यह लेख हमारी निबंध श्रृंखला – शेपिंग आवर ग्रीन फ्यूचर: पाथवेज़ एंड पॉलिसीज़ फॉर नेट ज़ीरो ट्रांसफॉर्मेशन का हिस्सा है.
जलवायु परिवर्तन (Climate Change) पर अंतर-सरकारी पैनल यानी आईपीसीसी (IPCC) की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट स्पष्ट तौर पर कहती है कि आने वाले दशक इस सदी के अंत से पहले धरती के लिए वैश्विक ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के अंतिम मौका हैं.[i] इस रिपोट ने जलवायु परिवर्तन की मार से इस धरती को बचाने के लिए विभिन्न देशों के लिए डीकार्बनाइज़ेशन (Decarbonization: कार्बन डाई-ऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी कटौती) की ज़रूरत को सामने रखा है. निश्चित तौर पर डीकार्बनाइज़ेशन (Decarbonizations) या स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ने के प्रति प्रतिबद्धताएं बढ़ी हैं, खास तौर पर बीते साल में. करीब 73 फ़ीसदी वैश्विक जीएसजी (World GSG) के लिए जिम्मेवार करीब 130 देशों ने नेट ज़ीरो (Net Zero) लक्ष्यों की घोषणा की है या फिर वे इस बारे में विचार कर रहे हैं. अगर इन लक्ष्यों को पूरी तरह हासिल कर लिया जाता है तो इस सदी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सकता है.
डीकार्बनाइज़ेशन का फ़ायदा उठाने के लिए यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि यह परिवर्तन साझा और बराबरी के स्तर पर हो, जैसा कि संयुक्त राष्ट ने कहा है- ‘कोई भी पीछे नहीं छूटना चाहिए’.
डीकार्बनाइज़ेशन का लक्ष्य यथास्थिति से आगे बढ़ना और उस तरीक़े के बारे में दोबारा सोचना है, जिससे की विभिन्न देश अपनी आर्थिक व्यवस्था की योजना बनाते और उसे संचालित करते हैं. कई देशों में यह प्रक्रिया चल रही है. ये देश पेरिस समझौते के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं या नेट ज़ीरो लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काम कर रहे हैं. हालांकि, मौजूदा दृष्टिकोण अक्सर टेक्नोक्रेटिक होता है या यह उचित नीतियों, प्रोत्साहनों और वित्त पोषण का तकनीकी-आर्थिक (techno-economic) मूल्यांकन होता है. वे लोगों विशेष रूप से सबसे कमज़ोर और हाशिए पर रहने वाले लोगों से संबंधित प्रश्नों पर केवल ऊपरी तौर पर ध्यान देते हैं.
डीकार्बनाइज़ेशन का फ़ायदा उठाने के लिए यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि यह परिवर्तन साझा और बराबरी के स्तर पर हो, जैसा कि संयुक्त राष्ट ने कहा है- ‘कोई भी पीछे नहीं छूटना चाहिए’. इसलिए, जलवायु-संगत भविष्य की दिशा में डीकार्बनाइज़ेशन के नेतृत्व में परिवर्तन को पूरा करने के लिए न्याय, हिस्सेदारी और समावेशी के प्रति एक सतत और प्रेरक प्रतिबद्धता अनिवार्य है.
