Published on Mar 20, 2021 Updated 0 Hours ago

यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हम महिलाओं के लिए चीज़ों को बेहतर बनाने के लिए हर संभव प्रयास करें.

भारतीय अर्थव्यवस्था की नई परिकल्पना के लिए महिलाओं से जुड़ी हर चीज़ की नई कल्पना ज़रूरी है

महामारी की परेशानियों का सबसे बुरा खामियाज़ा महिलाओं ने उठाया

साल 2020 में दुनियाभर में फैली महामारी ने दुनिया की चाल को पलट दिया और महिलाओं की स्थिति बेहद ख़राब हो गई है. अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक शोध से पता चलता है कि महामारी के दौरान भारतीय महिलाओं के सामने पुरुषों की तुलना अपनी नौकरी खोने का ख़तरा अधिक था. सबसे ज़्यादा जोखिम दिहाड़ी महिला मज़दूरों (Female casual workers) और महिला उद्यमियों (female entrepreneurs) के सामने था. नवंबर 2019 से नवंबर 2020 के बीच शहरी भारतीय महिला कार्य बल (urban Indian female work force) में 27 प्रतिशत की कमी आई, जबकि पुरुष कार्य बल के मामले में यह कमी केवल तीन प्रतिशत रही. इस दौरान महिलाओं को कई मोर्चों पर जूझना पड़ा. उन्हें अचानक अपने बच्चों के लिए शिक्षक, माता-पिता, गृहिणी और देखभाल करने वाली भी बनना पड़ा. कुछ को काम छोड़ना पड़ा क्योंकि उनके लिए इन कामों को एक साथ प्रबंधित करना असंभव था. उनके घरेलू कामों में 30 प्रतिशत से अधिक वृद्धि हो गई जिसके लिए उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता था.

वर्षों से हर मामले में महिला श्रम बल की भागीदारी दबाव में रही है!

भारत ने बीते वर्षों में कई मोर्चों पर बहुत प्रगति की है. हालांकि, महिला श्रम बल की भागीदारी उन कुछ विकास संकेतकों में से है जो सही दिशा में नहीं बढ़ा है. इसमें एक तरह का अड़ियल रुख देखा गया. अगर दक्षिण एशिया की बात करें तो भारत एक ऐसा देश है जहां सबसे कम महिला श्रम बल की भागीदारी है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम (World Economic Forum, WEF) के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में 2006 के बाद से भारत 39 स्थान तक गिरा है और अब यह 153 देशों में 112 वें स्थान पर है, जिसका मुख्य कारण आर्थिक स्तर पर स्त्रियों व पुरुषों के बीच का अंतर (economic gender gap) है. ऐसी परिपाटी के पीछे कई जटिल कारण हैं, लेकिन यह आंकड़े स्थिति की गंभीरता को बताते हैं और इस बात का संकेत हैं कि इस दिशा में गंभीर क़दम उठाना कितना ज़रूरी हो गया है.

इसे ठीक करना बहुत कठिन काम है, लेकिन इसमें संभावनाओं की कमी नहीं है

महिलाओं की आर्थिक भागीदारी बढ़ाने के लिए काफी कुछ करना होगा. उनके लिए शिक्षा, कौशल, आय सृजन और सामाजिक मानदंडों में बदलाव लाना होगा. इन कामों को प्राथमिकता के आधार पर करना होगा. हमें यह स्वीकार करना होगा कि लिंग भेदभाव का पीढ़ियों पुराना बोझ आसानी से नहीं उतरेगा. इसकी भी संभावना कम है कि हमारी पीढ़ी में सामने आए महामारी के इस दौर में महिलाओं के मुद्दे, स्वाभाविक रूप से सरकार की प्राथमिकताओं में शीर्ष पर आ जाएंगे यह आसान नहीं होगा. हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि महिलाओं के लिए स्थिति बेहतर बनाने के लिए हम हर संभव प्रयास करें, क्योंकि इन में व्यापक आर्थिक और सामाजिक क्षमता है. महामारी के बाद के दौर में अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए किए गए किसी भी खर्च और उठाए गए कदम की तुलना में महिलाओं पर किए गए निवेश का रिटर्न सबसे अधिक मिलने की संभावना है. ऐसा होने से भविष्य में हम ऐसे किसी भी झटके को बर्दाश्त करने के लिए बेहतर स्थिति में होंगे.

इसकी भी संभावना कम है कि हमारी पीढ़ी में सामने आए महामारी के इस दौर में महिलाओं के मुद्दे, स्वाभाविक रूप से सरकार की प्राथमिकताओं में शीर्ष पर आ जाएंगे यह आसान नहीं होगा. 

