Published on Apr 14, 2023 Updated 0 Hours ago

भारत में परिवहन क्षेत्र को कार्बन-मुक्त करने के लिए समृद्ध और निम्न आय वाले परिवारों के लिए प्रोत्साहन और दंड की मिली-जुली नीति अपनाने की ज़रूरत पड़ेगी.

भारत में सड़क परिवहन को कार्बन-मुक्त बनाने की क़वायद: अभी लंबा सफ़र बाक़ी

ये लेख हमारी निबंध श्रृंखला कंप्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड द वर्ल्ड का हिस्सा है.


आज एक औसत भारतीय सालाना तक़रीबन 5,000 किमी की यात्रा कर रहा है. साल 2000 के बाद इस आंकड़े में तीन गुणा की बढ़ोतरी देखी गई है. 2000 के बाद वाहनों के प्रति व्यक्ति स्वामित्व में लगभग पांच गुणा का इज़ाफ़ा हुआ है. ख़ासतौर से दोपहिया और तिपहिया वाहनों के बेड़े में भारी बढ़ोतरी देखने को मिली है. तिपहिया वाहन साझा गतिशीलता और सार्वजनिक परिवहन की सुविधा मुहैया कराते हैं. इस तरह वो 20 लाख बसों के अपेक्षाकृत निम्न बेड़े के पूरक का काम करते हुए एक विशाल आबादी को सार्वजनिक परिवहन की सुविधाएं मुहैया कराते हैं. पिछले दशक में व्यक्तिगत परिवहन के किसी भी अन्य साधन के मुक़ाबले दोपहिया और तिपहिया वाहनों का अधिक तेज़ गति से विस्तार हुआ है. भारतीय शहरों में दोपहिया वाहनों द्वारा रोज़ाना तय की गई औसतन दूरी क़रीब 27-33 किमी और अधिकतम 86 किमी है. इसी तरह इन वाहनों द्वारा सालाना रूप से तय की गई औसत दूरी 8,800 किमी और अधिकतम 22,500 किमी है. भारत में वाहनों के बेड़े में दोपहिया और तिपहिया वाहनों के ऊंचे प्रतिशत के चलते भारत के सकल परिवहन उत्सर्जन में निजी वाहनों का हिस्सा सिर्फ़ 18 प्रतिशत है. दोपहिया और तिपहिया वाहनों को जोड़े जाने पर भी ये आंकड़ा 36 प्रतिशत तक ही पहुंचता है. दुनिया के अनेक देशों के मुक़ाबले ये आंकड़ा काफ़ी नीचे हैं. अमेरिका के परिवहन क्षेत्र के सकल उत्सर्जन में पैसेंजर कारों का हिस्सा 57 प्रतिशत है. परिवहन क्षेत्र के डिकार्बनाइज़ेशन की प्रक्रिया के तहत भारत इलेक्ट्रिक दोपहिया (ई-दोपहिया), इलेक्ट्रिक तिपहिया और इलेक्ट्रिक चौपहिया वाहनों की ख़रीद में अनुदान मुहैया करा रहा है. इसके लिए वित्तीय प्रोत्साहनों का सहारा लिया जा रहा है, जिसमें ख़ुदरा क़ीमतों पर छूट, कर में रियायत और ग़ैर-वित्तीय प्रोत्साहन (सड़कों, पार्किंग और चार्जिंग सुविधाओं तक पहुंच में प्राथमिकता) शामिल हैं. इलेक्ट्रिक वाहनों (EV) की ज़्यादातर बिक्री इलेक्ट्रिक दोपहिया और इलेक्ट्रिक तिपहिया वाहनों के खाते से हो रही है. 2023 में इलेक्ट्रिक वाहन भंडार का 96 प्रतिशत हिस्सा दोपहिया और तिपहिया वाहनों का है. सरकार ने दोपहिया और तिपहिया वाहनों को पूरी तरह से इलेक्ट्रिक तरीक़े से संचालित किए जाने का लक्ष्य रखा है. हालांकि इसके बावजूद भारत के परिवहन क्षेत्र को कार्बन-मुक्त बनाने में ये क़वायद नाकाफ़ी रहेगी. 

