Author : Shashi Tharoor

Published on Apr 08, 2020 Updated 0 Hours ago

कोरोना वायरस से पैदा हुई महामारी ने वैश्विक समाज और प्रशासन की तमाम कमज़ोरियों को उजागर कर दिया है. साथ ही इस संकट ने आगे बढ़ने का रास्ता भी दिखाया है.

कोविड-19, अव्यवस्था और नई विश्व व्यवस्था में भारत की भूमिका!

ये बड़े दुर्भाग्य की बात है कि नए कोरोना वायरस की महामारी ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर उस वक़्त हमला बोला, जब वो अपने सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रहा था. ये वो समय था, जब राष्ट्रीय राजनीतिक हित और आर्थिक संकीर्णता आपस में मिल कर ‘एक वैश्विक गांव’ की परिकल्पना का गला घोंट रहे थे. जैसा कि प्रोफ़ेसर श्रीधर वेंकटपुरम बिल्कुल सही फ़रमाते हैं और विश्व व्यवस्था की जिस मौजूदा स्थिति को हमने अपनी किताब, ‘द न्यू वर्ल्ड डिसऑर्डर ऐंड द इंडियन इम्परेटिव’ में उठाया भी है. हमारा ऐतराज़ इस नई विश्व अव्यवस्था की वक़ालत करने वाले मूल्यों और नियमों को लेकर नहीं है. बल्कि हमारी आपत्ति उन तरीक़ों और माध्यमों को लेकर है जिन्हें ईजाद करके इस तरह से इस्तेमाल किया गया है, मानो दुनिया से छल किया जा रहा हो.

हमने वैसे तो अपनी किताब में तमाम वैश्विक संकटों का विश्लेषण किया है. परंतु, इनमें से दो संकटों का मौजूदा महामारी के संदर्भ में विशेष महत्व है. पहली बात तो ये है कि अंतरराष्ट्रीय संगठनों की वैधानिकता में उत्तरोत्तर गिरावट आती जा रही है. इस वैश्विक महामारी से निपटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने शुरुआती दिनों में जो प्रयास किए वो बहुत ज़िम्मेदारी पूर्ण नहीं दिखा. अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चीन की कही हुई बातों और उसकी दावों पर नरमी नही बरता होता, तो यह महामारी इतनी तेज़ी से फैलने में सफल नही होता. हमारे कई वैश्विक संगठन राजनीतिकरण, छल प्रपंच और प्रतिनिधित्व की कमी के संकट से जूझ रहे हैं. उनका मक़सद ही ख़त्म हो गया है. उनके पास स्वतंत्र नेतृत्व का भी अभाव है. दूसरे वैश्विक संकट का संबंध राष्ट्रीय संप्रभुता से है. आज पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद की लहर चल रही है. इसका नतीजा ये हुआ है कि विश्व मंच पर हर राष्ट्र अपनी संप्रभुता को उग्र तरीक़े से प्रस्तुत कर रहा है.

अगर मौजूदा विश्व व्यवस्था सही तरीक़े से काम कर रही होती, तो दुनिया को नए कोरोना वायरस के इस संकट को पहचनाने में देर नहीं लगती. बल्कि, दुनिया के सामने आने वाले इस संकट को पहचान कर पूरी दुनिया को आगाह किया जाता

