ये लेख हमारी- रायसीना एडिट 2024 सीरीज़ का एक भाग है
मौजूदा भू-राजनीतिक मंज़र में ऐसी परिचर्चाएं तेज़ हो रही हैं कि वैश्विक व्यवस्था का मिज़ाज क्या होगा और ये किस दिशा में आगे बढ़ेगी. कुछ लोगों का निष्कर्ष है कि मौजूदा हालात, 1914 जैसे ही नाज़ुक हैं और उनका इशारा ये है कि दुनिया तीसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ी है. वहीं कुछ अन्य जानकार आज के हालात को 1945 से मिलता जुलता बता रहे हैं और उनका अंदाज़ा है कि शीत युद्ध का एक नया दौर शुरू हो रहा है, जिसमें एक तरफ़ अमेरिका है तो दूसरी तरफ़ चीन. ये बात एक तरफ़ अमेरिका और दूसरी तरफ़ चीन और रूस के गठजोड़ (DragonBear) के बीच बढ़ती दरारों और चौथी औद्योगिक क्रांति (4IR) से और ज़ाहिर होती है. इस परिस्थिति में यूक्रेन में रूस की सैन्य कार्रवाई और इज़राइल और हमास के बीच संघर्ष कोई अलग अलग घटनाएं नहीं हैं, बल्कि ये शीत युद्ध 2.0 का ही एक विस्तार हैं. ये व्यापक भू-राजनीतिक समीकरणों, दुनिया में एक ऐसे विभाजन को दिखाते हैं, जो ऐसा लग रहा है कि हर गुज़रते साल के साथ और गहरा होता जा रहा है. 2024 में हिंद प्रशांत क्षेत्र में एक नए तनाव के उभरने का अंदेशा है. क्योंकि वहां उत्तर कोरिया की हरकतें और रूस एवं चीन द्वारा आग में घी डालने का काम करने की वजह से ताइवान जलसंधि एवं दक्षिणी चीन सागर में सुलगते तनाव, ये सब आने वाले समय में पूर्वी यूरोप और मध्य पूर्व में चल रहे संघर्षों के साथ मिल जाएंगे.
मौजूदा वैश्विक राजनीतिक की बारीक बुनावट में अमेरिका, चीन और रूस के बीच सीधे सैन्य संघर्ष की संभावना तुलनात्मक रूप से काफ़ी कम है. ये सब्र क्षमता के अभाव या फिर बहुत से आपस में टकराते हितों की वजह से नहीं है. बल्कि, दोनों ही पक्षों को इस बात का बख़ूबी अंदाज़ा है कि अगर ऐसा वैश्विक संघर्ष छिड़ा तो उसके नतीजे कितनी तबाही मचाएंगे. इसीलिए, सीधे टकराने के बजाय ये बड़ी ताक़तें सामरिक दांव-पेंच आज़माने, जटिल कूटनीतिक चालें चलने, भू-आर्थिक दबाव बनाने और क्षेत्रीय प्रभाव में इज़ाफ़ा करने जैसी रणनीतियां अपना रहे हैं. हम इसकी एक मिसाल इस वक़्त लाल सागर के संकट के दौरान देख रहे हैं, जहां ईरान से मदद पाने वाले हूतियों ने चीन और रूस के जहाज़ों को सुरक्षित निकल जाने देने का भरोसा दिया है. ऐसे तरीक़े से इन बड़ी ताक़तों को अपने हितों को आगे बढ़ाते और सीधे युद्ध की लक्ष्मण रेखा को पार किए बग़ैर अपना दबदबा दिखाने का मौक़ा मिलता है. ये सामरिक धौंसबाज़ी अक्सर अपने मोहरों के ज़रिए छद्म युद्धों या फिर तकनीकी और अहम संसाधनों और मूलभूत ढांचों पर नियंत्रण की भू-आर्थिक होड़ के तौर पर ज़ाहिर होती है और भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के नए दौर को रेखांकित करती है. ये उस बारीक़ समझ को दिखाती है, जिसमें वैश्विक बाज़ारों, डिदिटल औद्योगिक क्रांति और पर्यावरण की साझा चुनौतियों के ज़रिए आपस में जुड़ी दुनिया के लिए पारंपरिक युद्ध में उलझना, इससे मिलने वाले फ़ायदों की तुलना में कहीं ज़्यादा नुक़सानदेह साबित हो सकता है.
