अब जबकि भारत स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है तो इस पड़ाव तक पहुंचने के दौरान राष्ट्र ने स्वशासन (सेल्फ गर्वनेंस) के क्षेत्र में काफी तरक्की की है. विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र के तौर पर पहचान बनाने वाले देश भारत में, त्रिस्तरीय संस्थाओं – पंचायती राज संस्था (पीआरआई) और स्थानीय नगर निकाय (अर्बन लोकल बॉडीज़) (यूएलबी) – ने ज़मीनी स्तर तक गर्वनेंस को ले जाने में बड़ी भूमिका निभाई है. प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अब तक के सबसे बड़े प्रयोग के तौर पर पहचाने गए, भारत के विक्रेंद्रित गर्वनेंस का यह मॉडल ऐसे समय में उम्मीद की किरण है जबकि पूरे विश्व में प्रजातांत्रिक मूल्यों में कमी आ रही है. यह लेख भारत में इस त्रिस्तरीय संस्था के उद्भव और उसकी कठिन यात्रा के बारे में बताने की कोशिश है.
विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र के तौर पर पहचान बनाने वाले देश भारत में, त्रिस्तरीय संस्थाओं – पंचायती राज संस्था (पीआरआई) और स्थानीय नगर निकाय (अर्बन लोकल बॉडीज़) (यूएलबी) – ने ज़मीनी स्तर तक गर्वनेंस को ले जाने में बड़ी भूमिका निभाई है.
भारत में स्थानीय स्वशासन का विकास : एक कठिन शुरुआत
यहां तक कि ब्रिटिश उपनिवेश शासन के दौरान भी गर्वनेंस हमेशा पूरी तरह केंद्रित नहीं रहा जैसा कि स्थानीय प्रशासन का महत्व केंद्रीय नीतियों की पहचान के लिए ज़्यादा था. उदाहरण के तौर पर साल 1883 में पंजाब डिस्ट्रिक्ट बोर्ड्स एक्ट को लाया गया जिसमें “पंजाब के अलग-अलग ज़िलों में स्थानीय स्वशासन को लेकर बेहतर प्रस्तावों को शामिल करने का” दावा किया गया. इसी साल, सेंट्रल प्रोविंसेज लोकल सेल्फ गर्वनमेंट एक्ट 1883 को भी अमल में लाया गया, जिसके तहत लोकल बोर्ड और डिस्ट्रिक्ट काउंसिल को स्थापित किया गया जिस पर नागरिक बुनियादी सुविधा के प्रबंधन और उसे सुचारू रूप से जारी रखने का जिम्मा था.
हालांकि इन कानूनों के बावज़ूद ब्रिटिश शासन के दौरान असल में स्थानीय निकायों की तरक्की और विकास बेहद सीमित थी. साल 1885-86 में उदाहरण के तौर पर, देश भर में तब केवल 749 नगरपालिका थे जो साल 1913-14 में घट कर 713 रह गए थे. हालांकि जैस-जैसे स्वतंत्रता के लिए संघर्ष तेज होता गया स्थानीय गर्वनेंस की मांग भी बढ़ती गई और इस तरह सियासत और नीतियों के केंद्र में त्रिस्तरीय संस्थाओं की चर्चा का महत्व बढ़ता गया. यहां तक कि गांधी जी ने ऐलान किया कि “पंचायती राज असल में प्रजातंत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं” और स्थानीय निकायों की औपचारिक पहचान संविधान के पार्ट IV तक स्टेट पॉलिसी के नॉन-इनफोर्सेबल डायरेक्टिव प्रिंसिपल के दायरे तक सीमित है.
गांधी जी ने ऐलान किया कि “पंचायती राज असल में प्रजातंत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं” और स्थानीय निकायों की औपचारिक पहचान संविधान के पार्ट IV तक स्टेट पॉलिसी के नॉन-इनफोर्सेबल डायरेक्टिव प्रिंसिपल के दायरे तक सीमित है.