मैकेंसी एंड कंपनी (McKinsey & Company) का अनुमान है कि लैंगिक समानता से साल 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद में 770 बिलियन अमेरिकी डॉलर जोड़ा जा सकता है. अगर भारत की बात करें तो यहां इस दिशा में अपार संभावनाएं हैं, क्योंकि यहां काम करने की उम्र वाली केवल 10 फीसदी महिलाएं ही कामकाजी हैं, जबकि पुरुषों का प्रतिशत 65-70 है.

तो, इस अवसर को भुनाने के लिए भारत को किस तरह की योजनाएं बनाने की ज़रूरत पड़ेगी?

प्राथमिकता, नीति और कार्य योजना की ज़रूरत है. हमें मूल के साथ साथ प्रोत्साहित करने वाले इनोवेशन यानी नवाचार की भी आवश्यकता है.

लड़कियों और युवा महिलाओं को भविष्य में नौकरियां मिलें इस के लिए ज़रूरी होगा कि उन्हें जीवन से जुड़े (life skills) और व्यावसायिक (vocational skills), दोनों तरह के कौशल प्रदान किए जाएं.

लैंगिक समानता को लेकर भारत सरकार की प्रतिबद्धता काफ़ी पुरानी है. सरकार की प्रतिबद्धता का एक महत्वपूर्ण पहलू लड़कियों (और महिलाओं) को 21वीं सदी के कौशल के निर्माण में सक्षम करना है. ये जीवन से जुड़े वे कौशल हैं, जिनकी ज़रूरत उस दुनिया में आत्मविश्वास के साथ भागीदार बनने में पड़ती है, जिसमें वे पल-बढ़ रहे हैं.

कौशल और आजीविका से जुड़े हर प्रयास में हमें उन रूढ़ियों को तोड़ने की ज़रूरत है, जिसमें हम महिलाओं के लिए अनुकूल नौकरियों की तलाश करते हैं. यह एक ऐसा विचार है जिसका समय काफ़ी पहले बीत चुका है. अधिक उपयोगी कारक यह होना चाहिए कि अगले 50 वर्षों के रोज़गार क्या होंगे, या कौन से कार्य केवल शहर के बजाय कहीं भी किए जा सकते हैं, या फिर काम के लचीले घंटों के माध्यम से क्या किया जा सकता है. हम सभी को गिग अर्थव्यवस्था (gig economies) की परिपाटी से सीखने की जरूरत है.

बेहद पुराने लैंगिक मुद्दों का समाधान केवल एक मंत्रालय की ज़िम्मेदारी नहीं हो सकती है

स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण, समृद्धि, न्याय और जलवायु परिवर्तन पर महिला शिक्षा और आय के व्यापक असर को देखते हुए लैंगिक मसले को केवल एक मंत्रालय तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इसे सरकार, विधायिका, प्रशासन और न्यायपालिका तक भी पहुंचाना चाहिए. कम से कम एक लैंगिक दृष्टि (जेंडर लेंस) होना चाहिए जो हर क़ानून, नीति दस्तावेज़, फ़ैसला आदि के लिए पूरी तरह से लागू हो.

लड़कियों और युवा महिलाओं को भविष्य में नौकरियां मिलें इस के लिए ज़रूरी होगा कि उन्हें जीवन से जुड़े (life skills) और व्यावसायिक (vocational skills), दोनों तरह के कौशल प्रदान किए जाएं.

रोज़गार, स्किलिंग, क्रेडिट, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा और देखभाल संबंधी नीतियों को महिलाओं और लड़कियों के लिए बेहतर बनाने के स्पष्ट उद्देश्य के साथ डिज़ाइन करने की आवश्यकता है. उदाहरण के लिए भारतीय महिलाएं भारतीय पुरुषों की तुलना में घरेलू देखभाल से जुड़ा 10 गुना अधिक काम (unpaid care work) करती हैं, जिन के लिए उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता. घरेलू देखभाल सेवाओं या घरेलू कामों की पहुंच और सामर्थ्य को बढ़ाने वाली नीतियां महिलाओं पर बोझ कम करेंगी और इस तरह उन में से कुछ महिलाएं फिर से काम पर लौटेंगी या काम शुरू करने में सक्षम होंगी. हमारे लिए ज़रूरी है कि हम व्यवस्था को बाध्य करें कि वह लैंगिक रूप से न्यायप्रद (gender-just) ढांचा तैयार करे और उसके हिसाब से काम करे. इस के लिए यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि अलग अलग लैंगिक डाटा इकट्ठा किया जाए, उसकी पहचान की जाए और निर्णय लेने में इस का इस्तेमाल किया जाए. साथ ही, विशेष रूप से सरकार की सामाजिक सुरक्षा, वित्तीय समावेशन और डिजिटल पहुंच सुनिश्चित करने वाली योजनाओं में इस के आधार पर निर्णय लिए जाएं. उदाहरण के लिए मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) से लेकर नाबार्ड (राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक) की क्रेडिट गारंटी योजना तक सभी चीज़ें महिलाओं के लिए लक्षित और उनके अनुकूल होनी चाहिए.