जलवायु न्याय और न्यायोचित परिवर्तन (Climate Justice and Just Transition)
जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में ‘न्याय’ की अवधारणा के कई पहलू हैं और इसे विभिन्न हितधारक अपनी-अपनी तरह से समझते और उसका समाधान निकालते हैं. आज अंतरराष्ट्रीय समुदाय ‘जलवायु न्याय’ के बारे में जो समझती है वह ‘न्यायोचित परिवर्तन’ (Just Transition) की अवधारणा से काफ़ी करीब से जुड़ा है. इसकी उत्पति अमेरिका में 1980 के दशक में हुए विरोध आंदोलन के दौरान हुई. वह आंदोलन वंचित समुदाय के बीच पर्यावरणीय खतरे के अनुचित वितरण के खिलाफ था. बीते कुछ समय से ‘जलवायु न्याय’ ने पर्यावरणीय न्याय के मुद्दे को व्यापक बना दिया है. यह स्थानीय पर्यावरणीय मुद्दे से बढ़कर वैश्विक जलवायु परिवर्तन की चुनौती में तब्दील हो गया है. अब इसके तहत जलवायु प्रभाव और क्रियान्वयन के वितरण संबंधी मुद्दे को सुलझाया जा रहा है. इंडिया क्लाइमेट कोलैबोरेटिव की हालिया परिभाषा के मुताबिक ‘जलवायु परिवर्तन’ को इस स्वीकारोक्ति के रूप में देखा जाता है. जलवायु परिवर्तन का सबसे ग़रीब और वंचित आबादी पर सामाजिक, आर्थिक, स्वास्थ्य संबंधी और अन्य प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है. यह लंबी अवधि के शमन (mitigation) और पलटाव की (resilience) रणनीतियों के ज़रिए इन असमानताओं को सीधे संबोधित करने का प्रयास करता है. दूसरी तरफ ‘न्यायोचित परिवर्तन’ (Just Transition) का फोकस व्यवस्थित बदलाव पर होता है, जिसका परिणाम एक ज़्यादा बराबरी वाली व्यवस्था के रूप में दिखता है. जस्ट ट्रांज़िशन का मतलब है कि साफ ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देते वक्त यह ध्यान रखना कि उन लोगों के रोज़गार पर कम से कम प्रभाव पड़े जिनकी रोज़ी जीवाश्म ईंधन पर टिकी है. पेरिस समझौते का उद्घाटन बयान सरकारों से “कार्यबल के न्यायसंगत परिवर्तन की अनिवार्यता और राष्ट्रीय स्तर पर परिभाषित प्राथमिकताओं के अनुसार अच्छे काम और गुणवत्ता वाली नौकरियों के निर्माण” को ध्यान में रखने का आह्वान करता है. यह समावेशन इस विषय में आगे शोध और जानकारी जुटाने के लिए उत्प्रेरित करता है. यह विचार उत्तरी दुनिया (Global North) में प्रमुखता से आया है जो जीवाश्म ईंधन से दूरी बनाने के सामाजिक आर्थिक पहलुओं का समाधान निकालने की कोशिश में है.
जस्ट ट्रांज़िशन पर मौजूदा चर्चा में दो महत्वपूर्ण चुनौतियां सामने आ रही हैं: यह काफ़ी हद तक नौकरी के एजेंडे से प्रेरित है और इसे ग्लोबल नॉर्थ यानी दुनिया के उत्तरी छोर के परिप्रेक्ष्य के हिसाब से तैयार किया गया है.
उदाहरण के लिए साल 2018 में कनाडा ने कोयले को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के प्रभावों को बेहतर ढंग से समझने के साथ-साथ प्रभावित समुदायों से ज़रूरी सहयोग हासिल करने के लिए कोयला बिजली श्रमिकों और समुदायों के लिए न्यायोचित परिवर्तन (Just Transition) पर एक टास्क फोर्स बनाया. टास्क फोर्स ने प्रभावित समुदायों के साथ व्यापक स्तर पर काम किया और ऐसी ठोस नीतियों और योजनाओं की आवश्यकता पर ज़ोर दिया, जिसमें स्थानीय संदर्भ और स्थानीय समुदायों को शामिल किया जाता हो. टास्क फोर्स के सुझावों के जवाब में 2019 में कनाडा ने अगले पांच साल के लिए 3.5 करोड़ डॉलर के सहयोग की घोषणा की. इस राशि से वर्कर्स ट्रांज़िशन सेंटर बनाया जाना है और मज़दूरी व पेंशन की रक्षा के नए तरीकों की तलाश की जानी है. इससे पहले 2018 में जर्मनी ने एक समर्पित एजेंसी की नियुक्ति की थी. इस एजेंसी को विकास, संरचनात्मक आर्थिक परिवर्तन और रोजगार पर आयोग नाम दिया गया. इसका काम देश के ऊर्जा क्षेत्र को 2030 तक अपने उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम बनाने के लिए ठोस उपायों और समयसीमा की सिफारिश करना था. इसके साथ ही उसे कोयला श्रमिकों और खनन के इलाकों में न्यायोचित परिवर्तन के लिए खाका तैयार करना था. आयोग ने विभिन्न सामाजिक और श्रम उपायों के माध्यम से श्रमिकों को सहयोग देने की सिफारिश की. जर्मनी के कैबिनेट ने आयोग द्वारा अनुशंसित रोडमैप को स्वीकार कर लिया और कोयला उत्पादन वाले इलाकों के लिए 2038 तक 40 अरब यूरो की राशि आवंटित की. स्पेन भी ‘न्यायोचित परिवर्तन’ (जस्ट ट्रांज़िशन) की एक डील पर विचार कर रहा है, जिसके तहत कोयला उद्योग को दी जाने वाली सब्सिडी की राशि उन क्षेत्रों के सतत विकास में लगाई जाएगी जहां कोयला खनन बंद करने का प्रस्ताव दिया जा रहा है. इसके लिए 25 करोड़ यूरो की राशि खर्च की जाएगी. इस राशि से अपनी नौकरी गंवाने वाले श्रमिकों को प्रशिक्षित करने, जल्दी सेवानिवृत्ति प्रदान करने, खनन स्थलों को स्थायी रूप से बहाल करने, जंगल बढ़ाने और बुनियादी ढांचे में सुधार जैसे कार्य किए जाएंगे.
