Published on May 11, 2023 Updated 0 Hours ago

नेतृत्व की निरंतरता के साथ ही फैसले लेने वाले सिस्टम को गहनता के साथ पेशेवर रूप प्रदान करना निश्चित तौर पर लंबे समय अंतराल में जलवायु परिवर्तन को कम करने की दिशा में मददगार साबित होगा.

डी-कार्बोनाइज़ेशन के मुद्दे पर संस्था के स्तर पर असमंजस की स्थिति!

स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी (1996 और 1998 से 2004 में भारत के प्रधानमंत्री) नई प्रौद्योगिकी को लेकर काफ़ी उत्सुक रहते थे और उनके पास टेक्नोलॉजी को समझने एवं उसकी सराहना करने की योग्यता थी. इतना ही नहीं जटिल और तकनीक़ी रूप से सही प्रस्तावों को धैर्यपूर्वक सुनने के बाद, वे उच्च-स्तरीय चर्चाओं में सामने आए इन प्रस्तावों को केवल ज़मीन पर लाने के बारे में सोच सकते थे, बल्कि उनमें यह भी काबिलियत थी कि उन बेहतरीन प्रस्तावों को किस प्रकार से धरातल पर क्रियान्वित किया जा सकता है. ज़ाहिर है कि बेहतरीन प्रस्ताव को लागू करने का विकल्प शायद तभी आगे बढ़ पाता है, जब नकारात्मक और सकारात्मक दृष्टि से उनके गंभीर सामाजिक-राजनीतिक या आर्थिक परिणाम सामने आते हैं. सरकारी स्वामित्व वाले उद्यमों के निजीकरण के मामले को ही लें, जहां हारने वाले, विजेताओं की तुलना में प्रस्ताव को सफल बनाने के लिए संघर्ष करते हैं और अपना पूरा ज़ोर लगा देते हैं.

डी-कार्बोनाइज़ेशन आज पूरी दुनिया में विकास को संचालित करने वाला ट्रेंड है और मौज़ूदा वक़्त में यह कोई अपवाद नहीं है. विजेताओं की तुलना में डी-कार्बोनाइज़ेशनसे हारने वालों की पहचान आसानी से हो जाती है.

डी-कार्बोनाइज़ेशनआज पूरी दुनिया में विकास को संचालित करने वाला ट्रेंड है और मौज़ूदा वक़्त में यह कोई अपवाद नहीं है. विजेताओं की तुलना में डी-कार्बोनाइज़ेशनसे हारने वालों की पहचान आसानी से हो जाती है. ऑटोमोबाइल सेक्टर में बड़े पैमाने पर "रचनात्मक विनाश" और वर्ष 2040 तक इंटर्नल कंबस्टन इंजन को दरकिनार करने से रोज़गारों के समाप्त होने की संभावना है. इसी अवधि के दौरान कोयला खनन और कोयला आधारित बिजली उत्पादन में वर्ष 2060 के बाद , जैसे-जैसे भारत नेट ज़ीरो की तरफ पहुंचेगा, घटती नौकरियों के साथ कोयले की खपत चरम पर होने की संभावना है. इससे भारतीय रेलवे को तगड़ा झटका लगेगा. ज़ाहिर है कि रेलवे द्वारा जितनी माल ढुलाई की जाती है, उसमें आधा हिस्सा कोयले का है, यह पैसेंजर ट्रैफिक को क्रॉस-सब्सिडी देने के लिए उच्च प्रशासित शुल्क पर निर्भर है. इसके साथ ही वर्ष 2050 तक बिजली की गतिशीलता में 100 प्रतिशत की वृद्धि से तेल और गैस समान रूप से प्रभावित होंगे (भारी वाहनों को छोड़कर, जो फ्यूल सेल्स का उपयोग कर सकते हैं) और वर्ष 2060 तक शहरों के अधिकांश रसोई घरों का विद्युतीकरण होने से इन पर असर पड़ेगा.

औपचारिक क्षेत्र के कुल क़रीब 30 मिलियन (2017-18) रोज़गार का लगभग 15 प्रतिशत रोज़गार इन तीन सेक्टरों में है (लेखक का अनुमान), जो कि कुल रोज़गार का 10 प्रतिशत से भी कम है. व्यवहारिक निर्णय लेना और एक सशक्त एवं विशेषज्ञता प्राप्त सार्वजनिक संस्था को आउटसोर्स करना बेहतर, निष्पक्ष एक समान डी-कार्बोनाइज़ेशन के लिए बेहद अहम है.

