Author : John C. Hulsman

Published on Jul 06, 2021 Updated 0 Hours ago

यह भी सच है कि ब्रिटेन, कनाडा के अलावा भारत, जापान और यूरोपीय संघ मज़बूती के साथ अमेरिका की ओर खड़े हैं. सिर्फ़ आर्थिक मुश्किलों से घिरा रूस ही चीन के साथ खड़ा है

जी-7 बैठक की असफ़लता — बाइडेन का सिद्धांत हुआ फेल, दुनिया की असल तस्वीर से उठा पर्दा!

‘सिर्फ बड़े बोल से आप कोई मोर्चा नहीं बना सकते या ना ही उसे बचाए रख सकते हैं; यह काम तो कुछ ठोस करने से ही हो सकता है.’ —  जॉन एफ केनेडी

अल्बर्ट आइंस्टाइन ने पॉलिटिकल रिस्क थिंकिंग को बड़ी ही खूबसूरती से तब बयान किया था, जब उन्होंने कहा था, ‘हर चीज को जहां तक संभव हो, सरल बनाने की कोशिश होनी चाहिए, लेकिन सरलतम नहीं.’ बेहतरीन विश्लेषक इस बात को समझते हैं कि अंतहीन जटिलताओं को ऐसे संदर्भ में बताने की ज़रूरत पड़ती है, जिससे लोग समझ पाएं कि हो क्या रहा है, किसी बहस का निचोड़ क्या है. हालांकि, इससे एक ख़तरा भी जुड़ा है. ऐसी कोशिशों से जब किसी मुद्दे को सहज से सहज रूप में पेश करने की कोशिश होती है, तब उससे दुनिया की भ्रामक छवि बनती है, जो बुनियादी तौर पर लोगों को गुमराह करती है.

हाल ही में कॉर्नवॉल में हुई जी-7 की बैठक में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने दुनिया को लेकर जो थिअरी दी, वह पूरी तरह समझ नहीं आई. ऐसा लगा कि इसे और स्पष्ट किया जाना चाहिए था. ऐसा दिखा कि उन्होंने एक जटिल मुद्दे का अति-सरलीकरण करने की कोशिश की. असल में, एक नए युग की शुरुआत हो रही है, जिसमें अमेरिका और चीन दो महाशक्तियां होंगी. अमेरिका के नए राष्ट्रपति को पता है कि इस दोध्रुवीय मुक़ाबले में कामयाबी उसी को मिलेगी, जो अपने से एकदम नीचे के देशों के साथ सार्थक मोर्चा बनाएगा. इनमें ब्रिटेन, कनाडा के साथ यूरोपीय संघ, जापान, भारत और रूस वगैरह शामिल हैं.

अमेरिका के नए राष्ट्रपति को पता है कि इस दोध्रुवीय मुक़ाबले में कामयाबी उसी को मिलेगी, जो अपने से एकदम नीचे के देशों के साथ सार्थक मोर्चा बनाएगा. इनमें ब्रिटेन, कनाडा के साथ यूरोपीय संघ, जापान, भारत और रूस वगैरह शामिल हैं.

ट्रंप ने इन ताकतवर देशों को अमेरिका के और करीब लाने के लिए कुछ नहीं किया. बाइडेन ने इसे लेकर ट्रंप सरकार की आलोचना की, जो सही है. अमेरिका और रूस के बीच शीत युद्ध के दौरान इन देशों ने अमेरिका का साथ दिया, लेकिन आज उनके पास अलग-अलग विदेश नीति पर चलने की आज़ादी है. वे अपनी विचारधारा के मुताबिक भू-रणनीतिक (जियो-स्ट्रैटिजिक) सच्चाइयों को देखते हुए अपना रास्ता चुन सकते हैं. बाइडेन की इस बात में भी दम है कि लोकतांत्रिक रूप से मज़बूत देश चीन के बजाय अमेरिका के अधिक करीब हैं. हां, रूस ऐसा देश है, जो चीन के अधिक करीब है. बाइडेन के मुताबिक, आज की दुनिया बुनियादी तौर पर ऐसे ही बंटी है.

बाइडेन की थिअरी की जटिलताएं

यहां बाइडेन सरल से सरलतम वाली गलती कर रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि लोकतांत्रिक बनाम तानाशाही वाली इस थीम का बौद्धिक आधार है. कुछ अमेरिकी स्तंभकारों ने तो इसे ‘बाइडेन डॉक्ट्रिन’ यानी बाइडेन के सिद्धांत का भी नाम दे दिया है. असल में अमेरिकी राष्ट्रपति ऐसी बात इसलिए कह रहे हैं क्योंकि यह उनके देश की भू-रणनीतिक ज़रूरतों के मुताबिक है.  इससे उन्हें अमेरिकी हित सधते हुए दिख रहे हैं. यह भी सच है कि ब्रिटेन, कनाडा के अलावा भारत, जापान और यूरोपीय संघ मजबूती के साथ अमेरिका की ओर खड़े हैं. सिर्फ़ आर्थिक मुश्किलों से घिरा रूस ही चीन के साथ खड़ा है. इसलिए इस नए दौर में भी अमेरिका के वैश्विक महाशक्ति बने रहने को लेकर कोई संदेह नहीं है.

