इस्लामिक स्टेट ने अपने मकसद हासिल करने के लिए क्षेत्रीय राजनीति और विचारधारा के अलावा भी कई दूसरे साधनों का बड़ी कामयाबी से इस्तेमाल किया जो अल-क़ायदा के ठीक उलट था.
दक्षिण एशिया में आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट को प्रोत्साहित करने वाले दुष्प्रचार (प्रॉपगैंडा) की पड़ताल
मार्च 2019 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मीडिया को एक नक़्शा दिखाया था. उस नक़्शे में मध्य पूर्व में तथाकथित इस्लामिक स्टेट (IS या ISIS या अरबी में दाएश) के सिकुड़ते भौगोलिक आधार को रेखांकित किया गया था. ट्रंप की इस क़वायद का मकसद इस आतंकी संगठन की शिकस्त को दुनिया के सामने पेश करना था. ग़ौरतलब है कि 2014 के बाद से इस्लामिक स्टेट बेहद तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ा था. एक वक़्त पर सीरिया से लेकर इराक़ तक IS का दबदबा क़ायम होने की बात मानी जा रही थी. क्षेत्रफल के हिसाब से ये पूरा इलाक़ा यूनाइटेड किंगडम जितना बड़ा है. हालांकि, IS के ख़िलाफ़ क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर पैदा दरारों के साथ-साथ अन्य कारकों की वजहों से दाएश का “राज” सिकुड़ता चला गया. अमेरिका की अगुवाई वाला गठबंधन लगातार इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ हवाई कार्रवाइयां कर रहा था. रूस ने भी इस संगठन के ख़िलाफ़ अपने स्तर पर मुहिम चला रखी थी. इसके साथ ही ईरान और ईरान समर्थित लड़ाका गुटों ने भी अपनी-अपनी वजहों से ज़मीनी तौर पर इस संगठन के ख़िलाफ़ कार्रवाइयों में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं छोड़ी थी.
इस्लामिक स्टेट एक विचारधारा और ब्रांड के तौर पर शायद आज और भी मज़बूती से हमारे सामने खड़ा है. अपनी विचारधारा और अपने पैग़ाम को इंटरनेट द्वारा बेहद तेज़ रफ़्तार से एक जगह से दूसरे जगह पहुंचाने की सुविधा को इस्लामिक स्टेट ने बख़ूबी अपना लिया है.
हालांकि, इस्लामिक स्टेट ने अपने मकसद हासिल करने के लिए क्षेत्रीय राजनीति और विचारधारा के अलावा भी कई दूसरे साधनों का बड़ी कामयाबी से इस्तेमाल किया. ये तौर-तरीक़ा अल-क़ायदा जैसे दूसरे अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक संगठनों के ठीक उलट था. दरअसल दुष्प्रचार (propaganda) इस्लामिक स्टेट का एक प्रमुख हथकंडा बन गया था. ट्रंप द्वारा IS पर जीत हासिल करने के ऐलान के दो साल बाद भी ऐसे आतंकी संगठन से कामयाबी से निपटने के तौर-तरीक़ों को लेकर कई सवालों के जवाब मिलने बाक़ी हैं. इस्लामिक स्टेट एक विचारधारा और ब्रांड के तौर पर शायद आज और भी मज़बूती से हमारे सामने खड़ा है. अपनी विचारधारा और अपने पैग़ाम को इंटरनेट द्वारा बेहद तेज़ रफ़्तार से एक जगह से दूसरे जगह पहुंचाने की सुविधा को इस्लामिक स्टेट ने बख़ूबी अपना लिया है. ये तौर-तरीक़ा अतीत में इस्तेमाल किए जाने वाले हथकंडों से अलग है. ग़ौरतलब है कि 2014 से 2017 के बीच IS के कारनामे और दहशतगर्दियां काफ़ी बढ़ गई थीं. उस वक़्त ज़मीनी स्तर पर मौजूद लड़ाकों की टोली इन करतूतों को अंजाम दिया करती थी. आज दुनिया भर के छोटे-छोटे और इलाक़ाई जिहादी गुट अफ़्रीका से लेकर दक्षिण पूर्व एशिया तक ख़ुद को IS की ‘सल्तनत’ का हिस्सा बताकर उससे अपना रिश्ता जोड़ते हैं. हालांकि, दीर्घकालिक तौर पर इन छोटे-छोटे जिहादी समूहों की कामयाबी को लेकर शंका जताई जाती रही है. बहरहाल, ये तमाम संगठन इस्लामिक स्टेट के नाम का सहारा ले रहे हैं. IS के विशाल ऑनलाइन प्रॉपगैंडा के इस्तेमाल ने कट्टरपंथ के ऑनलाइन इकोसिस्टम के लिए एक ‘खुला स्रोत’ तैयार कर दिया है. कट्टरपंथी विचारधारा से प्रभावित कोई एक शख़्स या कुछ लोगों का समूह दुनिया में कहीं भी IS के नाम पर हमलों को अंजाम देने की क़ाबिलियत रखता है. इस बात को निश्चित परिप्रेक्ष्य में समझने की ज़रूरत है. माली, मोज़ाम्बिक़ और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो जैसे अफ़्रीकी देशों में IS और उससे जुड़े गुटों की कामयाबियों से जुड़ी प्रॉपेगैंडा तस्वीरें और जानकारियां सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्मों पर रोज़ाना मौजूद हैं. ये कई और भाषाओं के अलावा हिंदी और उर्दू में भी उपलब्ध हैं.