भारत में किए गए एक बेहद प्रभावशाली जमीनी अध्ययन में इस बात को समझाने की कोशिश की गई है कि यहां के कोयला खनन क्षेत्रों और इस तरह के ढांचे के आवश्यक घटकों के संदर्भ में “न्यायोचित परिवर्तन” का क्या अर्थ है.
जस्ट ट्रांज़िशन पर मौजूदा चर्चा में दो महत्वपूर्ण चुनौतियां सामने आ रही हैं: यह काफ़ी हद तक नौकरी के एजेंडे से प्रेरित है और इसे ग्लोबल नॉर्थ यानी दुनिया के उत्तरी छोर के परिप्रेक्ष्य के हिसाब से तैयार किया गया है. जस्ट ट्रांज़िशन में वर्तमान अनुभव का अधिकांश हिस्सा औपचारिक श्रमिक संघों के साथ नौकरियों और जुड़ाव पर केंद्रित है. नीयत अच्छी होने के बावजूद इसमें औपचारिक नौकरियों पर बेहद कम ध्यान दिया गया है, जो ग्लोबल साउथ यानी दक्षिणी दुनिया के कोयला पर निर्भर देशों के लिए संभवतः सबसे अच्छा तरीका नहीं हो सकता. यह नौकरियों और आजीविका के अवसरों की विविधता- और पर्यावरण के साथ उनके संबंध- परिदृश्य को और अधिक चुनौतीपूर्ण बना देता है. उनके विकास के अधिकार, बढ़ती ऊर्जा मांग और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कम हिस्से के तर्क ने जस्ट ट्रांज़िशन के आसपास की चर्चा को और सीमित कर दिया है.
सामाजिक जस्ट ट्रांज़िशन की ओर (Towards a Socially Just Transition)
चाहे ग्लोबल साउथ हो या ग्लोबल नॉर्थ, डीकार्बोनाइजेशन का मसला आगे बढ़ रहा है और यह विभिन्न सेक्टरों के स्तर पर भूमिका निभा रहा है. चिल्ड्रन इन्वेस्टमेंट फंड फाउंडेशन (CIFF) कई भौगोलिक क्षेत्रों में स्वच्छ-ऊर्जा परिवर्तन का समर्थन करता है. इसका लक्ष्य वैश्विक बिजली प्रणाली, परिवहन, उद्योग, कुशल शीतलन, और भूमि उपयोग और खाद्य प्रणालियों में परिवर्तन लाना है. सीआईएफएफ अब यह सुनिश्चित करने के विचार से भी जुड़ रहा है कि ये परिवर्तन उचित, निष्पक्ष, न्यायसंगत और समावेशी हैं. यह जानते हुए कि यह विभिन्न क्षेत्रों और सेक्टरों के लिए अलग-अलग होगा, सीआईएफएफ कम कार्बन, जलवायु-संगत विकास के लिए स्थानीय रूप से उपयुक्त ‘सामाजिक रूप से उचित परिवर्तन’ दृष्टिकोण अपनाने की कोशिश कर रहा है, जो स्थानीय हितधारकों के अनुभवों और अपेक्षाओं के अनुरूप है. जब “सामाजिक रूप से न्यायसंगत परिवर्तन” की बात आती है तो सीआईएफएफ के दृष्टिकोण में तीन महत्वपूर्ण तत्व होते हैं: (i) नौकरियां: अधिक सभ्य और विविधता से भरी नौकरियों और आजीविका के अवसरों का निर्माण; जिसमें नौकरी छूटने और विस्थापन की स्थिति में पर्याप्त और स्थायी सामाजिक सुरक्षा मिले और कौशल विकास को बढ़ावा देना; (ii) हिस्सेदारी और न्याय: परिवर्तन में हिस्सेदारी के मुद्दे का समाधान होना चाहिए (सेक्टर के स्तर पर औपचारिक और अनौपचारिक कार्यबल के बीच और व्यापक स्तर इलाकों और देशों के बीच) और लाभ के वितरण और निर्णय लेने के संदर्भ में न्याय का समर्थन करने वाला यह परिवर्तन कैसा है; और (iii) समावेशन: संक्षेप में लिंग, नस्ल, जातीयता, विकास के चरण और अन्य चीजों की परवाह किए बिना सभी के लिए जगह बनाना, सार्थक रूप से भाग लेना और ऐसे परिवर्तनों से लाभ उठाना.