दुनिया भर के मीडिया में जो सुर्ख़ियां बन रही हैं, वो इस बीमारी के लक्षण को स्पष्ट कर देती हैं. जैसे कि अमेरिका के राष्ट्रपति के नारे, ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ को ही लीजिए. आज अमेरिकी सरकार जर्मनी से कोरोना वायरस की वैक्सीन तो चाहती है, मगर केवल अमेरिकी नागरिकों के लिए. साथ ही अमेरिका फर्स्ट नीति पर चलते हुए ट्रंप सरकार ने चीन से दवाओं के आयात को भी रद्द कर दिया. और इस महामारी के वैश्विक संकट से निपटने की राह में उस वक़्त रोड़े खड़े किए, जब G-7 देशों के बयान में नए कोरोना वायरस को वुहान वायरस कहने पर अमेरिका अड़ गया. यही स्थिति संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी देखने को मिल रही है. वहीं दूसरी ओर, पूरी दुनिया को इस वायरस की महामारी में झोंकने वाला चीन अपनी ज़िम्मेदारी से बच निकला है. जबकि, शुरुआत में चीन ने इस वायरस से निपटने में पर्दानशीनी की थी. और उन संगठनों के साथ चालाकी से पेश आया था, जो इस संकट का बेहतर ढंग से मुक़ाबला कर सकते थे. दुनिया को इस वैश्विक महामारी की भट्टी में झोंकने के बाद अब चीन मसीहा बनने का प्रयास कर रहा है. इसके लिए वो ज़रूरतमंद देशों को आवश्यक स्वास्थ्य संसाधन उपलब्ध करा रहा है. इटली को आपातकालीन मदद के तौर पर मेडिकल टीमें भेज रहा है. पुराने अनुभव के आधार पर हम ये दावे के साथ कह सकते हैं कि इसकी क़ीमत मदद पाने वाले देशों को ख़ामोशी के तौर पर चुकानी होगी. उन्हें चीन की करतूतों की अनदेखी करते हुए अपना मुंह बंद रखना होगा. आधुनिक दौर के इस सबसे बुरे स्वास्थ्य संकट के कारण हालात इतने ख़राब हैं कि यूरोपीय यूनियन भी अपने सदस्य देशों की मदद कर पाने में मुश्किलें झेल रहा है.

हम बस निराशा के साथ इस माहौल को देखते रहने को मजबूर हैं. जबकि, हमने अपनी किताब में जिन परिस्थितियों की परिकल्पना की थी, वो आज हक़ीक़त के तौर पर हमारे सामने खड़ी हैं. हमने जिस तरह से वैश्विक प्रशासन की कमज़ोरियों की नितांत सख़्त शब्दों में आलोचना की थी, उसे लेकर किसी को इस निष्कर्ष पर पहुंचने की भूल नहीं करनी चाहिए कि ये व्यर्थ का काम था. यहां इस लेख के माध्यम से हम प्रोफ़ेसर वेंकटपुरम की उस आलोचना का जवाब देना चाहते हैं कि, हमारी किताब में इस बात के बारे में कुछ नहीं कहा गया है कि नई विश्व व्यवस्था किस तरह से कोरोना वायरस जैसे नए संकट को पैदा करती है और इसे दुनिया के अलग अलग देशों के बीच फैला देती है. वास्तविकता तो यह है कि मौजूदा संकट से साफ़ है कि दुनिया के तमाम देश किस तरह से एक दूसरे पर निर्भर हैं. और ये निर्भरता एक तरह से दुनिया की शक्ति भी है और कमज़ोरी भी है. इसी को देखते हुए हमने अपनी किताब में मौजूदा विश्व व्यवस्था के बिखरने आलोचनात्मक समीक्षा की थी. अगर मौजूदा विश्व व्यवस्था सही तरीक़े से काम कर रही होती, तो दुनिया को नए कोरोना वायरस के इस संकट को पहचनाने में देर नहीं लगती. बल्कि, दुनिया के सामने आने वाले इस संकट को पहचान कर पूरी दुनिया को आगाह किया जाता. जिसके बाद इससे निपटने के सबसे अच्छे तरीक़ों का प्रचार किया जाता. ऐसे नियम बनाए जाते, जिनका पालन हर देश करता, ताकि वायरस के प्रकोप को फैलने से रोका जा सकता. चूंकि, कोरोना वायरस के मामले में ऐसा नहीं हुआ, तो इसे इस बात की मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था असल में अव्यवस्था में परिवर्तित हो चुकी है.

