Published on Jun 07, 2022 Updated 0 Hours ago

चूंकि बच्चे कोरोना महामारी की जटिलताओं के प्रति कम संवेदनशील होते हैं इसलिए इस आयु वर्ग में टीकाकरण को लेकर कुछ दुविधाएं हैं.

कोविड19: ओमिक्रोन लहर के बाद, बच्चों के कोरोना टीकाकरण का सवाल और भारतीय परिप्रेक्ष्य

कोरोना महामारी के टीकाकरण का औचित्य

कोरोना महामारी के चलते होने वाली मौत की संख्या को टीकों ने बहुत हद तक कम कर दिया है. ऐसा इसलिए मुमकिन हो सका है क्योंकि टीकों ने कोरोना वायरस के प्रति हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को सचेत कर दिया – वो भी कोरोना महामारी से संक्रमित हुए बिना ही. दावा है कि एक बार शरीर में दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रणाली बनने के बाद भविष्य में कोरोना संक्रमण को लेकर होने वाली शारीरिक प्रतिक्रियाएं और अधिक संतुलित और आनुपातिक होती हैं. ऐसे में शरीर महत्वपूर्ण आंतरिक अंगों को बिना नुक़सान पहुंचाए ही कोरोना वायरस से छुटकारा पा सकता है. हालांकि, इसके दूसरे फ़ायदे भी हैं लेकिन टीकाकरण का प्राथमिक मक़सद इसके संक्रमण से होने वाली गंभीर बीमारी और मौत की रोकथाम ही है.

वायरस द्वारा कुदरती संक्रमण भी शरीर में एक इम्यून मेमोरी पैदा करता है. जो लोग कोरोना संक्रमण होने के बाद जिंदा रहे उन्हें यह बाद के संक्रमणों के गंभीर परिणामों से सुरक्षित रखता है.

कुदरती प्रतिरक्षा की भूमिका

वायरस द्वारा कुदरती संक्रमण भी शरीर में एक इम्यून मेमोरी पैदा करता है. जो लोग कोरोना संक्रमण होने के बाद जिंदा रहे उन्हें यह बाद के संक्रमणों के गंभीर परिणामों से सुरक्षित रखता है. दक्षिण अफ्रीका जैसे देश जहां विकसित देशों के मुक़ाबले टीकाकरण की रफ़्तार कम थी उन देशों में पिछली लहरों की तुलना में ओमिक्रोन लहर के दौरान कम मृत्यु दर देखी गई. व्यापक टीकाकरण के अभाव में वहां लोग सुरक्षित रहे क्योंकि उनके शरीर में पहले से प्रतिरक्षा मौज़ूद थी जो उस देश में व्यापक प्राकृतिक संक्रमण के कारण पैदा हुआ.

इसके विपरीत, टीकाकरण कवरेज़ ज़्यादा होने के बावज़ूद कोरोना के इसी वेरिएंट के चलते हॉन्गकॉन्ग जैसे देश में मृत्यु दर बहुत अधिक रहा. यह ध्यान देने की बात है कि दक्षिण अफ्रीका के विपरीत, हॉन्गकॉन्ग के नागरिकों में कुदरती संक्रमण के चलते पहले से उनके शरीर में प्रतिरक्षा का स्तर कम था, जो उनकी ज़ीरो-कोविड रणनीति का परिणाम था.

बदलते समय, बदलते समीकरण

कोरोना महामारी के प्रारंभिक चरण के दौरान, जब अधिकांश लोगों में कुदरती संक्रमण नहीं हुआ था, टीकाकरण ने संक्रमण से जुड़े जोख़िमों के बिना ही लोगों के शरीर में प्रतिरक्षा बढ़ाने का मौक़ा दिया. हालांकि ढाई साल बाद, अब समीकरण बदले हुए हैं; आबादी के एक बड़े हिस्से को पहले ही प्राकृतिक संक्रमण हो चुका है. लिहाज़ा साल 2022 में कोरोना महामारी के कई वेरिएंट से आमना-सामना होना असामान्य नहीं है. भारत में हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण में 15 प्रतिशत दुबारा संक्रमण दर के बारे में पता चला है. कुछ देशों में दूसरों के मुक़ाबले अधिक संक्रमण के केस सामने आए. दूसरे शब्दों में, साल 2020 के विपरीत, हम अब एक प्रतिरक्षा-विहीन आबादी नहीं हैं.

