Author : Abhishek Mishra

Published on Sep 22, 2021 Updated 0 Hours ago

अब जबकि अमेरिकी सेना ने सोमालिया छोड़ दिया है तो यह साफ़न नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र और अफ्रीकन यूनियन द्वारा मंज़ूर सोमालिया में बदलाव की योजना को अंजाम देने के लिए सोमालिया सरकार और उसकी सेना के पास क्षमता, काबिलियत और इच्छाशक्ति है या नहीं

सोमालिया पर नज़र: क्या अफ्रीका में भी होगी अफ़ग़ानिस्तान जैसे हालात की वापसी?
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अफ्रीका के कई हिस्सों में पिछले एक दशक से उग्रवादी समूहों की गतिविधियां काफी बढ़ गई हैं. नाइजीरिया और साहेल इलाक़े में बोको हराम से लेकर सोमालिया में अल शबाब और मोज़ाम्बिक में पैर पसारता इस्लामिक उग्रवाद, इस तरह के स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय उग्रवादी समूहों का उभार इस महादेश की बढ़ती असुरक्षा की बड़ी वजह है. अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर हाल में तालिबान के कब्ज़े को लेकर अफ्रीकी उग्रवादी समूह काफी उत्साहित होंगे और इसके संकेत पहले से ही सामने आने लगे हैं.

अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की अचानक वापसी के बाद से ही अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े को लेकर पूरे अफ्रीका में इस्लामिक समूहों ने जश्न मनाना शुरू कर दिया. सोमालिया में जिहादी समूह अल शबाब, माली में जामा अत नश्र-अल-इस्लाम वली मुसलमिन(जेएनआईएम) ने तालिबान की जीत का खूब जश्न मनाया. दुनिया भर में ऐसे जिहादी समूह सत्ता तक तालिबान की पहुंच को उनकी ‘वैश्विक जिहाद’ छेड़ने का सुखद नतीजा मानते हैं.  अफ्रीका में अल-क़ायदा के कई धड़ों ने लंबे समय से विदेशी सेना को हटा कर वहां की सरकार को उखाड़ फेंकने का मसूंबा पाल रखा है. सोमालिया और माली जैसे कई अफ्रीकी देश, मुल्क में शांति और सुरक्षा के लिए विदेशी सैन्य बलों पर पूरी तरह निर्भर हैं. लेकिन अफ्रीका के कई इलाक़ों में उग्रवादी संगठनों का धीरे-धीरे विस्तार और सैन्य अभियान में तेजी को देखते हुए इन संगठनों पर नकेल कसना आवश्यक होता जा रहा है. क्योंकि ज़्यादातर प्रभावित राज्य इस स्थिति में नहीं हैं कि वो आतंकी और उग्रवादी संगठनों की चुनौतियों का प्रभावी तरीके से सामना कर सकें, लिहाज़ा इन राज्यों ने अपने यहां की सुरक्षा और ख़ुद की सत्ता के अस्तित्व के लिए विदेशी सैन्य बलों के हस्तक्षेप को मंजूरी दी है. 

अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की अचानक वापसी के बाद से ही अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े को लेकर पूरे अफ्रीका में इस्लामिक समूहों ने जश्न मनाना शुरू कर दिया. सोमालिया में जिहादी समूह अल शबाब, माली में जामा अत नश्र-अल-इस्लाम वली मुसलमिन(जेएनआईएम) ने तालिबान की जीत का खूब जश्न मनाया

इन राज्यों में हस्तक्षेप को लेकर विदेशी शक्तियां हमेशा से मानवीय विचारों के साथ सुरक्षा के सवाल का हवाला देती रही हैं. अफ्रीका में विदेशी सैन्य हस्तक्षेप के केंद्र में फ्रांस और अमेरिका ही हैं, जिन्होंने सुरक्षा के निर्यात की अवधारणा को प्रभावी तरीक़े से अंजाम दिया है.  