परमाणु हथियार
शीत युद्ध 2.0 के मंडराते साये के नीचे परमाणु हथियारों की तैनाती का ख़तरा, वैसे तो मौजूद है, लेकिन, इनके इस्तेमाल की आशंका लगभग नामुमकिन दिखती है. दोनों पक्षों द्वारा इस मामले में अपनाए जा रहे संयम के पीछे का तर्क, साझा तबाही की गारंटी का वो सिद्धांत है कि अगर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल हुआ, तो दोनों ही तबाह हो जाएंगे. हालांकि, इसका ये मतलब नहीं है कि परमाणु हथियारों के मामले में लापरवाही से काम लिया जाए. इसके उलट मौजूदा भू-राजनीतिक माहौल ऐसा है, जिसमें परमाणु हथियारों के विकास और इनसे लैस होने की रफ़्तार में तेज़ी आ सकती है. इससे हथियारों की वैसी ही होड़ शुरू होने का ख़तरा है, जैसा हमने 20वीं सदी के मध्य में होते देखा था. पर इस बार हथियारों की इस होड़ का दायरा कहीं बड़ा और स्तर अधिक व्यापक होने का डर है. इस चलन के दौरान हम परमाणु हथियारों के मामले में उन्नत तकनीकी आविष्कार, बढ़ते भंडार और ज़ख़ीरों के आधुनिकीकरण होते देखेंगे. हो सकता है कि हमें ईरान जैसे कुछ ऐसे देश उभरते दिखें, जो परमाणु हथियार हासिल करने की लक्ष्मण रेखा को पार कर जाएं. परमाणु हथियारों के मामले में ये बढ़ोत्तरी, बड़ी ताक़तों को अपनी आत्मरक्षा और दुश्मन को डराने की क्षमता में मज़बूती लाने को बाध्य करेगी, ताकि वो सत्ता का संतुलन बनाए रख सकें. इसके बावजूद, नए देशों ने परमाणु हथियार हासिल किए, तो इससे वैश्विक सुरक्षा के लिए ख़तरे बढ़ जाएंगे. क्योंकि, परमाणु हथियारों के विस्तार से ग़लतियों और हादसों की वजह से टकराव होने का ख़तरा भी बढ़ जाएगा और इस तरह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में तनाव की एक और जटिल परत जुड़ जाएगी.
हम इसकी एक मिसाल इस वक़्त लाल सागर के संकट के दौरान देख रहे हैं, जहां ईरान से मदद पाने वाले हूतियों ने चीन और रूस के जहाज़ों को सुरक्षित निकल जाने देने का भरोसा दिया है.
विभाजित होती विश्व व्यवस्था
मौजूदा वैश्विक भू-आर्थिक मंज़र लगातार विभाजन का शिकार होता दिख रहा है. आज व्यापार, तकनीक और वित्तीय व्यवस्थाएं भू-राजनीति के हिसाब से ध्रुवीकृत होती जा रही हैं. ये चलन शीत युद्ध 2.0 को ज़ाहिर करने वाले व्यापक तनाव का ही हिस्सा है, और इस साल इसके वैश्विक वित्त व्यवस्था में और गहरी जड़ें जमा लेने का अंदेशा है. इस टूटी-फूटी और बंटी हुई विश्व व्यवस्था से निपटने के लिए G20 और BRICS जैसे बड़े आर्थिक समूहों द्वारा उल्लेखनीय बदलाव किए जाने की अपेक्षा है. सबसे अधिक ऊर्जावान अर्थव्यवस्थाओं वाले इसके सदस्य देशों द्वारा अब तक अंतरराष्ट्रीय वित्त और व्यापार पर दबदबा रखने वाले अमेरिकी डॉलर के विकल्प की संभावना सक्रियता से तलाशने और शायद लागू करने की संभावना अधिक है. ऐसे क़दम वैश्विक वित्तीय ढांचे में व्यापक बदलाव लाएंगे, जिनके पीछे किसी एक मुद्रा के दबदबे पर निर्भरता को कम करने और एक अधिक बहुपक्षीय वित्तीय व्यवस्था को मज़बूती देने की ख़्वाहिश होगी. इस सामरिक विविधता का लक्ष्य न केवल बदलती भू-आर्थिक हक़ीक़तों और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में आती तब्दीलियों को रेखांकित करता है, बल्कि इससे भू-राजनीतिक अनिश्चितताओं और किसी एक देश के आर्थिक दबदबे से होने वाले नुक़सान से बचने का रास्ता भी खुलेगा.
