Published on Aug 04, 2022 Updated 0 Hours ago

पिछले सात दशकों के दौरान समृद्धि ने यूरोपीय महाद्वीप को सामरिक आलस्य के सर्द समंदर में धकेल दिया है.

अंतरराष्ट्रीय मसले: ऊर्जा, सुरक्षा और यूरोप की असुविधा पर ‘राजनीति’

जर्मनी के राजमार्ग ऑटोबान 2 से जाएं, तो राजधानी बर्लिन से हनोवर शहर तीन घंटे से भी कम समय में पहुंचा जा सकता है. लेकिन, आज जब जर्मनी ऊर्जा के जटिल भू-अर्थशास्त्र से जूझ रहा है, तो हनोवर उससे एक क़दम आगे निकल गया है. अपनी ऊर्जा की खपत का बिल सर्दियां आने से पहले 15 प्रतिशत तक कम करने के लिए हनोवर अभी से ऐसे उपाय कर रहा है, जो इसके एक लाख दस हज़ार बाशिंदों को ठंड आने तक इन कटौतियों का आदी बना देगा.

आज जब यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था ऊर्जा की कम खपत वाला एक नया संतुलन बनाने में जुटा है, तो तय है कि उसके ये नुस्खे यूरोप के अन्य देशों में भी अपनाए जाएंगे क्योंकि एक के बाद एक, यूरोप के तमाम शहर अपनी ऊर्जा की खपत कम करने के उपाय कर रहे हैं. हालांकि इन नीतियों को लागू करना आसान नहीं होगा.

हनोवर ने इसके लिए जो उपाय किए हैं उनके तहत वो यूरोप का पहला बड़ा शहर बन गया है, जिसने सार्वजनिक इमारतों में गर्म पानी की आपूर्ति रोक दी है. डॉयचे वेले (DW) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, शौचालयों में गर्म पानी नहीं मिलेगा. स्विमिंग पूल और खेल के हॉल में भी नहाने के लिए गर्म पानी उपलब्ध नहीं होगा. वहीं, राजधानी बर्लिन में जर्मनी के अर्थव्यवस्था मंत्री रॉबर्ट हाबेक, गैस के उपभोक्ताओं पर एक नया टैक्स लगाने की योजना बना रहे हैं, जिससे हर ग्राहक पर सालाना एक हज़ार यूरो के ख़र्च का बोझ और बढ़ जाएगा. आज जब यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था ऊर्जा की कम खपत वाला एक नया संतुलन बनाने में जुटा है, तो तय है कि उसके ये नुस्खे यूरोप के अन्य देशों में भी अपनाए जाएंगे क्योंकि एक के बाद एक, यूरोप के तमाम शहर अपनी ऊर्जा की खपत कम करने के उपाय कर रहे हैं. हालांकि इन नीतियों को लागू करना आसान नहीं होगा. क्योंकि यूरोपीय देश लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं वाले हैं. इसलिए ऐसी तर्कपूर्ण और ज़रूरी नीतियों का भी विरोध होगा और इससे अगर पूरी तरह से अनिश्चित माहौल न भी बने, तो सियासी दरारें तो यक़ीनन पड़ेंगी.

यूरोप के सामने चुनौतियां

यूरोपीय महाद्वीप जो मई 1945 में विश्व युद्ध के ख़त्म हो जाने के बाद, असुविधा शब्द को ही भुला चुका हो और जिसने सात दशकों से कोई तकलीफ़ न झेली हो, उसके सामने आज अगर ख़ुद को गर्म रखने के लिए ऊर्जा की किल्लत है, तो इसकी वजह न तो राजनीतिक उठा-पटक है. न ही एक आर्थिक संकट है. यूरोप में बिजली की कमी के पीछे न तो गैस के दाम में अचानक विस्फोट है और न ही किसी पर्यावरण संकट का नतीजा है. आज साल 2022 में यूरोप के सामने जो चुनौती है, वो एक ज़बरदस्त भू-राजनीतिक उलट-फेर का नतीजा है. यूरोप के 50 देशों में 74.8 करोड़ लोग रहते हैं. उन सबकी मिली जुली GDP लगभग 18 ख़रब डॉलर है और जहां पश्चिमी यूरोप में प्रति व्यक्ति आय बहुत ज़्यादा और पूर्वी यूरोप में भी काफ़ी अधिक है. अगर इतनी अमीरी के बाद भी यूरोप के सामने ख़ुद को गर्म रखने का संकट है, तो इसके पीछे सिर्फ़ सुरक्षा नीति की ख़ामख़याली भर नहीं है. इससे पता चलता है कि यूरोप ने भू-राजनीतिक समीकरणों को समझने में कितनी बड़ी ग़लती की और इससे ये भी अंदाज़ा लगता है कि यूरोप को अपनी समृद्धि पर किस कदर गुमान था.

