Author : Nandini Sarma

Published on Jun 08, 2021 Updated 0 Hours ago

भविष्य में ज़्यादा से ज़्यादा देश ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों की ओर क़दम बढ़ाएंगे. इससे ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों की मांग कई गुणा बढ़ने वाली है.

उद्योगों के लिए स्वच्छ ऊर्जा के विकल्पों का विकास

कम कार्बन उत्सर्जित करने वाली ऊर्जा की दिशा में आगे बढ़ने के प्रयास दुनिया भर में तेज़ी से बढ़ रहे हैं. मिसाल के तौर पर भारत अपने कुल ऊर्जा भंडार में नवीकरणीय ऊर्जा का हिस्सा बढ़ाने की दिशा में काफ़ी तरक्की कर रहा है. इस दिशा में हो रहे बदलावों के मुख्य वाहकों में यहां के कारोबार जगत की प्रतिबद्धता भी शामिल है. स्वच्छ ऊर्जा की ओर तेज़ी से कदम बढ़ाए जा रहे हैं. देश में ऊर्जा की कुल मांग का करीब 25 प्रतिशत कॉरपोरेट सेक्टर की वजह से है. ऐसे में निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था के निर्माण की दिशा में उनकी नीतियों की अहमियत समझी जा सकती है. कुछ कंपनियों ने तो स्वैच्छिक तौर पर एक तय समय सीमा के भीतर 100 प्रतिशत नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ने का लक्ष्य निर्धारित कर रखा है. इसे आरई100 पहल के तौर पर भी जाना जाता है.[1] 2019 में वैश्विक स्तर पर स्वच्छ बिजली की खरीद में 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई.[2] 

नवीकरणीय ऊर्जा की मांग बढ़ने के कई और लाभ भी होते हैं. मांग में बढ़ोतरी से इससे जुड़े विनिर्माण क्षेत्र का आधार बढ़ता है, रोज़गार के अवसर पैदा होते हैं और निर्यात बाज़ार में बहुरूपता और विविधता लाने में मदद मिलती है. इतना ही नहीं विनिर्माण से जुड़े अवसर बढ़ने से निर्यात क्षेत्र को भी मदद मिल सकती है. पवन और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भारत की व्यापार संभावनाओं की बढ़ोतरी से वैश्विक मूल्य श्रृंखला से जुड़ाव को आगे बढ़ाने में सहायता मिल सकती है. ग़ौरतलब है कि सौर ऊर्जा के क्षेत्र में देसी क्षमता विकसित करने के मामले में भारत को अब तक सीमित कामयाबी ही मिल सकी है. इन क्षेत्रों में सुरक्षा हासिल करने के लिए इनके रास्ते में आने वाले अवरोधों की पहचान करने के साथ-साथ नीतिगत मामलों में और ज़्यादा संकेन्द्रित रुख़ अपनाए जाने की आवश्यकता है. इसके साथ ही भारत को हाइड्रोजन ईंधन जैसी नई तकनीक के मामलों में विनिर्माण के अवसरों की पहचान कर उनके हिसाब से दीर्घकालिक रणनीतियां अपनाने की ज़रूरत है. 

भारत के पास पवन ऊर्जा के निर्यात से जुड़े क्षेत्र में एक बड़ी ताक़त के तौर पर उभरने की पूरी क्षमता मौजूद है. 

नवीकरणीय विनिर्माण आधार के विकास से निवेश को आकर्षित करने में मदद मिलेगी. वैश्विक स्तर पर विकासशील देशों में नवीकरणीय ऊर्जा पर होने वाला निवेश 2019 में 152.2 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया. 2010 के बाद से इस क्षेत्र में विकासशील देशों में होने वाला निवेश विकसित देशों के निवेश के मुक़ाबले आगे निकल गया है. नवीकरणीय स्रोतों पर विकासशील देशों का निवेश इस क्षेत्र में दुनिया के कुल निवेश का 54 प्रतिशत हो गया है [चित्र 1 देखें].[3]

इस अध्याय के बाक़ी के हिस्सों में स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के घरेलू उत्पादन आपूर्ति श्रृंखला के समसामयिक मुद्दों की पड़ताल करते हुए संभावित नीतिगत पहल सुझाए गए हैं. इस विश्लेषण में वैश्विक स्तर पर तकनीक के हस्तांतरण के मुद्दे पर भी विचार किया गया है. इसके साथ ही तकनीक के हस्तांतरण और हरित प्रौद्योगिकी के विकास में भारत द्वारा निभाई जा सकने वाली अग्रणी भूमिका पर भी विचार किया गया है. 

भारत में स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र की वस्तुस्थिति: एक अवलोकन

पवन ऊर्जा

भारत का पवन ऊर्जा उद्योग नवीकरणीय ऊर्जा के दूसरे क्षेत्रों के मुक़ाबले अपेक्षाकृत आत्म-निर्भर है. पवन ऊर्जा से जुड़े 80 फ़ीसदी उपकरणों का उत्पादन घरेलू स्तर पर होता है. भारत आज दुनिया में पवन ऊर्जा का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक है. देश में पवन ऊर्जा की स्थापित क्षमता 37 गीगावाट है.[5] यह उद्योग शत प्रतिशत निजी हाथों में है.[6] चित्र 2 में पवन ऊर्जा क्षेत्र की आपूर्ति श्रृंखला प्रदर्शित है. आपूर्ति श्रृंखला के कुछ चुनिंदा खंडों- जैसे गीयरबॉक्स, बीयरिंग्स और ब्लेड्स में प्रतिभागियों की संख्या काफ़ी कम हैं. इसकी वजह ये है कि इनके उत्पादन में बहुत ज़्यादा पूंजी निवेश की ज़रूरत होती है. इतना ही नहीं, इस क्षेत्र में किसी उत्पादक के संभावित प्रवेश के रास्ते में अनेक बाधाएं मौजूद हैं. पवन ऊर्जा के दूसरे खंडों- जैसे जेनेरेटर्स और टावर निर्माण से जुड़े क्षेत्र में प्रवेश के रास्ते में अवरोध अपेक्षाकृत कम हैं. लिहाजा इनके निर्माण में ज़्यादा उत्पादक संलग्न हैं. आपूर्ति श्रृंखला के विभिन्न स्तरों पर विनिर्माण से जुड़े अपार अवसर मौजूद हैं. इनमें कच्चे माल से लेकर ज़रूरी कलपुर्जों के आपूर्तिकर्ता शामिल हैं. इसके साथ ही सेवा प्रदाताओं के लिए भी संचालन और रखरखाव, व्यवहार्यता के अध्ययनों और जियोटेक्निकल सेवाओं से जुड़े अवसर उपलब्ध हैं.  