बार-बार चुनाव की वजह से होने वाले पॉलिसी पैरालिसिस से बचने के दो विकल्प

देखा जाए तो भारत लगातार चुनावी मोड में रहता है. देश में तीस राज्य सरकारें हैं और हर राज्य में पांच साल के बाद चुनाव होता है, साथ ही हर पांच साल में लोकसभा चुनाव होता है, लेकिन ये चुनाव एक साथ नहीं होते हैं. देश में हर साल चुनाव होते हैं. चुनाव में हारने का डर सरकार को सुधारों को आगे ले जाने के लिए विवश करता है. उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, जो कि बिजली सेक्टर में सुधारों के शुरुआती समर्थकों में से थे, उन्हें वर्ष 2004 में चुनावी उलटफेर का सामना करना पड़ा था.

ज़ाहिर है कि ऐसी परिस्थितियों को देखते हुए रिफॉर्म्स पैरालिसिस को रोकने के दो विकल्प मौज़ूद है और जो समय की कसौटी पर खरे भी उतरे हैं. पहला विकल्प है, जो भी मुश्किल और जटिल फैसले हैं, उन्हें सरकार से दूर उच्च न्यायालयों में ले जाया जाए.

ज़ाहिर है कि ऐसी परिस्थितियों को देखते हुए रिफॉर्म्स पैरालिसिस को रोकने के दो विकल्प मौज़ूद है और जो समय की कसौटी पर खरे भी उतरे हैं. पहला विकल्प है, जो भी मुश्किल और जटिल फैसले हैं, उन्हें सरकार से दूर उच्च न्यायालयों में ले जाया जाए. ज़ाहिर है कि ट्रेड यूनियनों की उद्योगों को पटरी से उतारने की ताक़त पर लगाम लगाने की बात करें, तो पिछली सदी के उत्तरार्ध में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के दृढ़ और निसंदेह निष्पक्ष न्यायिक क़ानून के द्वारा इसे हासिल किया गया था. दूसरा विकल्प, हाल-फिलहाल का है, जिसके अंतर्गत अलोकप्रिय या जटिल निर्णयों के लिए स्वायत्त और अधिकार संपन्न विशेष नियामकों को आउटसोर्स किया जाता है. हम कार्बन के मुद्दे को लेकर दूसरे विकल्प को खंगालते हैं.

केस स्टडी: नए नियामक का गठन

कार्य संबंधी दायित्वों को विभाजित करके मौज़ूदा ढांचों पर एक नया रेगुलेटर बैठाने से राजनीति और अर्थव्यवस्था से जुड़ी दिक़्क़तों एवं विनियामक परिस्थितियों को पूरी तरह से बदलने या उन्हें सुधारने में मदद मिलती है. केंद्र सरकार ने वर्ष 1998 में एक नए स्वायत्त रेगुलेटर सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमीशन यानी केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग का गठन किया था. सरकार द्वारा इस नियामक आयोग को शुल्क निर्धारित करने और ग्रिड विनियमन से संबंधित कुछ शक्तियां सौंपी गई थी, ये शक्तियां पहले सरकार के ही पास थीं. इसके साथ ही सरकार से बाहर के पेशेवरों को नियामक आयोग में शामिल करने के लिए नियुक्ति से संबंधित नियमों में भी संशोधन किया गया था. इतना ही नहीं पारदर्शी और अर्ध-न्यायिक पेशेवर प्रक्रियाओं को भी अपनाया गया था, ताकि सरकार से अलग हटकर पेशेवर तरीक़े से कामकाज को संचालित किया जा सके. इस प्रयोग ने बहुत अच्छी तरह से काम किया है. देखा जाए तो निजी क्षेत्र का अब बिजली उत्पादन में प्रमुख हिस्सा है क्योंकि व्यावसायिक रूप से आकर्षक थोक आपूर्ति टैरिफ नई क्षमता को प्रोत्साहित करते हैं. दक्षिण एशिया में बाहरी लिंक के साथ एक मज़बूत अखिल भारतीय यानी पूरे भारत में फैली ट्रांसमिशन ग्रिड निर्बाध बिजली प्रवाह की सुविधा प्रदान करती है और बिजली की थोक आपूर्ति के लिए बाज़ारों को गहरा करने या बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करती है.

