Author : Soumya Bhowmick

Published on Aug 17, 2022 Updated 0 Hours ago

संसाधनों की वैश्विक कमी ने विकसित और विकासशील देशों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है. विशेष रूप से विकासशील देश खुद को इसके अनुरूप ढालने में कड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं.

विषम विकास ज्योमेट्री और SDGs

वैश्विक उत्तर-दक्षिण रसातल

कोविड-19 की महामारी ने संकट से निपटने के लिए न केवल देशों के भीतर और देशों के बीच उपलब्ध संसाधनों के बढ़ते अंतराल को उजागर किया है, बल्कि उसके दीर्घ, व्यापक आर्थिक और विकासात्मक प्रभावों को भी उजागर किया है. यह हकीकत है कि महामारी की वजह से विकसित देशों के भीतर आय को लेकर असमानता बढ़ी है, जहां शीर्ष एक प्रतिशत लोगों ने पिछले दो वर्षो में अप्रत्याशित रूप से बहुत ज्यादा कमाई देखी है. एक ओर जहां अमेरिका (यूएस) में 2020 के अप्रैल और जून के बीच 15 प्रतिशत बेरोजगारी बढ़ी, वहीं पांच सबसे धनवान अमेरिकियों (जेफ बेजोस, बिल गेट्स, वॉरेन बफे, मार्क जुकरबर्ग और लैरी एलिसन) की संपत्तियों में इसी अवधि में 26 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई. अब इन पांच धनवान व्यक्तियों की संयुक्त आय पूरे अफ्रीकी महाद्वीप की कुल संयुक्त संपत्ति से ज्यादा है.

जब गरीब अर्थव्यवस्थाओं में लॉकडाउन और अन्य प्रतिबंध लगाए गए, तो वहां के बाजार को संचालित करने वाली ताकतों पर भी इसका प्रभाव पड़ा और इस वजह से बेरोजगारी और गरीबी बढ़ती रही, क्योंकि वहां बाजार की ताकतें ही व्यापक आर्थिक संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका अदा करती हैं.

पुन: वैश्विक उत्तर और दक्षिण के बीच विकास के मानकों में अंतर भी बहुत स्पष्ट दिखाई दे रहा है. इस बात का ऐसा ही एक उदाहरण है शिक्षा. इसमें उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के बच्चों ने महामारी के कारण 2020 में औसतन 15 दिनों का स्कूल गंवाया था. इसी प्रकार उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं के बच्चों ने 45 दिनों की स्कूली शिक्षा गंवा दी. लेकिन जब बात सबसे गरीब देशों के बच्चों की आई तो वहां के बच्चों को 72 दिनों की स्कूली शिखा से हाथ धोना पड़ा था. इसी तरह, विकासशील देशों में आय पर प्रभाव कहीं अधिक देखा गया था. गरीब अर्थव्यवस्थाओं में अनौपचारिक क्षेत्र पर अधिक निर्भरता होती है. अतः इसका मतलब यह था कि जब गरीब अर्थव्यवस्थाओं में लॉकडाउन और अन्य प्रतिबंध लगाए गए, तो वहां के बाजार को संचालित करने वाली ताकतों पर भी इसका प्रभाव पड़ा और इस वजह से बेरोजगारी और गरीबी बढ़ती रही, क्योंकि वहां बाजार की ताकतें ही व्यापक आर्थिक संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका अदा करती हैं.

हालांकि विकासशील देशों में सरकारों ने अर्थव्यवस्था के पतन से उत्पन्न कमियों को कम करने के उद्देश्य से सामाजिक सुरक्षा और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से गरीबों पर पड़ने वाला बोझ कम करने की कोशिश की है, लेकिन वे विकसित अर्थव्यवस्थाओं में उपलब्ध राहत पहुंचाने वाली योजनाओं की तुलना में काफी कम है. अमेरिका में पात्र वयस्क नागरिकों को न्यूनतम 1,200 अमेरिकी डॉलर का प्रोत्साहन चेक सौंपकर राहत पहुंचाई गई, जबकि विकासशील देशों में उच्च राजकोषीय घाटे के कारण सरकार के प्रयास अपर्याप्त साबित हुए. इसमें भी अधिकांश मामलों में ये योजनाएं इसके पात्र लाभार्थियों तक पहुंच ही नहीं सकीं क्योंकि वहां अंतर्निहित भ्रष्टाचार इसकी राह का रोड़ा बन गया था.