परिवहन क्षेत्र के डिकार्बनाइज़ेशन की प्रक्रिया के तहत भारत इलेक्ट्रिक दोपहिया (ई-दोपहिया), इलेक्ट्रिक तिपहिया और इलेक्ट्रिक चौपहिया वाहनों की ख़रीद में अनुदान मुहैया करा रहा है. इसके लिए वित्तीय प्रोत्साहनों का सहारा लिया जा रहा है, जिसमें ख़ुदरा क़ीमतों पर छूट, कर में रियायत और ग़ैर-वित्तीय प्रोत्साहन  शामिल हैं.

परिवहन से उत्सर्जन

भारत में रोज़ाना तक़रीबन 60,000-75,000 वाहनों की बिक्री होती है. इनमें सभी प्रकार के वाहन शामिल हैं. भारत में क़रीब 10 लाख या उससे ज़्यादा वाहनों वाले नगरों और शहरों की तादाद अब 42 तक पहुंच गई है. 10 लाख से ज़्यादा आबादी वाले भारतीय शहरों में पहले से ही भारत में कुल निबंधित वाहनों का तक़रीबन 30 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है. शहरी परिवारों में वाहनों के स्वामित्व का स्तर ग्रामीण परिवारों के मुक़ाबले ऊंचा है. 2019 में शहरी क्षेत्रों में मोटरसाइकिलों का स्वामित्व ग्रामीण इलाक़ों की तुलना में 1.4 गुणा ज़्यादा था. सवारी कारों के स्वामित्व की दर शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में दोगुने से भी ज़्यादा थी.

भारत का परिवहन क्षेत्र अब ऊर्जा का अंतिम-इस्तेमाल करने वाला सबसे तेज़ रफ़्तार वाला क्षेत्र बन गया है. भारत के परिवहन क्षेत्र में ऊर्जा का प्रयोग पिछले तीन दशकों में पांच गुणा बढ़ गया है. 2019 में ये 100 Mtoe (लाखों टन तेल समतुल्य) से भी आगे निकल गया. परिवहन के क्षेत्र की तेल पर भारी निर्भरता है और इस सेक्टर की 95 प्रतिशत मांग पेट्रोलियम पदार्थों से ही पूरी की जाती है. भारत में तेल की कुल मांग का तक़रीबन आधा हिस्सा परिवहन क्षेत्र के खाते में जाता है. साल 2000 से लेकर अब तक वाहनों के बढ़ते स्वामित्व और सड़क परिवहन के प्रयोग में बढ़ोतरी के चलते तेल की मांग में दोगुने से भी ज़्यादा इज़ाफ़ा हो गया है. भारत में सड़क नेटवर्क का विस्तार, गतिशीलता में तेज़ी से बढ़ोतरी लाने में मददगार रहा है. साल 2000 में सड़कों का कुल विस्तार 33 लाख किमी था जो 2019 में बढ़कर 63 लाख किमी हो गया. सड़कों के जाल के मामले में भारत अब अमेरिका के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया है. 

विद्युतीकरण को अनुदान

2022 में भारतीय सड़कों पर इलेक्ट्रिक दोपहिया और तिपहिया वाहनों (e2Ws & e3Ws) का कुल भंडार 20 लाख था. अनुदान और अन्य प्रोत्साहनों की मदद से इन वाहनों की तादाद 2015 से सालाना 60 प्रतिशत की दर से बढ़ती जा रही है. लेड एसिड बैटरी से संचालित इलेक्ट्रिक तिपहिया वाहन (जिन्हें ई-रिक्शा भी कहा जाता है) आज रोज़ाना लगभग 6 करोड़ लोगों (ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों में) की ज़रूरतें पूरी कर रहे है. बाज़ार के कुल आकार के संदर्भ में इनकी बिक्री का आंकड़ा ठीक-ठाक है. इलेक्ट्रिक दोपहिया और तिपहिया वाहनों की तक़रीबन 982,885 इकाइयों की बिक्री हुई है, जो कुल विक्रय का लगभग 4.7 प्रतिशत है. संघ और राज्यों की मौजूदा नीतियों के तहत लेड एसिड संस्करणों की बजाए केवल उन्नत बैटरी रसायनों से लैस इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs) को ही अनुदान मुहैया कराए जाते हैं. हालांकि आज की तारीख़ में भारत की सड़कों पर ज़्यादातर लेड एसिड बैटरी वाले इलेक्ट्रिक तिपहिया और दोपहिया वाहन ही मौजूद हैं. बहरहाल, पेट्रोल और डीज़ल पर ऊंचे कर (ख़ुदरा क़ीमतों का तक़रीबन 60 प्रतिशत), EVs पर वस्तु और सेवा कर (GST) को 12 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत किए जाने और EV के ख़रीदारों को टैक्स समेत तमाम दूसरे प्रोत्साहन कारी उपाय मुहैया कराए जाने से इलेक्ट्रिक वाहनों के विकास की रफ़्तार में तेज़ी आने के आसार हैं.