इससे भी बड़ी बात, मौजूदा भू-राजनीतिक माहौल, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में ऐसा बदलाव ला रहा है, जो स्थायी हैं. ये ऐसा तथ्य है, जो अंतरराष्ट्रीय व्यापार और आर्थिक समीकरणों को नया आकार दे रहा है. शीत युद्ध 2.0 के संदर्भ में हम सामरिक रूप से अहम उन वैश्विक व्यापार मार्गों पर क़ब्ज़े की होड़ में तेज़ी आते देख रहे हैं, जो सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हैं. काले सागर, और लाल सागर में बाब-अल मंदेब जलसंधि जैसे अहम समुद्री मार्ग, तेज़ होते भू-राजनीतिक मुक़ाबले के मैदान बनते जा रहे हैं और प्रमुख देश इन अहम वैश्विक समुद्री मार्गों पर अपना दबदबा क़ायम करने के लिए होड़ लगा रहे हैं. इसके साथ साथ, उत्तरी सागर का समुद्री मार्ग रूस और चीन को जोड़ने वाली एक अहम कड़ी बनकर उभरता दिख रहा है, जो समुद्री व्यापार के पारंपरिक मार्गों का सामरिक विकल्प मुहैया कराता है. इस बदलाव के साथ साथ ज़मीन से गुज़रने वाले व्यापार के गलियारों की महत्ता भी बढ़ती जा रही है. चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI), इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) और हाल ही में प्रस्तावित भारत मध्य पूर्व यूरोप गलियारा (IMEC) जैसी पहलें, महाद्वीपों के बीच व्यापार बढ़ाने के लिए केंद्रीय भूमिका में आती जा रही हैं. कनेक्टिविटी के ये बहुआयामी रास्ते न केवल वैश्विक व्यापार के माध्यमों में विविधता ला रहे हैं, बल्कि ये ऐसी दुनिया में बदलते गठबंधनों और आर्थिक प्राथमिकताओं की झलक भी दिखाते हैं, जहां आपूर्ति की पारंपरिक श्रृंखलाओं वाले मॉडलों को नई भू-राजनीतिक परिस्थितियों के हिसाब से ढाला जा रहा है. इन बदलावों का नतीजा, विश्व व्यापार के एक अधिक बंटे और प्रतिद्वंदी मंज़र के तौर पर सामने आएगा, जिसके अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर दूरगामी परिणाम देखने को मिलेंगे.
चीन का ‘हज़ार ज़ख्म देकर जान लेने’ वाला नुस्खा
चीन के लिए ताइवान से एकीकरण मौजूदा भू-राजनीति का एक संवेदनशील मुद्दा है. ताइवान को लेकर चीन का रुख़, फ़ौरी तौर पर पूर्ण सैन्य आक्रमण से ज़्यादा लंबे समय तक उलझाए रखने की रणनीति वाला अधिक है. वैसे तो चीन द्वारा ताइवान पर हमला करने की आशंका को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता. पर, ऐसे हमले के बाद जैसे जटिल अंतरराष्ट्रीय परिणाम देखने को मिलेंगे, उनको देखते हुए ये सबसे अधिक संभावित विकल्प नहीं माना जा रहा है. ऐसा लगता है कि चीन ने एक बहुआयामी तरीक़ा अपनाया हुआ है जिसमें सैन्य दबाव बढ़ाने के साथ साथ राजनीतिक घुसपैठ और सामाजिक आर्थिक दबाव बनाने की रणनीतियां शामिल हैं.