भारत का पवन ऊर्जा क्षेत्र फिलहाल 250 किलोवाट से लेकर 1.8 मेगावाट तक की क्षमता वाले छोटे टर्बाइनों पर आधारित है. बड़े उपकरणों की आपूर्ति शत-प्रतिशत भारतीय स्वामित्व वाली कंपनी सुज़लॉन करती है.[7] ये कंपनी दुनिया में पवनचक्की के सबसे बड़े निर्माताओं में से एक है. भारत में 50 प्रतिशत पवनचक्कियों की आपूर्ति यही कंपनी करती है और विश्व व्यापार में इसका हिस्सा 8 प्रतिशत है.[8] 

राष्ट्रीय स्तर पर अनुकूल नीतियों के चलते पवन ऊर्जा क्षेत्र से जुड़ी नियामक व्यवस्था में स्थिरता का माहौल बनाने में मदद मिली है. सरकार ने घरेलू स्तर पर समुचित मूल्य नीतियों और आयात शुल्कों को समायोजित कर घरेलू उत्पादन को बढ़ावा दिया है. सरकार इस सिलसिले में कई योजनाएं भी चला रही है. इनमें उत्पादन आधारित प्रोत्साहन [जीबीआई] योजनाएं, एक्सीलरेटेड डेप्रिशिएशन स्कीम के साथ-साथ फ़ीड-इन टैरिफ़्स शामिल हैं.[9] फ़ीड-इन टैरिफ़्स के ज़रिए ख़रीद क़ीमत की गारंटी दी जाती है. इससे आपूर्तिकर्ताओं के लिए जोखिम कम करने में मदद मिलती है. 

2017 में सरकार ने फ़ीड-एन टैरिफ़्स व्यवस्था की जगह शुल्क पर आधारित प्रतिस्पर्धी निविदा की नीति शुरू की. इसके पीछे की वजह नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में बढ़ती क्षमता और क़ीमतों में आई गिरावट रही.[10] राज्यों के स्तर पर भी यही पद्धति अपनाई गई. निविदाओं में प्रतिस्पर्धा के चलते शुल्कों में गिरावट आई है. इससे इन कंपनियों के राजस्व पर भी असर पड़ने की आशंका है. ऐसे में निर्माताओं के मन में इस व्यवस्था के प्रति शंकाएं पैदा हुई हैं.[11] 

भारत में रसद से जुड़ी लागत फिलहाल जीडीपी का 14 प्रतिशत है. इसे जीडीपी के 10 प्रतिशत से नीचे लाने की आवश्यकता है ताकि भारत विकसित देशों की बराबरी वाले स्तर पर आ सके.

सुज़लॉन को वैश्विक स्तर पर इस ऊंचाई तक पहुंचने में किसकी मदद मिली? आरंभ में सुज़लॉन ने जर्मन कंपनियों के साथ तकनीकी गठजोड़ और लाइसेंसिंग के ज़रिए बुनियादी तकनीकी हासिल की. इसके बाद उसने अपने शोध केंद्र विकसित किए. कंपनी ने स्थानीय स्तर पर विनिर्माण का रास्ता अपनाया. देश में मौजूद सस्ते श्रम और कम दाम पर उपलब्ध कच्चे माल की बदौलत कंपनी प्रतिस्पर्धी क़ीमत पर उत्पादन करने में कामयाब रही. सुज़लॉन ने एकीकृत आपूर्ति श्रृंखला की रणनीति अपनाई. इस तरह से इसे संपूर्ण आपूर्ति श्रृंखला में लागत पर अधिक नियंत्रण हासिल हो गया. नतीजतन इसके पास मांग के हिसाब से अपने उत्पादन को कम-ज़्यादा करने की काबिलियत भी आ गई. प्रारंभिक दौर में सुज़लॉन की सफलता के पीछे के दूसरे कारकों में शोध और विकास के साथ-साथ आपूर्ति श्रृंखला का प्रभावी प्रबंधन भी शामिल है. 

पवन चक्कियों के कारोबार की बात करें तो चित्र 3 से स्पष्ट है कि 2019 में इनका निर्यात बढ़कर 2.36 करोड़ डॉलर हो गया, जबकि उसी साल इसका आयात 2 लाख डॉलर से भी कम रहा. इससे स्पष्ट है कि भारत के पास पवन ऊर्जा के निर्यात से जुड़े क्षेत्र में एक बड़ी ताक़त के तौर पर उभरने की पूरी क्षमता मौजूद है. 

जैसा कि टेबल 1 से स्पष्ट है ब्राज़ील और अर्जेंटीना जैसे लैटिन अमेरिकी राष्ट्रों के साथ-साथ अफ़्रीका के देशों को होने वाले निर्यात में बढ़ोतरी हुई है. 2011 में पवन ऊर्जा के क्षेत्र में गठजोड़ की संभावनाएं तलाशने के लिए उरुग्वे के अधिकारियों ने भारत की यात्रा की थी.[14] उद्योग से जुड़े तमाम विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के उभरते बाज़ारों के लिए भारत एक अहम आपूर्तिकर्ता बन सकता है. इससे भारत को अपने निर्यात वस्तु को बहुरूपता या विविध स्वरूप देने और उनकी पहुंच को विस्तार देने का मौका मिलेगा. पुराने और निम्न क्षमता वाली चक्कियों के निर्यात से जुड़ा एक और मौका मौजूद है. इनको एक बार फिर से नया रूप देकर प्रतिस्पर्धी क़ीमतों पर उन देशों को बेचा जा सकता है जो अपने यहां नवीकरणीय ऊर्जा का आधार बढ़ाना चाहते हैं. पवन ऊर्जा के क्षेत्र में निर्यात को बढ़ावा देना भारत के चालू खाते के घाटे को कम करने में भी मददगार साबित हो सकता है. इससे कच्चे तेल के आयात पर होने वाले भारी-भरकम खर्च को संतुलित करने में सहायता मिल सकती है.

अब इस बात में शक की कोई गुंज़ाइश नहीं है कि भारत में पवन ऊर्जा सेक्टर अच्छे तरीक़े से स्थापित हो चुका है. भारतीय कंपनियों ने विदेशी कंपनियों से तकनीक के लिए लाइसेंस हासिल कर लिए हैं. इतना ही नहीं शोध और घरेलू परिस्थितियों के हिसाब से सटीक तकनीक अपनाने में भी उन्होंने अपना लोहा मनवाया है. हालांकि भारत को विदेशी कंपनियों के मुक़ाबले डिज़ाइन और अनुसंधान के क्षेत्र में अभी और ज़्यादा पूंजी निवेश की ज़रूरत है. नवीकरणीय ऊर्जा की नई तकनीकों में भारी निवेश की आवश्यकता होती है. ऐसे में सरकार द्वारा मुहैया कराई जाने वाली सुविधाओं की अहमियत बढ़ जाती है. मिसाल के तौर पर चीन में पवनचक्की तंत्र से जुड़े शोध और विकास कार्य के लिए विशेष कोष का प्रावधान है.[15] चीन में पवनचक्कियों कुल क्षमता 1997 में 600 किलोवाट थी जो 2011 में बढ़कर 6 मेगावाट हो गई. 10 मेगावाट क्षमता वाली पवनचक्कियों के विशिष्ट डिज़ाइन पर चीन की कई कंपनियां शोध कार्य कर रही हैं. चीन ने अपनी 13वीं पंचवर्षीय योजना में 8 से 10 मेगावाट क्षमता वाली पवन चक्कियों से जुड़ी प्रौद्योगिकी को देश के अगले चरण के तकनीकी आधुनिकीकरण के लक्ष्य के तौर पर चिन्हित किया है.[16] वैश्विक स्तर पर पवनचक्कियों का आकार 14 मेगावाट के स्तर तक पहुंच गया है.[17] भारत को प्रौद्योगिकी के विकास के लिए दीर्घकालिक रणनीति के हिसाब से योजना बनानी होगी ताकि देश के निर्यात बस्ते में विविधता लाकर उसका परिमाण बढ़ाया जा सके. 

केवल एक साल के लिए ऐसे प्रावधान लागू करने से विनिर्माण क्षेत्र को उतना संरक्षण नहीं मिल सकेगा जो उसे एक स्तर तक बढ़ाने के लिए आवश्यक है.