इलेक्ट्रिक वाहनों के संपूर्ण जीवनकाल में कार्बन उत्सर्जन    

परिवहन क्षेत्र में शुरू से अंत तक के आकलनों में किसी वाहन के “संपूर्ण” जीवन काल में उस वाहन और उसके ईंधन से जुड़े पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया जाता है. इसमें उस वाहन से जुड़े कच्चे माल के संग्रहण और प्रसंस्करण, उत्पादन, इस्तेमाल और जीवनकाल के अंत तक के विकल्पों के साथ-साथ ईंधन के संग्रहण, प्रसंस्करण, प्रसार और प्रयोग को शामिल किया जाता है. इलेक्ट्रिक वाहनों के जीवन काल से जुड़े आकलन (LCA) (एकाकी और ICE वाहन प्रौद्योगिकी से तुलनात्मक, दोनों प्रकार से) गहन होते हैं और इनमें लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है. बहरहाल, इससे जुड़े साहित्य में इज़ाफ़े के साथ-साथ नतीजों का दायरा भी बढ़ता जा रहा है. हरेक अध्ययन में प्रणाली के अलग-अलग पैमानों की वजह से अंतर दिखाई देता है. इनमें चुने गए लक्ष्य, दायरे, मॉडल, पैमाने, समय सीमा और डाटासेट्स शामिल है.

हाल ही में हुए एक शोध से ये नतीजा निकला है कि EVs को 200,000 किमी चलाए जाने के बाद ही उनके “संपूर्ण जीवन काल” का कार्बन उत्सर्जन एक ICE वाहन के बराबर होता है. एक लिथियम-आयन बैटरी के निर्माण में भारी मात्रा में ऊर्जा (और उसके विस्तार से कार्बन-डाई-ऑक्साइड [CO2] उत्सर्जन) की दरकार होती है. आमतौर पर एक इलेक्ट्रिक वाहन का वज़न उसके समान ICE से औसतन 50 प्रतिशत अधिक होता है. दरअसल EV के ढांचे में ज़्यादा मात्रा में स्टील और एल्युमिनियम की ज़रूरत पड़ने की वजह से ऐसा होता है. लिहाज़ा बिक्री से पहले एक इलेक्ट्रिक वाहन में “अंतर्निहित कार्बन” एक ICE के मुक़ाबले 20 से 50 प्रतिशत अधिक होता है. आधुनिक लिथियम-आयन बैटरी में लगभग 217,261 किमी का दायरा होता है. इस दायरे के बाद ही ये ख़राब होकर अंत में अनुपयोगी बन जाते हैं. एक अध्ययन के मुताबिक बैटरी बदले जाने की ज़रूरत पड़ते ही एक इलेक्ट्रिक वाहन, कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के सिलसिले में एक ICE वाहन की बराबरी वाले स्तर पर आ जाता है. अगर ये सही है तो इससे CO2 में कमी लाने से जुड़ी EVs की क्षमताओं को लेकर चिंता पैदा होती है. हालांकि ICE द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर तक पहुंचने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों को कब तक चलाए जाने की दरकार है, इसको लेकर बाक़ी अध्ययनों के नतीजे अलग-अलग हैं. ये कई कारकों पर निर्भर है- जैसे इलेक्ट्रिक वाहन की बैटरी का आकार, ICE कार के ईंधन का अर्थशास्त्र और EV को चार्ज करने के लिए इस्तेमाल बिजली के प्रकार के निर्माण का तरीक़ा. 

