Author : Shruti Jargad

Published on Jun 02, 2021 Updated 0 Hours ago

चीन और पाकिस्तान की अलग-अलग ताक़त ने विश्लेषकों को ये घोषित करने के लिए मजबूर कर दिया कि पाकिस्तान चीन का पिछलग्गू देश बनने की राह पर है.

दोस्ती में सबक़: चीन-पाकिस्तान संबंधों के 70 साल की व्याख्या

22 मई 2021 को चीन और पाकिस्तान के बीच राजनयिक संबंधों की 70वीं सालगिरह मनाई गई. इस संबंध की शुरुआत 1951 में हुई थी. इस मौक़े पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कराची परमाणु पावर प्लांट की यूनिट-2 (जिसमें चीन द्वारा डिज़ाइन किए गए हुआलॉन्ग वन रिएक्टर का इस्तेमाल किया गया है) का उद्घाटन करते हुए इस दोस्ती की ख़ूबियों और चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) की विकास संभावनाओं की तारीफ़ की. चीन के अख़बार पीपुल्स डेली में इसी तरह के जश्न के लहजे वाला लेख छपा जिसमें एहसानमंद पाकिस्तानी नागरिकों का वृतांत छपा था. इन सबके भी ऊपर, पाकिस्तान के राष्ट्रपति आरिफ़ अल्वी ने इस संबंध की परिभाषा “समंदर से गहरा, पर्वत से ऊंचा और शहद से मीठा” के रूप में दोहराई. इस दिन का जश्न मनाने के लिए इस्लामाबाद में स्मरणीय डाक टिकट जारी किए गए. इनमें से एक डाक टिकट में इस गहरी साझेदारी की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि ग्वादर पोर्ट की झलक दिखाई गई. चीन की समाचार एजेंसी शिन्हुआ न्यूज़ ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के संदेश की तर्ज़ पर एक वीडियो भी जारी किया जिसमें सीपीईसी के तहत हासिल उपलब्धियों को दिखाया गया था. 

चीन-पाकिस्तान की दोस्ती की भारत में बहुत ज़्यादा चर्चा होती है और इसे बड़ी सामरिक चुनौती के तौर पर देखा जाता है. ये चुनौती सीपीईसी की वजह से और भी ज़्यादा बढ़ी है. वैसे तो मीडिया की रिपोर्ट में ये गहरी दोस्ती आर्थिक सहयोग के इर्द-गिर्द घूमती है लेकिन दोनों देशों के बीच हथियार समझौतों, साझा युद्धाभ्यास और रक्षा संधियों को लेकर सैन्य सहयोग भी चरम पर है. इसे देखते हुए ये समझना ज़रूरी है कि इस मज़बूत द्विपक्षीय संबंधों को आगे कौन बढ़ा रहा है, ख़ास तौर से चीन के दृष्टिकोण से क्योंकि विदेश नीति के मामले में चीन का इतिहास उथल-पुथल वाला रहा है. पाकिस्तान जैसा देश जो लगातार नाकामी की हालत में रहा है, उसे चीन समर्थन क्यों दे रहा है? 

ये समझना ज़रूरी है कि इस मज़बूत द्विपक्षीय संबंधों को आगे कौन बढ़ा रहा है, ख़ास तौर से चीन के दृष्टिकोण से क्योंकि विदेश नीति के मामले में चीन का इतिहास उथल-पुथल वाला रहा है.

बाहरी कारणों के संबंध में देखें तो इसकी एक बड़ी वजह भारत के साथ चीन और पाकिस्तान की परस्पर दुश्मनी है. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद ख़ास तौर पर राजनीतिक विश्लेषकों ने दावा किया कि चीन की सबसे बड़ी सामरिक चिंता रही है पाकिस्तान को स्वतंत्र, ताक़तवर और साहसी देश के तौर पर बनाए रखना ताकि वो भारत के सामने दूसरे मोर्चे पर ख़तरा बना रहे. चीन की दक्षिण एशिया नीति से आगे बढ़ते हुए विश्लेषकों ने चीन-पाकिस्तान की दोस्ती को शीत युद्ध की राजनीति के व्यापक संदर्भ में भी स्थापित किया है. पाकिस्तान ग़ैर-समाजवादी देशों में पहले देशों में से एक था जिसने 1950 तक पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को राजनीतिक मान्यता दी थी. साथ ही अमेरिका के ख़िलाफ़ चीन के ज़ुबानी हमले को लेकर भी पाकिस्तान उत्साह दिखाता था. वैसे तो पाकिस्तान पश्चिमी देशों के गठबंधन का हिस्सा था लेकिन उसे साम्राज्यवादी बंधन में कमज़ोर कड़ी और ‘कैंप के भीतर विरोधाभास के संभावित स्रोत’ के तौर पर देखा गया. बाद में 1960 और 1970 के दशक में सोवियत संघ की घेराबंदी के चीन के डर ने पाकिस्तान के साथ उसके संबंधों की दिशा तय की. साथ ही 1972 में अमेरिका-चीन मेल-मिलाप में भी पाकिस्तान ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई. आख़िर में, लगता है कि चीन और पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय अखाड़े में ‘ग़लत समझे जाने’ की भावना को साझा करते हैं. इस सोच को दोनों देशों का मीडिया भी उछालता है. 