IS प्रॉपेगैंडा, अफ़ग़ान संकट और दक्षिण एशिया
2021 अफ़ग़ानिस्तान के लिए आमूलचूल बदलावों से भरा साल साबित हुआ. 15 अगस्त 2021 को तालिबानी लड़ाके दोबारा काबुल में घुस आए. उन्होंने अफ़ग़ान राजधानी पर फिर से क़ब्ज़ा जमा लिया. ग़ौरतलब है कि 2000 में 9/11 हमले के बाद अमेरिका की अगुवाई में छेड़े गए जंग के चलते तालिबान को काबुल छोड़कर भागना पड़ा था. तब तालिबानियों ने हिंदूकुश की पहाड़ियों पर पनाह ली थी. काबुल में हुए इन बदलावों के साथ-साथ इस्लामिक स्टेट ख़ुरासान प्रोविंस (ISKP) एक खूंखार गुट के तौर पर उभरकर सामने आया. इससे पहले केवल कुछ प्रांतों में सक्रिय रहे इस संगठन ने अपनी ओर सबका ध्यान खींचा. वैचारिक तौर पर तालिबान के उभार ने इस्लामिक स्टेट के प्रॉपेगैंडा को और हवा दी है. IS के मुख्य ऑनलाइन पब्लिकेशन अल-नाबा ने अपने पिछले कुछ अंकों में तालिबान के ख़िलाफ़ ISKP की गतिविधियों को प्रमुखता से जगह दी है. इनमें तालिबान की जमकर लानत मलानत की गई है. उसपर पूरे तौर पर इस्लामी उम्मा पर आधारित राज क़ायम करने की बजाए सियासी पहचान और इस्लामी इल्म-ए-क़ानून के बेहद तंग नज़रियों की बुनियाद पर अपना राज क़ायम करने के लिए अमेरिका से हाथ मिलाने का इल्ज़ाम लगाया गया है. अमेरिका और तालिबान के बीच आतंकवाद विरोधी मुहिम में संभावित तालमेल की ख़बरों ने इस नज़रिए को और आगे बढ़ाने का काम किया है. नतीजतन ISKP के समर्थन में ऑनलाइन माध्यमों में नए-नए पेज तैयार होने लगे हैं.
वैचारिक तौर पर तालिबान के उभार ने इस्लामिक स्टेट के प्रॉपेगैंडा को और हवा दी है. IS के मुख्य ऑनलाइन पब्लिकेशन अल-नाबा ने अपने पिछले कुछ अंकों में तालिबान के ख़िलाफ़ ISKP की गतिविधियों को प्रमुखता से जगह दी है. इनमें तालिबान की जमकर लानत मलानत की गई है.
अफ़ग़ानिस्तान के बेलगाम और लड़ाकू जिहादी माहौल और ऑनलाइन माध्यम- दोनों में ISKP की ताक़त बढ़ती जा रही है. हालांकि इस बात की पहले से ही आशंका थी. दरअसल तालिबान कोई एकरूप इकाई नहीं है. काबुल में तालिबानी हुकूमत आने से दूसरे गुटों का रुझान ISKP की ओर बढ़ रहा है. इनमें अफ़ग़ानी सशस्त्र सेना के कुछ पूर्व सदस्य भी शामिल हैं. अतीत में भी इस तरह का वाक़या देखने को मिला था. मसलन, 2013-14 में अपनी हिफ़ाज़त की ख़ातिर इराक़ की पूर्ववर्ती बाथिस्ट आर्मी के सदस्य ISIS में शामिल होने लगे थे. पिछले 2 वर्षों में दक्षिण एशिया में इस्लामिक स्टेट के समर्थन में तीन प्रकाशन उभरकर सामने आए हैं. दक्षिण एशिया और अफ़ग़ानिस्तान के समूचे इलाक़े में अल-नाबा के साथ ये तमाम प्रकाशन मिलकर प्रॉपगैंडा चलाने का काम कर रहे हैं.