परिचालन के लिए सिद्धांत
न्यायोचित परिवर्तन (Just Transition) का मतलब क्या है? इस बारे में एक सोच तेज़ी से विकसित हो रही है. इसे और आगे बढ़ाने के लिए तेजी से परिचालित करने की आवश्यकता है. वर्तमान दशक, वादों को मूर्त रूप देने का दशक है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने 2030 तक टिकाऊ विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को हासिल करने की बात कही है. विकास के मुद्दे पर जारी चर्चाओं में न्यायोचित परिवर्तन (Just Transition) की अवधारणा को शामिल करने का यह सही समय है.
‘न्यायोचित परिवर्तन’ के लिए वैश्विक दृष्टिकोण में एक व्यापक बदलाव की आवश्यकता होगी. यह एक ऐसा कार्य है जो इस तथ्य से जटिल हो जाता है कि विभिन्न देश वर्तमान में अपनी-अपनी विकास यात्रा में अलग-अलग बिंदुओं पर हैं. एक तरफ ग्लोबल नॉर्थ के देश नीतियों और सामरिक उपायों के मिश्रण के माध्यम से न्यायोचित परिवर्तन में लगे हैं. वहीं निम्न और मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्थाएं जो लगातार विकास चुनौतियों से जूझ रही हैं, उनके लिए न्यायोचित परिवर्तन के लिए समान गति से आगे बढ़ने में दिक्कतें आएंगी.
यह स्पष्ट है कि न्यायोचित परिवर्तन के लिए व्यापक योजना और सहयोग की ज़रूरत है, लेकिन यहां यह स्पष्ट नहीं है कि इन कामों के लिए कौन भुगतान करेगा. यहां देशों को चाहिए कि परिवर्तन की इस प्रक्रिया में नुकसान उठाने वालों को तुरंत सहयोग देने के लिए संसाधन उपलब्ध कराएं.
“सामाजिक रूप से न्यायोचित परिवर्तन” को बढ़ावा देने की ज़रूरत में एक बात स्पष्ट है: ग्लोबल नॉर्थ ने अब तक बहुत अधिक चर्चाएं कर ली है. अब ज़रूरत इसकी है कि ग्लोबल साउथ में बौद्धिक पूंजी का मूल्यांकन शुरू किया जाए, क्योंकि उन क्षेत्रों में जब देश उत्सर्जन में कटौती के कदम उठाएंगे तो बड़ी आबादी परिवर्तित होगी.
भारत में किए गए एक बेहद प्रभावशाली जमीनी अध्ययन[ii] में इस बात को समझाने की कोशिश की गई है कि यहां के कोयला खनन क्षेत्रों और इस तरह के ढांचे के आवश्यक घटकों के संदर्भ में “न्यायोचित परिवर्तन” का क्या अर्थ है. अध्ययन में पूर्वी भारत के झारखंड राज्य में एक प्रमुख कोयला खनन जिले रामगढ़ से मिली सीख की चर्चा है. रामगढ़ में कोयले पर निर्भरता काफ़ी अधिक है. यहां के 27 फ़ीसदी परिवार इसी पर निर्भर हैं. इन परिवारों में से क़रीब 75 फ़ीसदी अनौपचारिक कोयला अर्थव्यवस्था के हिस्सा हैं, जबकि 29 फ़ीसदी कोयला कंपनियों में औपचारिक रूप से नौकरी करते हैं. इसके अलावा कोयला खनन का वितरण प्रभाव बहुत सीमित हो गया है. केवल कुछ लोगों को इसका लाभ मिलता है. जिले में मूलभूत आधारभूत सुविधाओं और सेवाओं की भारी कमी है. यहां प्राथमिक स्वास्थ्य सेंटरों की संख्या काफ़ी कम हैं. ये केवल आधी आबादी की सेवा करने में सक्षम हैं. केवल 17 ग्रामीण परिवारों तक पाइप लाइन के ज़रिए पानी पहुंचता है. जिले की आर्थिक स्थिति भी खराब है. यहां के 63 फ़ीसदी परिवारों की मासिक आय 135 डॉलर से कम है. इलाके में कोयला खनन पर ध्यान दिए जाने के कारण अन्य सेक्टरों का विकास और अर्थव्यवस्था में विविधता सीमित हो गई.