भारत के लिए अगला कदम खुले समुद्र में पवन ऊर्जा के क्षेत्र में प्रवेश से जुड़ा है. यूरोपीय देशों में इसका विकास बेहद अच्छे तरीके से हुआ है. इस सिलसिले में भारत की नीतियों से जुड़ा 2013 का मसौदा मौजूद है. खुले समुद्र में संचालित पवन ऊर्जा से जुड़े तंत्र में रसद की लागत ज़्यादा होती है. इसमें समुद्र तटवर्ती पवन ऊर्जा व्यवस्था के मुक़ाबले तकनीकी चुनौतियां भी अधिक हैं. ख़ासतौर से बुनियादी ढांचे के मामलों में कलपुर्जों के परिवहन को लेकर भारी चुनौतियां बरकरार हैं. भारत में रसद से जुड़ी लागत फिलहाल जीडीपी का 14 प्रतिशत है. इसे जीडीपी के 10 प्रतिशत से नीचे लाने की आवश्यकता है ताकि भारत विकसित देशों की बराबरी वाले स्तर पर आ सके.[18] निर्यात ऋण की ऊंची लागत पवन ऊर्जा के क्षेत्र में लागत से जुड़ी एक बड़ी चिंता है. विदेशी मुद्रा और भारतीय रुपए में निर्यात ऋणों पर ब्याज़ दर क्रमश: 4 प्रतिशत और 8 प्रतिशत से ज़्यादा हैं. वैश्विक स्तर पर ये दर 0.25-2 प्रतिशत तक है.[19] पवन ऊर्जा क्षेत्र के विकास को देखते हुए भारत के एक्ज़िम बैंक को इस क्षेत्र के लिए दीर्घकालिक साख की मियाद बढ़ाकर 10-15 साल कर देनी चाहिए.  

सौर ऊर्जा

सौर ऊर्जा के क्षेत्र में चीनी और पश्चिमी कंपनियों का दबदबा है. हालांकि अडानी, ज्यूपिटर और टाटा जैसी भारतीय कंपनियां भी अब इस क्षेत्र में अपना दमखम दिखा रही हैं.[20] भारत में इस्तेमाल में आने वाले 80 प्रतिशत से ज़्यादा सोलर सेल्स और मॉड्यूल्स चीन से आयात किए जाते हैं. भारतीय मॉड्यूल्स चीनी मॉड्यूल्स के मुक़ाबले 33 फ़ीसदी ज़्यादा महंगे हैं.[21] सौर ऊर्जा उद्योग अहम कच्चे माल जैसे ईवीए, बैक-शीट, रिफ़्लेक्टिव ग्लास, सोलर थर्मल के लिए बैलेंस ऑफ़ सिस्टम और पीवी आदि के लिए आयात पर निर्भर है. ऊंची लागतों के साथ ही सस्ते चीनी उत्पादों से मिल रही प्रतिस्पर्धा की वजह से भारत का घरेलू सौर ऊर्जा क्षेत्र मौजूदा उत्पादन क्षमता के ज़रूरत से कम इस्तेमाल का शिकार है.

सौर ऊर्जा के क्षेत्र में विनिर्माण से जुड़ी देसी क्षमता के विकास से इंजीनियरिंग, निर्माण, रखरखाव, वित्त, डिज़ाइन और थोक वितरण के क्षेत्र में नौकरियां पैदा की जा सकती हैं. भारत में शक्ति फ़ाउंडेशन द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक 3 गीगावाट क्षमता वाले सोलर सेल्स और मॉड्यूल्स के एकीकृत विनिर्माण प्लांट [पॉलीसिलिकॉन से सोलर मॉड्यूल] से रोज़गार के करीब 5500 अवसर पैदा किए जा सकते हैं.[22] सोलर सेल्स और मॉड्यूल्स की मौजूदा घरेलू विनिर्माण क्षमता क्रमश: करीब 3 गीगावाट और 10 गीगावाट है. ये आंकड़े 2019 तक की क्षमता पर आधारित हैं. हालांकि इनकी मांग 20-30 गीगावाट प्रति वर्ष की है. दोनों के बीच का अंतर आयात के ज़रिए पूरा किया जाता है.[23] 

टेबल 2 में उन बड़े स्रोतों को दर्शाया गया है जिनपर भारत अपने आयात के लिए निर्भर है. वैसे तो मुख्य तौर पर भारत चीन से ही इन सामानों को आयात करता है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में वियतनाम और थाईलैंड जैसे दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से भी इनके आयात में बढ़ोतरी दर्ज की गई है. 2018 में चीन और मलेशिया से सोलर सेल्स और मॉड्यूल्स के आयात पर नियंत्रण पाने के मकसद से भारत ने शुल्कों में बढ़ोतरी की थी. इससे आयात पर काबू पाने में मदद मिली थी [टेबल 2 और चित्र 4 देखें].[24] हालांकि ये बढ़े हुए शुल्क अन्य देशों से होने वाले आयातों पर लागू नहीं हैं. भारत उभरते हुए बाज़ार वाला देश है. ज़ाहिर है दुनिया के देश भारत को एक अहम बाज़ार के तौर पर देखते हैं.  ऐसे में देश का घरेलू उद्योग न सिर्फ़ चीन बल्कि दूसरे देशों से भी प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहा है. 

2018 में घरेलू निर्माताओं की मदद के उद्देश्य से सरकार ने नवीकरणीय ऊर्जा से जुड़े उत्पादों पर आयात शुल्क में बढ़ोतरी कर दी थी. बढ़े हुए इन शुल्कों की वैधता जुलाई 2021 तक के लिए बढ़ा दी गई.[27] इस क्षेत्र में व्याप्त कड़ी प्रतिस्पर्धा के मद्देनज़र ऐसे क़दम ज़रूरी हैं. हालांकि केवल एक साल के लिए ऐसे प्रावधान लागू करने से विनिर्माण क्षेत्र को उतना संरक्षण नहीं मिल सकेगा जो उसे एक स्तर तक बढ़ाने के लिए आवश्यक है. निवेश से जुड़े ऐसे फ़ैसलों के लिए एक लंबी मियाद होने से निश्चितता और संरक्षण का वातावरण सुनिश्चित होता है. बहरहाल आयात शुल्क में बढ़ोतरी से जुड़े इस आदेश में चीन, थाईलैंड और वितनाम को शामिल किया गया है लेकिन मलेशिया को इससे बाहर रखा गया है. इसका मतलब ये है कि मलेशिया से होने वाले आयात में बढ़ोतरी हो सकती है. 2021 के बजट में सरकार ने सोलर लालटेन और इनवर्टर पर ऊंचे आयात शुल्क लगाए जाने की घोषणा की है. बहरहाल मौजूदा वक़्त में इनका घरेलू विनिर्माण अपर्याप्त है, ऐसे में इन उपायों से उद्योग को फ़िलवक़्त संरक्षण मुहैया कराने का घोषित उद्देश्य पूरा होना मुश्किल है. शुल्क से जुड़े उपाय अगले कुछ वर्षों में तभी कारगर होंगे जब उत्पादन में बढ़ोतरी होगी. 

भारत में भी वित्त पोषण से जुड़ी ऐसी ही योजना शुरू करने की ज़रूरत है. इसके लिए भारतीय नीति-निर्माता ब्राज़ील के मॉडल का अध्ययन कर सकते हैं. 