भारत
भारत और दक्षिण एशिया के विस्तृत इलाक़े को ध्यान में रखते हुए फ़रवरी 2020 में सावत-अल-हिंद (SAH, हिंद की आवाज़) मैगज़ीन की शुरुआत हुई थी. राजधानी दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान ही इसकी शुरुआत की गई थी. तब से लेकर अब तक इस पत्रिका में 2 मसलों को काफ़ी अहमियत दी जाती रही है. पहला, जैसा कि ऊपर बताया गया है तालिबान की निंदा और दूसरा भारत में सांप्रदायिक विभाजनों पर आक्रामक दुष्प्रचार. इस दुष्प्रचार का केंद्र भारत की सत्तारूढ़ दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति के इर्द-गिर्द होता है. बुनियादी तौर पर सावत-अल-हिंद के पिछले दो अंक इन्हीं मसलों पर टिके रहे हैं. बाबरी मस्जिद, विचारधारा, ‘सभ्यता के टकराव’ जैसे मुद्दों और क़िस्सों पर लेख लिखे गए हैं. इस कड़ी में दक्षिण एशिया के दूसरे देशों मसलन मालदीव और बांग्लादेश से जुड़े मसले भी उठाए जाते रहे हैं.
भारत की सुरक्षा एजेंसियों ने सावत-अल-हिंद के मसले को गंभीरता से लिया है. जुलाई 2021 में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने दक्षिण कश्मीर और कर्नाटक के भटकल से कुछ गिरफ़्तारियां की थीं. हालांकि इन लोगों के सावत-अल-हिंद के प्रकाशन में शामिल होने को लेकर एजेंसी के नज़रिए का खुलासा नहीं हो सका है. ख़बरों से इस बात की पुख़्ता जानकारी नहीं मिल सकी कि क्या ये लोग सिर्फ़ इन सामग्रियों को सोशल मीडिया पर प्रसारित करने के लिए ज़िम्मेदार थे. हालांकि, इन गिरफ़्तारियों के बाद मैगज़ीन के अगले अंक में प्रॉपेगैंडा की ताक़त से जुड़े मसले को ज़ोर शोर से उठाया गया. साथ ही फॉलोअर्स से आगे भी इसी तरह की सामग्रियां तैयार करते रहने की अपील की गई. उस अंक का शीर्षक था “हमारी क़लम कुफ़्फ़ारों के सीने पर खंजर हैं”. अतीत में इस्लामिक स्टेट अपने “ऑनलाइन योद्धाओं” को ज़मीनी तौर पर हमलों को अंजाम देने वाले लड़ाकों के बराबर की ही अहमियत देता रहा है. कश्मीर में अपनी मौजूदगी के बूते एक अलग इस्लामिक स्टेट हिंद प्रांत का गठन करने की भी कोशिशें की जाती रही हैं. 2014 के बाद कश्मीर घाटी में हुए कुछ हमलों में ज़िम्मेदारियों का दावा करते हुए इसी नए नाम को आगे बढ़ाया जाता रहा. बहरहाल सुरक्षा एजेंसियां कश्मीर में इस गुट के नाम से की जाने वाली आतंकी गतिविधियों के लिए इस्लामिक स्टेट जम्मू-कश्मीर के नाम का इस्तेमाल करती रही हैं.
अतीत में इस्लामिक स्टेट अपने “ऑनलाइन योद्धाओं” को ज़मीनी तौर पर हमलों को अंजाम देने वाले लड़ाकों के बराबर की ही अहमियत देता रहा है. कश्मीर में अपनी मौजूदगी के बूते एक अलग इस्लामिक स्टेट हिंद प्रांत का गठन करने की भी कोशिशें की जाती रही हैं.