पाकिस्तान के साथ गठबंधन के कारण

वैसे तो सिस्टम स्तर के ये कारण महत्वपूर्ण हैं लेकिन चीन की पाकिस्तान नीति को व्यापक तौर पर समझने के लिए घरेलू कारणों की तरफ़ देखने की भी ज़रूरत है, ख़ास तौर पर मौजूदा वैश्विक व्यवस्था को देखते हुए. माओवादी वर्षों की क्रांतिकारी राजनीति और देंग शियाओपिंग युग की चुप्पी को पीछे छोड़ते हुए चीन एक मज़बूत ताक़त के तौर पर उभरा है. यहां तक कि वो अमेरिका को भी चुनौती दे रहा है. इसलिए पाकिस्तान के साथ चीन के निरंतर और मज़बूत संबंधों को सिर्फ़ संतुलन साधने की रणनीति के तौर पर परिभाषित नहीं किया जा सकता है. चीन-भारत-पाकिस्तान के त्रिकोण में चीन ज़्यादा वरिष्ठ साझेदार दिखता है और पाकिस्तान उसके रास्ते पर चल रहा है. इस संदर्भ में चीन के लिए पाकिस्तान का महत्व कोलंबिया यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर एंड्रयू नाथन के लेख ‘फोर रिंग्स ऑफ सिक्युरिटी यानी सुरक्षा के चार चक्र’ की रूपरेखा के भीतर समझा जा सकता है. 

इनमें पहला चक्र है चीन की स्व-निर्धारित सीमा और प्रादेशिक अखंडता. पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना के सात दशक के बाद भी चीन एक बंटा हुआ देश (ताइवान) बना हुआ है. यहां तक कि मेनलैंड में भी कुछ क्षेत्र और समूह राजनीतिक और सांस्कृतिक सिस्टम से पूरी तरह नहीं जुड़ पाए हैं. ये क्षेत्र और समूह अंतर्राष्ट्रीय सीमा के पार भी बातचीत करते हैं- जैसे भारत के साथ तिब्बत, पश्चिमी देशों के साथ हॉन्ग कॉन्ग, मध्य एशिया और तुर्की के साथ शिनजियांग इत्यादि. पाकिस्तान ने चीन के अलगाववादियों को समर्थन देने से इनकार किया है. पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने में चीन की दिलचस्पी को इस संदर्भ में देखा जा सकता है. चीन और पाकिस्तान के बीच कोई वास्तविक हितों का टकराव नहीं है; उनकी सीमा का निर्धारण 1964 में हो गया था. पाकिस्तान ने चीन की पश्चिमी सीमा पर बफर देश के रूप में भी काम किया है और वो शिनजियांग में कट्टरपंथी इस्लाम के फैलाव को काबू में करता है. 1990 के दशक में चीन ने पाकिस्तान को एक ऐसा बाज़ार बंद करने के लिए राज़ी किया जहां वीगर समुदाय के सदस्य कुछ गतिविधियों में शामिल थे. साथ ही पाकिस्तान ने मदरसों से वीगर छात्रों को भी बाहर किया. यहां तक कि वीगर समुदाय के मुसलमानों के लिए नज़रबंदी कैंप और उनकी नज़रबंदी की मौजूदा ख़बरें भी इस्लामिक देशों या उनके संगठनों से काफ़ी ज़्यादा आलोचना की वजह नहीं बनतीं. 

1990 के दशक में चीन ने पाकिस्तान को एक ऐसा बाज़ार बंद करने के लिए राज़ी किया जहां वीगर समुदाय के सदस्य कुछ गतिविधियों में शामिल थे. साथ ही पाकिस्तान ने मदरसों से वीगर छात्रों को भी बाहर किया. 

दूसरे चक्र में उन पड़ोसी देशों के साथ चीन के संबंध हैं जिनके साथ चीन ज़मीन या समुद्री सीमा साझा करता है. चीन बड़ी संख्या में देशों के साथ सीमा साझा करता है जिनमें से कई देशों में अस्थिर सरकार है. इस वजह से चीन की चुनौतियां बढ़ जाती हैं. इसके अलावा,  पड़ोस में स्थित देशों के मुक़ाबले चीन की संस्कृति बेहद अलग है और उनके राष्ट्रीय हित मेल नहीं खाते. जापान, भारत और रूस जैसे संभावित प्रतिद्वंदियों के स्थिर सुरक्षा हित हैं जो अक्सर चीन के सुरक्षा हितों के प्रतिकूल होते हैं. उत्तर कोरिया और मध्य एशियाई गणराज्य जैसे दूसरे पड़ोसी कमज़ोर और अस्थिर हैं जहां शासन व्यवस्था के भंग होने या नागरिक अशांति का जोखिम है. इस मामले में पाकिस्तान नियमित समर्थक साबित हुआ है. साथ ही वो दक्षिण एशिया में चीन के मुख्य प्रतिद्वंदी भारत को संतुलित रखने में भी चीन का सहयोगी है. 1960 से चीन की शांतिपूर्ण विदेश नीति के प्रयोग के क्षेत्र में भी पाकिस्तान सहयोगी साबित हुआ है और बाक़ी दक्षिण एशिया में अपनी आर्थिक और सैन्य पकड़ बढ़ाने में चीन इस दोस्ती की मिसाल देता है. 