इस तरह भारत में न्यायोचित परिवर्तन यहां के कर्मचारियों के साथ ‘मोनो’ उद्योग (कोयला) को प्रतिस्थापित करने का एक सीधा सवाल नहीं है. इसके बजाए यह एक अर्थव्यवस्था-व्यापी, स्थानीय रूप से उचित परिवर्तन है, जो कोयला खनन क्षेत्रों में ‘संसाधनों की कमी’ को दूर करने का अवसर प्रदान करता है. यह अध्ययन एक न्यायोचित परिवर्तन फ्रेमवर्क की ज़रूरत बताता है, जिसे जिला स्तर पर लागू किया जाए. साथ ही इसके लिए राज्य व केंद्र सरकार के बीच बेहतरीन संयोजन भी हो.
कोयले को चरणबद्ध तरीके से हटाने के संदर्भ में न्यायोचित परिवर्तन पर एक और सफल अध्ययन दक्षिण अफ्रीका में किया गया. एस्कोम दक्षिण अफ्रीका की एक राष्ट्रीय यूटिलिटी है, जो न्यायोचित परिवर्तन जलवायु कार्रवाई (Just Transition Climate Transaction) पर विचार कर रही है. इससे दक्षिण अफ्रीका में कोयला से चलने वाले बिजली सेक्टर का तेजी से डीकार्बनाइज़ेशन किया जा सकेगा. इसके तहत बंद पड़े बिजली घरों को दूसरे उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने और उसे फिर से संचालित करने के हेतू अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से कम ब्याज दर पर वित्त की हासिल करना है. इसके साथ ही इन कोयला खदानों और कोयला से चलने वाले बिजली घरों के बंद होने से प्रभावित समुदायों को सहयोग और उनके लिए नौकरी के अवसर उपलब्ध कराने की बात है. राष्ट्रपति सिरील रामफोसा (Cyril Ramaphosa) ने एस्कोम की इस विस्तृत योजना को मंजूरी दे दी है. उन्होंने देश प्लेटिनम और लिथियम खनन सेक्टरों के लिए भी कुछ ऐसी ही सोच दिखाई है. ग्लोबल साउथ के इस नज़रिए से सभी के लिए न्यायोचित परिवर्तन को कारगर बनाने में सहयोग मिलेगा.
साथ ही सेक्टरों के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तन के लिए योजना को शामिल करने के लिए चर्चाओं को और अधिक व्यापक आधार देने की ज़रूरत है. अभी तक अधिकत्तर प्रयास कोयला सेक्टर की नौकरियों और कोयला श्रमिकों पर ध्यान केंद्रित रहे हैं. अन्य सेक्टरों जैसे परिवहन, भूमि उपयोग और उद्योगों में डीकार्बनाइज़ेशन के हो रहे प्रयासों को भी स्वीकार करने की ज़रूरत है. उदाहरण के लिए इलेक्ट्रिक वाहन पारंपरिक इंटरनल कंबूसन इंजन(ICE) वाली गाड़ियों की जगह लेने लगे हैं. ऐसे में परिवहन क्षेत्र का कार्यबल सीधे प्रभावित होगा. लेकिन इलेक्ट्रिक की ओर परिवर्तन होने से इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक्स स्कील की मांग बढ़ेगी, वहीं मोटर इंजन और मेटल से जुड़ कामों की मांग घटेगी. यहां पर इलेक्ट्रिक मोबिलिटी इकोसिस्टम के लिए स्कील बढ़ाने की ज़रूरत पड़ेगी और ऐसे में आईसीई वाहनों से जुड़े अनौपचारिक कार्यबल के बाहर होने की संभावना रहेगी. इसी तरह उद्योगों में स्वच्छ ऊर्जा की ओर परिवर्तन का असर उस सेक्टर पर निर्भर लोगों की नौकरियों और आजीविका पर पड़ेगा. ऐसे में उन्हें अपनी स्कील बढ़ाने की ज़रूरत पड़ेगी.