मौजूदा भू-राजनीतिक माहौल, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में ऐसा बदलाव ला रहा है, जो स्थायी हैं. ये ऐसा तथ्य है, जो अंतरराष्ट्रीय व्यापार और आर्थिक समीकरणों को नया आकार दे रहा है.
इस सधी हुई रणनीति का मक़सद, धीरे धीरे चीन के प्रतिरोध को कमज़ोर करना और उस पर चीन का दबदबा बढ़ाते जाना है. ताइवान जलसंधि और साउथ चाइना सी में सैन्य हरकतें, चीन के इरादों और सैन्य ताक़त का प्रदर्शन करने के लिए होती हैं. वहीं, राजनीतिक दांव-पेंचों का इस्तेमाल, ताइवान की जनता की राय प्रभावित करने और आज़ादी के लिए अंदरूनी समर्थन को कम करने के लिए किया जा रहा है, विशेष रूप से ताइवान द्वारा DPP के पूर्व उप-राष्ट्रपति लाइ चिंग-टे को राष्ट्रपति चुनने के बाद. व्यापारिक प्रतिबंधों जैसे आर्थिक क़दम, वित्तीय दबाव बनाने के लिए उठाए जा रहे हैं. चीन का ये सधा हुआ तरीक़ा, ताइवान के प्रति उसकी दूरगामी ‘हज़ार ज़ख्म देकर जान लेने’ की सामरिक नीति को दिखाता है, जिसमें ताइवान के साथ एकीकरण की ख़्वाहिश का तालमेल, सीधे संघर्ष के जोखिमों और अंतरराष्ट्रीय निंदा से बचने से बिठाया जा रहा है. इज़राइल फिलिस्तीन के बीच दो राष्ट्रों का समाधान क़रीब नज़र आ रहा है?
इज़राइल और हमास के बीच युद्ध, लंबे समय से अटका हुआ भू-राजनीतिक मुद्दा है. इसके 2024 में भी जारी रहने के मज़बूत संकेत दिख रहे हैं. वैसे तो इस संघर्ष के एक बड़े क्षेत्रीय युद्ध में तब्दील होने की आशंका को अभी कम करके आंका जा रहा है. लेकिन, हालात नाज़ुक तो बने ही हुए हैं. आने वाले कुछ महीनों में ये टकराव कुछ कम होने की संभावना भी दिखाई दे रही है. इज़राइल और फिलिस्तीन के संघर्ष के स्थायी समाधान यानी दो राष्ट्र वाले हल की लंबे समय से चली आ रही उम्मीद अंतरराष्ट्रीय परिचर्चाओं का विषय तो बनी हुई है. लेकिन, इसको हासिल करना जटिल है और इस राह में कई अहम मानवीय चिंताएं आड़े आ रही हैं. इस क्षेत्रीय समीकरण को और जटिल बनाने में मध्य पूर्व के दूसरे संघर्षों का असर भी अपनी भूमिका निभा रहा है. उल्लेखनीय रूप से ईरान के समर्थन वाले हूतियों द्वारा बाब अल मंदेब जलसंधि में कारोबारी जहाज़ों पर हमले का विश्व व्यापार पर बहुत असर पड़ता दिख रहा है. इस वजह से सामानों की ढुलाई करने वाले जहाज़ दक्षिण अफ्रीका के उत्तमाशा अंतरीप के रास्ते को अपना रहे हैं, जो ब्रिक्स का एक महत्वपूर्ण भागीदार देश है. ये घटनाएं मध्य पूर्व में फैले व्यापक तनावों को दिखाती हैं. इनसे भू-राजनीतिक प्रभावों के पेचीदा जंजाल के प्रभाव का पता चलता है, जो इस क्षेत्र और इसके बाहर भी शांति और सुरक्षा को लगातार चुनौती दे रहे हैं.