ऐसे में जी-7 बैठक को बाइडेन के इस सिद्धांत को परख़ने के एक अवसर के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि इस समूह के सदस्यों में यूरोपीय संघ (जर्मनी, फ्रांस और इटली), जापान, ब्रिटेन और कनाडा शामिल हैं. लेकिन क्या इन सभी देशों को चीन के खिलाफ संतुलन कायम करने के लिए साथ लाया जा सकता है? क्या वे इसके लिए तैयार हैं? जी-7 की बैठक में तो ऐसा नहीं दिखा. इस बैठक की सबसे बड़ी उपलब्धि बहुराष्ट्रीय कंपनियों (गूगल, फेसबुक, एमेजॉन) पर टैक्स लगाने की एक व्यवस्था पर सहमति रही और यह काम कॉर्नवॉल में सदस्य देशों के नेताओं की सामूहिक तस्वीर लिए जाने से पहले ही हो गया था. लेकिन ये देश किस तरह से चीन का मुक़ाबला करेंगे, इस पर कोई ठोस प्रगति नहीं हुई. यह बात इसलिए मायने रखती है कि इन लोकतांत्रिक देशों के सामने उनकी विदेश नीति की सबसे बड़ी चुनौती यही थी.

बाइडेन सरल से सरलतम वाली गलती कर रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि लोकतांत्रिक बनाम तानाशाही वाली इस थीम का बौद्धिक आधार है. कुछ अमेरिकी स्तंभकारों ने तो इसे ‘बाइडेन डॉक्ट्रिन’ यानी बाइडेन के सिद्धांत का भी नाम दे दिया है 

वैसे जी-7 के सदस्य देश इस पर ज़रूर राजी हुए कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) एक बार फिर से पता लगाने की कोशिश करेगा कि कोरोना महामारी कहां से शुरू हुई. हालांकि, इस मामले में हाल में डब्ल्यूएचओ का जो रिकॉर्ड रहा है, उसे देखते हुए दुनिया को किसी चमत्कारिक नतीजे का इंतज़ार नहीं करना चाहिए. जी-7 के आधिकारिक बयान में चीन को प्रतिद्वंद्वी बताने की कोशिश हुई, लेकिन उसका नाम सिर्फ़ कोविड महामारी की शुरुआत के संदर्भ में लिया गया.

बौद्धिक सरलीकरण से नुक़सान

असल दुनिया में जी-7 की बैठक इस लिहाज़ से असफ़ल दिखी क्योंकि बाइडेन के सिद्धांत को बौद्धिक आधार पर ख़ारिज कर दिया गया. उसकी वजह यह थी कि अमेरिका के राष्ट्रपति दुनिया का एक सरलतम रूप पेश करने में जुटे थे. उन्होंने यह मान लिया था कि लोकतांत्रिक देशों के मूल्य एक-समान होते हैं, इसलिए उनके हित भी साझा होंगे. इस लिहाज़ से जी-7 बैठक नाकाम रही. इसमें शामिल सभी देश चीन के खिलाफ़ अमेरिका के साथ खड़े नहीं हुए. फ़िलहाल लगता है कि जापान, भारत और ब्रिटेन-कनाडा तो इस मुक़ाबले में चीन की ओर खड़े हैं, लेकिन रूस और यूरोपीय संघ दोनों ही महाशक्तियों से बराबर की दूरी बनाए रखना चाहते हैं. यह भी सच है कि इनमें रूस का झुकाव चीन और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों का झुकाव अमेरिका की तरफ है.

रूस को डर है कि कहीं चीन पूरी तरह उस पर हावी न हो जाए. उधर, यूरोपीय संघ दशकों तक अमेरिका के दबदबे से खुश नहीं था और आज वह आकर्षक चीनी बाजार का मोह नहीं छोड़ना चाहता

पुतिन सरकार चीन-रूस मोर्चे में दोयम दर्जे की हैसियत को लेकर आशंकित है. आखिर, इस देश की बुनियाद महान रूसी राष्ट्रवाद रहा है. इसकी स्थापना इसी आधार पर की गई. रूस को डर है कि कहीं चीन पूरी तरह उस पर हावी न हो जाए. उधर, यूरोपीय संघ दशकों तक अमेरिका के दबदबे से खुश नहीं था और आज वह आकर्षक चीनी बाजार का मोह नहीं छोड़ना चाहता. इसलिए वह पूरी तरह से अमेरिकी खेमे में जाने से आनाकानी कर रहा है. बाइडेन को इसका अहसास नहीं था कि आज ताकतवर मुल्क एक स्वतंत्र निरपेक्षता बनाए रखते हुए दोनों में से किसी भी महाशक्ति के साथ तालमेल बनाने की सोच सकते हैं. बाइडेन इस जटिलता को समझ नहीं सके. उन्हें लगा कि सारी लोकतांत्रिक ताकतें उनके साथ होंगी. लेकिन जी-7 से उनकी यह उम्मीद पूरी नहीं हुई. चीन-अमेरिका के इस मुकाबले में जीतना है तो इस तरह के बौद्धिक अति-सरलीकरण से हर हाल में बचना होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ तो चाहे जी-7 की कितनी भी बैठकें हो जाएं, उनसे कुछ भी हासिल नहीं होगा.

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