वित्त का सवाल
यह स्पष्ट है कि न्यायोचित परिवर्तन के लिए व्यापक योजना और सहयोग की ज़रूरत है, लेकिन यहां यह स्पष्ट नहीं है कि इन कामों के लिए कौन भुगतान करेगा. यहां देशों को चाहिए कि परिवर्तन की इस प्रक्रिया में नुकसान उठाने वालों को तुरंत सहयोग देने के लिए संसाधन उपलब्ध कराएं. कामगारों के एक वर्ग को रीस्किल करें और उन्हें नौकरी हासिल करने के योग्य बनाएं. साथ ही निष्पक्षता, साझेदारी और कमज़ोर व प्रभावित समुदायों को समाहित करने के लिए इलाकों और सेक्टरों के सतत विकास के लिए मार्ग प्रशस्त करें.
इसको लेकर सबसे व्यापक वित्तीय योजना यूरोपीय यूनियन के न्यायोचित परिवर्तन तंत्र में दिखी है. इसने कोयला बंद करने से प्रभावित इलाकों के लिए वर्ष 2021-2027 के बीच 65 से 75 अरब यूरो इकट्ठा करने की योजना बनाई है. ग्लोब नॉर्थ के अनुभव से अगर कुछ सीखना है तो यह है कि इन कामों में संसाधनों की व्यापक ज़रूरत पड़ेगी. ग्लोब साउथ में ऐसी ही ज़रूरत का अनुमान लगाया गया है. दक्षिण अफ्रीका ने ऊर्ज परिवर्तन के काम के लिए अगले दो दशक में 11 अरब डॉलर इकट्ठा करने की योजना बनाई है. यह राशि स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय कमर्शियल और रियायती वित्त से जुटाई जाएगी.
ये उदाहरण यह भी दिखाते हैं कि सरकार के लिए हर स्तर पर एक ज़रूरी भूमिका निभाना ज़रूरी है. यह भूमिका अंतरराष्ट्रीय से राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर होगी तभी सफलता पूर्वक वित्त की व्यवस्था हो पाएगी. हालांकि, कई निम्न और मध्यमय आय वाले देशों के जमा धन कोविड-19 महामारी की वजह से ख़त्म हो गए हैं. ऐसे में एक ऐसी अर्थव्यवस्था में पैसा लगाना और मुश्किल भरा हो गया है जो न केवल ग्रीन और लचीला हो बल्कि न्यायोचित परिवर्तन वाली हो. ऐसी पहलों में पैसा लगाने के लिए कार्बन कर को एक ज़रिए के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन यह प्रतिगामी साबित हो सकता है और अंततः इसका बोझ ग़रीबों पर पड़ेगा. ऐसे में यहां पर न्याय और समानता का उद्देश्य प्रभावित होता है. यहां पर धनी देश अहम भूमिका निभा सकते हैं. वे निम्म आय वाले परिवारों पर से कार्बन टैक्स के बोझ को हल्का कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास न्यायोचित परिवर्तन में निवेश के लिए धन जुटाने के अन्य स्रोत भी हैं. उनके ऐसा करने से कार्बन टैक्स पर होने वाली राजनीति भी कमज़ोर पड़ेगी. यह वैश्विक वित्तीय सिस्टम में असमानता को दर्शाता है.
स्पष्ट तौर पर कहा जाए तो दानदाताओं और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को सस्ता कर्ज़ उपलब्ध कराना होगा. अगले पांच साल का (2021 से शुरुआत) लक्ष्य जलवायु वितपोषण के लिए 100 अरब डॉलर की वार्षिक प्रतिबद्धता को पार करना और अंतरराष्ट्रीय जन वित्तपोषण को एक अनुकूल माहौल से जोड़ने का होना चाहिए, जिससे कि इस सेक्टर में निजी निवेश का रास्ता सुगम हो सके.
