भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) के केंद्रीय बोर्ड ने 26 अगस्त को एक अप्रत्याशित या यूं कहें कि ‘ऐतिहासिक’ कदम उठाते हुए अपने रिज़र्व से मोदी सरकार को रिकॉर्ड 1.76 लाख करोड़ रुपये देने का ऐलान किया. ऐसा लग रहा है कि यह पैसा देश को आर्थिक मुश्किलों से निकालने के लिए दिया गया है. वैसे, इस मुसीबत के लिए काफी हद तक हम ख़ुद जिम्मेदार हैं. इसका वैश्विक हालात से लेना-देना नहीं है. केंद्र को मिलने वाले 1.76 लाख करोड़ रुपये में से 1.23 लाख करोड़ 2018-19 में आरबीआई का सरप्लस है. वहीं, बोर्ड मीटिंग में स्वीकार किए गए रिवाइज्ड इकॉनमिक कैपिटल फ्रेमवर्क के मुताबिक 52,637 करोड़ रुपये की अतिरिक्त प्रोविजनिंग हुई थी. इसलिए यह पैसा भी सरकार को देने का निर्णय लिया गया. 2019-20 में सरकार ने रिज़र्व बैंक से 90,000 करोड़ रुपये मिलने का अनुमान लगाया था, जबकि उसे मिल रही है इससे करीब दोगुनी रकम. यह पिछले पांच साल में आरबीआई से सरकार को मिली औसत 53,000 करोड़ की रकम का तीन गुना है. इससे सरकार के खर्च बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को सुस्ती से निकालने का रास्ता साफ हो गया है. इस रकम से फिस्कल डेफिसिट (सरकार की आमदनी से अधिक खर्च) को काबू में रखने में मदद मिलेगी, जिसके लिए वित्त वर्ष 2019-20 में जीडीपी के 3.3 प्रतिशत का लक्ष्य तय किया गया है. रिज़र्व बैंक की तरफ से सरकार को रिकॉर्ड रकम ट्रांसफर किए जाने की कहानी काफी लंबी है और इस फैसले से उसके खज़ाने से 1.76 लाख करोड़ या यूं कहें कि देश की अवाम की दौलत में इतने की कमी आई है.
कुल मिलाकर, इस मामले से मोदी सरकार के सिर एक और संस्थान को आघात पहुंचाने का आरोप लग गया है जबकि अर्थव्यवस्था और वित्तीय दुनिया की बुनियादी समझ नहीं होने के कारण देश की इकॉनमी फिसलन भरी राह पर है.
बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार की आरबीआई के रिज़र्व पर काफी लंबे समय से नजर थी. रिज़र्व बैंक के दो पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और उर्जित पटेल नहीं चाहते थे कि केंद्रीय बैंक के रिज़र्व का इस्तेमाल सरकार इकॉनमिक ग्रोथ बढ़ाने या फिस्कल डेफिसिट को कंट्रोल में करने के लिए करे. एक समय ऐसा था, जब सत्ताधारी पार्टी में एक वर्ग आरबीआई के रिज़र्व का इस्तेमाल चुनाव जीतने की ख़ातिर लोकलुभावन योजनाओं लागू करने के लिए करना चाहता था. राजन और पटेल के हटने के बाद मोदी सरकार ने 12 दिसंबर 2018 को वरिष्ठ नौकरशाह शक्तिकांत दास को आरबीआई गवर्नर नियुक्त किया ताकि वह उसके रिज़र्व से रकम हासिल कर सके. केंद्रीय बैंक की कमान संभालने के 15 दिनों के अंदर यानी 27 दिसंबर को दास ने इस मांग को पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ाते हुए पूर्व गवर्नर बिमल जालान की अध्यक्षता में छह सदस्यीय समिति बनाई. समिति से यह बताने को कहा गया कि आरबीआई के लिए सही रिज़र्व कितना होना चाहिए और क्या इसमें से कुछ सरप्लस सरकार को दिया जा सकता है. पिछले साल जून तक केंद्रीय बैंक के पास 9.59 लाख करोड़ का रिज़र्व था. जालान समिति ने विचार-विमर्श के बाद इकॉनमिक कैपिटल के दो हिस्सों — रियलाइज्ड इक्विटी और रिवैल्यूएशन बैलेंस के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए कहा कि रिज़र्व बैंक रियलाइज्ड इक्विटी के एक हिस्से का इस्तेमाल सभी जोखिम या नुकसान से निपटने के लिए कर सकता है क्योंकि इसे उसने अपने मुनाफ़े से बनाया है. उसने रिवैल्यूएशन बैलेंस को रिस्क बफर बताया, जो मार्केट संबंधी जोखिम से निपटने में काम आ सकता है. रिवैल्यूएशन बैलेंस में आरबीआई का वह रिटर्न भी शामिल है, जिसे भुनाया नहीं गया है. इसी वजह