दूसरी ओर, जैसे ही शिक्षा और दफ्तरों का काम ऑनलाइन होने लगा तो इसे सुचारू करने के लिए प्रौद्योगिकी पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत देखी गई. इस स्थिति में सरकारी एजेंसियों और अन्य संगठनों के बीच बेहतर वचरुअल नेटवर्क बनाने की आवश्यकता इससे पहले कभी इतनी ज्यादा महसूस नहीं की गई थी. हालांकि ऐसा करने का लाभ समग्र रूप से देशों को मिला, लेकिन इसने दक्षिण और दक्षिण- पूर्व एशिया और अफ्रीका जैसे गरीब देशों में अमीर और गरीब के बीच के विभाजन को बनाए रखा, जहां इन विशेष सुविधाओं तक भविष्य में केवल संपन्न वर्ग की ही आसानी से पहुंच होगी. हालांकि अविकसित अर्थव्यवस्थाओं में देखी जाने वाली असमानताओं के लिए विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में कोई जगह नहीं है, जहां प्रचुर मात्र में प्रौद्योगिकी आसानी से उपलब्ध हैं.

दीर्घकालीन विकास का तात्पर्य

इस पृष्ठभूमि में, यह साफ है कि वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं अब विकसित और विकासशील देशों के बीच ‘मल्टीपोलर क्लब’ यानी बहुध्रुवीय क्लबों की दिशा में बढ़ रही है. इसके साथ ही, यूएन सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (एसडीजी), जिसकी संकल्पना एक वैश्विक प्रयास के रूप में की गई है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि दुनिया समाज, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण के समान मापदंड पर एक समान हिस्सेदारी, शांतिपूर्ण और समृद्ध भविष्य की ओर बढ़ सके. हालांकि, एसडीजी का विचार है कि वह इसके माध्यम से दुनियाभर में बदलाव लाए, लेकिन वैश्विक उत्तर और दक्षिण के बीच उनकी अपनी क्षमताओं को लेकर जो असमानताएं हैं, वह इसकी राह में बहुत बड़ी बाधा है. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि महामारी ने इन प्रयासों पर हानिकारक प्रभाव डाला है.

फिगर 1: ग्रुपिंगनुसार एसडीजी स्कोर 2022 (100 में से)

Source: Sachs et al., 2022

एसडीजी ढांचे में सबसे पहली दुविधा तो यह है कि इसके फ्रेमवर्क में एक लक्ष्य का दूसरों पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. उदाहरण के लिए एसडीजी 9 (उद्योग, नवाचार और बुनियादी ढांचा) में एक अंतर्निहित प्रवृत्ति होगी कि यह हमेशा एसडीजी 13 (जलवायु कार्रवाई) पर नकारात्मक बाह्यता (एक्सटर्नलिटी) डालेगी. यदि महामारी की वजह से होने वाले विभिन्न प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष परिणामों के कारण एक या अधिक लक्ष्य अलग हो जाते हैं, तो दीर्घकालीन विकास उद्देश्यों के बीच अंर्तसबंधों का जटिल ताना-बाना पूरे फ्रेमवर्क के लिए कार्य करना असंभव कर देता है. गरीब देशों में इन विकासात्मक उद्देश्यों की शिथिलता बहुत ज्यादा होती है, अत: उन देशों पर एसडीजी की शर्तो पर खरा न उतरने का खतरा हमेशा मंडराता रहता है.

