2014 के आम चुनावों में, हिंदी भाषी राज्यों (हिंदी हार्टलैंड राज्य) के लोगों ने इन 10 राज्यों से चुने जाने वाले कुल 225 सांसदों में से अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की पार्टी के 190 सांसदों को जीत का तोहफा देकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का तहेदिल से समर्थन किया था, जबकि विपक्ष दलों के खाते में केवल 15 सांसद थे। शेष सासंद अन्य दलों से एवं निर्दलीय थे।
अकेले उत्तर प्रदेश ने, 2014 में सहयोगी ‘अपना दल’ के दो सांसदों के साथ भाजपा के 71 सांसदों का चुनाव करके, नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनाने में निर्णायक भूमिका निभाई थी। क्या इतिहास 2019 में उस क्षेत्र में पुनरावृत्ति कर पाएगा जिसमें बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश शामिल हैं; यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब देने का जोखिम यहां के अनुभवी चुनावी विश्लेषक भी नहीं उठा रहे हैं ना ही उठाना चाहते हैं।
हिंदी भाषा-भाषी राज्य जिसे ‘हिंदी हार्टलैंड’ भी कहा जाता है, देश की लगभग एक तिहाई आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं और इसके हिस्से में देश का लगभग एक चौथाई भौगोलिक क्षेत्र है। विभिन्न बोलियों के रुप में हिंदी या उर्दू, इस क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है।
2018 की अंतिम तिमाही में 10 हिंदी भाषा-भाषी राज्यों में से तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने 2014 के प्रदर्शन को दोहराने की भाजपा की क्षमता पर वास्तविक प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं। भगवा पार्टी तीनों राज्यों में सत्ता से बाहर हो चुकी है। गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में लगातार तीन कार्यकाल तक भाजपा की सरकार थी और 2013 में राजस्थान के चुनाव में उसने कांग्रेस को हराकर सत्ता प्राप्त की थी।
हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में जीते गए सीटों के आधार पर, भाजपा और कांग्रेस को प्राप्त हुए वोटों और सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप से, 2013 के विधानसभा चुनावों (7%-9%) और लोकसभा चुनावों (14%-17%) के स्तर से भाजपा के घटते जनाधार को देखते हुए शायद ही किसी प्रकार का संदेह रह गया है कि इन तीन राज्यों में भाजपा की टैली (कुल सासंदों की संख्या) में व्यापक रुप से गिरावट नहीं आएगी।
तीन राज्यों में, जहां विधानसभा चुनावों में अपनी हार के बाद भाजपा सत्ता से बाहर हो चुकी है, जबकि 2014 में उसने कुल 65 सीटों में से 62 सीटें जीती थीं। 2019 में चल रहे लोकसभा चुनावों में भाजपा के लिए इस आंकड़ें के आधे निशान तक पहुंचना भी एक सुखद आश्चर्य होगा।
इन 10 राज्यों में से, उत्तर प्रदेश सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां से 80 सांसदों का चुनाव किया जाता है। यह संख्या हिंदी भाषा-भाषी राज्यों जिसे भारत के ‘काउ बेल्ट’ (गौप्रधान क्षेत्र) के रूप में भी जाना जाता है, के कुल प्रतिनिधित्व की लगभग 35 प्रतिशत है।
देश के सबसे बड़े राज्य में, चल रही चुनावी लड़ाई में तीन प्रमुख प्रतियोगी दल हैं। सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाले राजग गठबंधन को बसपा-सपा-रालोद गठबंधन और कांग्रेस से चुनौती मिल रही है। 19 मई को सभी 80 सीटों के लिए सात चरणों में हो रहे चुनाव का अंतिम मतदान होने जा रहा है। सभी दलों के लिए यह चुनाव व्यापक रुप से महत्वपूर्ण है और इनके नेता मतदाताओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
2014 के लोकसभा चुनावों में, भाजपा ने सहयोगी दलों सपा (समाजवादी पार्टी) और कांग्रेस के बीच विभाजित सात सीटों में से दो सीटों पर 5 से 2 के अनुपात में जीत हासिल की थी। पिछली बार बसपा (बहुजन समाज पार्टी) एक भी सीट नहीं जीत पाई थी।
सभी प्रतियोगी दलों के लिए चल रहे चुनावी मुकाबले के परिणाम बहुत महत्वपूर्ण है। जबकि भाजपा का केंद्रीय सत्ता में वापस आना महत्वपूर्ण है और उत्तर प्रदेश संख्यात्मक रुप से यदि कहें तो इस प्रक्रिया को बना या बिगाड़ सकता है, तथापि तीनों दलों के गठबंधन के लिए भी यह समान रूप से महत्वपूर्ण है कि वह भविष्य में राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रह सकें। कांग्रेस के लिए भी इस चुनाव में उम्दा प्रदर्शन करना जरूरी है। देश की प्राचीनतम पार्टी जो विगत वर्षों में देश के सबसे बड़े राज्य में अपने खोए हुए राजनैतिक प्रभुत्व एवं पैठ को फिर से हासिल करने की कोशिश कर रही है।
सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा 2014 के ‘मोदी लहर’ के कारण अपने ऐतिहासिक प्रदर्शन को दोहराने के दावों के बावजूद, त्रिदलीय गठबंधन (महागठबंधन) और भाजपा के बीच करीबी मुकाबला हो रहा है, वहीं दूसरी ओर उच्च जाति के मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के पाले में जाता दिख रहा है। पहले और दूसरे चरण के मतदान की ज़मीनी रिपोर्ट भाजपा उम्मीदवारों के लिए कड़ी लड़ाई का संकेत दे रही हैं।
बिहार में, भाजपा ने 2014 में कुल 40 सीटों में से 22 सीटें जीती थीं। इसके सहयोगी दलों लोक जनशक्ति पार्टी और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने सारी 40 सीटों में से नौ सीटें जीती थीं। 2019 में, भाजपा को अपने अपने सहयोगी जद (यू) को अपनी 22 जीती हुई सीटों में से पांच सीटें मजबूरन देनी पड़ी है। पांच सीटों के घाटे से शुरू करने वाली भाजपा के लिए, यह लगभग असंभव प्रतीत होता है कि उसे अपने द्वारा लड़े जाने वाले सभी 17 सीटों पर जीत मिल सके। हालांकि राजग मोदी की लोकप्रियता पर निर्भर कर रहा है जिसके चलते वो सारी सीटें जीत सके, लेकिन केंद्र के साथ-साथ राज्य में भी सत्ता-विरोधी लहर की दोगुनी चुनौती इसके रास्ते में आड़े आ रही है। साथ ही इसे राजद के नेतृत्व वाले गठबंधन से भी कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, जिसने यहां की जातियों के गणित को अपने पक्ष में कर लिया है।
2014 में, भाजपा ने झारखंड की कुल 14 सीटों में से 12 सीटें जीती थीं लेकिन वर्तमान में, विपक्षी एकता का सूचकांक कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के एक साथ आने के कारण बहुत ऊंचा हो गया है। इसलिए यह वाकई असंभव है कि सत्तारूढ़ दल इतनी संख्या में सीटें जीत पाए।
पिछली बार हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र ने भाजपा को सत्ता में पहुंचाया था और मोदी जी को प्रधानमंत्री बनाया था, लेकिन यही क्षेत्र भाजपा के लिए बड़ी निराशा का कारण बन सकता है और सत्ता की पुन: प्राप्ति के मार्ग में रोड़े पैदा कर सकता है।
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