कोविड-19 ने अर्थव्यवस्थाओं को तबाह कर दिया है. अलग-अलग देशों ने कमज़ोर स्वास्थ्य प्रणाली, जो अक्सर कोविड-19 के ज़्यादा मामले होने की वजह से पूरी तरह पस्त हो जाते हैं, को बचाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के उपायों को लागू किया
मार्च 2020 से बार-बार लागू इन उपायों– कर्फ्यू, बंद सीमा, स्कूल और पूजा स्थल को बंद करना और आवागमन पर रोक- ने बड़ी संख्या में लोगों को बेरोज़गार और भूखा बना दिया है. इसके साथ ही कई सामाजिक बुराइयां भी बढ़ी हैं जैसे महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा, किशोरावस्था की लड़कियों में गर्भधारण में बढ़ोतरी और बाल विवाह में बढ़ोतरी. इन उपायों ने कई अर्थव्यवस्थाओं को मंदी में भी धकेल दिया है.
भौतिक सुरक्षा से परे लोगों की मानसिक सेहत भी नहीं छूटी है. ये स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था और आजीविका तभी वास्तव में सुरक्षित होगी जब लोगों का जीवन बचेगा और लोगों की ज़िंदगी बचाने का रास्ता है ज़्यादा-से-ज़्यादा संख्या में उनका टीकाकरण ताकि लोगों को गंभीर बीमारी से बचाया जा सके, उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने या उनकी मौत की नौबत न आए. ऐसा करते समय स्वास्थ्य प्रणाली को बचाया जाता है जिससे कि ज़रूरतमंद लोगों की सेवा की जा सके.
ये स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था और आजीविका तभी वास्तव में सुरक्षित होगी जब लोगों का जीवन बचेगा और लोगों की ज़िंदगी बचाने का रास्ता है ज़्यादा-से-ज़्यादा संख्या में उनका टीकाकरण ताकि लोगों को गंभीर बीमारी से बचाया जा सके
अफ्रीका के देशों ने शुरुआत में अपनी 60 प्रतिशत आबादी को टीका लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया है लेकिन 60 प्रतिशत लोगों के वैक्सीनेशन का रास्ता उथल-पुथल से भरा होने वाला है. परंपरागत तौर पर अफ्रीका महादेश अपनी कुल वैक्सीन खपत का सिर्फ़ 1 प्रतिशत उत्पादन करता है और कोविड-19 की वैक्सीन के मामले में तो ये शून्य है. वैक्सीन का उत्पादन नहीं करने की वजह से अफ्रीका महादेश वैक्सीन, जिनमें से कुछ का क्लीनिकल परीक्षण अफ्रीका में भी किया गया था, हासिल करने के मामले में बाक़ी दुनिया की दया पर निर्भर है.
वित्तीय चुनौती, गावी गठबंधन और डब्लूएचओ
इसके अलावा अफ्रीका वित्तीय चुनौतियों का भी सामना कर रहा है. विश्व बैंक के मुताबिक़ अफ्रीका में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति सरकारी खर्च बेहद कम है. निम्न आमदनी वाले देश सेहत पर प्रति व्यक्ति 22 अमेरिकी डॉलर सालाना सरकारी संसाधनों से खर्च करते हैं जबकि निम्न-मध्यम आमदनी वाले देश 119 अमेरिकी डॉलर सालाना खर्च करते हैं. सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में स्थित देश औसतन 70 अमेरिकी डॉलर खर्च करते हैं. इसका नतीजा ये है कि जहां अमीर देश, जिनका प्रति व्यक्ति सेहत पर सालाना खर्च क़रीब 4,000 अमेरिकी डॉलर है, उत्पादन से पहले वैक्सीन की डोज़ सुरक्षित करने पर संसाधन खर्च कर रहे हैं, वहीं अफ्रीका के ज़्यादातर देश इस हालात को सिर्फ़ देख सकते हैं.