पाकिस्तान
तालिबान काफ़ी हद तक पाकिस्तानी क़वायदों का नतीजा है. हालांकि, ऐसी बनावटों के भावी अंजामों की पक्के तौर पर गारंटी नहीं रहती. एक हुकूमती ताक़त के तौर पर तालिबान का उभार और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) को उसका गुप्त समर्थन इस बात की मिसाल है. ग़ौरतलब है कि TTP अक्सर पाकिस्तानी की सियासी व्यवस्था को पलट देने की वक़ालत करता है. ज़ाहिर तौर पर पाकिस्तान ने अपने लिए कई परेशानियां ख़ुद ही पैदा कर ली हैं. बलूचिस्तान से FATA तक के इलाक़े में पाकिस्तान की ये दुर्दशा साफ़-साफ़ देखी जा सकती है. पाकिस्तान में सत्ता द्वारा प्रायोजित इस्लामिक इकोसिस्टम के तहत “इस्लामिक स्टेट पाकिस्तान प्रोविंस (ISPP)” ने हाल ही में पाकिस्तान के भीतर ख़ासतौर से ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में और उसके इर्द-गिर्द तालिबान के कथित सदस्यों और पाकिस्तानी फ़ौज के तथाकथित जासूसों और मुख़बिरों के क़त्लेआम का दावा किया है. इन घटनाक्रमों के बीच बुनियादी रूप से पाकिस्तान से जुड़ी इस्लामिक स्टेट समर्थक उर्दू मैगज़ीन ‘यलग़ार’ की शुरुआत की गई. इसका दूसरा अंक दिसंबर 2021 में (पहला अंक अप्रैल 2021 में सामने आया था) प्रकाशित हुआ. जैसा कि स्कॉलर रिकार्डो वेल्ले ने रेखांकित किया है, उस अंक में मोटे तौर पर “पाकिस्तानी राज्यसत्ता, सियासत और मजहबी इंतज़ामिया” पर उंगली उठाई गई है. वैचारिक और उलेमाई नज़रिए से देखें तो इस्लामिक उम्मा को “धोखा” देने के लिए मजहबी जानकारों की घोर निंदा की गई है. दरअसल ये वैसी ही दलीलों का हिस्सा है जैसी सावत-अल-हिंद के अनेक अंकों में आम तौर पर पहले से ही पेश की जाती रही हैं.
म्यांमार
अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे अंतरराष्ट्रीय जिहादी समूहों ने 2017 में शुरू हुए रोहिंग्या संकट के चलते म्यांमार के मुस्लिमों को अपने पाले में लाने की क़वायद शुरू कर दी थी. इसमें कोई ताज्जुब की बात भी नहीं थी. नवंबर 2020 में ख़ुद को कतिबा अल-महादी फ़ि बिलाद अल-अराकान (KMBA, या ब्रिगेड ऑफ़ अल-महादी इन द अराकान स्टेट) कहने वाले संगठन ने इस्लामिक स्टेट के नए मुखिया अबु इब्राहिम अल-हाशिमी अल-क़ुरैशी को अपनी बयात (वफ़ादारी या निष्ठा) पेश की. समूह के प्रवक्ता अबु लुत अल-मुहाजिर की ओर से ये पेशकश की गई. KMBA के नेतृत्व और बाक़ी के ढांचे के बारे में कोई ख़ास जानकारी मौजूद नहीं है. हालांकि जानकारी के अभाव के बावजूद KMBA ने अपने प्रॉपेगैंडा मैगज़ीन “अरकान” के दो अंक प्रकाशित कर लिए. दिलचस्प बात ये है कि ये मैगज़ीन अंग्रेज़ी भाषा में है. स्कॉलर जसमिंदर सिंह और मोहम्मद हाज़िक़ जानी ने इस बात को रेखांकित किया है कि प्रवक्ता के नाम में ‘अल-मुहाज़िर’ या ‘आप्रवासी’ जुड़ा है. ऐसे में हो सकता है कि ये गुट घरेलू राजनीतिक दरारों की वजह से पैदा न हुआ हो. हो सकता है कि ये अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (ARSA) का स्थानीय विभाजित समूह भी न हो. ग़ौरतलब है कि रोहिंग्या मसले पर यही संगठन एक लंबे समय से हथियारबंद लड़ाका गतिविधियों की अगुवाई करता आ रहा है. हालांकि यहां इस बात को रेखांकित करना ज़रूरी है कि इस्लामिक स्टेट के नेतृत्व द्वारा KMBA की वफ़ादारी को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया जाना अब भी बाक़ी है.
