Author : Harsh V. Pant

Published on Mar 18, 2020 Updated 0 Hours ago

इस महामारी के कारण खुली सीमाओं और अर्थव्यवस्थाओं की मांग का प्रतिरोध और शक्तिशाली होगा. अब समय आ गया है कि भूमंडलीकरण को लेकर नई सोच विकसित की जाए.

कोविड-19: इस संकट से भूमंडलीकरण के खिलाफ उठती आवाज़ें होंगी और भी लेबल!

आज ये कहना बहुत आम बात हो गया है कि भूमंडलीकरण एक चौराहे पर खड़ा है. ब्रेग्ज़िट से लेकर अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने तक, अप्रवासियों के विरुद्ध पश्चिमी देशों के पलटवार से लेकर दुनिया में मुक्त व्यापार की राह में नए-नए रोड़े खड़े करने तक, विश्व राजनीति के इस दौर को आज वि-भूमंडलीकरण कहा जा रहा है. दुनिया एकजुट होकर किसी भी विपत्ति का सामना करेगी. इसे लेकर ’इतिहास के समापन’ की उच्च स्तरीय यथार्थपरकता की जगह आज निराशावाद सतत रूप से बूंद-बूंद टपक रहा है. आज विश्व के कुलीन वर्ग के नेतृत्व वाली वैश्विक व्यवस्था को नियमित रूप से ऐसी चुनौती मिल रही है, जैसी हमने पहले कभी नहीं देखी. दुनिया के तमाम बहुपक्षीय संस्थान आज स्वयं के विरोधाभासों के बोझ से ढह रहे हैं.

कोरोना वायरस के सुर्खियां बटोरने और हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आमद से काफ़ी पहले से ही, दुनिया एक ख़तरनाक मोड़ पर खड़ी हुई थी. 2008-09 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से दुनिया लगातार सीधे इसी दिशा में बढ़ रही थी और मौजूदा वैश्विक आर्थिक उठा-पटक के मोड़ पर खड़ी थी. इन सबसे दुनिया के राजनीतिक एवं आर्थिक आभिजात्य वर्ग की क्षमता को लेकर ये प्रश्न उठ रहा था कि क्या वो प्रभावशाली प्रशासन देने में सक्षम होगा? और क्या ये कुलीन वर्ग उन लोगों की आकांक्षाओं का उचित प्रबंधन कर सकेगा जो संसाधनों से विहीन हैं.

और अब जब एक के बाद एक राष्ट्र अपने आप को अलग-थलग कर रहा है, ऐसे में कोरोना वायरस हमारी उस जीवन शैली को चुनौती दे रहा है, जिस तरह जीने और अपने जीवन को व्यवस्थित करने के हम अभ्यस्त हो चुके हैं. यही नहीं, कोविड-19 का बढ़ता प्रकोप वो पूरी विश्व व्यवस्था को भी चुनौती दे रहा है. आज दुनिया भर में करोड़ों लोगों की असुरक्षा खुल कर सामने आ गई है. और ऐसा लगता नहीं है कि विशेषज्ञों के पास इस चुनौती का कोई विश्वसनीय जवाब है.

जो देश कोरोना वायरस के प्रकोप से बचे या कम असुरक्षित हैं, उन्हें लेकर कुछ लोगों के मन में ये प्रलोभन उठ सकता है कि उन्हें इस वैश्विक संकट का आर्थिक लाभ मिलेगा. लेकिन, ये एक ऐसी कपोल कल्पना है, जिसमें आगे जाकर कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है

एक समय में जब कोरोना वायरस का प्रकोप शुरू हुआ था, तब ऐसा लग रहा था कि ये समस्या केवल चीन की है. यहां तक कि अमेरिका के वाणिज्य मंत्री विल्ब रॉस ने तो यहां तक कह दिया था कि इस वायरस की वजह से अमेरिका से जो नौकरियां छिनी हैं, वो रोज़गार वापस उत्तरी अमेरिका के नागरिकों को मिल सकेंगे. लेकिन, आज जब कोरोना वायरस का वैश्विक प्रकोप हर गुज़रते दिन के साथ व्यापक रूप से स्पष्ट होता जा रहा है, तो कोविड-19 के संकट के वैश्विक सप्लाई चेन पर प्रभाव की चर्चा भी आम होती जा रही है. वैश्विक अर्थव्यवस्था, जो पहले से ही संघर्ष कर रही थी, उसे कोरोना वायरस का सदमा लगने से, दुनिया भर में धन, सामान और लोगों के प्रवाह की वृद्धि करने का जो रहा-सहा सहयोग मिलने की संभावना थी, वो भी क्षीण हो चुकी है. हालांकि, हो सकता है कि जो देश कोरोना वायरस के प्रकोप से बचे या कम असुरक्षित हैं, उन्हें लेकर कुछ लोगों के मन में ये प्रलोभन उठ सकता है कि उन्हें इस वैश्विक संकट का आर्थिक लाभ मिलेगा. लेकिन, ये एक ऐसी कपोल कल्पना है, जिसमें आगे जाकर कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है.