साल 2013 से माली और साहेल के व्यापक क्षेत्र में फ्रांस ने सीधे सैन्य हस्तक्षेप करना शुरू किया. ‘ऑपरेशन सर्वल’ (2013-2014) और ‘ऑपरेशन बरखाने’ (2014) के दौरान फ्रांस ने सीधे तौर पर अपनी सेना की तैनाती की थी. हालांकि, अमेरिका ज़्यादातर अपरोक्ष रूप से सैन्य हस्तक्षेप करता रहा है. संयुक्त ज्वाइंट फोर्स – हॉर्न ऑफ अफ्रीका (सीजेटीएफ – एचओए ) ने साल 2002 में जिबूती में ट्रेनिंग, तैनाती समेत अफ्रीका में हस्तक्षेप करने वाले सैन्य बलों को बनाए रखने जैसी कई गतिविधियों को अंजाम दिया. इसका अहम मकसद सोमालिया समेत पूर्वी अफ्रीका और पश्चिमी अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में  शांति बहाली था. साल 2008 में युनाइटे़ड स्टेट अफ्रीका कमांड (एफ्रीकॉम) की स्थापना हिंसक उग्रवादी संगठनों की रणनीति और अफ्रीका में उनके व्यापक अभियान का सामना करने के लिए किया गया था, 

सोमालिया में अफ्रीकी यूनियन मिशन

हालांकि, साल दर साल अफ्रीका में विदेशी सैन्य हस्तक्षेप का मिलाजुला परिणाम रहा है. कामयाब हस्तक्षेप के कई उदाहरण हैं, (जैसे साल 2000 में सिएरा लियोन, 2008 में कोमोरोस ) और नाकाम अभियान भी हैं जैसे ( 1992 में सोमालिया, 1994 में रवांडा और 2004 में डार्फुर). विदेशी सैन्य हस्तक्षेप का अफ्रीकी अनुभव यह बताता है कि एक ओर जहां मज़बूत जनादेश, नागरिकों की सुरक्षा, और मजबूत  सैन्य हस्तक्षेप शांति और सुरक्षा स्थापित कर सकते हैं तो दूसरी ओर इससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है और लंबे समय में यह सामाजिक आर्थिक विकास पर प्रतिकूल असर डाल सकता है. इसके साथ ही सैन्य हस्तक्षेप को अब हमेशा मानवीय हस्तक्षेप से अलग करके नहीं देखा जा सकता है और ना ही मानवीय हस्तक्षेप को सैन्य हस्तक्षेप से अलग कर देखा जा सकता है. 

इसी संदर्भ में अमेरिका का सोमालिया से एफ्रीकॉम के तहत सेना की वापसी का फैसला और माली समेत साहेल क्षेत्र के कई देश जैसे चाड, नाइज़र, बुरकीना फासो, मॉरिटानिया से फ्रांस का सैनिकों की तैनाती में कमी लाने के फैसले के चलते समूचे अफ्रीकी महादेश में कट्टरपंथी ताकतों का प्रभाव बढ़ने का ख़तरा बताया गया. ऐसी परिस्थिति इस बात का संकेत देती है कि उग्रवादी समूह इस हालात में ज़्यादा ताकतवर हो जाएंगे और विदेशी सैन्य बलों की अफ्रीका से वापसी के चलते जो खालीपन राजनीतिक और सुरक्षा के क्षेत्र में हुआ है, उसे वो भरने का कोई मौका नहीं गंवाना चाहेंगे. इसे इस संदर्भ में हमने सोमालिया की स्थिति का विश्लेषण करने की कोशिश की है जहां एक नाज़ुक और कमज़ोर देश से अमेरिकी फौज की वापसी से कई किस्म की सुरक्षा चुनौतियां पैदा हो सकती हैं.