यूरोप के 50 देशों में 74.8 करोड़ लोग रहते हैं. उन सबकी मिली जुली GDP लगभग 18 ख़रब डॉलर है और जहां पश्चिमी यूरोप में प्रति व्यक्ति आय बहुत ज़्यादा और पूर्वी यूरोप में भी काफ़ी अधिक है. अगर इतनी अमीरी के बाद भी यूरोप के सामने ख़ुद को गर्म रखने का संकट है, तो इसके पीछे सिर्फ़ सुरक्षा नीति की ख़ामख़याली भर नहीं है. 

इससे ये अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि यूक्रेन पर रूस का हमला वाजिब है. ऐसा क़तई नहीं है. इस बात के पीछे तर्क बस ये सवाल उठाने का है कि पिछले सात दशकों से यूरोप जिन नीतियों पर चल रहा था क्या उनकी बुनियाद किन्हीं मूल्यों पर टिकी थी और क्या इनके पीछे 2022 में हितों को समझ पाने का कोई नज़रिया भी था. शांति, जनहित की पहली और सबसे बड़ी प्राथमिकता होती है. हर देश के नेता को सबसे पहले अमन क़ायम करना होता है. क्योंकि शांति, व्यापार का अहम पहलू होती है और फिर उसी से विकास, समृद्धि और गर्म पानी और सर्दियों में घरों के भीतर गर्मी जैसी सुख सुविधाएं हासिल की जाती हैं. सितंबर 1945 में विश्व युद्ध के ख़ात्मे के बाद जो अमन क़ायम हुआ, उसके बाद शीत युद्ध के वर्षों (1947 से 1991), नवंबर 1989 में बर्लिन की दीवार गिरने से लेकर दिसंबर 1991 में सोवियत संघ के विघटन तक, पूरे क्षेत्र में सुरक्षा का एक भाव पैदा हुआ. उसके बाद इस एहसास के साथ अर्थव्यवस्था में तेज़ी से तरक़्क़ी हुई कि भविष्य में व्यापार ही युद्ध को रोकेगा.

अप्रैल 1949 में एक राजनीतिक और सैन्य गठबंधन के तौर पर उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) के गठन के ज़रिए, मित्र राष्ट्रों ने अमेरिका के नेतृत्व में एक सुरक्षा देने वाले संगठन को खड़ा किया, जिसके हर सदस्य देश से ये उम्मीद की गई थी कि वो इस सुरक्षा ढांचे को मज़बूत बनाने में अपना योगदान देगा. लेकिन, बाद के वर्षों में ये बात साफ़ हो गई कि अमेरिका के सामरिक हित, यूरोपीय संघ की सामरिक ढाल बन गए. नेटो (NATO) की सार्वजनिक की गई फाइलों के मुताबिक़, नेटो के पहले महासचिव हेस्टिंग्स लायोनेल इसमें ने कहा था कि नेटो का गठन, ‘सोवियत संघ को दूर रखने, अमेरिका को यूरोप में बनाए रखने और जर्मनी पर क़ाबू रखने’ के लिए किया गया था.

शीत युद्ध के वर्षों के दौरान गठबंधन के कुल खर्च का आधा हिस्सा अमेरिका के ज़िम्मे आता रहा था; जब शीत युद्ध ख़त्म हुआ तो यूरोपीय संघ ने इसका आर्थिक फ़ायदा उठाने की कोशिश की. नतीजा ये हुआ कि नेटो के ख़र्च में अमेरिका की हिस्सेदारी 68 प्रतिशत तक पहुंच गई. 1997 में हर सदस्य देश द्वारा 3 प्रतिशत के योगदान का लक्ष्य रखा गया, जिसे साल 2006 में घटाकर दो फ़ीसद कर दिया गया. साफ़ था कि यूरोपीय संघ अपनी ही सुरक्षा का ख़र्च नहीं उठाना चाहता था. जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इस मुद्दे पर यूरोप की पोल खोली, तो ये विवाद और बढ़ गया. सवाल उठा कि रक्षा में दो फ़ीसद का ख़र्च बाध्यकारी है या स्वैच्छिक और आख़िर रक्षा व्यय है तो क्या है.

सितंबर 2014 में वेल्श शिखर सम्मेलन का घोषणापत्र जारी हुआ, जिससे यूरोप अपनी सुरक्षा के लिए ख़र्च करने की दिशा में आगे बढ़ा. इस घोषणापत्र के पैराग्राफ 14 में GDP का 2 प्रतिशत ख़र्च करने की बात दोबारा डाली गई और जिन  देशों का रक्षा बजट उनकी GDP के दो प्रतिशत से कम था, उन्हें इतना करने के लिए एक दशक का वक़्त दिया गया. 