एसडीजी से जुड़े मिश्रित वित्तीय समाधानों तक व्यापक पहुंच (परियोजना विकास के लिए अनुदान से लेकर बुनियादी ढांचे के लिए रियायती वित्त पोषण तक), विशेष रूप से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में ग्रीन विकास को सक्षम करने में एक गेम-चेंजर साबित होगी. क्रियान्वयन के व्यापक स्तर पर न्यायोचित परिवर्तन को अलग-अलग स्तरों पर विभिन्न हितधारकों का सहयोग प्राप्त होना चाहिए. इनमें ये चीजें शामिल की जानी चाहिए:
- प्रभावित श्रमिकों (औपचारिक और अनौपचारिक) और समुदायों को सामाजिक संरक्षण लाभ के रूप में सरकारी और निजी क्षेत्र का समर्थन
- आजीविका के अवसरों का विविधीकरण
- कौशल विकास और कार्यबल के पुन: प्रशिक्षण के लिए बड़े पैमाने पर समर्थन पैकेज
- क्षेत्र के टिकाऊ विकास के लिए एक स्थानीय विकास कोष.इसका एक उदाहरण भारत के डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन में देखा जा सकता है, जो खनन क्षेत्रों में आजीविका शृजन और स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा करने को प्राथमिकता देने के लिए है.
- द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संगठनों व वैश्विक कोष (जैसे ग्रीन जलवायु कोष) से मौजूदा विकास निधि तक पहुंच सुनिश्चित करना, जिससे कि विशेष रूप से निम्न आय वाले देशों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों में आजीविका के अवसर पैदा करने वाली गतिविधियों संचालित की जा सकें.
- परोपकारी पूंजी जो रचनात्मक नीतियों और वित्त पोषण समाधान और सर्वोत्तम प्रथाओं को सहयोग प्रदान कर सहायता के अन्य द्वार खोलती है.
भविष्य की राह
कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था की ओर निष्पक्ष बदलाव एक उपयोगी लक्ष्य है. चूंकि, जलवायु के मसले पर राजनीति हो रही है, ऐसे में इस बात के पक्के सबूत हैं कि यदि हम इस परिवर्तन में सामाजिक अन्याय के मसले का समाधान नहीं करते हैं, तो इस लक्ष्य को हासिल करने के मार्ग में हमेशा पटरी से उतरने का ख़तरा बना रहेगा. जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा होने वाली चरम स्थितियां कमज़ोर वर्ग के लिए ज़्यादा जोखिम भरा है. इसलिए दुनिया उन समूहों को छोड़कर जलवायु पर जीत नहीं हासिल कर सकती, जो सबसे ज़्यादा जोखिम में हैं. ऐसी स्थिति में एक और अधिक अन्यायपूर्ण प्रणाली बनेगी जो केवल कुछ लोगों को राहत पहुंचाएगी.
व्यापक स्तर पर हितधारकों (सहयोगी और विरोधी दोनों) को साथ आकर एक गठजोड़ बनाना होगा जो डीकार्बनाइज़ेशन की ओर जाने के लिए वैश्विक प्रयासों में न्यायोचित परिवर्तन के सिद्धांतों को एकीकृत करे. इस दिशा में ‘ए ग्लोबल जस्ट ट्रांज़िशन फैसिलिटी’ पहला कदम हो सकता है. यह आवश्यक क्षमता निर्माण प्रदान कर सकता है. यह परिवर्तन को लेकर विचारों और विशेषज्ञता को बढ़ावा देता है, जो ग्लोबल साउथ के नेतृत्व में बौद्धिक क्षमता पर निर्माण करता है.
विभिन्न सेक्टरों और देशों के स्तर पर योजना और वित्त पोषण के स्पष्ट प्रदर्शन के साथ इसका पालन किया जाना चाहिए.
एक डीकार्बनाइज़ दुनिया यानी कार्बन के दुष्प्रभावों से रहित दुनिया वास्तव में केवल तभी मायने रखेगी जब नई प्रणाली निष्पक्ष, न्यायसंगत और समावेशी हो. उस दिशा में काम शुरू करने का इससे अधिक अच्छा समय और कोई नहीं हो सकता.
[i] IPCC, 2021, Climate Change 2021: The Physical Science Basis. Contribution of Working Group I to the Sixth Assessment Report of the Intergovernmental Panel on Climate Change
[ii] iForest, Just Transition in India: An inquiry into the challenges and opportunities of a post-coal future, 2020
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