वैक्सीन को लेकर बना गठबंधन गावी, महामारी की तैयारी के लिए गठबंधन और विश्व स्वास्थ्य संगठन के बीच कोविड-19 वैक्सीन को लेकर वैश्विक पहुंच की पहल अफ्रीका में वैक्सीन की कमी के इस अंतर को भरने के लिए आगे आई. इसके लिए पर्याप्त वित्तीय सहायता जुटाकर केन्या समेत दूसरे देशों की तरफ़ से वैक्सीन की डोज़ सुरक्षित की गई. वैक्सीन पहुंचाने का ये तरीक़ा वैसे तो कामयाब रहा है लेकिन उम्मीद से कम उत्पादन की क्षमता, अमीर देशों के द्वारा जमाखोरी और भारत के सबसे खराब संकट के दौरान भारत सरकार के द्वारा सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के राष्ट्रीयकरण ने इसके पूर्वानुमान को मुश्किल में डाल दिया. इसकी वजह से केन्या जैसे देशों के हाथ में खाली सीरिंज, आंशिक रूप से टीका लगवाने वाले लोग और कई अन्य लोग दर्शक की तरह हैं. हाल के समय की बात करें तो 2021 के मध्य में अफ्रीकन यूनियन ने अफ्रीका टीका अधिग्रहण कार्य दल के ज़रिए अफ्रीका के लोगों को राहत दी है. इसके लिए अफ्रीकन यूनियन ने अफ्रीका निर्यात-आयात बैंक के ज़रिए महाद्वीप की तरफ़ से उन देशों के लिए वैक्सीन की प्रतिबद्धता की है जो वैक्सीन ख़रीद नहीं सकते हैं.
हाल के समय की बात करें तो 2021 के मध्य में अफ्रीकन यूनियन ने अफ्रीका टीका अधिग्रहण कार्य दल के ज़रिए अफ्रीका के लोगों को राहत दी है. इसके लिए अफ्रीकन यूनियन ने अफ्रीका निर्यात-आयात बैंक के ज़रिए महाद्वीप की तरफ़ से उन देशों के लिए वैक्सीन की प्रतिबद्धता की है जो वैक्सीन ख़रीद नहीं सकते हैं.
अभी तक अफ्रीका के 55 देशों में से कई देशों ने इस रास्ते का इस्तेमाल करके कुछ वैक्सीन हासिल की है ताकि वो अपने टीकाकरण अभियान को चलाते रह सकें. इसके अलावा अफ्रीका के देश द्विपक्षीय रास्ते का भी इस्तेमाल कर रहे हैं. इस तरीक़े में जिन देशों के पास ज़रूरत से ज़्यादा वैक्सीन की डोज़ है, वो अपना कूटनीतिक असर बढ़ाने के लिए वैक्सीन का दान कर रहे हैं.
इनमें से कुछ वैक्सीन अफ्रीका आते समय ख़राब भी हो गईं क्योंकि रास्ता बेहद लंबा है. ऐसे में वैक्सीन उत्पादन करने वाले देशों के लिए ज़रूरी है कि वो अपनी रफ़्तार बढ़ाएं ताकि वैक्सीन को रिकॉर्ड समय में पहुंचाना सुनिश्चित हो सके. समय पर नहीं पहुंचने की वजह से पूरे अफ्रीका में 4,50,000 वैक्सीन की डोज ख़राब हो गई (संदर्भ के लिए, ये अफ्रीका में जुलाई तक लगाई गई 6 करोड़ वैक्सीन का 0.8 प्रतिशत है). ये तेज़ी और साजो-सामान से जुड़ा हो सकता है लेकिन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, साउथ सूडान, मलावी और युगांडा में हम कम संख्या में वैक्सीनेशन के लिए संदेह और झिझक की भूमिका से इनकार नहीं कर सकते.
वैक्सीन की सप्लाई चेन हो बेहतर
जिस वक़्त अफ्रीका 60 प्रतिशत वैक्सीन लगाने के लक्ष्य को लेकर संघर्ष कर रहा है, उस वक़्त कुछ चीज़ों पर बहुत ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है. पहली चीज़ है कोविड-19 वैक्सीन की लगातार सप्लाई. किसी देश या समुदाय को अगर टीकाकरण में जीतना है तो ये महत्वपूर्ण है. नियमित तौर पर सप्लाई नहीं होने से टीकाकरण की कोशिशें में बाधा आती है क्योंकि लोगों को संदेह होता है कि कब और कैसे वो वैक्सीन की निर्धारित डोज़ हासिल करेंगे. चूंकि अफ्रीका नज़दीकी तौर पर अपने अंतर्राष्ट्रीय साझेदारों के साथ मिलकर काम कर रहा है, ऐसे में अफ्रीका को अपने अंदर भी झांकना चाहिए और ख़ुद से ये सवाल पूछना चाहिए कि अपने लोगों का ध्यान रखने के लिए वो अपने पड़ोसियों और दोस्तों पर निर्भर होना कब बंद करेगा. वैक्सीन उत्पादन की बातचीत तेज़ है और तकनीक ट्रांसफर के समझौते पहले ही हो चुके हैं.