ब्रिटिश के भारत छोड़ने के साथ स्थानीय निकायों के संस्थागतीकरण की रफ्तार धीमी पड़ने लगी क्योंकि तब कई भारतीय राज्यों ने ज़िला परिषद को भंग कर दिया और उनकी ड्यूटी और कार्रवाई को राज्य सरकार के दायरे में ला दिया, जैसा कि 1958 में बिहार में देखा गया. हालांकि पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) ने गर्वनेंस के विक्रेंद्रीकरण की अहमियत को पहचाना और यह उल्लेख किया कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में स्थानीय स्वशासित निकायों की बेहद अहम भूमिका होती है, जहां “सही तौर पर सत्ता और ज़िम्मेदारियों का बंटवारा होता है”. स्थानीय निकायों को मज़बूत करने के महत्व को और बढ़ावा मिला जब 1957 में बलवंत राय मेहता कमिटी के प्रस्ताव सामने आए. इस कमिटी ने इस बात पर जोर दिया कि स्थानीय निकायों का मुख्य काम आम लोगों और सरकार के बीच परस्पर संबंध बनाने का होता है, जो पंचायती राज की त्रिस्तरीय संरचना (जिसमें ज़िला परिषद, पंचायत समितियां और ग्राम पंचायत शामिल होते हैं) और महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रस्ताव को आगे बढ़ाता है. जहां तक इन प्रस्तावों का संबंध पंचायतों की बढ़ती तादाद से है – साल 1959 तक भारत में 2 लाख से ज़्यादा ग्राम पंचायत सक्रिय थे – लेकिन कार्यकारी और वित्तीय स्वायत्तता की कमी की वज़ह से ज़्यादातर पंचायत अप्रभावी थे. इसने साल 1978 में अशोक मेहता कमिटी के प्रस्तावों को आगे बढ़ाया जिसके तहत पंचायतों के लिए सीधे चुनाव का प्रावधान किया गया, समाज के पिछड़े तबके ख़ास कर अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आवश्यक तौर पर आरक्षण का प्रावधान और “कुछ शक्तियों का राज्य सरकार से स्थानीय निकायों तक स्थानांतरण” शामिल था. इसी दौर में संविधान (64 वां) संशोधन विधेयक और साल 1989 के संविधान (65 वां संशोधन) विधेयक को राष्ट्रीय स्तर पर स्थानीय निकायों को संस्था के तौर पर मान्यता देने के लिए शामिल किया गया. हालांकि इन विधेयकों को संसद में बहुत ज़्यादा समर्थन हासिल नहीं हुआ.
साल 1992 का 73वां और 74वां संशोधन विधेयक
दशकों के संघर्ष और आधी-अधूरी शुरुआत के बाद आख़िरकार 1992 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने भारत में वास्तविक स्व-शासन के लिए कानूनी और संवैधानिक नींव रखने के लिए 73 वें और 74 वें संविधान (संशोधन) को पारित किया. 73वें संशोधन अधिनियम ने बलवंत राय मेहता कमेटी की सिफारिशों पर एक बार फिर जोर दिया. 73 वें संशोधन ने त्रि-स्तरीय ग्रामीण संस्थानों की शुरुआत की : ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायतें, ज़िला स्तर पर पंचायत समितियां और ज़िला परिषद अस्तित्व में आईं. इसके अलावा इस अधिनियम के तहत हर पांच साल में प्रत्यक्ष और नियमित चुनाव और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अनिवार्य कोटे के प्रावधान को ज़रूरी किया गया था. ख़ास बात यह है कि इस अधिनियम ने पंचायतों के सभी स्तरों पर एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करना ज़रूरी कर दिया. पंचायतों को 29 कार्यों के हस्तांतरण की सिफारिश करने के अलावा, 73 वें संशोधन में राज्य वित्त आयोगों के गठन और पीआरआई को राज्य सरकारों से सहायता अनुदान के प्रावधान को भी अनिवार्य कर दिया गया था.
जबकि 74 वें संशोधन अधिनियम में शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) के लिए अर्ध-शहरी क्षेत्रों में नगर पंचायतों, छोटे शहरों में नगर परिषदों और बड़े शहरों / महानगरों में नगर निगमों (एमसी) के साथ यूएलबी की त्रि-स्तरीय व्यवस्था के प्रावधान को अनिवार्य किया गया था. 73 वें संशोधन की तरह ही, 74 वां संशोधन, नगरपालिका स्तर पर हर पांच साल में प्रत्यक्ष चुनावों को सक्षम बनाता है, जिसमें महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने के अलावा एससी और एसटी के लिए अनिवार्य कोटे का प्रावधान है. बारहवीं अनुसूची – 18 विषयों की एक सूची जिसे उचित समय पर यूएलबी को हस्तांतरित किया जा सकता है – को फिर से स्थापित किया गया. इस अधिनियम के तहत राज्य संचित निधि से करों, कर्तव्यों और निधियों के बंटवारे को निर्धारित करने के लिए एक वित्त आयोग के गठन का भी प्रावधान है. अंत में, सरकार ने देश के अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों में स्व-शासन का विस्तार करने के लिए साल 1996 में जनजातीय क्षेत्रों के लिए ऐतिहासिक पंचायत विस्तार (पीईएसए) अधिनियम को पारित किया. ध्यान देने की बात ये है कि इस अधिनियम में अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानीय निकाय की 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं, जबकि अध्यक्ष के कार्यालय को केवल एसटी समुदाय के लिए आरक्षित किया गया है. संक्षेप में, इन तीन कानूनों ने भारत में स्थानीय स्व-शासन के प्रमुख स्तंभों का गठन किया है, जिससे इसकी नींव मज़बूत हुई है और जिस पर आज के तीसरे स्तर के संस्थान की संरचना खड़ी है.