दूसरे, एक राष्ट्र की कार्रवाई से एसडीजी हासिल करने की अन्य देशों की क्षमता प्रभावित हो सकती है. इस तरह के आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव अक्सर प्राप्त करने वाले देशों के लिए लागत अथवा नुकसान में परिवर्तित हो जाते हैं और उनकी ओर से किए गए किसी भी प्रयास को रोक सकते हैं. इसका उदाहरण उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की ‘हरित विकास’ प्रक्रियाओं के रूप में देखा जा सकता है, जिसका असर अक्सर गरीब देशों पर पड़ता है. इसका कारण यह है कि उन्नत अर्थव्यवस्थाएं अपने यहां की विनिर्माण इकाइयों को बाद में गरीब देशों में स्थानांतरित कर देती हैं. महामारी के कारण पेश आयी रुकावट की वजह से अब एसडीजी को 2030 तक पूरा करने की जरूरत तेज हुई है, लेकिन इस वजह से गरीब देशों के लिए जोखिम भी बढ़ा ही है. यदि एक देश अथवा समूह की ओर से की गई प्रगति अन्य राष्ट्रों की कीमत पर हुई है तो फिर वैश्विक समुदाय इससे कुछ हासिल नहीं करने जा रहा. यह स्थिति एसडीजी की समग्र प्रकृति के संदर्भ में अर्थहीन ही कही जाएगी.

यदि हमें 2030 तक एसडीजी के लक्ष्यों को हासिल करना है तो उत्तर की ओर से होने वाले प्रयासों को एक अधिक सक्रिय दृष्टिकोण अपनाते हुए दक्षिण के हितों को विकसित करने और उसमें समाहित करने का प्रयास करना होगा, ताकि ऐसी असमानताओं को कम किया जा सके. 

तीसरा, महामारी से उबरती दुनिया के लिए जरूरी हो गया है कि एसडीजी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए निश्चित ही नए सिरे से ध्यान केंद्रित किया जाए और इसके लिए पर्याप्त मात्रा में सार्वजनिक तथा निजी निवेश की भी आवश्यकता होगी. उन्नत देशों की तुलना में एक मजबूत निजी क्षेत्र की गैरमौजूदगी और अपर्याप्त वित्तीय संसाधनों की कमी विकासशील देशों के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण होगी. हाल के दिनों में कई विकासशील और अविकसित देशों में महामारी से प्रेरित व्यापक आर्थिक अस्थिरताओं के कारण इसमें और भी कमी देखी गई हैं, क्योंकि वहां मुद्रास्फीति के दबाव से लेकर चालू खाता घाटा काफी तेजी से बढ़ा है.

और अंत में, वैश्विक उत्तर और दक्षिण के लिए उपलब्ध संसाधनों में इस अंतर में आवश्यक डाटा और अविकसित वैज्ञानिक क्षमताओं तक असमान पहुंच भी एक प्रमुख बाधा बनकर उभरी है, जो वहां के देशों को दुनिया के समान प्रगति प्राप्त करने की कोशिश में रुकावट डाल रही है. दशकों पहले से ही निम्न आय वाले देशों को विकसित देशों के उच्च तकनीकी स्तरों को छूने के लिए संघर्ष करते देखा गया हैं. संसाधनों की वैश्विक कमी ने विकसित और विकासशील देशों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है. विशेष रूप से विकासशील देश खुद को इसके अनुरूप ढालने में कड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं. यदि हमें 2030 तक एसडीजी के लक्ष्यों को हासिल करना है तो उत्तर की ओर से होने वाले प्रयासों को एक अधिक सक्रिय दृष्टिकोण अपनाते हुए दक्षिण के हितों को विकसित करने और उसमें समाहित करने का प्रयास करना होगा, ताकि ऐसी असमानताओं को कम किया जा सके. 


(लेखक इस निबंध पर शोध सहायता के लिए एनएलएसआईयू, बेंगलुरु के रोहन रॉस की सहायता को स्वीकार करते हैं.)

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