Published on Sep 08, 2020 Updated 0 Hours ago

यह कहा जा सकता है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र आगामी दशक में चौथी औद्योगिक क्रांति को लेकर प्रमुख युद्धक्षेत्र बनेगा. 

कोविड-19 और इंडो-पैसिफिक की दशक का आगाज़

दुनिया की बड़ी से बड़ी शक्तियां समय के साथ बढ़ती हैं और गिरती हैं. इससे वैश्विक स्तर पर शक्ति का संतुलन बदलता है और यह कई मायनों में विश्व के भूगोल पर भी असर डालता है. वर्तमान में देखें तो दुनिया बदलाव के एक बड़े दौर से गुज़र रही है. भू-राजनीतिक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय संबंधों में लगातार बदलाव आ रहे हैं. पिछले कुछ सालों में अंतरराष्ट्रीय और राजनीतिक मामलों के जानकार लगातार यह कहते रहे हैं कि विश्व स्तर पर अगली शताब्दी एशिया के नाम रहेगी और एक बहुपक्षीय एशियाई शताब्दी की शुरुआत हो रही है. ऐसा हो रहा है क्योंकि विश्व की राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों का तानाबाना एटलांटिक के भूगोल से प्रशांत क्षेत्र की ओर बदल रहा है. हालांकि कोरोनावायरस की आपदा और कोविड19 की महामारी ने इस साल को इंडो-पैसिफिक यानी हिंद-प्रशांत के दशक की शुरुआत से जोड़ दिया है. कोविड ने यह स्पष्ट कर दिया है कि साल 2020 से शुरु होने वाला अगला दशक अमेरिका, चीन और भारत को मुख्य भूमिका में देखेगा और इन दशों के बीच प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ेगी. इस बार क्षेत्रीय ताक़तें पटल पर हैं और विश्व के समीकरण भले ही बहुपक्षीय प्रतिस्पर्धा का आभास कराएं, लेकिन वास्तव में यह अमेरिका और चीन के बीच एक नई तरह की सर्वांगी और द्विपक्षीय प्रतिस्पर्धा है. कोविड-19 के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में कोरोना वायरस कई तरह के व्यवस्थागत बदलावों की कारण बन गया है. कोरोनावायरस की स्थिति ने कई नए समीकरणों की शुरुआत की है. इनमें क्षेत्रीय ताक़तों के बनते नए गुट शामिल हैं, जो अलग-अलग देशों के अपने भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक कारणों का नतीजा हैं. ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि विश्व की व्यवस्था और शक्ति के समीकरण बदल रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बहुपक्षीय ढांचे अब खत्म हो रहे हैं.

कोविड ने यह स्पष्ट कर दिया है कि साल 2020 से शुरु होने वाला अगला दशक अमेरिका, चीन और भारत को मुख्य भूमिका में देखेगा और इन दशों के बीच प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ेगी.

आगामी दशक अमेरिका और चीन के बीच वैश्विक स्तर पर व्यवस्थागत प्रतिद्वंद्विता को लगातार बढ़ते हुए देखेगा. इन समीकरणों और इस प्रतिस्पर्धा का अलग-अलग देशों पर अलग प्रभाव पड़ रहा है और दुनिया के सभी हिस्सों में क्षेत्रीय स्तर पर तनाव बढ़ रहा है. साल 2025 तक भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की राह पर है और चीन जो प्राकृतिक रूप से और लंबे समय से भारत का प्रतिद्वंद्वी रहा है, उसके चलते इंडो-पैसिफिक क्षेत्र धीरे-धीरे 21वीं सदी के शक्ति-प्रदर्शन और प्रतिस्पर्धा केंद्र के रूप में उभर रहा है. अंतरराष्ट्रीय संबंधों का ‘द्विपक्षीयकरण’, चीन, भारत और पाकिस्तान के बीच पारंपरिक रूप से दक्षिण एशियाई सुरक्षा को लेकर दुविधा व मनमुटाव रहा है. ऐसे में कोविड19 ने  वैश्विक स्तर पर संबंधों और संरचनाओं में जिन आमूलचूल बदलावों की ज़मीन तैयार की है उससे भारत, पाकिस्तान और चीन भी अछूते नहीं है. इस पृष्ठभूमि में हिंद-प्रशांत दशक के उद्भव के लिए तीन संभावित परिदृश्य हो सकते हैं.