इस्लामिक स्टेट का समर्थन करने वाले दूसरे प्रॉपगैंडा सामग्रियों के मुक़ाबले अरकान का प्रकाशन बिल्कुल अलग है. ऐसा लगता है इस अंक का बुनियादी पैग़ाम (कम से कम अभी) KMBA के कैडर के तौर पर नए-नए लोगों को आकर्षित करने को लेकर है. इस मैगज़ीन में लेखनी का भरपूर इस्तेमाल किया गया है. प्रॉपगैंडा के प्रकाशन और फ़रमान जारी करने का ये तौर-तरीक़ा इस्लामिक स्टेट की बजाए अल-क़ायदा के ज़्यादा क़रीब है. इस्लामिक स्टेट का अंदाज़-ए-बयां ज़्यादा आधुनिक और डिजिटल रुझानों के अनुरूप है. बहरहाल, अल-क़ायदा से मिलते-जुलते रुख़ की वजह से इस समूह के नेताओं और उनके कुनबे के बारे में दिलचस्प सवाल पैदा होते हैं. म्यांमार-बांग्लादेश और पूर्वी भारत के समूचे भूगोल (पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश को मिलाकर यहां भारत की बहुत बड़ी मुस्लिम आबादी की रिहाइश है) में अल-क़ायदा के अनेक समर्थक हैं. भारतीय उपमहाद्वीप में अल-क़ायदा (AQIS) के समर्थकों के मामले और गिरफ़्तारियां से जुड़े मसले इस्लामिक स्टेट से जुड़े लोगों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा रहे हैं. इनमें जमात उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (JMB और neo-JMB) के साथ संपर्कों के ज़रिए और हरकत-उल-जिहाद अल-इस्लामी (HuJI) आदि शामिल हैं. कुल मिलाकर अल-शहबाब, तालिबान, हमास जैसे दूसरे जिहादी संगठनों ने रोहिंग्या संकट का इस्तेमाल कर दुनिया भर के मुसलमानों से म्यांमार सरकार के ख़िलाफ़ एकजुट होने की अपील की है.
स्कॉलर चार्ली विंटर के विश्लेषण के मुताबिक इस्लामिक स्टेट ने बख़ूबी और बड़ी चालाकी से मीडिया को ही मीडिया के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया था. दक्षिण एशियाई देशों के लिए ये एक बहुत बड़ी सीख है. नाज़ुक सामाजिक, सांस्कृतिक और सियासी व्यवस्थाओं वाले इन देशों को सूझबूझ से काम लेना होगा.
निष्कर्ष
दक्षिण एशिया में प्रॉपेगैंडा प्लैटफ़ॉर्मों की तादाद में बढ़ोतरी को अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रमों से जोड़कर देखा जा सकता है. हालांकि, इनकी संख्या में इज़ाफ़े के बावजूद कम से कम क़िस्सों के आधार पर ये नहीं कहा जा सकता कि ये प्रकाशन लोगों की भर्तियां करने में कामयाब हो पाए हैं. अपने मकसद के लिए रकम इकट्ठा करना एक अलग बात है. हक़ीक़त तो ये है कि आज तालिबान ख़ुद ही ISKP के ख़िलाफ़ चिकनी चुपड़ी ज़ुबान में प्रॉपेगैंडा वीडियो का इस्तेमाल कर रहा है. ये वीडियो वैसे ही हैं जिनपर इस्लामिक स्टेट ने महारत हासिल की हुई है. बहरहाल, इन दुष्प्रचार सामग्रियों के ख़िलाफ़ एक बड़ी नाकामी मुख्यधारा की मीडिया द्वारा उनके कवरेज के तरीक़ों से पैदा होती है. 2014 से 2017 के बीच इस्लामिक स्टेट को एक ब्रांड के तौर पर आगे बढ़ाने का एक बड़ा ज़रिया यही था. इस कालखंड में वैश्विक प्रेस के पहले पन्नों और प्राइम टाइम टेलीविज़न नेटवर्क के इस्तेमाल से इस्लामिक स्टेट ने बड़ी कामयाबी से उनके ज़रिए अपने प्रॉपेगैंडा को आगे बढ़ाया था. स्कॉलर चार्ली विंटर के विश्लेषण के मुताबिक इस्लामिक स्टेट ने बख़ूबी और बड़ी चालाकी से मीडिया को ही मीडिया के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया था. दक्षिण एशियाई देशों के लिए ये एक बहुत बड़ी सीख है. नाज़ुक सामाजिक, सांस्कृतिक और सियासी व्यवस्थाओं वाले इन देशों को सूझबूझ से काम लेना होगा. निश्चित रूप से दुष्प्रचार के इन तौर-तरीक़ों पर निगरानी रखना बेहद मुश्किल हो गया है. इस तरह के प्रभावी और चालाकी से तैयार किए गए प्रॉपगैंडा सामग्रियों से दो-दो हाथ करने के लिए यहां की राज्यसत्ताओं को मौजूदा जानकारियों का भरपूर इस्तेमाल करना होगा.
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Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...