इसमें कोई शक नहीं है कि अतीत में सोलर उद्योग में असमान संरक्षण से सोलर इंडस्ट्री को चोट पहुंची. डोमेस्टिक कंटेंट रिक्वायरमेंट [डीसीआर] स्कीम में थिन फ़िल्म्स को अलग रखे जाने से भारत में क्रिस्टालिन सिलिकॉन उत्पादन की घरेलू आपूर्ति में संकुचन आया था. इससे उत्पन्न परिस्थितियों के चलते पीवी इंस्टालेशन में थिन फ़िल्म के क्षेत्र में भले ही भारत का दबदबा हो गया लेकिन विश्व बाज़ार में क्रिस्टालिन सिलिकॉन का हिस्सा बहुतायत में है. ऐसे में थिन फ़िल्म्स को भी डीसीआऱ के तहत लाने की ज़रूरत है. 

चित्र 5 में विनिर्माण से लेकर ऑपरेशन और रखरखाव तक आपूर्ति श्रृंखला के विभिन्न घटकों को दर्शाया गया है. फ़िलहाल भारत में सौर ऊर्जा से जुड़े विनिर्माण क्षेत्र की ज़्यादातर गतिविधियां सेल और मॉड्यूल एसेंबली के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं. ये मुख्य रूप से डाउनस्ट्रीम मैन्युफ़ैक्चरिंग से जुड़ा है. पॉलीसिलिकॉन, वेफ़र और इनगॉट्स से जुड़ी अपस्ट्रीम मैन्युफ़्क्चरिंग में गहन-पूंजी निवेश की ज़रूरत होती है. दुनिया भर में केवल कुछ मुट्ठी भर कंपनियां ही बहुतायत में इनका निर्माण करती हैं. मॉड्यूल और पीवी सेल का निर्माण कमोबेश पूरी तरह से कच्चे मालों के आयातों पर निर्भर है. 

उद्योग को उत्पादन का स्तर बढ़ाने के लिए वित्तीय सहायता की ज़रूरत है. चीनी सामानों से प्रतिस्पर्धा कर पाने के लिए भारतीय निर्माताओं को निम्न-लागत पर वित्त पोषण की आवश्यकता पड़ेगी. भारत में पीवी का निर्माण 1970 के दशक में मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में ही होता था लेकिन 1980 के दशक के अंत तक ये पूरी तरह से निजी हाथों में आ गया. सौर ऊर्जा क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी लागत पर वित्त तक पहुंच मिल पाना निवेश के लिहाज से सबसे मुश्किल चुनौतियों में से एक है. ग़ौरतलब है कि इस उद्योग में बड़ी मात्रा में पूंजी निवेश की ज़रूरत होती है. डेवलपर्स को तकनीक की पूरी मियाद तक पूंजी की आवश्यकता पड़ती है. राजस्थान और गुजरात में कार्यरत भारतीय कंपनियों ने राष्ट्रीय सौर मिशन [एनएसएम] के पहले चरण के तहत अमेरिकी एक्ज़िम बैंक से अपनी परियोजनाओं के लिए रकम हासिल की थी. हालांकि इस वित्त पोषण के बदले उन्हें अमेरिकी विनिर्माण क्षेत्र से कलपुर्जे जुटाने की शर्त का भी पालन करना पड़ा है.[28],[29] लिहाजा ऐसे कर्ज़ घरेलू विनिर्माण के लिए वित हासिल करने का प्रधान स्रोत नहीं हो सकते. इनके साथ जुड़े शर्तिया आयात की बाध्यता के चलते विदेशी मुद्रा से जुड़ा जोखिम खड़ा होता है. 

भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में विनिर्माण को सहारा देने के लिए कई उपाय किए हैं. जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन [जेएनएनएसएम], मॉडिफायड स्पेशल इनसेंटिव पैकेज स्कीम [एमएसआईपीएस],[30] और ‘मेक इन इंडिया’ के तहत प्रोत्साहन और सब्सिडी प्रदान किए जाते हैं. बहरहाल इन पदार्थों का आयात अपेक्षाकृत सस्ता है, लिहाजा घरेलू उत्पादन में उच्च-क्षमता हासिल कर पाने के रास्ते की मुश्किलें जस की तस बनी हुई हैं. मांग के अभाव के चलते इस क्षेत्र की कई कंपनियों ने लोन रिस्ट्रक्चरिंग का आवेदन तक दाखिल किया हुआ है. 

नवंबर 2020 में कैबिनेट ने सौर उद्योग के लिए 45 अरब रु के साथ उत्पादकता-आधारित प्रोत्साहन [पीएलआई] योजना को मंज़ूरी दी थी.[31] इस नीति का लक्ष्य घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित करना है. इस प्रोत्साहन को उत्पादन के साथ-साथ गुणवत्ता के मानकों और विशिष्टताओं से भी जोड़ा जाना चाहिए. जेएनएनएसएम  के दूसरे चरण में वाएबिलिटी गैप फ़ंडिंग [वीजीएफ़] और जेनरेशन बेस्ड इनसेंटिव [जीबीआई] को वित्त पोषण के तंत्र के रूप में सामने लाया गया. वीजीएफ़ उत्पादन को तो प्रोत्साहित नहीं करता, अलबत्ता आपूर्तिकर्ताओं को क़ीमते कम रखने के लिए निम्न-गुणवत्ता वाले कलपुर्जे चुनने के लिए बाध्य करता है. इससे बिजली की क़ीमतें गिर गई हैं जिससे इन परियोजनाओं की व्यवहार्यता पर प्रश्न चिन्ह खड़े हो गए हैं. मिसाल के तौर पर एसबीआई जैसे बैंक अब उन परियोजनाओं को कर्ज़ प्रदान नहीं करते जो एक तय शुल्क से कम पर बिजली बेचते हैं. ऐसी परियोजनाओं की व्यवहार्यता को लेकर खड़ी होने वाली आशंकाओं के चलते बैंक उन्हें कर्ज़ देने से परहेज करते हैं.[32] भारत में नवीकरणीय ऊर्जा उद्योग को वित्त मुहैया कराने में शेड्यूल्ड बैंक की निम्न भागीदारी चिंता का विषय है. ब्राज़ील और चीन जैसे देशों में नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र को साख मुहैया कराने में सार्वजनिक बैंकों ने अहम भूमिका निभाई है. भारत में बैंकों द्वारा दीर्घकालिक निम्न-लागत वाला वित्त मुहैया कराने के लिए और ज़्यादा नए-नए उपाय तलाशने की ज़रूरत है. डेवलपर्स के लिए साख में बढ़ोतरी के तरीके ढूंढे जाने चाहिए ताकि वो ऊंची क्रेडिट रेटिंग हासिल कर बॉन्ड बाज़ार से फ़ंड इकट्ठा कर सकें.[33] 

भारत में पूंजी की लागत बहुत अधिक है. इस मामले में ब्राज़ील से सबक सीखा जा सकता है. ब्राज़ील में भी कर्ज़ की लागत इसी तरह ऊंची है. हालांकि उसने हाल के वर्षों में नवीकरणीय ऊर्जा में और अधिक क्षमता जोड़ने की दिशा में उत्कृष्ट कार्य किया है. ब्राज़ील नेशनल सोशल इकोनॉमिक डेवलपमेंट बैंक [बीएनडीइएस] के ज़रिए कम-लागत पर दीर्घकालिक वित्त मुहैया कराने में कामयाब रहा है. इसी के ज़रिए नवीकरणीय बुनियादी ढांचे को बहुतायत में वित्त मुहैया कराई जाती है.[34] बीएनडीईएस ने दूसरे देशों के विकास बैंकों के साथ साझीदारी कायम कर ब्राज़ील में परियोजनाओं की सहायता के लिए क्रेडिट लाइन की स्थापना की है. इतना ही नहीं ऋण तक पहुंच के लिए घटकों को स्थानीय तौर पर इकट्ठा करने की शर्त भी रखी गई है. भारत में भी वित्त पोषण से जुड़ी ऐसी ही योजना शुरू करने की ज़रूरत है. इसके लिए भारतीय नीति-निर्माता ब्राज़ील के मॉडल का अध्ययन कर सकते हैं. 