जिस वक़्त पश्चिमी देश रक्षा व्यय की रक़म और सुरक्षा के स्वरूप को लेकर आपस में लड़ रहे थे, तो रूस और चीन (इसका अलग से विश्लेषण करने की ज़रूरत है) ने महाशक्तियों के मुक़ाबले का अपने अलग नज़रिए से अध्ययन किया. हालांकि, दोनों ही देशों को अगर दुश्मन नहीं, तो विरोधी तो माना ही जाता है. फिर भी यूरोपीय महाद्वीप उन पर निर्भर होता जा रहा था. गैस की आपूर्ति के लिए रूस पर और कम लागत वाले बाज़ार से आयात के मामले में चीन पर. यूरोप ने रूस से गैस की आपूर्ति के लिए मूलभूत ढांचे के विकास में काफ़ी रक़म ख़र्च की. 7.4 अरब यूरो की लागत से नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन बिछाई गई, जिसमें रूस की गैस कंपनी गैज़प्रॉम की हिस्सेदारी 51 प्रतिशत है. जर्मनी की विंटरशैल डी और E.ON की हिस्सेदारी 15.5-15.15 फ़ीसद की है वहीं, नीदरलैंड्स की कंपनी N.V नेडरलैंडसे गैसुनी और फ्रांस की कंपनी Engie SA की 9-9 प्रतिशत हिस्सेदारी है. उस वक़्त गैस सस्ती थी. इससे यूरोप में सामान बनाना सस्ता था और इससे यूरोप में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिला. कोई भी महाद्वीप इससे ज़्यादा भला और क्या चाहता?

रक्षा बजट को बढ़ावा देता है यूरोप

‘यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस की आक्रामक गतिविधियों’ के चलते सुरक्षा और ख़तरे का मुद्दा एक बार फिर बातचीत की मेज़ पर आया. सितंबर 2014 में वेल्श शिखर सम्मेलन का घोषणापत्र जारी हुआ, जिससे यूरोप अपनी सुरक्षा के लिए ख़र्च करने की दिशा में आगे बढ़ा. इस घोषणापत्र के पैराग्राफ 14 में GDP का 2 प्रतिशत ख़र्च करने की बात दोबारा डाली गई और जिन  देशों का रक्षा बजट उनकी GDP के दो प्रतिशत से कम था, उन्हें इतना करने के लिए एक दशक का वक़्त दिया गया. इस घोषणापत्र में 43 बार रूस का ज़िक्र आया था. ज़ाहिर है उससे यूरोप की सुरक्षा को ख़तरे का साया एक तरह से इज़्ज़त बचाने के लिए भी इस्तेमाल हुआ और ढुलमुल रवैया अपनाने के लिए भी. इस बात को ठीक से समझने के लिए हमें बस ये जान लेना चाहिए कि 2014 में रूस के प्रति ऐसा रवैया उन देशों का था, जिनकी साझा GDP उस वक़्त 36 ख़रब डॉलर से अधिक थी (आज 43 ख़रब डॉलर है). जबकि उस वक़्त रूस की GDP महज़ 2 ख़रब डॉलर थी और आज केवल 1.8 ख़रब डॉलर है. तो भले ही सामरिक तौर पर रूस बेहद ताक़तवर मालूम देता है. लेकिन आर्थिक दृष्टि से रूस एक मामूली हैसियत वाला देश है. हालांकि जून 2022 में नेटो के मैड्रिड शिखर सम्मेलन के घोषणापत्र में रूस का ज़िक्र केवल 11 बार आया था और नेटो ने रूस की आलोचना के लिए एक बार फिर उन्हीं घिसे-पिटे जुमलों जैसे कि- ‘मानवीय तबाही’, ‘खाद्य और ऊर्जा संकट’, ‘ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयानबाज़ी’, ‘हमलावर’- का इस्तेमाल किया था, ज़ाहिर था नेटो के ऐसे बयान सिर्फ़ ज़ुबानी जंग के लिए थे. इनमें यूक्रेन युद्ध को ख़त्म करने की ताक़त नहीं थी.