एक दूसरा और ज़्यादा मुश्किल विकल्प सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी यानी केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण का विस्तार और उसकी कार्यप्रणाली का आधुनिकीकरण था. ज़ाहिर है कि केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण एक वैधानिक और विशेष इकाई, जो वर्ष 1948 से अस्तित्व में है. इसके पांच क्षेत्रीय कार्यालय हैं और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों की एक बड़ी टीम इससे जुड़ी हुई है. इसके कार्यक्षेत्र में बिजली आपूर्ति और बिजली प्रतिष्ठानों के लिए मानकों को स्थापित करना, बिजली क्षेत्र के विकास की निगरानी करना और बिजली उत्पादन में बढ़ोतरी एवं प्रगति के मसले पर सरकार को सलाह देना शामिल है. जब इस विकल्प के बारे में सोचा गया, तो केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के प्रबंधन को केंद्र सरकार के नियंत्रण से हटाना एक बहुत ही मुश्किल और समय लेने वाला कार्य समझा गया. इसके साथ ही यह भी लगा कि कहीं इस क़दम को सामान्य तौर पर बिजली सुधारों के विरुद्ध लोगों का गुस्सा भड़काने वाला नहीं समझा जाए. इसके साथ ही इसमें नियुक्त सरकारी कर्मचारियों को लेकर भी चिंता जताई गई थी. अक्सर सरकारी कर्मचारी स्वायत्त संस्थाओं में खुद को भटका हुआ महसूस करते हैं, क्योंकि उनमें से कुछ को नौकरी पर बरक़रार रखा जाता है और कुछ की अनुबंध के ज़रिए लेटरल भर्ती की जाती है.

डी-कार्बोनाइज़ेशन को लेकर ऊहापोह की स्थिति

संस्थागत सुधार के विषय पर इस प्रकार का अनुभव एक व्यापक विनियामक व्यवस्था तैयार करने के लिए महत्वपूर्ण है, जो समान रूप से डी-कार्बोनाइज़ेशन को बढ़ावा देती है. वर्तमान में, कार्बोनाइजेशन से निपटने की ज़िम्मेदारी सात अलग-अलग मंत्रालयों और 30 से अधिक राज्य सरकारों में बंटी हुई है.

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MOEFCC) जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए नोडल मंत्रालय है. इसने वर्ष 2004 से राष्ट्रीय स्वच्छ विकास प्राधिकरण को अधिसूचित और प्रबंधित किया है, जो क्योटो प्रोटोकॉल के अंतर्गत ग्रीन हाउस गैस (GHG) उत्सर्जन को कम करने के लिए परियोजनाओं की मंजूरी देता है. वर्ष 2015 के पेरिस समझौते ने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित प्रतिबद्धताओं (NDCs) के लचीलेपन के साथ सभी देशों के लिए GHG उत्सर्जन को नियंत्रित करने की ज़िम्मेदारी का विस्तार किया.

इसी के अनुपालन में मई 2022 में MOEFCC ने क्रॉस-मिनिस्ट्रियल प्रतिनिधित्व (अनिश्चित स्तर) के साथ नेशनल डेजिग्नेटेड अथॉरिटी फॉर इंप्लीमेंटेशन ऑफ दि पेरिस एग्रीमेंट (NDAIPA) और MOEFCC के सचिव को अध्यक्ष के रूप में अधिसूचित किया. यह इकाई प्रोटोकॉल के आर्टिकल 6 के तहत कार्बन क्रेडिट के स्वैच्छिक एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की प्रस्तावित परियो जनाओं को स्वीकृति देती है, साथ ही मंजूर की गई परियोजनाओं की प्रगति और उससे जुड़ी विभिन्न बातों की निगरानी भी करती है. अगस्त 2022 में इसने MOEFCC के सचिव की अध्यक्षता में पेरिस एग्रीमेंट के कार्यान्वयन के लिए एक शीर्ष समिति यानी अपेक्स कमेटी फॉर इंप्लीमेंटेशन ऑफ पेरिस एग्रीमेंट (ACIPA) का गठन किया, जिसमें कई अन्य मंत्रालयों को प्रतिनिधि के तौर पर संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी शामिल थे.