प्रमुख उपलब्धिया
इन दोनों कार्रवाई ने कई मायनों में वास्तव में नए मुद्दों को सामने लाकर लोकतांत्रिक व्यवस्था के खाली स्थान को सामने ला दिया. तीसरे स्तर में निर्वाचित प्रतिनिधियों की भारी तादाद स्थानीय शासन की वैधता को साबित करती है. सबसे उल्लेखनीय बात पंचायतों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है. 73 वें अधिनियम के अमल में आने के बाद से निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों का अनुपात लगातार बढ़ रहा है. वर्तमान में भारत में 3.1 मिलियन निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ 260,512 पंचायतें हैं, जिनमें से रिकॉर्ड 1.3 मिलियन महिलाएं हैं. इस प्रकार, जहां तक ज़मीनी स्तर की राजनीति की बात है, यह महिलाओं के लिए भारत की सबसे परिवर्तनकारी सकारात्मक कार्रवाई का परिणाम है. हालांकि संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज़ 7-8 प्रतिशत है लेकिन निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधियों में से आश्चर्यजनक 49 प्रतिशत (ओडिशा जैसे राज्यों में यह 50 प्रतिशत को पार कर गया है) महिलाएं हैं. इसमें से 86,000 अपने स्थानीय निकायों की अध्यक्षता करती हैं. शहरी स्थानीय निकायों के संबंध में, 2021 तक, भारत में 4,672 यूएलबी थे, जो 2001 में काम करने वाले 3,799 यूएलबी से 22.9 प्रतिशत अधिक था.
73 वें अधिनियम के अमल में आने के बाद से निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों का अनुपात लगातार बढ़ रहा है. वर्तमान में भारत में 3.1 मिलियन निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ 260,512 पंचायतें हैं, जिनमें से रिकॉर्ड 1.3 मिलियन महिलाएं हैं.
हालांकि इस तरह के प्रतिनिधित्व की प्रभावहीनता की कई मिसालें हैं, ख़ास तौर पर महिलाओं के मामले में (कई उदाहरणों में पुरुष सदस्य प्रॉक्सी के रूप में कार्य करते हैं) और तो और हाल के वर्षों में विशेषज्ञों और अनुभवजन्य अध्ययनों में सकारात्मक कार्रवाई और परिणामों के बीच सकारात्मक सहसंबंध पाया गया है. उदाहरण के लिए, एस्थर डुफ्लो और राघवेंद्र चट्टोपाध्याय ने पश्चिम बंगाल और राजस्थान में पीआरआई के कामकाज़ से जुड़े एक प्रमुख क्षेत्र के अध्ययन में पाया कि स्थानीय निकायों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का सकारात्मक असर समाज के पिछले तबके तक स्थानीय सार्वजनिक वस्तुओं के वितरण को लेकर हुआ है. इसके अलावा, कई प्रमाण इस ओर इशारा करते हैं कि कम शिक्षा, ख़राब प्रबंधकीय कौशल और एक्सपोजर के बावज़ूद, कई निर्वाचित सदस्य विशेष रूप से महिलाएं, एससी और एसटी अपने संवैधानिक अधिकारों पर जोर देना शुरू कर रहे हैं और धीरे-धीरे अपने आप को नेताओं के रूप में उभार रहे हैं.
आख़िर में इन दो कानूनों के पारित होने से हस्तांतरण को लेकर विभिन्न राज्यों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा भी हुई है (3 एफ: फंड, फंक्शन और फंक्शनरीज़). उदाहरण के लिए, केरल ने सभी 29 कार्यों को पंचायतों को हस्तांतरित कर दिया है, जबकि राजस्थान ने केरल से स्वास्थ्य, शिक्षा, महिलाओं और कृषि जैसे कई प्रमुख विभागों को पीआरआई को सौंपने की प्रेरणा ली है. इसी तरह, बिहार “पंचायत सरकार” का विचार लेकर आया और ओडिशा जैसे राज्यों ने महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीटें बढ़ा दी हैं. दूसरे शब्दों में, लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण ने देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था में गहरी जड़ें जमा ली हैं और यह अब बेहद ‘अपरिवर्तनीय’ नज़र आता है.
