अगर भारत को 2070 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना है, तो कोयले से बनने वाली बिजली को पूरी तरह ख़त्म करना होगा और नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की क्षमता को बढ़ाना होगा.
COP26 में भारत द्वारा किए गए पांच वादे
1 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन पर ग्लासगो में हुए संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन (COP26) में भारत का पांच सूत्रीय एजेंडा पंचामृत के नाम से पेश किया था. इसके तहत भारत ने नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने के लिए पांच ठोस क़दम उठाने का वादा किया था. वो क़दम इस तरह से हैं:
अपनी ग़ैर जीवाश्म ईंधन की क्षमता को 2030 तक 500 गीगावाट तक पहुंचाना.
2030 तक अपनी अर्थव्यवस्था के कार्बन उत्सर्जन की मात्रा को 2005 के स्तर के 45 प्रतिशत तक कम करना.
अपनी ऊर्जा संबंधी ज़रूरत का पचास फ़ीसद हिस्सा नवीनीकरण योग्य ऊर्जा से पूरा करना.
2030 तक के अपने कार्बन उत्सर्जन की कुल तादाद में से 1 अरब टन को कम करना.
वर्ष 2070 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना.
इनमें से कुछ वादे तो वही थे, जो भारत ने 2015 में पेरिस में हुए जलवायु सम्मेलन (COP21) में किए थे. पिछले छह से सात वर्षों के दौरान भारत ने मज़बूत इरादे दिखाते हुए अपनी नवीनीकरण योग्य ऊर्जा (RE) की क्षमता में काफ़ी इज़ाफ़ा किया है. 2015 के बाद से भारत में सौर और पवन ऊर्जा निर्माण की क्षमता में 2.5 गुने की बढ़ोत्तरी हो चुकी है. आज स्थापित नवीनीकरण योग्य पवन ऊर्जा के मामले में भारत, दुनिया में चौथा बड़ा देश और सौर ऊर्जा के मामले में पांचवें स्थान पर पहुंच चुका है.
हालांकि, जब भारत को ये एहसास हुआ कि उसने जलवायु परिवर्तन से जुड़े जिन वादों की घोषणा की है, उनमें से शायद कुछ को पूरा न कर सके, तो केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 3 अगस्त 2022 को हुई अपनी बैठक में इन वादों में कुछ संशोधन करने का फ़ैसला किया. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र को दोबारा दिए गए लक्ष्यों, जिन्हें नेशनली डेटरमाइंड कॉन्ट्रीब्यूशन (NDC) यानी देशों द्वारा कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए ख़ुद से निर्धारित किए गए लक्ष्यों की सूची फिर से सौंपी गई. ये नई सूची इस प्रकार है:
वर्ष 2030 तक बिजली बनाने की कुल स्थापित क्षमता में से ग़ैर जीवाश्म ईंधन से बिजली बनाने की 50 हिस्सेदारी स्थापित करना.
अपनी अर्थव्यवस्था के कुल कार्बन उत्सर्जन की तादाद को वर्ष 2030 तक, 2005 के स्तर के 45 फ़ीसद तक कम करना.
नेट ज़ीरो या शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य वर्ष 2070 तक हासिल करना.
2015 के बाद से भारत में सौर और पवन ऊर्जा निर्माण की क्षमता में 2.5 गुने की बढ़ोत्तरी हो चुकी है. आज स्थापित नवीनीकरण योग्य पवन ऊर्जा के मामले में भारत, दुनिया में चौथा बड़ा देश और सौर ऊर्जा के मामले में पांचवें स्थान पर पहुंच चुका है.