गिद्ध और ड्रैगन के बीच पुरानी और व्यवस्थागत प्रतिद्वंद्विता

सत्ता के दो केंद्रों के संभावित उद्भव के साथ यानी अमेरिका और चीन के वैश्विक ताक़तों के रूप में आमने-सामने आने से, विश्व के राजनीतिक समीकरण और व्यवस्था एकध्रुवीय से द्विध्रुवीय हो सकते हैं. सोवियत संघ के पतन के बाद, अमेरिका ने वैश्विक व्यवस्था को एक तरफा रूप दिया और विश्व के सभी देशों में आपूर्ति श्रंखला यानी सप्लाई चेन और समुद्री संचार स्थापित करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी. हालांकि, चीन की तीव्र आर्थिक और व्यापार वृद्धि को देखते हुए, वैश्विक मंच पर उसके उभरने और एक दूसरी तरह की प्रणालीगत ध्रुवीय संरचना बनने के अनुमान हैं. चीन ने अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के माध्यम से एक व्यापक भू-रणनीति की शुरुआत की है जिसका असर पूरे विश्व पर पड़ेगा. इस योजना का उद्देश्य सभी महाद्वीपों को जोड़ना है, और चीन की यह कोशिश अंतरराष्ट्रीय संबंधों में संरचनात्मक बदलाव ला सकती है.

हालांकि, इस बात पर ज़ोर दिया जाना ज़रूरी है कि दुनियाभर में कोविड-19 की महामारी फैलने और कोरोनावायरस के प्रकोप से पहले भी दोनों देश में कई स्तरों पर प्रतिस्पर्धा थी. चीन और अमेरिका के बीच व्यापार व अर्थव्यवस्था से लेकर वित्त और कृषि तक के विभिन्न क्षेत्रों के अलावा प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में भी प्रतिस्पर्धा रही है. कोविड-19 के बाद उपराष्ट्रपति माइक पेंस के लोकप्रिय भाषण और चीन को लेकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के भाषण के साथ ही बीजिंग के प्रति अमेरिकी प्रशासन का सामने आया नया दृष्टिकोण, इस संदर्भ में और भी महत्वपूर्ण हैं. प्रारंभिक द्विपक्षीय व्यापार समझौते के पहले चरण के अमल में आने और इस उपलब्धि के बावजूद, कोविड-19 की महामारी के बाद इन दोनों देशों के संबंधों में एक अभूतपूर्व गिरावट और अलगाव हुआ. अमेरिका और चीन के बीच यह नए किस्म की टसल अब हमारे समय की वास्तविकता है, जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता.

इस परिदृश्य में, अमेरिका तेज़ी से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की ओर रुख कर रहा है और इस क्षेत्र से जुड़ी साझेदारियों और समझौतों में अधिक से अधिक निवेश करने की संभावनाएं तलाश रहा है. गुरप्रीत खुराना के आकलन के मुताबिक यह भू-राजनीतिक समीकरण भारतीय और पश्चिमी प्रशांत महासागर से लेकर पश्चिम अफ्रीका और पूर्वी एशिया के क्षेत्रों तक फैला हुआ है. यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि राष्ट्रपति ओबामा ने साल 2012 में अमेरिका को पूर्वी-एशिया के लिए एक महत्वपूर्ण घटक माना था. ओबामा ने कहा था कि एशिया और प्रशांत क्षेत्र में संतुलन बनाए रखने में अमेरिका एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित होगा. इस मायने में यह आश्चर्यजनक नहीं कि अमेरिकी रक्षा विभाग ने हाल ही में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को अपनी रणनिति के केंद्र में रखा है. रक्षा विभाग के मुताबिक यह क्षेत्र कई महत्वपूर्ण घटनाक्रमों की धूरि है. साथ ही अमेरिकी पेंटागन प्रमुख ने इस क्षेत्र में अपनी ताकत को संगठित करने और स्थानांतरित करने की घोषणा भी की.