आगे की चुनौतियां
जहां विकेंद्रीकरण प्रक्रिया ने कई सकारात्मक परिणामों के साथ प्रजातांत्रिक व्यवस्था में मज़बूत जड़ें जमा ली हैं, वहीं अभी भी कुछ चुनौतियां मौज़ूद हैं जो विकेंद्रीकरण और स्थानीय स्व-शासन के सामने कई बाधाएं पैदा करती हैं. प्राथमिक चुनौती तो स्थानीय निकायों में 3 एफ के हस्तांतरण की कमी में निहित है. चूंकि 73वें और 74वें संशोधनों में कार्यों के हस्तांतरण को अनिवार्य नहीं किया गया है, लिहाज़ा स्थानीय निकायों में सीमित कार्यात्मक क्षमताएं हैं – बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध 18 विषयों में से, कर्नाटक में, यूएलबी का केवल तीन पर पूर्ण नियंत्रण है, जबकि पंजाब, झारखंड और गोवा जैसे राज्यों में पीआरआई के पास बेहद सीमित स्वायत्तता है. यह समस्या इस तथ्य से और जटिल हो जाती है कि 15वां वित्त आयोग सामाजिक कल्याण और नागरिक बुनियादी ढांचे के लिए कार्यों के हस्तांतरण के लिए समायोजित और एकीकृत समाधान प्रदान करने में नाकाम रहा है.
इसके अलावा त्रि-स्तरीय संस्थानों में नीति बनाने की ताक़त की कमी है और ऐसी संस्थाएं केवल अंतर-सरकारी संबंधों की व्यापकता के कारण महज राज्य सरकार के निर्देशों पर काम करते हैं. एक तरफ यह स्थानीय स्व-शासन की धारणा को चुनौती देता है तो दूसरी ओर सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ-साथ कोरोना जैसी महामारी के लिए प्रभावी स्थानीय योजना के ज़रिए समाधान की राह दिखाता है. महामारी रोग अधिनियम 1897, जिसे मिसाल के तौर पर महामारी के दौरान आंध्र प्रदेश और असम सहित कई राज्यों द्वारा लागू किया गया था, इसके तहत डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट (डीएम) को कई शक्तियां दी गई थीं, जैसे चिकित्सा सुविधाओं के लिए धन के आवंटन की अध्यक्षता करना लेकिन यह स्थानीय निकाय की स्वायत्तता का उल्लंघन करती है.
त्रि-स्तरीय संस्थानों में नीति बनाने की ताक़त की कमी है और ऐसी संस्थाएं केवल अंतर-सरकारी संबंधों की व्यापकता के कारण महज राज्य सरकार के निर्देशों पर काम करते हैं.
हालांकि ये चुनौतियां वित्तीय बाधाओं से भरी हैं – साल 2014-15 से 2018-19 तक, नगर निकायों का अपना राजस्व हमेशा कुल राजस्व के 50 प्रतिशत से कम रहा है. स्थानीय निकायों के कुल राजस्व में लगातार गिरावट दर्ज़ होती रही है – राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में नगरपालिका राजस्व का हिस्सा साल 2017-18 में 0.43 प्रतिशत तक पहुंच गया, जो आठ वर्षों में सबसे कम है. इससे स्थानीय निकाय, राजकोषीय हस्तांतरण के निम्न स्तर के साथ अनुदान के लिए राज्य सरकारों पर निर्भर होते जा रहे हैं.
आख़िर में, स्थानीय निकाय अधिकारियों के बीच मौज़ूदा भ्रष्टाचार के रूप में अतिरिक्त चुनौतियां सामने हैं, तो जाति, वर्ग और लिंग वरीयता की व्यापकता के साथ-साथ जागरूकता के निम्न स्तर ने भी स्थानीय शासन में सार्वजनिक भागीदारी को रोक दिया है, तो पैरास्टेटल संरचनाओं का नतीजा है कि स्थानीय सरकार की स्वायत्तता इससे बाधित होती है, जो मौज़ूदा भारत में विकेंद्रीकृत शासन को मज़बूत होने से रोकती है.
निष्कर्ष
दो ऐतिहासिक कानूनों के नेतृत्व में व्यापक स्तर पर विकेंद्रीकरण का यह सफर लंबा है. फिर भी कई ख़ामियों और संरचनात्मक चुनौतियों के बावज़ूद महिलाओं, अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण ने अब तक समाज में कम प्रतिनिधित्व वाले तबके के लिए उनके राजनीतिक अधिकारों के पक्ष में आवाज़ उठाने का लोकतांत्रिक मौक़ा तैयार किया है. हालांकि, विकेंद्रीकरण को सही तौर पर अमल में लाने के लिए राज्यों या उप-राष्ट्रीय सरकारों को वित्त, कार्यों और कार्यकर्ताओं को स्थानीय निकायों को हस्तांतरित करना पड़ेगा और इस पूरी प्रक्रिया का नेतृत्व करने के लिए तैयार रहना होगा.
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