जैसा कि ज़्यादातर EVs के संदर्भ में होता है, इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहन भी बिजली और लागत से जुड़ी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. हालांकि बैटरियों की तेज़ी से घटती क़ीमतें इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहनों की कुल लागत घटा सकती हैं. बहरहाल, ICE दोपहिया वाहनों (मोटरबाइक) के साथ लागत समानता हासिल करने के लिए बैटरी पैक की नीची क़ीमतों के साथ-साथ बैटरी पैक की लागत के अनुपात को वाहन की कुल लागत के मुक़ाबले अधिक होना चाहिए. वाहन की क़ीमत में बैटरी की ऊंची लागत का मतलब है शेष वाहन की लागत में कमी.

पिछले दशक में ICE वाहनों की दक्षता और उत्सर्जन मानकों में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है. भविष्य में इसमें सुधार जारी रहने के आसार हैं. मिसाल के तौर पर यूरो 6 डीज़ल का उत्सर्जन स्तर इलेक्ट्रिक वाहनों की टक्कर का है. इसके अलावा ICE वाहनों की अपेक्षाकृत निम्न गति-वृद्धि और कम भार के चलते सड़कों पर कम मात्रा में धूल पैदा होती है. साथ ही टायर और सड़कों के ख़राब होने की रफ़्तार भी धीमी रहती है, जो शहरी प्रदूषण का एक अहम स्रोत हैं. वैश्विक स्तर पर फ़िलहाल एक अरब वाहनों में इलेक्ट्रिक वाहनों की वर्तमान संख्या क़रीब 50 लाख है. 2040 तक विश्व के कुल दो अरब वाहनों में EVs की तादाद 30 करोड़ हो जाने का अनुमान है. हालांकि इससे तेल की मांग में सिर्फ़ 10 या 20 लाख बैरल सालाना की गिरावट आने का ही अनुमान है. उधर, ICE वाहनों की दक्षता में सुधार से तेल की मांग में रोज़ाना 2 करोड़ बैरल की कमी आने के आसार हैं. इससे प्रदूषण और CO2 उत्सर्जन में भारी गिरावट आ सकती है.  

मुद्दे

विद्युतीकरण के ज़रिए सड़क परिवहन को कार्बन-मुक्त बनाने से जुड़ी नीतियों के लिए बिजली निर्माण से जुड़ी क़वायद को कार्बन-मुक्त करना निहायत ज़रूरी है. ऐसा नहीं किए जाने पर प्रदूषण का सिर्फ़ स्रोत ही बदलेगा और वो वाहनों के पिछले पाइप की बजाए ताप बिजली संयंत्रों की चिमनियों तक पहुंच जाएगा. चार्जिंग से जुड़ा बुनियादी ढांचा तैयार करने के लिए शुरुआती दौर में भारी-भरकम निवेश किया जाना ज़रूरी है. हालांकि अगले पांच वर्षों में भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाए जाने की क़वायद में बिजली निर्माण क्षमता के रुकावट बनने की आशंका नहीं है. बहरहाल, EVs से जुड़ी बिजली की मांग के रुझानों की उम्मीद में होने वाली तरक़्क़ियां और ग्रिड का प्रबंधन चुनौती के रूप में बरक़रार रहेंगी. इससे भी अहम बात ये है कि पेट्रोलियम के उप-उत्पादों से हासिल होने वाले करों के वैकल्पिक तरीक़े और साधन ढूंढा जाना निहायत ज़रूरी है. इन पदार्थों से हासिल राजस्व सार्वजनिक वित्त में अहम योगदान देते हैं. नीतिगत स्तर पर बुद्धिमानी इसी बात में है कि प्रौद्योगिकियों का चुनाव करने की बजाए हम प्रौद्योगिकी-निरपेक्ष नज़रिया अपनाएं. इस कड़ी में अंतिम परिणामों (जैसे कार्बन डाई ऑक्साइड में गिरावट का स्तर) पर ज़ोर दिया जाना चाहिए.

नई प्रौद्योगिकियों को अपनाए जाने की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने के लिए नीति निर्माताओं की ओर से अनुदान दिए जाने की क़वायद असामान्य नहीं है. प्रौद्योगिकियों में विकास के हिसाब से कालांतर में इन अनुदानों का उभार होता रहेगा.