विदेशी आयातों से प्रभावी रूप से टक्कर लेने वाले घरेलू निर्माता तैयार करने के लिए उद्योग में दीर्घकालिक रणनीतिक योजनाओं की ज़रूरत है. दीर्घकाल में समूची आपूर्ति श्रृंखला को देसी स्वरूप दिया जाना व्यवहार्य हो सकेगा. 

इस क्षेत्र में तकनीकी प्रगति की रफ़्तार काफ़ी तेज़ है. तेज़ी से बदलते बाज़ार के साथ क़दम से क़दम मिलाने और ज़्यादा से ज़्यादा प्रतिस्पर्धी क़ीमतों पर उत्पाद मुहैया कराने के लिए शोध और विकास का काम अहम है. सोलर सेक्टर में पिछले कुछ दशकों में अवरोधात्मक नवाचार देखने को मिले हैं. सोलर सेल्स और मॉड्यूल्स के आकार निरंतर बढ़ते जा रहे हैं. इसका मतलब ये है कि सेल और मॉड्यूल निर्माताओं द्वारा इस क्षेत्र में अतिरिक्त पूंजी निवेश की दरकार है. ऐसा कर वो बड़े आकार के निर्माण की ज़रूरतों के हिसाब से खुद को ढालते हुए आवश्यकतानुसार नए उत्पादन तंत्र को प्रतिस्थापित कर सकेंगे. मिसाल के तौर पर इस वक़्त एक उभरती हुई तकनीक सबके सामने आ रही है जिसे सेल्स ऑफ़ पैसिवेटेड एमिटर रीयल सेल [पीईआरसी] कहा जाता है. इसके इस्तेमाल के लिए सेल और मॉड्यूल उत्पादन की मौजूदा प्रक्रियाओं को नए सिरे से संयोजित करने की ज़रूरत होती है. पूंजीगत उपकरणों की उच्च लागत के साथ-साथ बदलती प्रौद्योगिकी के साथ कदमताल करने के लिए पूंजीगत खर्चों का सतत प्रवाह बनाए रखना आवश्यक है. हालांकि ये बात भी अपनी जगह ठीक है कि भारत में राष्ट्रीय स्तर पर शोध और विकास के कार्य चल रहे हैं.[35] इन प्रयासों को और मज़बूत किए जाने की आवश्यकता है. इसके लिए अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ों के अवसरों की तलाश करनी होगी. विशिष्ट लक्ष्यों और समय सीमाओं के साथ तकनीक के अगले चरण के लिए एक स्पष्ट खाका खींचे जाने की ज़रूरत है. 

विदेशी आयातों से प्रभावी रूप से टक्कर लेने वाले घरेलू निर्माता तैयार करने के लिए उद्योग में दीर्घकालिक रणनीतिक योजनाओं की ज़रूरत है. दीर्घकाल में समूची आपूर्ति श्रृंखला को देसी स्वरूप दिया जाना व्यवहार्य हो सकेगा. बहरहाल वर्तमान समय में आपूर्ति श्रृंखला के चुनिंदा खंडों को देसी रंग देने के लिए एक संकेन्द्रित रुख़ अपनाना होगा. इसके साथ ही जिन घटकों का आयात किया जाना आवश्यक है उनपर आयात शुल्क को निम्न स्तर पर रखने या आयात करों में छूट प्रदान करने की नीति अपनानी होगी. ऐसा करने से सरकार नीतिगत विकल्पों का एक संतुलित सम्मिश्रण हासिल कर सकती है. विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए इससे जुड़ा समूचा पारिस्थितिकी तंत्र उपलब्ध कराने की ज़रूरत है. इसमें भूमि, सस्ते ऋण, शोध के लिए रकम, नकद प्रोत्साहन और करों में छूट शामिल हैं. 2017 में सोलर पीवी स्कीम के निर्माण से जुड़ा परिकल्पना पत्र तमाम हिस्सेदारों से साझा किया गया था.[36] राज्य सरकारों के साथ समन्वित प्रयासों के ज़रिए पूरे देश में निर्माण को स्थानीय रूप देने के लिए भारत को एक स्पष्ट रूपरेखा और दृष्टिकोण तैयार करना चाहिए. 

नवीकरणीय उर्जा के क्षेत्र में विनिर्माण के विकास के लिए रिन्युएबल परचेज़ ऑब्लिगेशन [आरपीओ] एक महत्वपूर्ण घटक है. इसके ज़रिए इन उत्पादों के लिए अत्यावश्यक मांग उपलब्ध होती है. इसके तहत वितरण कंपनियों [डिस्कॉम्स] को अपने कुल विद्युत ख़रीद का एक निश्चित हिस्सा लाजिमी तौर पर नवीकरणीय स्रोतों से खरीदना होता है. हालांकि हक़ीक़त ये है कि अक्सर उम्मीदों के उलट ये नियम अमल में ही नहीं आ पाते हैं. इतना ही नहीं ये प्रावधान नहीं मानने पर होने वाले जुर्माने को लागू करने में भी देरी होती है. सौर ऊर्जा उद्योग के लिए तो ये मुद्दा ख़ासतौर से गंभीर है क्योंकि सौर ऊर्जा की दरें लगातार गिरती जा रही हैं. वितरण कंपनियों द्वारा सौर ऊर्जा स्रोतों से बिजली की ख़रीद[37] का औसत काफ़ी नीचे है. ऐसे में सौर ऊर्जा परियोजनाओं के राजस्व को लेकर एक प्रकार की अनिश्चितता का वातावरण बन गया है. इन मुद्दों की पहचान कर ली गई है और इनके समाधान के लिए क़दम उठाए जा रहे हैं.[38] 

सौर और पवन ऊर्जा क्षेत्रों के लिए नीतिगत सिफ़ारिशें

  1. घरेलू उद्योग को संरक्षण और समर्थन- वैसे तो उद्योग को सस्ते आयातों से मिलने वाली प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए संरक्षण की ज़रूरत पड़ सकती है, लेकिन ये संरक्षण उद्योग को प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करने में सहायता के मकसद से दी जानी चाहिए. संरक्षण से जुड़े प्रावधान एक निश्चित समयसीमा के बंधन से बंधे होने चाहिए ताकि उद्योग उनपर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भर होकर दीर्घकाल में अक्षम या अकार्यकुशल न बन जाएं. पवन ऊर्जा उद्योग की बात करें तो सरकार द्वारा 2017 में फ़ीड-इन टैरिफ़्स की व्यवस्था को रोकने के फ़ैसले से पवनचक्की उद्योग को घाटे का सामना करना पड़ा था. मसलन निविदा-आधारित व्यवस्था की ओर मुड़ने से सुज़लॉन को भारी नुकसान उठाना पड़ा है.[39] लिहाजा संरक्षण से जुड़ी नीतियों को स्पष्ट रूप से निर्धारित सनसेट क्लॉज़ के साथ लागू करना अहम हो जाता है.