लेकिन यह कहते हुए, खसरा या चिकनपॉक्स के विपरीत, सार्स-कोवी2 के ख़िलाफ़ या तो टीकाकरण से या फिर कुदरती संक्रमण से, शरीर में बनने वाले एंटीबॉडी, कोरोना संक्रमण के ख़िलाफ़ लंबे समय तक सुरक्षा प्रदान नहीं करते हैं. जैसा कि नए वेरिएंट पहले से शरीर में बनी प्रतिरक्षा सुरक्षा प्रणाली पर हावी हो जाते हैं, ऐसे में हाइब्रिड इम्यूनिटी तेज़ी से प्रासंगिक बन जाती है. यह एक संवर्द्धित प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया है जो तब शरीर में विकसित होती है जब टीका किसी ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिसे पहले कुदरती तौर पर कोरोना संक्रमण हुआ था.

बच्चों में टीकाकरण वृद्ध लोगों से अलग कैसे होता है?

बच्चों में टीकाकरण के बारे में निर्णय लेने में समस्या यह है कि इस आयु वर्ग में जोख़िम और लाभ का समीकरण उदाहरण के तौर पर 60 वर्ष से अधिक आयु वाले व्यस्कों से काफी अलग होता है. एक बुज़ुर्ग व्यक्ति में कोरोना महामारी के चलते मृत्यु का जोख़िम काफी अधिक होता है. इसलिए उस आयु वर्ग में टीकाकरण को लेकर फैसला बेहद सीधा है. इसके अलावा, चूंकि टीका जोख़िम के उच्च स्तर को कम करने के लिेए दिया जाता है तो प्रतिकूल परिणामों के लिए ऐसे में सहनशीलता का स्तर भी स्वाभाविक रूप से अधिक होता है. जबकि ऐसी स्थिति बच्चों के साथ नहीं होती है.

बच्चों में कई संबंधित मापदंडों पर विचार करने से इस विषय पर कई विचार सामने आए हैं. एक पक्ष  सभी किशोरों (उम्र 12-17) के टीकाकरण का प्रबल समर्थक है, जबकि दूसरा पक्ष थोड़ा संभल कर टीकाकरण में उच्च जोख़िम वाले उपसमूहों को प्राथमिकता देने की वकालत करता है.

बच्चों में कई संबंधित मापदंडों पर विचार करने से इस विषय पर कई विचार सामने आए हैं. एक पक्ष  सभी किशोरों (उम्र 12-17) के टीकाकरण का प्रबल समर्थक है, जबकि दूसरा पक्ष थोड़ा संभल कर टीकाकरण में उच्च जोख़िम वाले उपसमूहों को प्राथमिकता देने की वकालत करता है.

भारत में बच्चों का टीकाकरण अभियान

भारत में कोरोना महामारी को लेकर टीकाकरण अभियान 16 जनवरी 2021 को शुरू हुआ और यह जोख़िम समूहों की प्राथमिकता पर आधारित था. बुज़ुर्गों, स्वास्थ्यकर्मियों और फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को पहले टीका लगाया गया, उसके बाद अन्य वयस्क आयु समूहों का टीकाकरण किया गया. 

3 जनवरी 2022 से भारत में 15-17 वर्ष की आयु के बड़े बच्चों को कोवैक्सिन, एक निष्क्रिय वायरस टीका दिया गया. 16 मार्च से, 12-14 आयु वर्ग के छोटे बच्चों को प्रोटीन सबयूनिट वैक्सीन कॉर्बेवैक्स दी गई. कोवोवैक्स एक अन्य प्रोटीन सबयूनिट वैक्सीन है जो 12-14 आयु वर्ग के लिए भी उपलब्ध है लेकिन निजी क्षेत्र तक ही यह सीमित है.

