भारत को अन्य पूर्वी एशियाई देशों के जैसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और स्कूली शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अपने खर्च को बढ़ाना चाहिए.
हाल ही में ‘‘रेवड़ी’’ कल्चर को लेकर शुरू हुई बहस को देखते हुए भारत के राज्यों में चलाई जा रही समाज कल्याणकारी व्यवस्थाओं पर भी चर्चा का रास्ता खुल गया है. इस आलेख में पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं (सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, ताइवान तथा हांग कांग) की चर्चा की जाएगी, जिनकी विगत आधी शताब्दी में हुई तेज आर्थिक उन्नति की सभी प्रशंसा कर रहे हैं. (फिगर 1) यह चर्चा हमें भारतीय समाज कल्याण व्यवस्था की ट्रेजेक्टरी को देखने के लिए एक सुविधाजनक बिंदु प्रदान करने में सहायक होगी.
फिगर 1 – 1947-2018 के बीच प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की तुलना
पूर्वी एशियाई दृष्टिकोण
अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक चामर्स जॉनसन द्वारा 1982 में तैयार किया गया ‘विकासात्मक राज्य’ यानी डेवलपमेंटल स्टेट का मॉडल जापानी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और उद्योग मंत्रालय द्वारा करवाया गया एक अध्ययन था. यह मॉडल, व्यापक आर्थिक योजना में राज्य के मजबूत हस्तक्षेप का प्रतीक है. एक ऐसी कार्यान्वित योजना, जिसे तकनीकी नौकरशाही द्वारा अच्छी तरह से संरचित औद्योगिक नीतियों के माध्यम से लागू किया गया. इस मॉडल को बाद में पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के कल्याणकारी राज्य का वर्णन करने के लिए 2000 में इयान हॉलिडे ने रूपांतरित किया था. उन्होंने इसे ‘‘उत्पादक कल्याण पूंजीवाद’’ (पीडब्ल्यूसी) का नाम दिया था.
हाल ही में ‘‘रेवड़ी’’ कल्चर को लेकर शुरू हुई बहस को देखते हुए भारत के राज्यों में चलाई जा रही समाज कल्याणकारी व्यवस्थाओं पर भी चर्चा का रास्ता खुल गया है. इस आलेख में पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की चर्चा की जाएगी.
पीडब्ल्यूसी की परिभाषित विशेषता, बकौल हॉलिडे सामाजिक लक्ष्यों के मुकाबले आर्थिक लक्ष्यों को प्राथमिकता देना है. इसका संकेत राज्य के खर्च से सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य पर दिया जाने वाला बल तथा वृद्धावस्था पेंशन, किराये के आवास, या निष्क्रिय श्रम बाजार नीतियों पर कम जोर देने के माध्यम से मिलता है. अंशत: ये विकल्प जनसांख्यिकी से भी प्रभावित थे अर्थात शुरूआती दिनों में व्यापक रूप से युवा आबादी का मौजूद होना. हालांकि इसका केंद्रीय उद्देश्य एक उच्च शिक्षित, कुशल और स्वस्थ कार्यबल विकिसत करना था जो, देश की अर्थव्यवस्था में योगदान दे सके.
फिगर 2 -कुल सरकारी व्यय में से किए गए स्वास्थ्य व्यय की तुलना
इन अर्थव्यवस्थाओं के नेताओं ने जो तर्क आगे किए थे वे इस प्रकार थे. एक ऐसे कार्यबल का निर्माण करना जो राज्य की ओर से मुहैया करवाए जाने वाले कल्याण (जैसे बेरोजगारी बीमा) पर आश्रित न हो और स्वतंत्र रूप से काम कर सकें. ऐसा करना गुणात्मक माहौल बनाने के लिए बेहद अहम था, जिसकी वजह से सभी को समान अवसर उपलब्ध होते थे. ऐसा तभी संभव हो पाता जब आबादी न केवल स्वस्थ्य हो, बल्कि आम कर से वित्त पोषित शिक्षा व्यवस्था का लाभ उठाकर अच्छी तरह से शिक्षित भी हो गई हो. ऐसा होने पर ही अत्यंत समानता सुनिश्चित हो पाती. इसी वजह से सभी पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं ने शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा के क्षेत्र में भारी निवेश किया. इन क्षेत्रों में सरकारों ने बेहद केंद्रीय भूमिका अदा की थी.
पीडब्ल्यूसी की परिभाषित विशेषता, बकौल हॉलिडे सामाजिक लक्ष्यों के मुकाबले आर्थिक लक्ष्यों को प्राथमिकता देना है. इसका संकेत राज्य के खर्च से सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य पर दिया जाने वाला बल तथा वृद्धावस्था पेंशन, किराये के आवास, या निष्क्रिय श्रम बाजार नीतियों पर कम जोर देने के माध्यम से मिलता है.