मौजूदा वक़्त में उत्पादित हो रहे हाइड्रोजन का लगभग संपूर्ण हिस्सा जीवाश्म ईंधनों से ही प्राप्त हो रहा है. दूसरे स्रोतों के मुक़ाबले नवीकरणीय स्रोतों से हाइड्रोजन के उत्पादन की लागत ऊंची है. संभावित मांग क्षेत्रों की पहचान के लिए भारत को समन्वित नीतिगत पहल करने की ज़रूरत पड़ेगी.

क. सोलर सेल्स और मॉड्यूल्स पर आयात शुल्क- इस बारे में समयसीमा पहले से ही घोषित की जानी चाहिए. कम से कम 5 वर्षों की मियाद होनी चाहिए ताकि निर्माण को इसके हिसाब से प्रतिक्रिया देने का वक़्त मिल सके. हालांकि आयात पर इस क्षेत्र की निर्भरता के मद्देनज़र इससे उत्पादन लागत के बढ़ने की संभावना भी पैदा हो सकती है. 2013 में वित्त मंत्रालय ने एंटी डंपिंग और सहायक शुल्क निदेशालय [डीजीएडी] द्वारा सिफ़ारिश किए जाने के बावजूद एंटी डंपिंग शुल्क लागू नहीं करने का फ़ैसला किया था. ऊर्जा मंत्रालय द्वारा लॉबिंग के पश्चात ये फ़ैसला लिया गया था. लिहाजा उत्पादन में सब्सिडी मुहैया कराने के दूसरे प्रयासों के साथ घरेलू निर्माताओं के लिए प्रारंभिक दौर में कच्चे माल की क़ीमतों में होने वाली बढ़ोतरी से संतुलन स्थापित करने की ज़रूरत है.  

ख. छोटे निर्माताओं या अपेक्षाकृत बड़े फ़र्मों को एक निश्चित निर्माण सीमा तक उत्पादन सब्सिडी मुहैया कराई जा सकती है. ये सब्सिडी एक सुनिर्दिष्ट समयसीमा और सनसेट क्लॉज़ के साथ लागू की जानी चाहिए. सरकार ने हाल ही में बजट में एक पीएलआई योजना की घोषणा की है. 

ग. सौर ऊर्जा ख़रीद के लिए डॉमेस्टिक कंटेंट रिक्वायरमेंट [डीसीआर]- इससे क्षमता उपयोग को 100 फ़ीसदी तक बढ़ाने और चीन के मुक़ाबले बीओएम की लागत को नीचे लाने में मदद मिलेगी. हालांकि ये तभी काम करता है जब कमोबेश सनसेट क्लॉज़ का कोई न कोई स्तर मौजूद हो. हालांकि ये ध्यान रखना होगा कि ये कोई परिपाटी न बन जाए.

  1. पवन और सौर कंपनियों के लिए निर्माण पार्क. ये उस प्रणाली पर आधारित हो सकती है जो गुजरात सौर निर्माण में स्थापित की गई है. ये भूमि की उपलब्धता, निम्न-लागत वाली ऊर्जा और दूसरे प्रोत्साहनों के साथ प्लग एंड प्ले मॉडल जैसी होनी चाहिए. 
  1. अनुसंधान और विकास- तकनीकी प्रगति के नज़रिए से पवन ऊर्जा उद्योग के विकास की मिसाल [जैसा कि सुज़लॉन के केस में समझाया गया है] को सौर उद्योग की मदद के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है. विदेशी गठजोड़ों और साझा उपक्रमों के ज़रिए तकनीकी उन्नयन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. सरकार को अमेरिका और यूरोप में अपने समकक्षों के साथ मिलकर कार्यक्रमों की शुरुआत करना चाहिए ताकि उनके अनुभवों और विशेषज्ञताओं से लाभ उठाया जा सके. भारत के व्यापार सौदों पर वार्तांओं के दौरान ये मुद्दा केंद्र में होना चाहिए. 
  1. आपूर्ति श्रृंखला के विभिन्न चरणों में मानकीकृत गुणवत्ता मानदंड जैसे-जैसे आपूर्ति श्रृंखला के विभिन्न खंड विकसित होते हैं बाज़ार में समरूपता लाने की ज़रूरत आन पड़ती है. इसके लिए विभिन्न चरणों में गुणवत्ता के प्रतिमान स्थापित करने होंगे. इसके साथ ही आडिटर्स का एक तंत्र तैयार करना होगा जो नियमित रूप से गुणवत्ता की पड़ताल कर उनको प्रमाणित या सत्यापित करने का काम करें. इनके मानकों को अंतरराष्ट्रीय प्रतिमानों के अनुरूप बनाने की आवश्यकता है. 

हाइड्रोजन ऊर्जा

हाइड्रोजन ऊर्जा धीरे-धीरे एक नई निम्न-कार्बन तकनीक के रूप में उभर रही है. परिवहन, उत्पादन और नवीकरणीय उर्जा के भंडारण में इसे अपनाए जाने से भविष्य में स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में अहम योगदान में मदद मिल सकती है. परिवर्तनशील या चर स्वभाव वाले नवीकरणीय सेक्टर को संतुलित करने के लिए बैटरियों की तुलना में हाइड्रोजन एक कम लागत वाला भंडारण विकल्प प्रदान कर सकता है. इसमें ऊर्जा को कई दिनों या हफ़्तों तक के लिए भंडारित रखा जा सकता है. मौजूदा वैश्विक मांग 70 मीट्रिक टन है लेकिन 2050 तक इसके कई गुणा बढ़ जाने की उम्मीद है. 

मौजूदा वक़्त में उत्पादित हो रहे हाइड्रोजन का लगभग संपूर्ण हिस्सा जीवाश्म ईंधनों से ही प्राप्त हो रहा है. दूसरे स्रोतों के मुक़ाबले नवीकरणीय स्रोतों से हाइड्रोजन के उत्पादन की लागत ऊंची है. संभावित मांग क्षेत्रों की पहचान के लिए भारत को समन्वित नीतिगत पहल करने की ज़रूरत पड़ेगी. इसके ज़रिए उत्पादन का स्तर ऊंचा उठाने, राष्ट्रीय स्तर पर और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की मदद से शोध कार्य करने और हाइड्रोजन के लिए निम्न-लागत वाले भंडारण विकल्प की पहचान में मदद मिलेगी. सीईईडब्ल्यू के एक अध्ययन के मुताबिक इलेक्ट्रोलाइज़र और भंडारण तकनीकों में आक्रामक ढंग से मूल्य कम करने से ही अगले दशक तक हाइड्रोकार्बन की क़ीमतें प्रतिस्पर्धी स्तर पर आ सकेंगी.[40] हरित स्रोतों से उत्पादित हाइड्राकार्बन कार्बन उत्सर्जन कम करने में मददगार साबित होंगे. लागत घटाने के लिए होने वाले शोध और विकास के कार्य भी अहम होंगे. फ़िलहाल हाइड्रोजन का इस्तेमाल तेल शोधक संयंत्रों में ईंधन से सल्फ़र को अलग करने के लिए किया जाता है. इस मामले में जापान जैसे देश अग्रणी भूमिका में हैं. हालांकि कुछ अन्य देशों के साथ-साथ अमेरिका और चीन जैसे राष्ट्र आने वाले वर्षों में अपना हाइड्रोकार्बन उत्पादन बढ़ाने के संदर्भ में महत्वाकांक्षी योजनाएं प्रस्तुत कर रहे हैं.  