कुछ पश्चिमी देशों के विपरीत भारत में कोरोना टीकाकरण अनिवार्य नहीं है, इसके बावज़ूद भारत में लगभग 90% वयस्क टीकाकरण कवरेज़ पूरा किया गया. बच्चों में भी वैक्सिनेशन की दर अधिक रही है. उदाहरण के लिए, केरल में 15-17 आयु वर्ग के 81% बच्चों ने 24 मई 2022 तक वैक्सीन की पहली डोज़ ले ली. जबकि 12-14 आयु वर्ग में यही दर 40% थी.

फिर विवाद किस बात को लेकर है?

पोलियो और डिप्थीरिया जैसी ख़तरनाक बीमारियां, जो ज़्यादा मौत सहित कई गंभीर जटिलताओं का कारण बनती हैं लेकिन कोरोना महामारी के चलते बच्चों में उच्च मृत्यु दर नहीं देखी गई है. इसलिए इसकी तुलना डीपीटी जैसे आवश्यक टीकों से नहीं की जा सकती है. इसके अलावा, संक्रमण को रोकने में उनकी सीमित और कम समय के लिए प्रभावशीलता शुरुआती दिनों से ही निराशाजनक रही है.

कोरोना महामारी के साथ सबसे बड़ी समस्या एक लहर के दौरान होने वाले संक्रमणों की बेशुमार संख्या है और टीकाकरण इसी समस्या को कम करने की उम्मीद से शुरू किया जाता है. इसके साथ ही वयस्कों के विपरीत, बच्चे कोरोना महामारी का सामना बेहतर तरीक़े से कर सकते हैं, जिनकी मृत्यु दर 20 लाख में से एक से कम होती है. ऐसा माना जाता है कि यह बच्चों के शरीर में उनकी उत्कृष्ट जन्मजात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया की वज़ह से है, जो प्रतिरक्षा प्रणाली के अन्य अंगों पर बिना असर डाले वायरस के संक्रमण से उन्हें जल्द निज़ात दिला देता है.

एक बदलती हुई महामारी में जोख़िम और लाभ को मापना या उसके बारे में बताना हमेशा संभव नहीं होता है. नतीज़तन, बच्चों के टीकाकरण के बारे में चर्चा, विशेषज्ञों के साथ-साथ आम जनता के बीच काफी ज़्यादा होती है. एक ओर इस आयु वर्ग में कम जटिलता पैदा करने वाले संक्रमण के ख़िलाफ़ आंशिक रूप से प्रभावी टीके के सार्वभौमिक उपयोग को लेकर चिंता है, ख़ासकर ऐसी आबादी के बीच जिनके सीरो टेस्ट से पहले ही पता चल चुका है कि उनके शरीर में एंटी बॉडी मौज़ूद हैं. दूसरी ओर कई लोग अपने बच्चों को बाहर छोड़ने के बारे में भरोसा नहीं करते थे, जबकि वयस्कों को महामारी के दौरान टीका लगाया जा रहा था. 

बच्चों के टीकाकरण पर ज़्यादातर प्रकाशित सामग्रियां अलग-अलग जनसंख्या वाले पश्चिमी देशों में एमआरएनए टीकों पर आधारित हैं, इसलिए भारतीय संदर्भ में इसे सीधे तौर पर नहीं माना जा सकता है.

गंभीर कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए वैक्सीन की कितनी डोज़ ज़रूरी है?

हर किसी का टीकाकरण और संक्रमण के बहुत ही दुर्लभ नतीज़ों को रोकने की कोशिश करना तर्कसंगत लग सकता है लेकिन हर किसी का विचार इसमें शामिल होना भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि कोई भी चिकित्सा उपाय बिना जोख़िम के नहीं हो सकती है.