11 सितंबर 2001 हमले के बाद अमेरिका ने सोमालिया के अंदर और बाहर अशासित क्षेत्रों समेत हिंसक उग्रवाद का सामना करने पर ज़्यादा ध्यान देना शुरू किया. साल 2004 में इसने सोमालिया के ‘ट्रांजिशनल फेडरल गवर्नमेंट’ को इस उम्मीद में समर्थन दिया कि इसके ज़रिए सोमालिया गणराज्य की बुनियाद पड़ेगी. साल 2006 में राष्ट्रपति बुश के शासन के तहत अमेरिका ने सोमालिया पर इथियोपिया के आक्रमण से सहमति जताई और अमेरिका ने इथियोपिया को सैन्य सहायता में बढ़ोतरी की. अमेरिका ने अफ्रीकन यूनियन की युगांडा के नेतृत्व में शांति सेना की तैनाती के लिए सैन्य बल को भेजने की योजना पर सहमति जताई. यहां तक कि अमेरिका ने युगांडा, ब्रूंडियन सेना समेत नई सोमाली नेशनल आर्म्ड फोर्स (एसएनएएफ) को ट्रेनिंग दी. ओबामा प्रशासन ने भी सोमालिया में शांतिबहाली के लिए सैनिकों की तैनाती और राज्य के पुनर्गठन की नीति को बरकरार रखा.

विदेशी सैन्य हस्तक्षेप का अफ्रीकी अनुभव यह बताता है कि एक ओर जहां मज़बूत जनादेश, नागरिकों की सुरक्षा, और मजबूत  सैन्य हस्तक्षेप शांति और सुरक्षा स्थापित कर सकते हैं तो दूसरी ओर इससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है और लंबे समय में यह सामाजिक आर्थिक विकास पर प्रतिकूल असर डाल सकता है.  

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से अनुमति मिलने के बाद एयू और सुरक्षा परिषद की मदद से सोमालिया में अफ्रीकन यूनियन मिशन (एएमआईएसओएम) की जनवरी 2007 में स्थापना की गई. एएमआईएसओएम में विभिन्न अफ्रीकी राज्यों की सेना का जमावड़ा है और यह 14 साल से दुनिया के सबसे पेचीदा और सुरक्षा के लिए चुनौतियों से भरी परिस्थितियों के बीच अपना अभियान जारी रखने पर मजबूर है.  इस मिशन को यूएनएससी प्रस्ताव 2372 (2017) से जनादेश प्राप्त  होता है, जो एएमआईएसओएम को मुख्य तौर पर चार लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में अधिकृत करता है: एएमआईएसओएम से धीरे-धीरे सुरक्षा जिम्मेदारियों को सोमालिया के सुरक्षा बलों को सौंपना; अल शबाब और दूसरे हथियारबंद समूहों के ख़तरे को कम करना; हर स्तर पर राजनीतिक प्रक्रिया बहाल करने के लिए सोमालिया की सेना को मदद पहुंचाना; और अफ्रीका में स्थिरता, सामंजस्य और शांति बहाली करना. साल 2018 में यूएनएससी ने सोमालिया में बदलाव की योजना को मंजूरी दी — जिसे शुरु तो किया जाना था साल 2018 में, जिसके तहत संघीय सरकार को दिसंबर 2021 तक सुरक्षा संबंधी सभी ज़िम्मेदारियों को ले लेना था. 2021 के बाद सोमालिया के पुनर्गठन की दिशा में यह योजना बेहद अहम साबित हुई. इसके बाद साल 2019 में सोमालिया के बदलाव की योजना को फिर से एयू, यूएन और सोमालिया सरकार से परामर्श कर संशोधित किया गया.