से इसे किसी को दिया नहीं जा सकता. जालान समिति की सिफ़ारिशें से रिज़र्व बैंक के लिए सरकार की मंशा पूरा करने की गुंजाईश बनी. समिति के लिए जो एजेंडा तय किया गया था, उसमें वह इस पर सुझाव नहीं दे सकती थी कि सरकार, आरबीआई के रिज़र्व पर हाथ डाल सकती है या नहीं. यह बात और है कि इस रिज़र्व को देश की वित्तीय विश्वसनीयता के लिए जरूरी माना जाता है. बहरहाल, उसे सिर्फ यह फैसला करना था कि कितना रिज़र्व सरकार को दिया जा सकता है. इसका मतलब है कि समिति को सरकार का एजेंडा पूरा करने की नीयत से बनाया गया था. इसमें रिज़र्व बैंक इस रकम के इस्तेमाल को लेकर कोई शर्त भी नहीं थोप सकता था. यह उसकी स्वायत्तता का सरकार के सामने समर्पण था. कुल मिलाकर, इस मामले से मोदी सरकार के सिर एक और संस्थान को आघात पहुंचाने का आरोप लग गया है जबकि अर्थव्यवस्था और वित्तीय दुनिया की बुनियादी समझ नहीं होने के कारण देश की इकॉनमी फिसलन भरी राह पर है. सरकार की कथनी और करनी में फर्क के कारण देश की आर्थिक स्थिति इस कदर ख़राब हुई है.
माना जा रहा है कि रिज़र्व बैंक से मिले पैसों में से पब्लिक सेक्टर के बैंकों को 70 हजार करोड़ रुपये देने के बाद बची हुई रकम का इस्तेमाल निवेश बढ़ाने के लिए किया जाएगा.
माना जा रहा है कि रिज़र्व बैंक से मिले पैसों में से पब्लिक सेक्टर के बैंकों को 70 हजार करोड़ रुपये देने के बाद बची हुई रकम का इस्तेमाल निवेश बढ़ाने के लिए किया जाएगा. सरकार का कहना है कि निवेश बढ़ाकर आर्थिक सुस्ती को रोका जा सकता है और यह अर्थव्यवस्था के लिए राहत पैकेज का काम करेगा. निवेश के कमजोर बने रहने और निजी खपत में आई गिरावट के कारण आर्थिक विकास दर (जीडीपी ग्रोथ) धीमी पड़ गई है. ऐसे में सरकार के खर्च बढ़ाने से आर्थिक रफ्तार तेज हो सकती है क्योंकि ग्रोथ के निवेश, खपत (कंजम्पशन) और निर्यात जैसे अन्य इंजन सुस्त पड़ गए हैं. सरकार और खासतौर पर मोदी एडमिनिस्ट्रेशन के कामकाज की समझ रखने वाले जानकारों का कहना है कि यहां भी एक पेच है. शायद इस रकम का आर्थिक रिकवरी में अधिकतम इस्तेमाल न हो पाए. वे इस संदर्भ में विनिवेश या कई चीजों पर लगाए गए उपकर से जुटाई गई रकम का हवाला दे रहे हैं. अगर सरकार टैक्स और नॉन-टैक्स रेवेन्यू का लक्ष्य पूरा कर पाती है, तभी राहत पैकेज का अधिकतम लाभ मिलेगा. वहीं, अगर सरकारी खज़ाने में अनुमान से कम रकम आती है तो अतिरिक्त खर्च का पूरा फायदा मिलना मुश्किल है. इस अनुमान में भी यह माना गया है कि सरकार बजट में दिए गए फिस्कल डेफिसिट के लक्ष्य को हासिल करे.
इधर, नए वित्त वर्ष के पहले पांच महीने में अनुमान से कम डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन के बाद चिंताएं सामने आई हैं. इन हालात में क्या सरकार अपनी तरफ से खर्च बढ़ाना गवारा कर सकती है? यह भी सच है कि रिज़र्व बैंक से मिले पैसों से सरकार के लिए आर्थिक विकास की रफ्तार बढ़ाने के मौके बने हैं. हालांकि, उसे दिखावे से बचते हुए इसका समझदारी से इस्तेमाल करना होगा. इस मामले में पहले कार्यकाल में मोदी सरकार का रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व के अतीत से सबक सीखने की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता. दिक्कत यह है कि मौजूदा सरकार का ध्यान पूरे देश में बीजेपी के विस्तार पर है. उसे सुधारों के जरिये आर्थिक विकास दर में तेजी लाने की परवाह नहीं है. आज कृषि, भूमि और श्रम बाजार में उदारीकरण की तुरंत जरूरत है, लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है. वजह साफ है, इन सुधारों की उसे भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है.
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