हर देश एक बार फिर बने महान 

वैश्विक व्यवस्था भी क्षेत्रीय स्तर पर कुछ ऐसे कारकों यानी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले देशों के गठजोड़ की ओर इशारा करती है, जिनके पास सीमित ताकत है और वो वॉशिंगटन और बीजिंग के बीच चली आ रही प्रतिस्पर्धा में अपनी भूमिका तलाश रहे हैं. यह देश अपने स्तर पर इस प्रतिस्पर्धा के मायने समझना चाहते हैं. लॉर्ड पामरस्टन के प्रसिद्ध शब्दों में, ये देश न तो शाश्वत सहयोगी हैं, न ही शाश्वत दुश्मन बल्कि ये देश केवल अपने शाश्वत और निरंतर हित के साथ हैं. आगामी दशक एक प्रमुख भू-राजनीतिक समीकरण की ओर बढ़ रहा है जहां कई अस्थाई अभिनेता हैं, जो अलग-अलग गठजोड़ बना रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर इस दशक में कई तरह के फेरबदल हो रहे हैं और कई नए और अभूतपूर्व गठजोड़ सामने आएंगे. यह सभी बदलाव अपने-अपने स्तर पर लाभ को बढ़ाने के लक्ष्य से निर्धारित हैं. इसमें मुख्य भूमिका में है रूस, भारत, जापान, कनाडा और कई प्रमुख यूरोपीय राज्य जैसे ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी व इटली, ऑस्ट्रेलिया और कुछ अन्य प्रासंगिक क्षेत्रीय शक्तियां. विश्व को प्रभावित करने वाली कोविड-19 की आपदा  इन सब के बीच एक समान कड़ी है, जो उन्हें साथ लाती है . ये देश अब चीन या अमेरिका का पक्ष लेने जैसा मुश्किल फैसला किए बग़ैर इन दोनों के बीच संतुलन को बनाए रखना चाहते हैं.

आगामी दशक एक प्रमुख भू-राजनीतिक समीकरण की ओर बढ़ रहा है जहां कई अस्थाई अभिनेता हैं, जो अलग-अलग गठजोड़ बना रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर इस दशक में कई तरह के फेरबदल हो रहे हैं और कई नए और अभूतपूर्व गठजोड़ सामने आएंगे.

इस पृष्ठभूमि में चीन और भारत के बीच परस्पर विरोधी संबंध, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में मौजूद सुरक्षा त्रिकोणों को और अधिक जटिल बनाएंगे. चीन और पाकिस्तान के बीच घनिष्ठता और एक बड़े फलक पर चीन और रूस (ड्रैगनबियर) के बीच तालमेल क्षेत्रीय संरचनाओं में पनप रहे नए समीकरणों और संभावनाओं का प्रमुख उदाहरण है. यह हो रहा है क्योंकि इस क्षेत्र में हालात और शक्ति का संतुलन बदल रहा है. तार्किक रूप से, अमेरिका दक्षिण और दक्षिण पूर्वी एशिया में चीन की उपस्थिति और ताकत को संतुलित करने के लिए भारत को एक विश्वसनीय भागीदार मानता है. वर्तमान घटनाक्रम, जैसे कि QUAD, CPTPP वार्ता, और अन्य एंग्लोस्फीयर गठजोड़ को अमेरिका द्वारा चीन की ताकत को संतुलित करने और इनके खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व वाले जवाबी प्रयासों के रूप में देखा जा रहा है. भू-आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण चीन की बीआरआई, चाइना-पाकिस्तान इकोमिक कॉरिडोर और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी जैसी योजनाओं के समक्ष अमेरिका भी इन क्षेत्रों में अपनी पैठ बनाना चाहता है.  इसके अलावा, नए रक्षा सहयोग प्रारूपों पर भी सहमति व्यक्त की गई, जैसे कि ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच वो सौदा जिसके तहत इन देशों के बीच सैन्य और प्रौद्योगिकी आदान-प्रदान का रास्ता बने. ज़ाहिर है, नई दिल्ली में राजनीतिक कमान संभालने वाले लोग वाशिंगटन के साथ घनिष्ठ संबंधों के पक्ष में हैं, लेकिन बीजिंग के साथ बढ़ते तनाव के बीच वो मास्को के साथ भी मैत्रीपूर्ण संबंध और भरोसा कायम करना चाहते हैं.