जैसा कि हम साफ़ तौर पर देख सकते हैं कि भारत ने ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में जो वादे किए थे, वो उनमें से दो को पूरा करने से पीछे हट गया है. इसमें बिजली की 50 फ़ीसद ज़रूरत को नवीनीकरण योग्य ऊर्जा (RE) से पूरा करना और 2030 तक अपने संभावित कार्बन उत्सर्जन में से एक अरब टन की कमी करने के वादे शामिल हैं. नवीनीकरण योग्य ऊर्जा से 500 गीगावाट बिजली बनाने के वादे में बदलाव करके इसे कुल स्थापित क्षमता में से ग़ैर जीवाश्म ईंधन से बिजली बनाने की हिस्सेदारी, 2030 तक 50 प्रतिशत करना कर दिया गया है. इस संशोधन के पीछे क्या कारण हैं, उन्हें समझने के लिए हमें भारत के ऊर्जा क्षेत्र के मौजूदा और संभावित आकलन की स्थितियों को समझने की ज़रूरत है.
भारत का ऊर्जा क्षेत्र: मौजूदा और संभावित स्थिति
ऊर्जा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले केंद्रीय बिजली प्राधिकरण के मुताबिक़, बड़ी पनबिजली परियोजनाओं को मिलाकर भारत में नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बिजली बनाने की स्थापित क्षमता 30 जून 2022 को 161 गीगावाट थी. वहीं, ग़ैर जीवाश्म ईंधन वाले स्रोतों से बिजली बनाने की क्षमता 168 गीगावाट है. ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में किए गए वादे के मुताबिक़, भारत को ये क्षमता बढ़ाकर 500 गीगावाट पहुंचाना है. केंद्रीय बिजली प्राधिकरण (CEA) ने 2015 में पेरिस जलवायु सम्मेलन में किए गए वादों के मुताबिक़, 2029-30 तक भारत द्वारा अधिकतम बिजली उत्पादन क्षमता विकसित करने की ज़रूरत का भी आकलन किया गया है. जनवरी 2020 में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में CEA ने अनुमान लगाया था कि 2029-30 तक इसके लिए 817 गीगावाट के कुल ऊर्जा उत्पादन की ज़रूरत होगी.
सारणी 1: भारत की स्थापित ऊर्जा क्षमता (जून 2022) और 2029-30 के लिए अनुमान
2029-30 तक बड़ी पनबिजली परियोजनाओं को मिलाकर, भारत की नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बिजली बनाने की कुल क्षमता लगभग 506 गीगावाट होगी, जो कुल स्थापित क्षमता का 62 फ़ीसद होगी. जबकि संयुक्त राष्ट्र (UNFCC) को जो भारत ने बताया है उसके मुताबिक़ वो 2030 तक अपनी कुल ऊर्जा ज़रूरतों का 50 प्रतिशत नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों से पूरा करेगा. किसी भी बिजलीघर की स्थापित क्षमता और उसमें बनने वाली बिजली की तादाद में बहुत फ़र्क़ होता है. क्योंकि अलग अलग ईंधनों पर चलने वाले बिजली घर बिजली बनाने में अलग तरह से योगदान देते हैं. चूंकि सौर और पवन ऊर्जा से चौबीसों घंटे बिजली उत्पादन नहीं किया जा सकात है, तो कोयले, परमाणु या पनबिजली की तुलना में पवन और सौर ऊर्जा से बिजली बनाने वाले कारखानों की क्षमता का औसत इस्तेमाल कम ही हो पाता है.