एक सवाल पैदा होता है: ऐसा कैसे है कि एक पूरा महाद्वीप, जहां शिक्षा के उच्च स्तरीय संस्थान हों, जिसके पास कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की ताक़त हो और जो भूमंडलीकरण के हर छोटे से छोटे पहलू की जानकारी रखता हो और जो पेचीदा मगर असरदार एकजुटता (ब्रेग्ज़िट को अपवाद मान लें तो) रखता हो, उसने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के ज़हन को समझने में इतनी बड़ी ग़लती कर कैसे दी? पुतिन को आप कुछ भी कहें, किसी भी तरह के ज़ुल्म करने के आरोप लगाएं. लेकिन, इस हक़ीक़त से आप मुंह नहीं मोड़ सकते कि उन्होंने पिछले एक दशक के दौरान रूस के सैन्य-ऊर्जा और सरकारी तंत्र को नेतृत्व प्रदान किया है. ज़ाहिर है, उन्हें अपने ग्राहक और विरोधी यूरोप के बारे में कुछ न कुछ तो ज़रूर मालूम रहा होगा.

आख़िर ये कैसे मुमकिन है कि यूरोपीय संघ के सदस्य देशों ने जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा के मुद्दे पर तो बड़ा तरक़्क़ीपसंद रुख़ अपनाया. लेकिन, उन्होंने कोयले और परमाणु ऊर्जा जैसे पारंपरिक स्रोतों की अनदेखी की और इस गड़बड़ी को अपने सुरक्षा ढांचे और सामरिक फ़ैसलों का हिस्सा बन जाने दिया.

यूरोप के 1.053 करोड़ वर्ग किलोमीटर के विशाल भौगोलिक दायरे, उसकी अर्थव्यवस्था, उसकी तक़नीकी शक्ति, विदेशी संबंध, बाज़ार की ताक़त, जनहित वाली नीतियों, विरासत में मिली संपत्ति और भव्यता और अपनी सुरक्षा के लिए सामने खड़े ख़तरे को समझ पाने की बड़ी ग़लती के बीच आख़िर फ़ासला क्या है? अगर यूरोपीय संघ अपनी घटिया अफ़सरशाही और निजी फ़ायदे वाली संकुचित सोच के दायरे से आगे नहीं देख सकता, तो फिर यूरोपीय संघ की अपनी एकजुटता बनाए रखने की कोशिशों का फ़ायदा ही क्या है? आख़िर ये कैसे मुमकिन है कि यूरोपीय संघ के सदस्य देशों ने जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा के मुद्दे पर तो बड़ा तरक़्क़ीपसंद रुख़ अपनाया. लेकिन, उन्होंने कोयले और परमाणु ऊर्जा जैसे पारंपरिक स्रोतों की अनदेखी की और इस गड़बड़ी को अपने सुरक्षा ढांचे और सामरिक फ़ैसलों का हिस्सा बन जाने दिया.

रूस द्वारा तय की गई ‘लक्ष्मण रेखा’ को भड़काऊ तरीक़े से पार करते हुए यूरोप ने एक बचकाने राजनीतिक दर्शन का प्रदर्शन किया है. इसके अलावा अगर यूक्रेन का नेटो का सदस्य बनना, रूस के लिए लक्ष्मण रेखा था तो क्या यूरोप को रूस की गैस पर अपनी निर्भरता को उसके लिए एक सामरिक हथियार मानते हुए, इसे पार करने की ग़लती करने से पहले गंभीरता से विचार नहीं करना चाहिए था? जिस इकलौते देश ने यूरोपीय सुरक्षा का ये ढांचा खड़ा किया और पहले रूस को लेकर हीला-हवाली की और अपनी ग़लती सुधार रहा है, वो जर्मनी है. उस पर उंगलियां उठ रही हैं. यहां तक कि यूरोप से बहुत दूर स्थित भारत, जिसका रूस से तेल का आयात यूरोप की तुलना में बेहद मामूली है, उसे भी रूस की आक्रामकता के लिए ज़िम्मेदार ठहराकर उंगलियां उठाई जा रही हैं. क्या अपनी ज़िम्मेदारी दूसरे पर थोपना ही यूरोप की सुरक्षा की नीति का अटूट हिस्सा है?

निष्कर्ष

आज जब यूरोप की नौकरशाही अपना हाथ मलते हुए बैठी है, तो हम एक भविष्यवाणी ज़रूर कर सकते हैं: आज जर्मनी जो कुछ कर रहा है, वही काम यूरोप के सभी देश, फिर से कहूंगा कि सभी देश आगे चलकर वही करेंगे. आज जब रूस और यूक्रेन की जंग, यूक्रेन के नागरिकों के ख़ून और पश्चिमी देशों के हथियारों से लड़ी जा रही है, तो इसमें भी एक मौक़ा, एक छोटा सा मौक़ा ज़रूर है: हो सकता है कि ये सर्द असुविधा, यूरोप को उसकी सामरिक नींद से जगा दे.

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