इसके साथ-साथ निरंतरता के लिए अफ्रीका को बाज़ार बनाने पर भी निवेश करना चाहिए. इसके लिए अफ्रीका महाद्वीपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र को तेज़ी से मंज़ूर करना चाहिए जिससे कि एक साझा बाज़ार के भीतर आसानी से सामानों की ख़रीद-बिक्री हो सके. साथ ही अफ्रीका मेडिसिन एजेंसी को मंज़ूरी देने में तेज़ी लानी चाहिए और गावी जैसे वैश्विक संस्थानों को अफ्रीका में उत्पादित वैक्सीन ख़रीदने में शामिल करना चहिए.
चूंकि अफ्रीका नज़दीकी तौर पर अपने अंतर्राष्ट्रीय साझेदारों के साथ मिलकर काम कर रहा है, ऐसे में अफ्रीका को अपने अंदर भी झांकना चाहिए और ख़ुद से ये सवाल पूछना चाहिए कि अपने लोगों का ध्यान रखने के लिए वो अपने पड़ोसियों और दोस्तों पर निर्भर होना कब बंद करेगा.
दूसरी चीज़ है, अफ्रीका अपने लोगों से बात करे. केन्या के साथ-साथ अफ्रीका के दूसरे देशों में जोखिम संचार और सामुदायिक भागीदारी में बहुत बड़ा दरार मौजूद है. इसलिए सरकार और नीति- निर्माता अपने लोगों तक पहुंच नहीं सकते. अगर सरकारों को अपनी 60 प्रतिशत आबादी को वैक्सीन लगाने का लक्ष्य हासिल करने में कामयाब होना है तो सामुदायिक संरचनाओं को ज़रूर हिस्सेदार बनाना चाहिए. सामुदायिक संरचना बनाने के लिए लोगों के रहने और काम-काज की जगह के नज़दीक उनके साथ सार्थक ढंग से हिस्सेदारी और उनमें निवेश करना शामिल है. इस हिस्सेदारी में उनके संचार के तरीक़े का इस्तेमाल करना होगा. टीवी पर घोषणा और प्रेस विज्ञप्ति ज़रूरी हैं लेकिन सिर्फ़ इनसे काम नहीं होगा.
आख़िर में, वैक्सीन को लोगों के पास भेजने की ज़रूरत होगी, न कि सिर्फ़ लोगों को वैक्सीन के पास भेजना होगा. शुरुआत के तौर पर हम जानते हैं कि कई समुदायों के लिए स्वास्थ्य की सुविधाएं भौगोलिक और वित्तीय तौर पर पहुंच से बाहर हैं. बचपन की बीमारियों जैसे पोलियो और चेचक के मामले में वैक्सीन को लेकर दिक़्क़तें उस वक़्त दूर की गईं जब महामारी का ख़तरा होने लगा. ये चीज़ कोविड-19 वैक्सीन के लिए भी क्यों नहीं है?
बचपन की बीमारियों जैसे पोलियो और चेचक के मामले में वैक्सीन को लेकर दिक़्क़तें उस वक़्त दूर की गईं जब महामारी का ख़तरा होने लगा. ये चीज़ कोविड-19 वैक्सीन के लिए भी क्यों नहीं है?
सरकारों को निश्चित तौर पर वैश्विक साझेदारी के साथ भागीदारी के ज़रिए कमोडिटी की सुरक्षा में निवेश करना चाहिए, स्थानीय उत्पादन और बाज़ार निर्माण के लिए समाधान को सुनिश्चित करना चाहिए, संदेह दूर करने और सभी लोगों तक समान पहुंच के लिए समुदायों को भागीदार बनाना चाहिए.
अफ्रीका महादेश में आर्थिक बहाली और सामाजिक एकजुटता के लिए यही रास्ता है.
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