उस समय तक जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सरकार की तरफ से प्रतिक्रिया देने के लिए वर्ष 2008 में गठित प्राइम मिनिस्टर काउंसिल ऑन क्लाइमेट चेंज (PMCCC) शीर्ष बॉडी थी, जिसमें प्रमुख मंत्रालयों और गैर-सरकारी सेक्टर के विशेषज्ञ सदस्य के रूप में शामिल थे. लेकिन लगता है कि यह बॉडी अगस्त, 2015 के बाद से किसी काम की नहीं रह गई है, क्योंकि तब से इसकी कोई बैठक नहीं हुई है.

ACIPA: अपने अधिकारों व दायित्वों के प्रति कमज़ोर

देखा जाए तो ACIPA के 16 कार्य हैं, जिनमें मंत्रालयों की जलवायु संबंधी ज़िम्मेदारियों को परिभाषित करना, सरकारी नीति और कार्यक्रमों को बनाना, भारत में कार्बन मार्केट्स को विनियमित करने वाले राष्ट्रीय प्राधिकरण के रूप में कार्य करना, कार्बन मूल्य निर्धारण एवं संबंधित बाज़ार तंत्र को लेकर दिशा निर्देश जारी करना, स्वतंत्र अनुसंधान एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन की शुरुआत करना सिफ़ारिश करना और आख़िर में PMCCC से मार्गदर्शन प्राप्त करना और उसे इनपुट देने जैसे कई बड़े और महत्वपूर्ण कार्य शामिल हैं. ज़ाहिर है कि इसमें जिस स्तर का प्रतिनिधित्व दिखाई देता है, वो जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए किसी भी रणनीति में अंतर्निहित "सर्जनात्मक तबाही" को लागू करने के लिए ज़रूरी असीमित शक्तियों को प्रदर्शित नहीं करता है.

कहने का मतलब यह नहीं है कि मौज़ूदा क्रॉस-मिनिस्ट्रियल व्यवस्था बेकार है, या फिर कि यह व्यवस्था अपने उद्देश्य को हासिल करने से बहुत दूर है. उल्लेखनीय है कि 15 दिसंबर 2022 को बिजली मंत्रालय ने एक प्रेस ब्रीफ जारी किया था किहमारे NDCs को पूरा करने के लिए देश के भीतर कार्बन क्रेडिट का उपयोग प्राथमिकता के आधार पर किया जाएगा. कुछ विशेष मामलों में, जहां हाई टेक्नोलॉजी वाली महंगी संपत्तियों द्वारा कार्बन क्रेडिट सृजित किए जाते हैं, इन्हें राष्ट्रीय नामित प्राधिकरण द्वारा बाहरी रूप से मार्केटिंग की मंजूरी दी जा सकती है.” प्रौद्योगिकियों में यह अंतर हाई एंड में बड़ी पूंजी वाली टेक्नोलॉजियों में नए निवेश को प्रोत्साहित करता है, हालांकि वर्तमान में ये भारत में उपयोग में नहीं हैं.

NDAIPA ने कुछ महीने बाद, 17 फरवरी 2023 को इस रणनीति का अनुसरण किया और केस-दर-केस आधार पर कार्बन क्रेडिट में अंतर्राष्ट्रीय ट्रेडिंग के लिए योग्य 13 श्रेणियों को अधिसूचित किया. इन श्रेणियों में नवीकरणीय ऊर्जा (RE) प्रणालियों में भंडारण, सोलर थर्मल पावर, ऑफ-शोर विंड पावर, ग्रीन हाइड्रोजन, कम्प्रेस्ड बायोगैस, फ्यूल सेल, टिकाऊ एविएशन फ्यूल, "हार्ड-टू-एबेट" उद्योगों यानी सीमेंट, स्टील और पेट्रोकेमिकल्स जैसे उद्योगों में कमी, ओसीन एनर्जी, नवीकरणीय ऊर्जा का HVDC ट्रांसमिशन, ग्रीन अमोनिया और कार्बन कैप्चर एवं भंडारण शामिल हैं.