रूस की लंबी लड़ाई और यूरोप में लोहे की नई दीवार
जब हम 2024 के आगे के महीनों की तस्वीर पर नज़र डालते हैं, तो रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे मौजूदा युद्ध के समाधान के कोई फौरी लक्षण नज़र नहीं आते. आशंका यही है कि ये युद्ध आने वाले लंबे समय तक जारी रहेगा. हालांकि, कूटनीति के लिए उम्मीद की एक किरण ज़रूर दिखाई देती है, क्योंकि आने वाले कुछ महीनों में बातचीत की संभावनाएं दिखाई दे रही हैं. अगर ये परिचर्चाएं हक़ीक़त में तब्दील होती हैं, तो इस लंबे युद्ध का एक अहम मोड़ साबित होंगी. इस दौरान, रूस को बसंत ऋतु में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों के बीच में घरेलू राजनीति की काफ़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. इससे आने वाले वर्षों में रूस के राजनीतिक समीकरणों में कई बड़े बदलाव आने की संभावना बन सकती है.
इससे भी बड़ी बात ये कि यूक्रेन के विभाजन की आशंका एक चिंताजनक संभावना बनी हुई है. पश्चिमी देशों के बीच कोई एकजुट सामरिक सहमति न होने की वजह से ये जोखिम और बढ़ गया है, ख़ास तौर से यूक्रेन की जीत को लेकर अपेक्षित नतीजे और उसकी सीमाओं को 1991 में अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त स्थितियों पर दोबारा बहाल करने को लेकर पश्चिम में काफ़ी मतभेद हैं. यूरोपीय संघ (EU) के देशों की तरफ़ से सैन्य मदद पहुंचाने में देरी और सामरिक नज़रिए के अभाव ने न केवल कूटनीतिक हालात को जटिल बना दिया है, बल्कि इससे भविष्य में यूक्रेन की क्षेत्रीय अखंडता को लेकर भी अनिश्चितताएं पैदा हो गई हैं.
वैश्विक सुरक्षा के ढांचे में हो रहा ये महत्वपूर्ण बदलाव एक ऐतिहासिक मोड़ पर आ रहा है, जब नैटो अपनी स्थापना की 75वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है और जिसका जश्न वाशिंगटन में मनाया जाएगा.
आज जब दुनिया शीत युद्ध 2.0 के बढ़ते तनावों का सामना कर रही है, तो ऐसा लग रहा है कि यूरोप में लोहे की एक नई दीवार खड़ी हो रही है. इस बार ये दीवार नैटो (NATO) के पूर्वी छोर और रूस के पश्चिमी छोर पर खड़ी की जा रही है. इस भू-राजनीतिक विभाजन की लक़ीर के आर्टकिट से लेकर बाल्टिक देशों के सामरिक क्षेत्र, काला सागर और पूर्वी भूमध्य सागर तक खिंचने की आशंका है, जिसके दायरे में एक विशाल इलाक़ा आएगा और इसमें स्कैंडिनेविया, बाल्टिक देश, मध्य और पूर्वी यूरोप और तुर्की शामिल हों. यही नहीं, इस दीवार से एक बार फिर यूरोप उसी तरह बंटा हुआ नज़र आएगा, जैसा पहले शीत युद्ध के दौरान था. वैश्विक सुरक्षा के ढांचे में हो रहा ये महत्वपूर्ण बदलाव एक ऐतिहासिक मोड़ पर आ रहा है, जब नैटो अपनी स्थापना की 75वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है और जिसका जश्न वाशिंगटन में मनाया जाएगा. घटनाओं का ये प्रतीकात्मक मेल, तेज़ी से बदल रहे भू-राजनीतिक मंज़र और उभरते हुए ख़तरों का जवाब देने और अपनी उत्तरी और पूर्वी सीमा पर सुरक्षा को मज़बूत करने में नैटो की भूमिका की दोबारा बनती अहमियत रेखांकित हो रही है. इस नई बाधा का निर्माण एक भौतिक विभाजन से कहीं अधिक है; ये तो नैटो गठबंधन और उसके दुश्मनों के बीच गहरी होती वैचारिक और सामरिक दरार की नुमाइंदगी करता है, जो 21वीं सदी की भू-राजनीतिक व्यवस्था में बहुत बड़े बदलाव का प्रतीक है.