बिजलीघरों की बिजली बनाने की क्षमता और उनके वास्तविक बिजली उत्पादन की तुलना
नीचे दी गई सारणी दिखाती है कि कोयले से चलने वाले बिजलीघरों की कुल क्षमता कितनी है और वो कितनी बिजली बनाते हैं. यही स्थिति नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों से चलने वाले बिजलीघरों की भी दर्शाई गई है, जो साल 2021-22 के आंकड़े हैं. इसी तरह की तुलना 2029-30 में बिजलीघरों की संभावित स्थापित क्षमता और असली बिजली उत्पादन के मामले में भी की गई है. 2021-22 में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के स्रोतों (सौर ऊर्जा+पवन ऊर्जा+बायोमास+छोटी पनबिजली परियोजनाएं) से चलने वाले बिजलीघरों की कुल स्थापित क्षमता वैसे तो 27 प्रतिशत थी. लेकिन, देश के कुल बिजली उत्पादन में उनका योगदान महज़ 12 प्रतिशत था. जबकि ताप बिजली के स्रोतों (कोयला +लिग्नाइट+ गैस) की कुल स्थापित क्षमता 60 प्रतिशत थी. लेकिन, देश के कुल बिजली उत्पादन में उनका योगदान 75 प्रतिशत था. 2029-30 के लिए केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की रिपोर्ट में कहा गया था कि नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों से चलने वाले बिजलीघरों की हिस्सेदारी 445 गीगावाट होगी, जो कुल स्थापित क्षमता का 55 फ़ीसद होगी. लेकिन उनके द्वारा बिजली उत्पादन में महज़ 32 फ़ीसद का योगदान दिया जाएगा. ये ग्लासगो में भारत द्वारा किए गए वादों से 18 प्रतिशत कम है.
Table 2: स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता और वास्तविक बिजली उत्पादन की तुलना
अब अगर भारत को अपनी कुल ऊर्जा ज़रूरत को नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बनी बिजली से पूरा करना है, तो उसे नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के स्रोतों का बड़े पैमाने पर विस्तार करना होगा. कोयले और गैस से चलने वाले बिजलीघरों की तुलना में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा या पनबिजली सस्ती होने लगी है. लेकिन, दिक़्क़त ये है कि पवन ऊर्जा या सौर ऊर्जा के स्रोतों से लगातार बिजली उत्पादन नहीं किया जा सकता है. इस बाधा के चलते पावर ग्रिड में ख़लल और अस्थिरता पैदा होती है. इसके लिए बड़ी बड़ी बैटरियों की मदद से बिजली इकट्ठा की जाती है, जिसे बिजलीघर बंद होने की सूरत में सप्लाई किया जा सकता है. लेकिन इसकी लागत बहुत अधिक है और ये घाटे का सौदा माना जाता है. वहीं बड़ी पनबिजली और परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं में शुरुआती ख़र्च बहुत अधिक आता है. प्राकृतिक गैस से चलने वाले बिजलीघर, कोयले से बिजली बनाने की तुलना में 50 से 60 प्रतिशत कम कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं. उनका इस्तेमाल, पवन और सौर ऊर्जा के पावर प्लांट में बैक-अप के तौर पर किया जा सकता है. इसलिए प्राकृतिक गैस भी कोयले से बिजली बनाने का एक विकल्प हो सकती है. लेकिन, दिक़्क़त ये है कि भारत में प्राकृतिक गैस का उत्पादन उसकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त नहीं है. इसीलिए, भारत में गैस की खपत का 50 फ़ीसद हिस्सा तरल प्राकृतिक गैस (LNG) आयात करके पूरा किया जाता है. हाल के वर्षों में प्राकृतिक गैस के दाम ऐतिहासिक ऊंचाई तक जा चुके हैं और यूक्रेन पर रूस के हमले के चलते हालात और ख़राब ही हुए हैं. इन सभी कारणों के चलते, पूरी दुनिया और ख़ास तौर से यूरोप में कोयले से चलने वाले बिजलीघर कम करने की रफ़्तार धीमी हो गई है. भारत में भी घरेलू गैस उपलब्ध न होने और विदेश से मंगाई जाने वाली गैस की क़ीमतों में बेतहाशा इज़ाफ़े के चलते, देश में गैस से चलने वाले बिजलीघरों की 24 गीगावाट क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है. इन्हीं वजहों से प्राकृतिक गैस/ तरल प्राकृतिक गैस की क़ीमतें सस्ती होनी चाहिए. तभी वो सौर और पवन ऊर्जा से चलने वाले बिजलीघरों के बैकअप के लिए कोयले से बिजली बनाने का विकल्प बन सकेंगे.
ऐसे में ये अंदाज़ा लगाने में कोई जोखिम नहीं है कि कोयले से बिजली बनाने में इज़ाफ़े के चलते, बारत का नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोत से बिजली बनाने का वादा बहुत महत्वाकांक्षी है और हक़ीक़त से मेल नहीं खाता.