फिगर 3 कुल सरकारी व्यय में से किए गए शिक्षा व्यय की तुलना
भारत में सामाजिक कल्याण नीतियां
भारत में भी आजादी के बाद से सामाजिक कल्याण की नीतियों में काफी सुधार हुआ है. विशेषत: विगत दो दशकों के दौरान तो इनमें व्यापक विस्तार देखा गया है. पिछली सरकारों ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून 2005 (एनआरईजीए) (और बेरोजगारी सह कार्य किराया योजना), असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा कानून 2008 और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013 में लागू किया. इसके साथ ही, बच्चों के लिए सकल नामांकन दर में (शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के शुभारंभ के बाद से) सुधार देखा गया है. इसके अलावा स्वच्छता अभियान को प्राथमिकता देकर शौचालयों का प्रावधान किया गया, जिसकी वजह से सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार होता है. हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय राज्यों ने अधिकार आधारित दृष्टिकोण अपनाया है. इसमें समाजिक सुरक्षा पर ज्यादा बल दिया गया है, जबकि पूर्वी एशियाई देशों ने ‘उत्पादकता’ आधारित नीतियां बनाई और उस पर अमल किया. भारत में ‘उत्पादकता’ की बजाय सुरक्षात्मकता पर बल दिया गया, लेकिन यह नहीं देखा गया कि जो सुरक्षा दी जा रही है वह पर्याप्त है अथवा नहीं. यहां यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इसमें तर्क ‘यह’ अथवा ‘वह’ का नहीं है. अधिकांश भारतीय राज्यों में बेरोजगारी के उच्च स्तर, उच्च भूख दर, खराब सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य को देखते हुए सरकार को निम्न-आय वाले नागरिकों को मानवता के आधार पर सहायता प्रदान करनी ही चाहिए. जब भारतीय अर्थव्यवस्था इस कदर सक्षम हो जाएगी कि वह पर्याप्त रोजगार के मौके मुहैया करवा सके और नागरिक भी शिक्षित और स्वस्थ होने लग जाए तब ही सरकार की ओर से मुहैया करवाई जाने वाली मदद का महत्व कम होगा. उदाहरण के तौर पर जब वेतन और आय में पर्याप्त वृद्धि होगी तो बुजुर्ग नागरिकों के लिए रियायती दर पर बस सुविधा का महत्व अपने आप ही कम हो जाएगा.
जब भारतीय अर्थव्यवस्था इस कदर सक्षम हो जाएगी कि वह पर्याप्त रोजगार के मौके मुहैया करवा सके और नागरिक भी शिक्षित और स्वस्थ होने लग जाए तब ही सरकार की ओर से मुहैया करवाई जाने वाली मदद का महत्व कम होगा.
नागरिकों को सरकार की ओर से सहायता दी जानी चाहिए अथवा नहीं इस मसले पर केवल साधारण चर्चा करने से हम कुछ हासिल नहीं कर सकते. आखिरकार सरकार की तिजोरी में पैसा तो नागरकिों की ओर से अदा किए जाने वाले कर से ही आता है. हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि सरकार की ओर से दी जाने वाली सहायता से हम कैसे एक मजबूत समाज और अर्थव्यवस्था को तैयार कर सकते है. फिगर दो और तीन देखने पर यह पता चलता है कि भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बेहद कम है. इसकी वजह से भारत की खुद को ज्ञान का ऊर्जा केंद्र बनने की अपनी महत्वकांक्षा पूरी करने में परेशानी हो रही है. पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाओं की तरह ही 1940 के दशक में भारत ने एक समान प्रति व्यक्ति आय स्तर पर शुरुआत की थी. हालांकि, पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाएं अपनी उत्पादक सामाजिक कल्याण नीतियों के दम पर आगे बढ़ीं, जिन्होंने सीधे आर्थिक विकास में योगदान देने का काम किया था.
दरअसल यहां व्यावहारिकता को अपनाया जाना अहम है. सरकार की ओर से दी जाने वाली सहायता को एक क्षेत्र से उठाकर दूसरे क्षेत्र में लागू किया जा सकता है. यह बात संबंधित क्षेत्र की आबादी और उसके सामाजिक संदर्भ से जुड़ी हो सकती है. उदाहरण के तौर पर पूर्वी एशियाई देशों ने अब अपनी उम्रदराज होती आबादी को देखकर उत्पादकता आधारित नीतियों से परे जाने का निर्णय लिया है. लेकिन अधिकांश मामलों में आज भी सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र पर उतनी ही गंभीरता से ध्यान दिया जा रहा है, ताकि नागरिक स्वत: अपना ध्यान रखने के लायक बन सके. भारत अभी एक युवा देश कहा जा सकता है, जिसकी केवल 10 प्रतिशत आबादी ही 60 की उम्र को पार कर गई है. लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं रहने वाली है. यदि पूर्वी एशियाई अनुभव से हमें कुछ सीखना ही है तो वह यह कि कैसे सरकार अपने सार्वजनिक खर्च को शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में बढ़ाएगी. यदि ऐसा हुआ तो इस ‘‘रेवड़ी’’ पर किया खर्च सरकार के लिए आश्चर्यजनक रूप से मीठा परिणाम देने वाला ही होगा.
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Mohnish is pursuing his PhD at the Lee Kuan Yew School of Public Policy (LKYSPP), National University of Singapore. He is theoretically interested in policy ...