सोमालिया से अमेरिकी फ़ौज की वापसी; एमीसोम का भविष्य


इस पूरी प्रक्रिया के दौरान अमेरिका और इसके सहयोगियों ने अल शबाब जैसे उग्रवादी संगठनों पर नकेल कसने में काफी हद तक कामयाबी पायी और इसकी गतिविधियों को प्रमुख शहर मोगादिशू की बाहरी सीमा तक रोके रखा. हालांकि, अल शबाब के पास मोगादिशू के अंदर और एएमआईएसओएम की सेना पर हमला करने की क्षमता अभी भी है लिहाज़ा यह अभी भी सुरक्षा के लिए अहम चुनौती है. अमेरिकी सेना की वापसी के साथ ही एएमआईएसओएम की जनादेश की सीमा बढ़ा दी गई है लेकिन सोमालिया और हॉर्न ऑफ अफ्रीका क्षेत्र में मुमकिन है कि अल शबाब गंभीर चुनौतियां पेश करे. सोमालिया सरकार को अभी भी अमेरिकी सेना की हवाई निगहबानी और ड्रोन से हमले करने की क्षमता और सोमालिया के सुरक्षा बलों की कार्यक्षमता को बढ़ाने में सहायता लेनी पड़ती है.

 ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि अमेरिका सोमालिया से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वो पूरी तरह से वहां से ख़ुद को अलग कर लेंगे. बाइडेन प्रशासन के तहत भी सोमालिया के सैनिकों को अल शबाब के ख़िलाफ़ हवाई निगहबानी और एयर स्ट्राइक करने में सहयोग जारी रहेगा. 

साथ ही यह मानना पड़ेगा कि सोमालिया एक ख़ास विषय के तौर पर उभरा है जहां कई तरह के हस्तक्षेप जारी हैं. ख़ास तौर पर कई तरह के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रस्तावों के तहत इन्हें जारी रखा गया है. अब जबकि अमेरिकी सेना ने सोमालिया छोड़ दिया है तो यह साफ नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र और अफ्रीकन यूनियन द्वारा मंजूर सोमालिया में बदलाव की योजना को अंजाम देने के लिए सोमालिया सरकार और उसकी सेना के पास क्षमता, काबिलियत और इच्छाशक्ति है या नहीं ?

अमेरिकी सेना की वापसी के साथ ही एएमआईएसओएम की जनादेश की सीमा बढ़ा दी गई है लेकिन सोमालिया और हॉर्न ऑफ अफ्रीका क्षेत्र में मुमकिन है कि अल शबाब गंभीर चुनौतियां पेश करे. सोमालिया सरकार को अभी भी अमेरिकी सेना की हवाई निगहबानी और ड्रोन से हमले करने की क्षमता और सोमालिया के सुरक्षा बलों की कार्यक्षमता को बढ़ाने में सहायता लेनी पड़ती है. 

तालिबान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा करना इस बात की ओर इशारा करता है कि किसी मुल्क में छिड़े गृहयुद्ध और हिंसक लड़ाई को विदेश से आए किसी तीसरी सेना के हस्तक्षेप से नहीं जीता जा सकता है. एक बात और, सेना की सुनियोजित वापसी के बदले अचानक वापसी ऐसे मुल्क में उल्टा असर डाल सकती है ख़ास कर तब जबकि ऐसे मुल्क बाहरी मदद ( जैसे सोमालिया और माली) पर निर्भर होते हैं. स्थितियां तब और ज़्यादा जटिल हो जाती हैं जब स्थानीय सरकार वैधता खो देती है और कई तरह की कमियों से जूझ रही होती है. जिस पल अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हटा लिया जाता है, वैसे ही उग्रवादी शक्तियों को इस खाली जगह को भरने का मौका मिल जाता है.

विदेशी सैन्य मदद, क्षमता विकास और घरेलू संस्थाओं और सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने में प्रभावी नहीं हो सकता है.  उनकी अनुपस्थिति में सैन्य हस्तक्षेप स्थिरता के बदले कमज़ोरी की वजह बन सकता है जैसा कि अफ़ग़ानिस्तान में देखा गया. ऐसी स्थिति में यह उम्मीद की जा सकती है कि सोमालिया, जहां से अमेरिकी सेना ने वापसी कर ली है और माली, जहां से फ्रांस की सेना वापसी कर रही है, वहां अफ़ग़ानिस्तान जैसे हालात ना पैदा हो जाएं.

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