हालांकि, कोरोना वायरस भले ही सबसे पहले चीन में सामने आया हो, और इससे निपटने के तौर-तरीक़े के कारण चीन की प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रश्न उठ रहे हों. लेकिन, दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं, जो इस वायरस से निपटने के चीन के प्रभावी तरीक़े को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) के प्रशासनिक मॉडल के सकारात्मक पहलू के तौर पर देख रहे हैं. ऐसे लोग इस संकट से निपटने की भारत जैसे देशों की क्षमता पर संदेह जता रहे हैं. कोरोना वायरस के प्रकोप का चीन पर बहुत व्यापक असर हुआ है. लेकिन, चीन में अभी भी वो क्षमता है कि वो इस चुनौती को झाड़ उठ खड़ा हो. चीन के लिए बड़ा संकट ये होगा कि कई वर्षों से वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ने के उसके प्रयासों में सहयोग कर रही पश्चिमी ताक़तें उससे मुंह फेर लें. अमेरिकी राष्ट्रपति के चीन के साथ व्यापार युद्ध के बड़े दांव का असर पहले ही दिख रहा है. दुनिया के तमाम उत्पादों के निर्माण केंद्र अब चीन से दूसरे देशों में विस्थापित हो रहे हैं. अब व्यापारिक और तकनीकी विच्छेद की दिशा में बढ़ रहे क़दम से एक नए तरह के संघर्ष का मंच स्थापित हो रहा है, जिसके कारण भूमंडलीकरण के मूलभूत तत्वों को चुनौती मिलेगी. जबकि, हम 1990 के दशक से भूमंडलीकरण के आदी हो चुके हैं.

इस संकट से उन लोगों को मज़बूती मिलेगी, जो मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में आ रहे परिवर्तनों की आलोचना करते रहे हैं. और जो अर्थव्यवस्था और सीमाओं में और अधिक ख़ुलेपन की वक़ालत करते रहे हैं. और मौजूदा संकट से वो आवाज़ें कमज़ोर होंगी, जो तमाम तरह की चुनौतियों के बावजूद, भूमंडलीकरण के पक्ष में तर्क देते रहे हैं. भूमंडलीकरण के विरुद्ध अभी जो आंदोलन हो रहे हैं, वो और तेज़ होंगे ख़ास तौर से वैश्विक एकीकरण के ख़िलाफ़ आवाज़ें तो दिन प्रतिदिन तेज़ होती ही जा रही हैं. कोरोना वायरस का संकट उत्पन्न होने से पहले से विभिन्न पश्चिमी देश अपनी रीति-नीति को नई दिशा दे रहे थे, विशेष रूप से जहां मुख्य धारा के राजनीतिक दल तमाम मुद्दों, जैसे व्यापार और अप्रवास पर अपनी वर्षों की नीतियों में परिवर्तन ला रहे थे.

आज जबकि दुनिया प्रतिदिन खंड-खंड होती जा रही है, तो ऐसे में भूमंडलीकरण के प्रति समर्थन को पुनर्जीवित करने की चुनौती और बड़ी होती जाएगी. ये भारत जैसे देशों के लिए बड़ी समस्या है, जिन्हें भूमंडलीकरण की ताक़त से काफ़ी लाभ प्राप्त हुआ है

आज जबकि दुनिया प्रतिदिन खंड-खंड होती जा रही है, तो ऐसे में भूमंडलीकरण के प्रति समर्थन को पुनर्जीवित करने की चुनौती और बड़ी होती जाएगी. ये भारत जैसे देशों के लिए बड़ी समस्या है, जिन्हें भूमंडलीकरण की ताक़त से काफ़ी लाभ प्राप्त हुआ है. क्योंकि सूचना, विचारों, नौकरियों और लोगों के मुक्त प्रवाह से भारतीय नागरिकों को समृद्ध होने का अवसर अभूतपूर्व रूप से प्राप्त हुआ है. लेकिन, अब जबकि विश्व परिदृश्य में तीव्रता से परिवर्तन आ रहा है, तो ऐसे में भारत के निति-नीर्माताओं को ऐसा रास्ता निकालना होगा, जिससे भारत नए उभर रहे अवसरों का अधिकतम लाभ उठा सके. क्योंकि आज पुरानी वैश्विक आपूर्ति शृंखलाएं बाधित हो रही हैं और उनकी जगह व्यापार एवं निवेश की नई व्यवस्था का निर्माण किया जा रहा है.

यथार्थवादी लंबे समय से ये तर्क देते रहे हैं कि जितना अधिक दुनिया एक दूसरे से जुड़ी होगी, उतनी ही असुरक्षाएं भी उत्पन्न होंगी. लेकिन, ये बहुत साधारण सा सबक़ भी भूमंडलीकरण के अति आत्मविश्वास का शिकार बन गया. अब जबकि वो आत्मविश्वास घट रहा है, तो ऐसे में भय इस बात का है कि जो सबक़ हम सीख रहे हैं, कहीं उनसे और क्षति न हो जाए. भूमंडलीकरण की मृत्यु का शोक समाचार पहले भी कई बार लिखा जा चुका है. ये तय है कि भूमंडलीकरण अपने ऊपर हुए इस नए आक्रमण से भी बच कर निकलेगा. लेकिन, इससे उसे जो क्षति होगी और उसका जो परिवर्तित रूप सामने आएगा, उससे हमें ये सोचने को भी विवश होना पड़ेगा कि हम जिस दुनिया में रहते हैं, उसके बारे में एक नई क्रियात्मकता से सोचें. और परिवर्तित परिस्थितियों के लिए पर्याप्त नीतिगत उत्तर तैयार करें. इस दिशा में पुनर्विचार, कोरोना वायरस के प्रकोप की चुनौती उत्पन्न होने से पहले ही आरंभ हो चुका था. अब इस बात की संभावना अधिक है कि इस दिशा में सोचने की रफ़्तार और तीव्र होगी.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.