26 दिसंबर 2022 को एनर्जी कंजर्वेशन एमेंडमेंट एक्ट यानी ऊर्जा संरक्षण संशोधन अधिनियम 2022 को कार्बन क्रेडिट के व्यापार के लिए क़ानूनी आधार प्रदान करने हेतु अनुमोदित किया गया था, जिसमें अब तक इसकी कमी थी. हालांकि, एक दशक से अधिक समय से बिजली वितरण कंपनियों पर लगाए गए नवीकरणीय ऊर्जा ख़रीद दायित्वों में कार्बन प्रॉक्सी व्यापार के लिए एक जीवंत मार्केट कार्य कर रहा था. यह नियामक ढांचा तमाम तरह के अवरोधों के बावज़ूद काम करता है, लेकिन संसाधनों की कमी और विभाजित ज़िम्मेदारियां उच्च कार्यकुशलता में रुकावट पैदा करते हैं.

नियामक व्यवस्थाओं का सरलीकरण

मौज़ूदा समय में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि नियमों और विनियमों को बनाने और उन्हें अमल में लाने की शक्ति सिर्फ़ बिखरी हुई है, बल्कि यह केंद्र सरकार के सात मंत्रालयों एवं 30 राज्य सरकारों में व्यापक रूप से फैली हुई है. तीसरे पक्ष द्वारा महसूस की जाने वाली आर्थिक गतिविधि की क़ीमत की समस्या (प्रदूषकों द्वारा वहन नहीं की जाने वाली लागत) कार्बन को कम करने के लिए केंद्रीकृत एवं पारस्परिक सहमति वाली निर्णय लेने की शक्ति की ज़रूरत जताती है. ज़ाहिर है कि एक दशक के लिए शीर्ष पर नेतृत्व की सुनिश्चित निरंतरता के साथ निर्णय लेने वाले तंत्र का गहराई के साथ पेशेवराना रुख इसमें सहायक साबित होगा. हम अगले चार दशकों में जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों से जूझेंगे. लेकिन अयोग्य और अक्षम प्रौद्योगिकियों में लगातार निवेश से बचने के लिए शुरुआती दशक के दौरान किए गए मूलभूत कार्यों की गुणवत्ता सबसे अधिक मायने रखती है. इसके लिए दो सुझाव दिए गए हैं.

पहला सुझाव है कि कार्बन की कमी के लिए PMCCC को राज्य सरकारों, जटिल उद्योगों और सिविल सोसाइटी से औपचारिक, द्विपक्षी और सीधे संपर्कों के साथ उच्च शक्ति प्राप्त, संलग्न, खुद को साबित करने वाले सचिवालय के रूप में क्रियाशील और फिर से स्थापित करें. नीति आयोग का सहयोगी मॉडल और जीएसटी काउंसिल का इनोवेटिव मॉडल सहकारी संघवाद के लिए बानगी प्रस्तुत करता है.

दूसरा सुझाव है कि ब्रॉडबैंड मुख्य सप्लाई-साइड, केंद्र सरकार के कार्बन कम करने से संबंधित मंत्रालय, जैसे कि पारंपरिक बिजली (परमाणु ऊर्जा को छोड़कर), गैर-पारंपरिक और नवीकरणीय ऊर्जा, कोयला खनन, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस को एक अकेले और व्यापक ऊर्जा मंत्रालय के तहत लाना.

जिनता भी कुल ऊर्जा उपयोग है, उसमें बिजली का हिस्सा आज लगभग एक तिहाई है, जो कि वर्ष 2060 तक बढ़कर तीन-चौथाई से अधिक हो जाएगा. ऐसे में संबद्ध गहन औद्योगिक पुनर्गठन को बढ़ावा देने के लिए नौकरी के नुक़सान के नकारात्मक नतीज़ों को कम करते हुए और नई उत्पादक नौकरियों के सृजन में सुधार करते हुए बिजनेस को साथ लेकर चलने की ज़रूरत है. विकास को संरक्षित करते हुए कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था के लिए एक न्यायोचित, व्यवस्थित और सक्षम परिवर्तन संभव है, लेकिन इसके लिए ज़रूर शर्त यह है कि शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर इसके लिए निरंतर निगरानी और देखभाल की जाए


संजीव एस. अहलूवालिया ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एक सलाहकार हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.