बच्चों के बीच कोरोना महामारी के लिए टीकाकरण के जोख़िम-फ़ायदे को लेकर विश्लेषण में, ब्रिटेन के जेसीवीआई (वैक्सीनेशन और इम्युनाइजेशन के लिए संयुक्त समिति) का अनुमान है कि वैक्सीन की 4 मिलियन ख़ुराक़ 5-11 आयु वर्ग के दो मिलियन बच्चों को दी जानी चाहिए, इससे गंभीर रूप से बीमार एक बच्चे को आईसीयू में भर्ती करने से बचाया जा सकता है. सवाल यह है कि क्या हमारे पास बच्चों में टीकाकरण के बारे में पर्याप्त सुरक्षा संबंधी आंकड़ा है जो यह सुनिश्चित करे कि प्रतिकूल परिणाम के चलते इन 20 लाख बच्चों में से किसी को भी अस्पताल में भर्ती नहीं कराना पड़ेगा.

बच्चों के लिए मौज़ूदा वक़्त में भारत में इस्तेमाल किए जाने वाले टीकों पर उपलब्ध प्रकाशित आंकड़े सुरक्षा संबंधी कोई चिंता पैदा नहीं करते हैं. यही वज़ह है कि निष्क्रिय और सबयूनिट टीके बच्चों के टीकाकरण का भरोसेमंद हथियार बने हुए हैं.

सवाल यह है कि क्या हमारे पास बच्चों में टीकाकरण के बारे में पर्याप्त सुरक्षा संबंधी आंकड़ा है जो यह सुनिश्चित करे कि प्रतिकूल परिणाम के चलते इन 20 लाख बच्चों में से किसी को भी अस्पताल में भर्ती नहीं कराना पड़ेगा.

हालांकि, भारत में उपयोग किए जाने वाले कोरोना टीकों के लिए प्रकाशित सामग्रियां कुछ सैकड़ों बच्चों पर आधारित हैं, जिसे महामारी के दुर्लभ परिणामों का पता लगाने या उनका अध्ययन करने के लिए पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है. उदाहरण के लिए, एमआरएनए वैक्सीन की दूसरी डोज़ के बाद 16-19 आयु वर्ग के 1: 6637 पुरुषों में मायोकार्डिटिस होता है : ऐसे मामलों को कम संख्या में परीक्षण में शामिल प्रतिभागियों का अध्ययन करते समय भुला दिया जाता है.

एमआईएस-सी, एक दुर्लभ जटिलता

बच्चों में कोरोना संक्रमण से देर से होने वाली जटिलताओं में से एक एमआईएस-सी है, जो बच्चों में मल्टीसिस्टम इंफ्लेमेटरी सिंड्रोम का संक्षिप्त नाम है. हालांकि ऐसी घटना कम ही देखी गई है और यह मुख्य रूप से छोटे बच्चों में देखी जाती है लेकिन यह स्थिति शायद कभी गंभीर परिणाम का कारण बन सकती है. जानकारी के मुताबिक़ एमआईएस-सी से मृत्यु दर दस लाख बच्चों में एक से कम है. उम्मीद है कि टीकाकरण इसे रोक सकता है लेकिन सवाल अभी भी बरक़रार है.

ऐसे में पहला तो यह है कि टीकाकरण, संक्रमण के ख़िलाफ़ कोई गारंटी नहीं है. ब्रेकथ्रू इन्फेक्शन आम है, जिससे वैक्सीनेटेड बच्चों में भी एमआईएस-सी होने की संभावना बढ़ जाती है. दूसरा यह है कि अत्यंत दुर्लभ मामलों में, एमआईएस-सी स्पष्ट रूप से टीकाकरण के कारण भी हो सकता है.

तीसरा, इस बात के प्रमाण हैं कि एमआईएस-सी संक्रमण की बार-बार लहरों के साथ कम होता जा रहा है, ख़ासकर नए वेरिएंट जैसे ओमिक्रोन के आ जाने के बाद से. यह पिछले संक्रमण से उत्पन्न सुरक्षात्मक प्रतिरक्षा के कारण हो सकता है. भारत में बाल रोग विशेषज्ञों ने भी इस पैटर्न को देखा है. इस समय पश्चिमी देशों में यह माना जाता है कि टीका लगाने वालों में एमआईएस-सी होने की संभावना कम होती है. हालांकि, भारत में सीरो अध्ययन से जैसे पता चला कि ज़्यादातर लोगों में एंटीबॉडी बन गई फिर भी यहां एमआईएस-सी की घटनाओं पर हाल के कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.