एफ़डीआई के माध्यम से तकनीक का हस्तांतरण रिवर्स इंजीनियरिंग, श्रम के आवागमन और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के एकीकरण के ज़रिए हो सकता है. 

भारत के पास निरंतर दूसरों की बराबरी करने की नीति अपनाने की बजाए इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाते हुए नई तकनीक का निर्माता बनने का मौका है. सरकार ने हाइड्रोकार्बन संयंत्रों की स्थापना की एक योजना शुरू की है. इनमें हाइड्रोकार्बन नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से पैदा किए जाएंगे.[41] हाल ही में पेश किए गए बजट में एक राष्ट्रीय हाइड्रोकार्बन मिशन और राष्ट्रीय शोध प्रतिष्ठान की स्थापना की घोषणा की गई है. नई तकनीक पर शोध के मकसद से 50,000 करोड़ के खर्च से इनकी स्थापना का लक्ष्य रखा गया है. भविष्य की तकनीकी के विकास के लिए दीर्घकालिक दृष्टिकोण आवश्यक होगा.

तकनीक का हस्तांतरण

विकासशील देशों द्वारा स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में आगे बढ़ने के लिए नई तकनीक तक पहुंच हासिल करना काफ़ी अहम हो जाता है. जलवायु परिवर्तनों के कुप्रभावों की रोकथाम के नज़रिए से भी ये बेहद महत्वपूर्ण हैं. तकनीक का हस्तांतरण- और इसके नतीजतन विकसित और विकासशील देशों के बीच तकनीकी अंतर को कम करना- व्यापार पर आधारित है. ये विभिन्न स्रोतों के ज़रिए संभव हो पाता है. इनमें वस्तुओं और सेवाओं में अंतरराष्ट्रीय व्यापार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, लाइसेंसिंग, सरकारों के बीच साझा उपक्रम समझौते, और प्रतिरूपन जैसे ग़ैर-बाज़ार स्रोत शामिल हैं. 

आज ज़रूरत इस बात की है कि विकासशील देशों को उचित लागत पर तकनीक का हस्तांतरण सुनिश्चित हो. तकनीक के हस्तांतरण की अहमियत के बावजूद ये एक विवादित मुद्दा बना हुआ है. विकसित और विकासशील देश इस मसले पर अब तक एक साझा रुख़ नहीं तय कर पाए हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि तकनीक का हस्तांतरण एक खर्चीली प्रक्रिया है. हालांकि पिछले कुछ सालों में प्रौद्योगिकी और वित्त से जुड़ी तरक्कियों के चलते ऊर्जा संक्रमण की लागत में गिरावट आई है. ख़ासतौर से कार्यकुशलता में सुधार लाने वाले तकनीकी बदलावों के चलते इससे जुड़ी लागत में कमी दर्ज की गई है. 

भारत तकनीक के हस्तांतरण की ज़रूरत अच्छी तरह से समझता है. पिछले कुछ वर्षों में भारत ने लगभग हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश [एफडीआई] के प्रावधानों को लचीला और उदार बनाया है. नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में स्वचालित रास्ते से 100 प्रतिशत तक एफ़डीआई की मंज़ूरी दी गई है. 2017-18 में पहली बार इस क्षेत्र में निवेश 1 अरब अमेरिकी डॉलर से भी आगे निकल गया.[42] सरकार ने सोलर सेल, विद्युत चालित वाहनों और बैटरी स्टोरेज सिस्टम में निवेश आकर्षित करने के लिए कई उपाय किए हैं. वैश्विक स्तर पर भारत सबसे बड़ा बाज़ार है. 2019 में भारत के नवीकरणीय क्षेत्र ने वेंचर कैपिटल या प्राइवेट इक्विटी इन्वेस्टमेंट के तौर पर 1.4 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर का निवेश आकर्षित किया था.[43] 

एफ़डीआई के माध्यम से तकनीक का हस्तांतरण रिवर्स इंजीनियरिंग, श्रम के आवागमन और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के एकीकरण के ज़रिए हो सकता है. तकनीक हस्तांतरण का एक और स्वरूप बहुराष्ट्रीय कंपनियों [एमएनसी] जैसे बड़े प्रतिष्ठानों द्वारा शोध और विकास के कार्य के समावेशन से जुड़ा है. भारत की बड़ी कंपनियां शोध और विकास की वैश्विक व्यवस्थाओं का लाभ उठाने में भी कामयाब रही हैं. मिसाल के तौर पर सुज़लॉन ने भारत के अलावा जर्मनी, नीदरलैंड्स और डेनमार्क में भी अपने शोध और विकास के केंद्र स्थापित किए हैं. भारत और चीन की कंपनियों ने विदेशों में प्रतिष्ठानों के अधिग्रहण के ज़रिए भी तकनीक के हस्तांतरण का लक्ष्य हासिल किया है. इसके साथ ही उन्होंने विकसित देशों के शोध संस्थानों और स्थानीय अनुसंधान और विकास केंद्रों के साथ सहयोग की नीति भी अपनाई है. तकनीक के हस्तांतरण के लिए विभिन्न माध्यमों और पारस्परिक विचार विमर्शों का मिला-जुला स्वरूप भी अपनाया गया है. यहां ये बात ध्यान देने लायक है कि चूंकि भारत इस क्षेत्र का एक प्राथमिक बाज़ार बन गया है, लिहाजा विदेशी कंपनियां घरेलू निर्माताओं को प्रतिस्पर्धी के तौर पर देखती हैं. इसके चलते तकनीक के हस्तांतरण को लेकर इन विदेशी कंपनियों का रवैया झिझक भरा रहता है. शायद यही वजह है कि सुज़लॉन जैसी भारतीय कंपनियों ने विकसित देशों की अपेक्षाकृत छोटी कंपनियों से प्रौद्योगिकी हासिल की है. विदेशों की इन छोटी कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के चलते नुकसान की आशंका कम रहती है. 

आज भी ज़्यादातर नए खोज और नवाचार अमेरिका और यूरोप में ही हो रहे हैं. ऐसे में उनके हस्तांतरण को सुविधाजनक बनाने की दरकार है.