कोयले से बिजली बनाना: वक़्त की मांग
इन हालात में कोयले से चलने वाले बिजलीघर ही ग्रिड को स्थिर बनाने और भारत में बिजली की बढ़ती मांग पूरी करने का क़ुदरती विकल्प बन जाते हैं. इसका एक और कारण ये भी है कि भारत में सस्ता कोयला पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है. ये कम समय में मिल जाता है. वहीं, पनबिजली परियोजनाओं और परमाणु बिजलीघर बनाने की तुलना में इनकी शुरुआती लागत भी बहुत कम होती है. 2029-30 के लिए अपने पूर्वानुमानों में केंद्रीय बिजली प्राधिकरण ने कुल बिजली उत्पादन में कोयले से बनी बिजली की मात्रा तो कम होने का अंदाज़ा लगाया है. लेकिन, रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि तब तक कोयले से बिजली बनाने की क्षमता में 56 गीगावाट का इज़ाफ़ा हो जाएगा.
कोयले से बनी बिजली पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता के अपने जोखिम हैं, जैसा कि हम इसी साल के दूसरे हिस्से में देख चुके हैं, जब बिजलीघरों को कोयले की आपूर्ति इतनी नहीं थी कि वो गर्मी के चलते बिजली की बढ़ी मांग पूरी कर पाती. ये हाल तब हुआ, जब भारत दुनिया में कोयले का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और ग्राहक दोनों है. वर्ष 2021-22 में भारत ने 77.3 करोड़ टन कोयले का उत्पादन किया था. पिछले कई वर्षों से घरेलू उत्पादन ज़रूरत के मुताबिक़ न होने के चलते, भारत अपनी कोयले की ज़रूरत का एक हिस्सा बाहर से आयात करके पूरा कर रहा है. भारत सरकार के अंतर मंत्रालय समूह द्वारा तैयार किए गए पांच साल के विज़न डॉक्यूमेंट (2019-2024) के मुताबिक़, भारत में कोयले का उत्पादन साल 2019 में 73 करोड़ टन से बढ़कर, 2023-24 तक 114.9 करोड़ टन पहुंच जाएगा. इसमें से 80 प्रतिशत कोयला केवल ऊर्जा क्षेत्र में ही खप जाने का अनुमान है.
ऐसे में ये अंदाज़ा लगाने में कोई जोखिम नहीं है कि कोयले से बिजली बनाने में इज़ाफ़े के चलते, बारत का नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोत से बिजली बनाने का वादा बहुत महत्वाकांक्षी है और हक़ीक़त से मेल नहीं खाता. यहां तक कि साल 2029-30 में भी, केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के मुताबिक़ बिजली बनाने में कोयले की हिस्सेदारी 50 फ़ीसद होगी, जबकि नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बिजली बनाने की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत ही होगी. इसीलिए, भारत के पास 2030 तक अपनी कुल ऊर्जा ज़रूरत को नवीनीकरण योग्य स्रोतों से पूरा करने के वादे से पीछे हटने के अलावा कोई और विकल्प था ही नहीं.
बिजलीघरों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए नई तकनीक अपनाने से लेकर कार्बन कैप्चर और भंडारण (CCS) की क्षमता बेहतर बनाकर बिजलीघरों से कार्बन उत्सर्जन सीमित करने जैसे क़दम उपयोगी साबित हो सकते हैं. इसके लिए केंद्र और राज्यों की सरकारों द्वारा सामूहिक प्रयास करने होंगे.