भारत की भूमिका
आने वाले वर्षों में दुनिया के समीकरणों में बहुत अहम बदलाव आने जा रहे हैं. ये बदलाव भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक क्षेत्रों में भारत के तय उभार से और अधिक रेखांकित होंगे. अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था और आबादी, सामरिक रूप से अहम भौगोलिक स्थिति और बढ़ते प्रभाव की वजह से भारत, विश्व मंच पर अधिक अहम भूमिका निभाने जा रहा है. ये उभार न केवल भारत के अपने विकास का प्रतीक है, बल्कि ये एक व्यापक चलन यानी, अंतरराष्ट्रीय मामलों को आकार देने में ग्लोबल साउथ की बढ़ती भूमिका का भी संकेत है. ये बदलाव ब्राज़ील की मेज़बानी में होने वाले G20 शिखर सम्मेलन और रूस में होने वाले ब्रिक्स सम्मेलन जैसे उच्च स्तरीय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ख़ास तौर से ज़ाहिर होने वाला है. ये मंच, भारत की अगुवाई में ग्लोबल साउथ के देशों को मौक़ा मुहैया कराएंगे कि वो वैश्विक आर्थिक नीतियों, विकास के एजेंडों और भू-राजनीतिक रणनीतियों पर अधिक प्रभाव डाल सकें. आज जब ये देश अपनी आवाज़ों और हितों को बुलंद आवाज़ में उठा रहे हैं, तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सत्ता और निर्णय प्रक्रिया की ताक़त के पारंपरिक संतुलन में बहुत बड़े बदलाव देखने को मिल सकते हैं, जिनसे वैश्विक प्रशासन में एक नए युग की शुरुआत का पता चलता है.
2024: महाचुनावों का साल
आख़िरी मगर बेहद महत्वपूर्ण बात ये है कि 2024 का साल वैश्विक राजनीति में मील का पत्थर साबित होने जा रहा है. इस साल चुनावों का एक ‘सुपर चक्र’ चलने जा रहा है. ये दौर, पूरी दुनिया में होने वाले कई अहम चुनावों. और इससे भी ज़्यादा अहम बात ये कि दुनिया भर के तमाम राजनीतिक हलकों में लोकवाद के उभार से रेखांकित हो रहा है, फिर चाहे वो वामपंथी हो या फिर दक्षिणपंथी. लोकवाद में आ रहे इस उभार से सियासी तंत्र के पारंपरिक खिलाड़ियों से जनता का मोह भंग होने और अधिक कट्टर और अक्सर राष्ट्रवादी विचारधाराओं के प्रति बढ़ते झुकाव का पता चलता है. इन चुनावों के नतीजों से नीतियों और गठबंधनों में नए बदलाव आने की आशंका है, क्योंकि राजनेता भी अधिक संरक्षणवादी और अलग थलग रहने वाले एजेंडे का पालन करेंगे. इस चलन से अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अस्थिरता बढ़ने, वैश्विक व्यापार एवं सुरक्षा की नीतियों में परिवर्तन और संभावित रूप से लंबे समय से चले आ रहे गठबंधनों में भी बदलाव देखने को मिल सकता है. ऐसे में 2024 का ‘चुनावी सुपर चक्र’ दुनिया के लिए एक महत्वपूर्ण मकाम है. ऐसा मकाम, जो आने वाले कई वर्षों के लिए वैश्विक राजनीति की दशा-दिशा को नए सिरे से निर्धारित कर सकता है.
निष्कर्ष
कुल मिलाकर आज जब दुनिया इस जटिल और उभरते भू-राजनीतिक मंज़र के साथ तालमेल बिठाने के लिए जूझ रही है, तब अमेरिका और रूस-चीन के गठबंधन के बीच खींचतान ही वैश्विक और तमाम क्षेत्रीय तनावों और तालमेल को निर्धारित करेंगे. शीत युद्ध 2.0 का विचार, मौजूदा अंतरराष्ट्रीय संबंधों की मूल भावना को प्रकट करने वाला है. इसमें सामरिक होड़, क्षेत्रीय संघर्षों, दुनिया के भू-राजनीतिक और तकनीकी विभाजन और सैन्य संघर्ष बढ़ने के ख़तरे जैसी ख़ूबियां नज़र आ रही हैं. इन तनावों का समाधान या हल न होना ही, निश्चित रूप से 21वीं सदी के भू-राजनीतिक ढांचे को आकार देने वाला है.
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