नई प्रौद्योगिकियों को अपनाए जाने की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने के लिए नीति निर्माताओं की ओर से अनुदान दिए जाने की क़वायद असामान्य नहीं है. प्रौद्योगिकियों में विकास के हिसाब से कालांतर में इन अनुदानों का उभार होता रहेगा. हालांकि इस सिलसिले में कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनकी ओर ज़रूरत के मुताबिक ध्यान नहीं दिया गया है, जैसे- भारत सड़क परिवहन के विद्युतीकरण की प्रक्रिया में किस हद तक अनुदान दे सकता है, और इसके चलते विकास और अर्थव्यवस्था से जुड़े दूसरे लक्ष्यों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा. अनुदानों से इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाए जाने की प्रक्रिया को हवा मिल रही है. हालांकि इन अनुदानों का दूसरे लक्ष्यों से टकराव भी हो रहा है. इनसे सार्वजनिक व्यय सिमटता जा रहा है. दूसरी ओर तात्कालिक महत्व की दूसरी क़वायदों और आवश्यक आवश्यकताओं (जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा) पर ख़र्चों में बढ़ोतरी नहीं हो पा रही है. सरकार इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाए जाने की कुल तादाद को अहमियत देती है. साथ ही डिकार्बनाइज़ेशन के लक्ष्यों को हासिल करने से अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा भी जुड़ी हुई है. बहरहाल, सरकार को सीमित सार्वजनिक कोष को विद्युतीकरण पर ख़र्च किए जाने को लेकर भी समान रूप से चिंतित होना चाहिए. इलेक्ट्रिक तिपहिया और दोपहिया वाहनों के संभावित उपयोगकर्ताओं के लिए EVs के निजी और अलग-अलग प्रकार के मोल हैं. इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाए जाने को लेकर दी जा रही सब्सिडियों का प्रभाव तब मज़बूत होता है जब सीमांत उपभोक्ताओं का एक बड़ा समूह मौजूद हो. ये ऐसे उपभोक्ता होते हैं जो अनुदानों का स्तर नीचा रहने पर भी इलेक्ट्रिक वाहन अपनाने को तैयार रहते हैं. हालांकि ज़्यादातर उपभोक्ताओं के हाशिए पर रहने की सूरत में ये प्रभाव कमज़ोर रहता है. भारत में दोपहिया और तिपहिया वाहनों के ज़्यादातर प्रयोगकर्ता इसी श्रेणी में आते हैं. इसके मायने यही हैं कि सब्सिडियों के बग़ैर इन उपभोक्ताओं द्वारा इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाए जाने के आसार नहीं है. भारत में परिवहन क्षेत्र को कार्बन-मुक्त करने की क़वायद में नीतिगत तत्व का अभाव है. ये ICE वाहनों में निवेश करने वाले ऐसे प्रयोगकर्ताओं के लिए हतोत्साहित करने वाला कारक है जो सब्सिडी के बग़ैर भी अपना काम चला सकते हैं. इससे डिकार्बनाइज़ेशन का भार (कम से कम आंशिक तौर पर) भारत की समृद्ध आबादी के कंधों पर आ जाएगा. 2023 में भारत में वाहनों का कुल भंडार 34 करोड़ से थोड़ा ज़्यादा है. इसमें दोपहिया और तिपहिया वाहनों का हिस्सा 75 प्रतिशत है, जो पैसेंजर कारों के मुक़ाबले पांच गुणा अधिक है. हालांकि ईंधन के उपभोग में इन दोपहिया और तिपहिया वाहनों का हिस्सा महज़ 20 प्रतिशत है. इन वाहनों को छोड़कर बाक़ी के वाहन शेष 80 फ़ीसदी CO2 उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार है. इस सिलसिले में एक व्यापक नीति की दरकार है. इसके तहत समृद्ध शहरी परिवारों द्वारा ICE चौपहिया वाहनों की ख़रीद को हतोत्साहित करने वाले (रुकावटी) उपाय करने होंगे. इसके साथ-साथ दोपहिया वाहनों के निम्न-आय वाले उपयोगकर्ताओं के लिए लोकलुभावन या प्रोत्साहन कारी उपायों (जैसे इलेक्ट्रिक दोपहिया और तिपहिया वाहनों के लिए सब्सिडी) के इस्तेमाल को भी सीमित किए जाने की ज़रूरत है. ऐसी समग्र नीति भारत के लिए ज़्यादा उपयुक्त रहेगी.

स्रोत: इंडिया एनर्जी आउटलुक 2020, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी 

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Authors

Akhilesh Sati

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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

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Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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