लॉन्ग कोविड

प्रारंभिक संक्रमण के 12 सप्ताह के बाद भी कोरोना के लक्षणों के बने रहने को लॉन्ग कोविड कहा जाता है. हालांकि युवा वयस्क महिलाओं में यह ज़्यादा सामान्य है लेकिन लॉन्ग कोविड बच्चों सहित किसी भी आयु वर्ग के लोगों को हो सकता है. बच्चों के टीकाकरण के पक्ष में जिन तर्कों का उल्लेख बढ़चढ़ कर किया जा रहा है, उनमें से एक लॉन्ग कोविड ​​​​के जोख़िम को कम करना ही है.

दुर्भाग्य से, चिकित्सा सामग्रियां इस बात के अनुरूप नहीं हैं कि यह स्थिति कितनी सामान्य है और यह आंशिक रूप से उपचार के लिए ख़राब तरीक़े से बताए गए परिभाषित मानदंडों के कारण है, और जो अध्ययनों के साथ प्रक्रिया संबंधी जटिलताओं की वज़ह से भी है. कुछ अध्ययनों का कहना है कि यह आम है, जबकि दूसरे अध्ययन इसे दुर्लभ बताते हैं. हालांकि, यूरोप के शोध से पता चला है कि लॉन्ग कोविड ​​​में जिन लक्षणों को बताया गया है वो बच्चों और वयस्कों में समान तरीक़े से हो सकते हैं जिन्हें सार्स कोवी 2 संक्रमण पहले नहीं था.

भारत में बच्चों में लॉन्ग कोविड की घटनाओं पर प्रकाशित अध्ययन सामग्रियां उपलब्ध नहीं हैं. केंद्रित प्रशिक्षण सत्रों के दौरान स्कूल के शिक्षकों की प्रतिक्रिया और भारत में अभ्यास कर रहे बाल रोग विशेषज्ञों के साथ चर्चा इस ओर इशारा करते हैं कि बच्चों में बड़ी संख्या में कोरोना संक्रमण के बावज़ूद जटिलताएं और लंबे समय तक कोरोना के मामले बेहद दुर्लभ हैं. हालांकि, इन अनुमानों से लोगों में लॉन्ग कोविड की वास्तविक स्थिति का पता नहीं चलेगा क्योंकि बच्चे हमेशा अपने माता-पिता या शिक्षकों को इसके लक्षणों की रिपोर्ट नहीं करते हैं.

हालांकि अब इस बात के प्रकाशित प्रमाण हैं कि लॉन्ग कोविड को टीकाकरण से कुछ हद तक रोका जा सकता है, जबकि ऐसे अध्ययन भी हैं जो इसके विपरीत की स्थिति को भी बताते हैं.

मौज़ूदा तरीक़ा

कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ 12-17 आयु वर्ग के बच्चों का टीकाकरण कई देशों में एक मानक अभ्यास है और भारत इसका कोई अपवाद नहीं है. इंडियन एकेडमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स इस कार्यक्रम का समर्थन भी करता है और उच्च जोख़िम वाले बच्चों को प्राथमिकता देने की वकालत भी करता है, इसके साथ ही सहविकृतियों के ज़रिए या फिर उच्च जोख़िम वाली स्थितियों वाले वयस्कों के साथ रहने वाले बच्चों के लिए भी टीकाकरण के फ़ायदे की बात यह करता है.

कई देशों ने 5-11 आयु वर्ग के छोटे बच्चों के लिए भी कोरोना का टीकाकरण शुरू किया है, हालांकि, इसे लेकर उत्साह कम देखा गया है. हालांकि इस लेख को लिखे जाने तक भारत में 12 साल से कम उम्र के बच्चों का कोरोना का टीकाकरण शुरू नहीं हुआ है.

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