भारत के असंगठित क्षेत्र के अप्रवासी कामगारों की बड़ी तादाद, कोरोना वायरस के आर्थिक प्रकोप का शिकार हो रही है. वो रोज़गार, जिनमें पहले ही कम मज़दूरी मिलती थी. जिन लोगों को सामाजिक संरक्षण नहीं प्राप्त था, वो इस महामारी की चक्की में पिस रहे हैं. हमें उम्मीद है कि भारतीय सरकार और हमारा समाज इस संकट को एक अवसर के रूप में देखेगा. और ये ठानेगा कि हमारे देश में जो बहुत से सामाजिक एवं आर्थिक असमानताएं हैं, उन्हें दूर किया जाएगा

जैसा कि, हमने अपनी किताब में व्यापक रूप से बताया है कि ये नया कोरोना वायरस दुनिया पर हमला बोलने वाला कोई पहला संकट नहीं है. और तय है कि ये आख़िरी भी नहीं होगा. 2001 में हमने सीखा था कि अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की नाराज़गी और द्वेष न्यूयॉर्क के दो वर्ल्ड ट्रेड टावर ढहा देने का माद्दा रखती थी. 2008 में हमने देखा कि अमेरिका में गुप चुप तरीक़े से किया जा रहा वित्तीय दुराचार किस तरह एक वैश्विक आर्थिक संकट में परिवर्तित हो गया था. 2016 में रूस ने स्वयं को अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में स्वयं को एक मतदाता के तौर पर दर्ज करने का प्रयास किया था. हमारे सामने ये बिल्कुल साफ है कि आज हम किस तरह से एक दूसरे पर बेहद जटिल और व्यापक रूप से निर्भर हो गए हैं. ऐसे में हमें कम नहीं, बल्कि अधिक वैश्विक प्रशासन की आवश्यकता है.

इसी कारण से हमने अपनी पुस्तक के उपसर्ग को, ‘द इंडियन इम्परेटिव’ का नाम दिया है. कोरोना वायरस के प्रकोप ने ये बात एकदम स्पष्ट कर दी है कि आज से कई दशक बाद हमारे लिए कौन से काम करना बेहद आवश्यक होने जा रहा है. पहली बात तो ये है कि हमें अपने देश के लोगों का ध्यान बेहतर ढंग से करना होगा. भारत के असंगठित क्षेत्र के अप्रवासी कामगारों की बड़ी तादाद, कोरोना वायरस के आर्थिक प्रकोप का शिकार हो रही है. वो रोज़गार, जिनमें पहले ही कम मज़दूरी मिलती थी. जिन लोगों को सामाजिक संरक्षण नहीं प्राप्त था, वो इस महामारी की चक्की में पिस रहे हैं. हमें उम्मीद है कि भारतीय सरकार और हमारा समाज इस संकट को एक अवसर के रूप में देखेगा. और ये ठानेगा कि हमारे देश में जो बहुत से सामाजिक एवं आर्थिक असमानताएं हैं, उन्हें दूर किया जाएगा.

भारत ने कोरोना वायरस की महामारी को लेकर सार्क देशों के बीच सहयोग की जो पहल की. और फिर G-20 देशों को एक साथ लाने में अग्रणी भूमिका निभाई. उससे ये स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि भारत वैचारिक और राजनीतिक विविधताओं के समीकरणों के बीच अपनी भूमिका बहुत अच्छे तरीक़े से निभा सकता है. भारत को ऐसा प्रयास अपने घरेलू राजनीतिक परिदृश्य में भी करने की भी आवश्यकता है

