढ़ा वैसे-वैसे इन विपक्षी दलों का जनता से कनेक्शन टूटता चला गया.

भारत का कोई भी नागरिक जिसने देश के कुछ भी हिस्सों में यात्रा की हो वो ये बात बख़ूबी  समझ सकता है कि इन चुनावों में एंटी इनकंबंसी या सत्ता विरोधी लहर कहीं भी फैक्टर नहीं था, और मोदी फैक्टर न सिर्फ़ बना रहा बल्कि उसकी मारक़ क्षमता भी पहले से बढ़ी है. लेकिन, मोदी की नीतियों की तटस्थ आलोचना के बजाय विपक्ष लगातार मोदी के व्यक्तित्व को नीचा गिराने की कोशिश में अपनी सारी ऊर्जा गंवाती रही. जिसका नतीजा ये निकला कि मोदी का व्यक्तित्व भारतीय राजनीति का केंद्र बना रहा और विपक्ष की हार के लिए ज़मीन तैयार होता रहा.

मोदी ने भारतीय राजनीति की दिशा और दशा के बुनियादी तौर-तरीकों को बदल कर रख दिया है. उन्होंने बीजेपी को भारतीय राजनीति के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया जिस पर लंबे समय तक कांग्रेस का एकाधिकार रहा. ये भारतीय जनता पार्टी का ‘नरेटिव’ है, जिसके इर्द-गिर्द भारतीय राजनीति आने वाले कई सालों तक घूमती रहेगी.

मोदी ने अपनी पार्टी का आधार ज़मीन पर भी बढ़ाया और भारत की भूमि पर रहने वाले अनेकानेक समूहों पर भी – जिसका असर ये हुआ है कि भारत में आज सभी अन्य दल या तो ख़त्म हो रहे हैं या सिकुड़ रहे हैं, सिवाय बीजेपी के. मोदी ने भारतीय राजनीति को नए शब्दों में परिभाषित किया है – पार्टियां जो 2014 तक सिर्फ़ जाति गणित पर केंद्रित थीं, वे अब शासन की बातें करने लगे हैं. भारतीय वोटर लगातार राजनेताओं से अब बेहतर शासन की मांग करने लगा है, और ये जागरुकता कहीं न कहीं मोदी की हाईवोल्टेज कैंपेनिंग के कारण मुमकिन हो सका है. और यही वो वजह जिस कारण मोदी देश के युवा वोटरों के बीचे काफ़ी लोकप्रिय हैं.

भारत में इस समय ऐसा कोई अन्य नेता नहीं है जो यहां के लोगों की इच्छाओं और उनकी उम्मीदों, आकांक्षाओं को बेहतर तरीके से समझता है – फ़िर, उन्हें समझ कर उसे एक नये रंग में गढ़ता है. शायद यही वो क्वालिटी है जो मोदी को उनके मतदाताओं से जोड़ती है.

मोदी की राजनीति एक बार फिर से उन कई पाखंडों को आईना दिखाती है, जिसे कई पीढ़ियों से हमारे देश में देखा और सुना जा रहा था. जैसे – धर्मनिरपेक्षता को जिसतरह से एक विशेष राजनैतिक वर्ग ने लगातार अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया, वो इस चुनाव में खुलकर सामने आया. इससे पहले होता ये आया कि एक ख़ास वर्ग-विशेष से वोट या समर्थन मांगना, भारतीय लोकतंत्र की ताक़त के रूप में जाना जाता था, लेकिन मोदी ने इसे भी ग़लत साबित कर दिया. उन्होंने दक्षिणपंथ की सोच को एक तरह से नया आयाम दिया – आज मेनस्ट्रीम मीडिया ऐसे लोगों को मंच देने के लिये बाध्य हुई है जिन्हें पहले कमतर माना जाता था.

मोदी ने भारत के पूर्व और पूर्वोत्तर के राज्यों को भारत की राजनीति के केंद्र में लाने का काम किया है – ये वो इलाके हैं जो लंबे समय तक राजनैतिक उपेक्षा झेलते रहे थे. लेकिन मोदी की लगातार की जाने वाली कोशिशों के बाद मोदी ने इन इलाकों को मेनस्ट्रीम में लाने मे सफ़लता हासिल की है.

मोदी द्वारा भारत के इन भूभाग पर किए जाने वाले लगातार काम और कोशिशों के मुक़ाबले विपक्ष के पास ने तो कोई नीति थी न ही कोई दूरदर्शिता. वे इस मंच पर पूरी तरह से फेल नज़र आए. जिस पैमाने और विशालता में मोदी को ये जीत मिली है वो इस बात को दोबारा स्थापित करती है कि मोदी ने भारत की 70 साल पुरानी राजनीतिक दांव-पेंच को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है.

लेकिन, इसका मतलब ये कतई नहीं है कि मोदी का शासनकाल पूरी तरह से बेदाग़ रहा हो या उसकी समीक्षा नहीं होनी चाहिए, लेकिन- आज जिस तरह से भारत का बौद्धिक वर्ग खुद को अलग-थलग महसूस कर रहा है उसकी एक बड़ी वजह ये है कि – उन्होंने तब विवादों को जन्म दिया जब ऐसा कुछ था ही नहीं और इस क्रम में उनकी साख़ गिरती चली गई.

अब – जबकि अपने शासन काल का दूसरा अध्याय शुरू करने जा रहे हैं, तब उनकी पॉलिसी और राजनीति पर खूब विचार-विमर्श और मंथन होना चाहिए, लेकिन हमें इसकी शुरुआत इस स्वीकार्यता से करना चाहिए कि मोदी इन चुनावों में एक बड़ी ताक़त बन कर उभरें हैं – इतना ज़्यादा कि जिसका अनुमान उनके विरोधी और आलोचक भी लगा नहीं पाये थे.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.