अग्रणी और नामचीन कंपनियों के पास स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय ज्ञान की धारा को समेटते हुए तकनीक हासिल करने के संसाधन होते हैं. छोटे और मध्यम प्रतिष्ठानों के पास ऐसी क्षमता नहीं होती. आख़िरकार तकनीक के हस्तांतरण में प्रयोगों और सांगठनिक ढांचों से भारी-भरकम निवेश जुड़ा होता है. इसके साथ ही ये बात भी ग़ौरतलब है कि आज भी ज़्यादातर नए खोज और नवाचार अमेरिका और यूरोप में ही हो रहे हैं. ऐसे में उनके हस्तांतरण को सुविधाजनक बनाने की दरकार है. लिहाजा इसमें नीतिगत स्तर पर सक्रियता के साथ दखल दिया जाना मुमकिन है. इस कड़ी में विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ की आवश्यकता है. सरकार स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठानों के बीच संपर्क स्थापित करने में मददगार साबित हो सकती है. हरित तकनीक पर ज़ोर देते हुए ऐसे हस्तांतरण सुनिश्चित करने में सरकार सक्रिय भूमिका निभा सकती है. इस सिलसिले में अगला क़दम प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने से जुड़ा है. तकनीक का स्वदेशीकरण सुनिश्चित करते हुए दीर्घकालिक मुनाफ़े तय किए जा सकते हैं. इससे आगे चलकर नए-नए प्रयोगों और नवाचारों को प्रोत्साहन मिल सकेगा. भारत इस संदर्भ में एफ़डीआई के रुझानों के अध्ययन की तैयारी कर रहा है. ज़्यादा से ज़्यादा तकनीकी हस्तांतरण सुनिश्चित करने के लिए इन नीतियों की प्रभावी तरीके से समीक्षा पर भी ध्यान दिया जा रहा है.[44] 

अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन [आईएसए] के माध्यम से भारत और व्यापक गठजोड़ कायम करने में मददगार बन सकता है. विशुद्ध रूप से विकास या ग़रीबी उन्मूलन जैसे मुद्दों को लक्ष्य बनाकर किए जाने वाले गठजोड़ों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी दरार देखने को मिलती है. आईएसए के ज़रिए दुनिया के देश विशिष्ट आवश्यकताओं की पहचान में मदद कर सकते हैं और ख़ास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ज़रूरी संसाधन- वित्तीय और मानवीय दोनों-संग्रहित कर सकते हैं. देशभर के शीर्ष विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के बीच सहयोग के जाल को और मज़बूत किए जाने की ज़रूरत है. विशिष्ट नवीकरणीय प्रौद्योगिकियों के उन्नयन हेतु समर्पित एक कोष की स्थापना की जानी चाहिए. उद्योग और विश्वविद्यालयों के बीच शोधकार्य को लेकर समन्वित कार्यक्रम शुरू किए जाने की ज़रूरत है. इस सिलसिले में एक समयसीमा के भीतर विनिर्दिष्ट लक्ष्य तय कर हासिल करने योग्य परिणामों के मामलों में कामयाबी पर ज़ोर होना चाहिए. 

इन प्रयासों से हासिल नई खोजों को सार्वजनिक वस्तु का दर्जा दिया जा सकता है. कोविड-19 महामारी के ही परिणामस्वरूप टीके का विकास हो पाया है. सस्ती या वहन करने योग्य क़ीमतों पर दवाइयों का उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए तकनीक के हस्तांतरण पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग दिख रहा है. हरित प्रौद्योगिकियों के संदर्भ में भी इसी तरह की कहानी शुरू करने की ज़रूरत है ताकि तकनीक के हस्तांतरण और सहयोग को सुलभ बनाने के लिए एक रचनातंत्र की स्थापना की जा सके. 

निष्कर्ष

भविष्य में ज़्यादा से ज़्यादा देश ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों की ओर क़दम बढ़ाएंगे. इससे ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों की मांग कई गुणा बढ़ने वाली है. नवीकरणीय ऊर्जा की लागत में लगातार गिरावट आती रहेगी. ऐसे में भारत को नवीकरणीय क्षेत्र को आगे बढ़ाने और इससे जुड़ी मांग को पूरा करने वाली नीतियों को अमल में लाना होगा. पवन और सौर ऊर्जा जैसे नवीकरणीय स्रोतों की मांग परिवर्तनशील है. ऐसे में ऊर्जा का स्थिर, नियमित और सतत स्रोत मुहैया कराने के लिए तकनीकी प्रगति पहली शर्त साबित होने वाली है.

सौर और पवन ऊर्जा के क्षेत्र में तकनीकी उन्नयन के मामलों में अग्रणी बने रहने के लिए भारत को आवश्यक नीतियां तैयार करनी होंगी. इसके साथ ही ग्रीन हाइड्रोजन जैसे ऊर्जा के नए स्रोतों की भी पड़ताल करती रहनी होगी. नई-नई तकनीकों पर शोध कार्यों में पारंगत होने और तकनीक के हस्तांतरण को सुलभ बनाने में भी भारत विश्व स्तर पर एक अहम भूमिका निभा सकता है. इसके लिए भारत विकासशील और विकसित देशों से भागीदारी विकसित कर सकता है. 


Endnotes

[1] RE100.

[2] Corporate Clean Energy Buying Leapt 44% in 2019, Sets New Record” 28 January 2020, BloombergNEF.

[3] Global Trends in Renewable energy investment 2020, United Nations Environment Program and Bloomberg New Energy Finance (2020) Report 2020

[4] Same as 2

[5] Annual Report 2019-20, Ministry of New and Renewable energy.

[6] An Overview of All the Wind Based Energy Companies in India”, 07 September 2016, Economic Times.

[7] David Rasquinha, “Winds of Change”, Exim Bank India blog.

[8] David Nurse, “2019 Top 10 Wind Turbine Manufacturers — Wind Supplier Analysis”, 31 July 2019.

[9] Generation Based Incentive Scheme, 16 December 2011, Press Information Bureau.

[10] M Ramesh Chennai, “Renewable energy ministry rules out removal of tariff caps”, 13 November 2019.

[11] R. Sree Ram, “Wind power auction success is bittersweet news for Suzlon” 03 March 2017, Livemint.

[12] Export Import data, Ministry of Commerce and Industry.

[13] Export Import data, Ministry of Commerce and Industry.

[14] A High Level Delegation from Uruguay Visits the Manufacturing Facility of RRB Energy Limited at Poonamallee,” 07 March 2011, BusinessWire.

[15] Sufang Zhang et al. “Interactions between renewable energy policy and renewable energy industrial policy: A critical analysis of China’s policy approach to renewable energies”.

[16] Marc Prosser, “China Is Taking the Worldwide Lead in Wind Power,” 04 April 2019, Singularity Hub.

[17] John Parnell, “Siemens Gamesa Launches 14MW Offshore Wind Turbine, World’s Largest,” 19 May 2020, Green Tech Media.

[18] India needs to lower its logistics cost to 7-8% of GDP: Report,” 23 December 2020, The Statesman.

[19] Sutanuka Ghosal, “RBI must ensure rupee export credit at repo rate: EEPC India,” 07 June 2019, Economic Times.

[20] Top 10 players consolidating solar market in India: Report,” 29 April 2020, Economic Times.

[21] Rishabh Jain et al. “Scaling up Solar Manufacturing in India to Enhance India’s Energy Security,” Aug 2020, Centre for Energy Finance.

[22] Surya to Boost Solar Manufacturing in India,” August 2018, Shakti Foundation.

[23] Utpal Bhaskar, “New tariffs on import of solar cells and modules on the cards,” 14 December 2020, Hindustan Times.

[24] Ministry of Finance, Notification No. 01/2018-Customs (SG), 30 July 2018.

[25] Export Import data, Ministry of Commerce and Industry.

[26] Export Import data, Ministry of Commerce and Industry.

[27] Utpal Bhaskar, “New tariffs on import of solar cells and modules on the cards,” 14 December 2020, Hindustan Times.

[28] Craig O’Connor, “Financing Renewable Energy: The Role of Ex-Im Bank,” EXIM Bank USA.

[29] U.S. Export-Import Bank Signs $5 Billion Memorandum of Understanding with Reliance Power to Support American Exports to India’s Energy Sector,” 07 November 2010, EXIM USA.

[30] Guidelines for revised M-SIPS, 24 February 2016, DeitY.

[31] Cabinet approves PLI Scheme to 10 key Sectors for Enhancing,” 11 November 2020, PIB.

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