केंद्रीय बिजली प्राधिकरण (CEA) के आकलन के अनुसार, 2029-30 तक भारत की कुल बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता 820 गीगावाट होगी. अब जो नए लक्ष्य तय किए गए हैं, उनके मुताबिक़, भारत को ग़ैर जीवाश्म ईंधन की क्षमता को 50 प्रतिशत यानी 410 गीगावाट तक पहुंचाना होगा, जो ग्लासगो (COP26) में किए गए 500 गीगावाट के एलान से 90 गीगावाट कम है. इससे भारत के ऊर्जा क्षेत्र को नवीनीकरण योग्य स्रोत और/ या फिर कोयले से बिजली बनाने की क्षमता का इज़ाफ़ा करने का मौक़ा मिल जाएगा. भारत ऐसा तब तक कर सकता है, जब तक वो ग़ैर जीवाश्म ईंधन से बिजली उत्पादन क्षमता को 50 प्रतिशत के स्तर तक पहुंचा ले.
आगे की राह: नेट- ज़ीरो तक पहुंचने का भारत का सफर
वैसे तो पवन और सौर ऊर्जा की तुलना में कोयले से बिजली बनाने की क्षमता बढ़ाना फ़ायदेमंद है. लेकिन, इससे भारत के लिए 2070 तक शून्य कार्बन उत्सर्जनका लक्ष्य हासिल करना मुश्किल हो जाएगा. भारत में कोयले से चलने वाले बिजलीघर उसके कुल कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन में सबसे ज़्यादा के हिस्सेदार हैं; कोयले वाले बिजलीघर भारत की एक तिहाई ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं और ईंधन से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में उनकी हिस्सेदारी 50 प्रतिशत के आस-पास है. हाल के अनुमानों के मुताबिक़, 2070 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत को 2060 तक कोयले से चलने वाले अपने सभी बिजलीघर बंद करने होंगे, और सौर और पवन ऊर्जा से बिजली बनाने की क्षमता को अभी के 109 गीगावाट से बढ़ाकर 2070 तक 7400 गीगावाट तक पहुंचाना होगा. भारत सरकार द्वारा शुरू की गई ग्रीन हाइड्रोजन परियोजना के तहत, 2030 तक सालाना 50 लाख टन ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन का लक्ष्य भी पटरी से उतर सकता है. क्योंकि ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन भी ग्रीन एनर्जी पर निर्भर है.
भारत को कोयले वाले बिजलीघरों पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए तेज़ी से क़दम उठाने होंगे. इसके लिए बिजलीघरों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए नई तकनीक अपनाने से लेकर कार्बन कैप्चर और भंडारण (CCS) की क्षमता बेहतर बनाकर बिजलीघरों से कार्बन उत्सर्जन सीमित करने जैसे क़दम उपयोगी साबित हो सकते हैं. इसके लिए केंद्र और राज्यों की सरकारों द्वारा सामूहिक प्रयास करने होंगे. उन्हें न केवल सौर और पवन ऊर्जा से बिजली बनाने की क्षमता बढ़ाने में निवेश करना होगा, बल्कि बिजली भंडारण की क्षमता बढ़ाने में भी निवेश करना होगा. भारत में पवन और सौर ऊर्जा से बिजली बनाने के कारखाने कुछ राज्यों तक ही सीमित हैं. केवल दस राज्य ही मिलकर, 97 फ़ीसद उत्पादन करते हैं. इसीलिए, जिन राज्यों में सौर और पवन ऊर्जा से बिजली बनाने की क्षमता कम है, उन्हें इसे बढ़ाने पर ज़ोर देना होगा. एक और मसला, बिजली वितरण कंपनियों की वित्तीय सेहत का भी है. सौर और पवन ऊर्जा के लक्ष्य हासिल करने के लिए इन कंपनियों की माली हालत सुधार कर उन्हें मज़बूत बनाने की ज़रूरत है. सबसे अहम बात तो ये है कि भारत, नेट ज़ीरो का लक्ष्य तभी हासिल कर सकता है, जब वो विकसित देशों से रियायती दरों पर पूंजी और सस्ते दामों पर ज़रूरी तकनीक हासिल कर सके.
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Harish Kumar Manchanda was the Executive Director at Alternate Energy &:Sustainable Development. He has 32 years of work experience in Indian OilCorporation Ltd. Superannuated in ...