इस विषय का दामन थाम कर हम भारत के लिए दूसरी अनिवार्यता की ओर बढ़ते हैं. हम मौजूदा संकट के कारण, अपने घरेलू अनुभव और नीतिगत ख़ामियों से जो भी सबक़ सीख रहे हैं, उनके आधार पर ही भारत को अपने वैश्विक संवाद की दशा दिशा तय करनी चाहिए. इस महामारी ने अधिकतर विकासशील देशों के सामने प्रशासनिक व्यवस्था की कमज़ोरियों को उजागर किया है. छुपी हुई चुनौतियों को सामने लाकर खड़ा कर दिया है. इन चुनौतियों का सामना करते हुए, भारत के सामने ये अवसर है कि वो बिल्कुल अलग तरह की विश्व शक्ति के तौर पर उभरने का प्रयास करे. अमेरिका के महाशक्ति बनने के पीछे उसकी विशाल सैन्य क्षमता और कूटनीतिक गठबंधन व आर्थिक संस्थाएं थीं. चीन के महाशक्ति बनने में उसकी भौगोलिक आर्थिक शक्ति एवं वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला व व्यापार पर उसका नियंत्रण होने की प्रमुख भूमिका थी. जैसा कि हम अपनी किताब में तर्क देते हैं कि, भारत दुनिया की पहली विकासवादी शक्ति होगा. भारत के एक शक्ति के तौर पर उदय का सीधा संबंध इसके एशिया एवं अफ्रीका महाद्वीप के करोड़ों लोगों के विकास की ज़रूरतों के प्रशासनिक समाधान उपलब्ध करा पाने की क्षमता से होगा.

भारत का एक उत्तरदायित्व यह भी है कि वो वैश्विक सहयोग की नैतिकता को को पुनर्जीवित करे. इस समय दुनिया अलग अलग प्रभाव क्षेत्रों में सिमटती जा रही है. जहां पर कुछ देश मिलकर एक दूसरे के साथ विशेष संबंध बना रहे हैं. ऐसे में किसी वैश्विक संकट का सामना करने की हमारी क्षमताएं सीमित होती जा रही हैं. भारत ने कोरोना वायरस की महामारी को लेकर सार्क देशों के बीच सहयोग की जो पहल की. और फिर G-20 देशों को एक साथ लाने में अग्रणी भूमिका निभाई. उससे ये स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि भारत वैचारिक और राजनीतिक विविधताओं के समीकरणों के बीच अपनी भूमिका बहुत अच्छे तरीक़े से निभा सकता है. भारत को ऐसा प्रयास अपने घरेलू राजनीतिक परिदृश्य में भी करने की भी आवश्यकता है.

नए कोरोना वायरस की इस महामारी ने बड़े भयंकर तरीक़े से हमें इस बात का एहसास कराया है कि वैश्विक अव्यवस्था के कैसे कुपरिणाम मानवता को भुगतने पड़ सकते हैं. ये बिल्कुल सही समय पर दी गई चेतावनी के सामना है कि राष्ट्रीय संप्रभुता के आवेग में देशों को अपनी वैश्विक ज़िम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए. जब ये महामारी ख़त्म हो जाएगी, तो दुनिया को ये सबक़ सीखना होगा कि आख़िर हुआ क्या था. विश्व व्यवस्था में क्या कमियां हैं. अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था और संस्थाओं को किस तरह से आधारभूत रूप से सुधार कर उन्हें मज़बूत किया जा सकता है. ताकि भविष्य में दुनिया को ऐसे संकट का बिखराव के साथ सामना न करना पड़े.

बहुत से देशों को इस महामारी में एक अवसर मिल गया है कि वो विश्व समुदाय के लिए अपने दरवाज़े बंद कर लें. बाक़ी दुनिया से ख़ुद को काट लें. भारत को ऐसी आकांक्षाओं का दमन करना चाहिए. इस मुश्किल समय में भारत का नेतृत्व और वैश्विक प्रशासन को लेकर नई प्रतिबद्धता, दुनिया के लिए एक ऐसी वैक्सीन का काम करेगी, जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को नए दशक की चुनौतियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करेगी.

शशि थरूर और समीर सरन द्वारा लिखी गई किताब द न्यू वर्ल्ड डिसऑर्डर और इंडियन इम्पीरियल को आप यहां खरीद सकते हैं.

यह लेख मूल रूप से इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हो चुका है.

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