‘इनपुट्स’ या ‘गतिविधियों’ के बजाय ‘परिणाम’ के बारे में सोचें- क्योंकि यह वास्तविक बदलाव के लिए ज़रूरत, इनोवेशन और डेटा-संचालित निर्णयों को बढ़ावा देगा

चुनौतियों की जटिलता के ज़रिए आंशिक रूप से संचालित, अधिकतर पारिस्थितिकी तंत्र, निगरानी रखने वाली गतिविधियों (tracking activities) में लगा हुआ है.

व्यापक नज़रिये वाले संकेतकों में अक्सर प्रबंधन से जुड़े सिद्धांतों के रूप में काम करने का मूल्य होता है. ऐसा ही एक सिद्धांत जिसमें कई संभावनाएं हैं वह है- “रोज़गार में लगी महिलाओं का प्रतिशत, राष्ट्रीय औसत वेतन के बराबर या उससे ऊपर हो”. इस सोच के साथ आगे बढ़ा जाए तो लैंगिक आधार पर वेतन भुगतान में भेदभाव को ठीक किया जा सकता है.

हमारे लिए ज़रूरी है कि हम व्यवस्था को बाध्य करें कि वह लैंगिक रूप से न्यायप्रद (gender-just) ढांचा तैयार करे और उसके हिसाब से काम करे. इस के लिए यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि अलग अलग लैंगिक डाटा इकट्ठा किया जाए, उसकी पहचान की जाए और निर्णय लेने में इस का इस्तेमाल किया जाए.

अधिकतर रोज़गार से जुड़े कार्यक्रम लंबे समय तक कामकाज मुहैया कराने में विफल रहे हैं. कामकाज शुरू करने के पहले तीन महीने के भीतर 90 प्रतिशत महिलाओं को हटा दिया जाता है. परिणाम आधारित वित्तपोषण तंत्र जैसे इम्पैक्ट बॉन्ड (impact bonds) के जरिए इन लक्ष्यों को प्रोत्साहित करने की तरक़ीब का इस्तेमाल, इन सामाजिक नतीजों को हासिल करने में किया जा सकता है. इस तरह के दृष्टिकोण जवाबदेही को बढ़ावा देते हैं, और बेहतर प्रदर्शन व इनोवेशन दोनों को आगे बढ़ाते हैं.

हमें नए विचारों, नए मौकों और नए भागीदारों के स्वागत के लिए एक बड़े बदलाव की आवश्यकता है

ऐसा बहुत कुछ है, जिसे बहुत सारे लोगों के माध्यम से किया जा सकता है- और हम में से हर किसी को इस संभावना को टटोलने में मदद करनी चाहिए. जीवन के हर एक पहलू में एक लैंगिक आयाम होता है– और सौंदर्य यह है कि प्रगतिशील लैंगिक कार्रवाई (progressive gender action) की अहमियत के लगभग हमेशा स्पष्ट प्रमाण होते हैं. उदाहरण के लिए ऐसी कंपनियां जिन में नेतृत्व और प्रबंधन के स्तर पर अधिक लैंगिक विविधता होती है, वह अधिक लाभ कमाती हैं, और शेयरधारकों के लिए अधिक मूल्य बनाती हैं. प्रगतिशील कंपनियां “समावेशी लाभांश” को वास्तविक और महत्वपूर्ण व्यावसायिक लाभ के रूप में स्थापित कर रही हैं. इस से आगे समावेश और विविधता को आगे बढ़ती हैं.

लड़कियों और महिलाओं को प्राथमिकता दें. इन्हें महामारी के तुरंत बाद वाले सुधार के प्रयासों के केंद्र में रखें लेकिन इन के लिए दीर्घ अवधि की योजना बनाएं. यह रणनीति तार्किक रूप से मज़बूत है और इसके फ़ायदे व्यापक और गहरे हैं.

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