माना जा रहा है कि वाशिंगटन द्वारा नई दिल्ली के साथ एक व्यापक रणनीतिक संबंध स्थापित करने के चलते इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक बदलाव होंगे.  इसकी सीधी वजह है इंडो-पैसिफिक क्षेत्र और उससे आगे चीन की बढ़ता प्रभाव. इसके अलावा, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी समुद्री प्रभुत्व को दरकिनार करने के लिए चीन मध्य एशिया के माध्यम से यूरोप में अपना विस्तार और अपनी पैठ बनाएगा. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र से जुड़े दो संभावित परिदृश्य हो सकते हैं: या तो चीन और रूस (ड्रैगनबियर) के खिलाफ अमेरिका (और भारत) या फिर चीन के खिलाफ़ भारत (और रूस) के साथ अमेरिका की घनिष्ठता. अगर इस मामले में संघर्ष बढ़ता है तो अमेरिका बीजिंग के खिलाफ नई दिल्ली को समर्थन देने के लिए हर मुमकिन अवसर का इस्तेमाल करेगा, जबकि रूस, चीन और भारत के बीच तनाव को लेकर, आधिकारिक तौर पर तटस्थ रहना चाहेगा. इस मामले में रूस का रवैया भारत और चीन दोनों ही पक्षों को अलग-अलग तरीके से समर्थन देने का हो सकता है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सप्लाई-चेन में आने वाले बदलाव, नए संस्थानों व मानकों का उदय और नई तरह की अंतरराष्ट्रीय संरचनाएं किसी भी रूप में हिंद-प्रशांत क्षेत्र को प्रभावित किए बिना या उसके हस्तक्षेप के बिना संभव नहीं होंगी.  

कोविड-19 के प्रकोप के बाद, वैश्विक स्तर पर सप्लाई-चेन को चीन के बग़ैर स्थापित करना अब एक नई वास्तविकता बनता जा रहा है.  हर मायने में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र  इस भू-आर्थिक पुनर्संरचना का केंद्र बन रहा है. ऐसे में वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में बदलाव और उनके विविधीकरण के चलते कई प्रमुख भू-आर्थिक अवसर और चुनौतियां सामने आएंगी. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सप्लाई-चेन में आने वाले बदलाव, नए संस्थानों व मानकों का उदय और नई तरह की अंतरराष्ट्रीय संरचनाएं किसी भी रूप में हिंद-प्रशांत क्षेत्र को प्रभावित किए बिना या उसके हस्तक्षेप के बिना संभव नहीं होंगी.  इसके विपरीत अमेरिका इस विनिर्माण और आपूर्ति श्रृंखलाओं को नए तरीके से स्थापित करने के लिए या तो इन्हें अपने देश में वापस लाने की कोशिश करेगा या फिर एंग्लोस्फियर के यूके, ऑस्ट्रेलिया, जापान जैसे देशों के अलावा भारत जैसे  अमेरिकी सहयोगियों और साझेदारों को सौंपेगा. उत्पादन को पारंपरिक हब से नए हव में स्थानांतरित करने में समय लगेगा और उसके लिए देशों के बीच परस्पर विश्वास कायम होना भी ज़रूरी है, लेकिन इससे नए भू आर्थिक अवसर भी पैदा होंगे खासतौर पर नई दिल्ली के लिए.  व्यापार संबंधी प्रमुख फैसलों के क्षेत्रीय केंद्र, जैसे कि जापान और यूरोपीय संघ, पहले से ही चीन से बाहर विनिर्माण कार्यों की एक पारी पर विचार कर रहे हैं. आने वाले समय में दो समानांतर आपूर्ति श्रृंखलाएं अस्तित्व में आ सकती हैं. अगर इस संभावित परिदृश्य को देखें तो एक श्रंखला अमेरिका द्वारा स्थापित और संचालित व दूसरी चीन तक पहुंचने में कारगर होगी.

अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रक्षा और साइबर उपकरणों जैसे क्षेत्रों में नई क्षेत्रीय शक्तियों के उभरने से कई तरह के रणनीतिक निवेश की उम्मीद की जा सकती है. यह महत्वपूर्ण है क्योंकि इन क्षेत्रों में होने वाली किसी भी तरह की महत्वपूर्ण सफलता, वैश्विक प्रतिस्पर्धा और भू-आर्थिक समीकरणों को प्रभावित करेगी. इसके अलावा, सभी सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों की अभूतपूर्व परस्परता ने एक तरफ आर्थिक और व्यापार संकेतकों को धूमिल किया है वहीं दूसरी तरफ रक्षा और सुरक्षा संबंधी विचारों को भी प्रभावित किया है. यह बताता है कि किस तरह अमेरिका और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा केवल एक व्यापार युद्ध नहीं बल्कि वित्तीय, व्यापारिक, अर्थव्यवस्था, कूटनीतिक, ऊर्जा और रक्षा जैसे क्षेत्रों  में भी इस प्रतिस्पर्धा का असर होगा. इसलिए एक बार फिर यह कहा जा सकता है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र आगामी दशक में चौथी औद्योगिक क्रांति को लेकर प्रमुख युद्धक्षेत्र बनेगा.

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