तीसरे चक्र में चीन के चारों तरफ़ छह बहुदेशीय क्षेत्रीय प्रणाली जैसे- दक्षिण एशिया, पूर्व एशिया इत्यादि की राजनीति शामिल है. यहां इस तरह की राजनीति है जिसमें चीन शायद ही किसी एक देश को ध्यान में रखकर या अमेरिका के साथ संबंधों पर असर की परवाह किए बिना नीति बना सकता है. पाकिस्तान के मामले में चीन को अमेरिका की मौजूदगी से फ़ायदा हुआ है, ख़ास तौर पर इसलिए क्योंकि ‘आतंक के ख़िलाफ़’ लड़ाई का खर्च अमेरिका ने उठाया है. अमेरिका ने पाकिस्तान को महत्वपूर्ण मदद भी मुहैया कराई है, साथ ही अलग-अलग लोकतांत्रिक और सैन्य शासन व्यवस्था का समर्थन किया है. इसके साथ-साथ, पाकिस्तान के भीतर अमेरिकी मौजूदगी को लेकर नकारात्मक सोच ने भी चीन के दखल को बढ़ाने में मदद की है.

इस साझेदारी का भविष्य में भी अच्छा होना जहां तय है, वहीं पाकिस्तान की आर्थिक कमज़ोरी, राजनीतिक अस्थिरता और प्रांतीय विरोध जैसे कई ख़तरे भी हैं. इससे भी बढ़कर, राजनयिक सहयोगी के तौर पर चीन के लिए पाकिस्तान की उपयोगिता सीमित रही है.

आख़िर में, चीन के सुरक्षा हितों के चौथे चक्र में बाक़ी दुनिया- यूरोप, मध्य पूर्व, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और दूसरे क्षेत्र- शामिल हैं. इन इलाक़ों में चीन ऊर्जा संसाधनों, कमोडिटी और निवेश के साथ अलग-अलग मुद्दों पर कूटनीतिक समर्थन की नीति को आगे बढ़ा रहा है. अमेरिका के साथ चीन के मेल-मिलाप और विश्व बैंक जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में चीन के प्रवेश में पाकिस्तान ने एक भूमिका अदा की है. ये साझेदारी मध्य पूर्व के साथ चीन के संबंधों के विकास में भी उपयुक्त साबित हुआ है. वर्तमान में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत ऊर्जा सुरक्षा को लेकर चीन की तलाश (मलक्का जलडमरूमध्य पर अपनी निर्भरता को ख़त्म करके) ने पाकिस्तान को उसकी भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक रणनीति के केंद्र में डाल दिया है. इसके अलावा, सैन्य गठबंधन बनाने में अमेरिका की तुलना में चीन की कमज़ोरी के बावजूद पाकिस्तान एक तैयार साझेदार के तौर पर उभरा है. इसको क्वॉड का मुक़ाबला करने और अफ़ग़ानिस्तान को लेकर सहयोग के मामले में हाल के रक्षा समझौतों में देखा जा सकता है. 

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंधों के लिए चीन की कोशिश भारत के साथ उसके प्रादेशिक विवाद से काफ़ी बढ़कर है. वैसे तो बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत चीन की परियोजनाओं का स्थानीय स्तर पर विरोध हो रहा है लेकिन राजनीतिक तौर पर विशिष्ट वर्गों और सैन्य अधिकारियों में चीन का दर्जा पाक है. इसलिए इस साझेदारी का भविष्य में भी अच्छा होना जहां तय है, वहीं पाकिस्तान की आर्थिक कमज़ोरी, राजनीतिक अस्थिरता और प्रांतीय विरोध जैसे कई ख़तरे भी हैं. इससे भी बढ़कर, राजनयिक सहयोगी के तौर पर चीन के लिए पाकिस्तान की उपयोगिता सीमित रही है. इसकी एक वजह पाकिस्तान की गिरती प्रतिष्ठा और सरकार समर्थित आतंकवाद के ख़िलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय निंदा के साथ-साथ अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ चीन के संघर्ष की अलग प्रकृति भी है. ये सभी कारण और उसके फलस्वरूप चीन और पाकिस्तान की अलग-अलग ताक़त ने विश्लेषकों को ये घोषित करने के लिए मजबूर कर दिया कि पाकिस्तान चीन का पिछलग्गू देश बनने की राह पर है. लेकिन ऊपर जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है वो तस्वीर को जटिल बनाता है क्योंकि इसमें भू-रणनीतिक कमज़ोरी की वजह से चीन की नीतियों की रक्षात्मक प्रवृत्ति का ख़ुलासा किया गया है. 

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